मार्कण्डेय शारदेय
ज्योतिष व धर्मशास्त्र विशेषज्ञ
यों तो नवरात्र के प्रत्येक दिन का वैशिष्ट्य है, फिर भी भगवती दुर्गा की आराधना में अष्टमी तथा नवमी इन दोनों तिथियों का विशेष महत्त्व है. इसका कारण है कि अष्टमी के स्वामी भगवान शंकर हैं, तो नवमी की स्वामिनी वह स्वयं. चूंकि दोनों में अभेद है, इसलिए दोनों इन तिथियों के अधीश हो ही जाते हैं. इसीलिए अन्य मासों की इन तिथियों में भी विश्वजननी की आराधना-उपासना फलप्रद है.
‘दुर्गासप्तशती’ में उन्हीं का कथन है कि इन तिथियों को जो भक्तिपूर्वक मधु-कैटभ के विनाश, महिषासुर-संहार एवं शुंभ-निशुंभ के वध से संबंधित ‘सप्तशती’ में वर्णित कल्याण-केंद्र देवी-माहात्म्य का पाठ करते हैं या सुनते हैं, उनके पाप नष्ट होते हैं, दरिद्रता दूर होती है तथा समस्त बाधाएं समाप्त होती हैं(12.2-5).
अन्य महीनों की अष्टमी तो केवल अष्टमी ही है, जबकि आश्विन शुक्लपक्षीय अष्टमी महाष्टमी है. ‘कालिकापुराण’ में आया है –
‘आश्विनस्य तु शुक्लस्य भवेद् या अष्टमी तिथिः।
महाष्टमी सा प्रोक्ता देव्याः प्रीतिकरा परा’।। (60.2)
जब अन्य अष्टमियां इतनी महिमामयी हैं, तो स्पष्ट है कि महाष्टमी की महिमा कितनी होगी! इसीलिए तो इसे ‘प्रीतिकरा परा’; यानी भगवती की प्रसन्नता को अत्यधिक बढ़ानेवाली मानी गयी है.
इसकी मानवृद्धि के कई कारण हो सकते हैं, जिनमें एक है कि इसी तिथि को करोड़ों योगिनियों के साथ प्रकट होकर भद्रकाली ने दक्ष के यज्ञ का विनाश किया था. दूसरा तो स्पष्ट ही है कि शारदीय नवरात्र को महापूजा कहा गया है, तो इसकी अष्टमी ‘महाष्टमी’ हो ही जाती है. यह विशिष्ट तिथि है, अतः इसमें विशेष व्रतोपवास, देवीपूजन करने का महत्त्व है-
‘अतोsष्टम्यां विशेषेण कर्तव्यं पूजनं सदा’।
अष्टमी को महागौरी की पूजा होती है. इस दिन रात्रि-जागरण के साथ विशिष्ट अनुष्ठान भी किया जाता है. चूंकि मध्यरात्रि में जिस दिन अष्टमी रहती है, उसी रात को जागरण एवं राजोपचार पूजन में नाना प्रकार के भोज्य, पेय पदार्थों का अर्पण होता है, इसलिए सप्तमी के बाद अष्टमी के आने पर भी उसी रात में निशापूजा होती है.
लेकिन सप्तमीविद्धा अष्टमी व्रतोपवास के लिए विहित नहीं, बल्कि अष्टमी-विद्धा नवमी में ही अष्टमीव्रत को उत्तम माना गया है. इसे शिवशक्ति रूपा व उमामाहेश्वरी तिथि कहा गया है. इस दिन जो उपवास करने में असमर्थ हैं, वे भी यथाशक्ति जगजननी की पूजा, स्तोत्रपाठ एवं कन्यापूजन कर सिद्धमनोरथ हो सकते हैं.
नवरात्र और कुमारी-पूजन
केवल नवरात्र ही नहीं, भगवती से संबंधित सभी तरह के अनुष्ठानों में देवीरूपा बच्चियों की पूजा का बड़ा महत्व है, क्योंकि-‘स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु’( समस्त संसार की सभी स्त्रियां भगवती के ही विभिन्न रूप हैं).
हमारे ऋषि-मुनियों ने किशोरावस्था से पूर्व, अर्थात् 2 वर्ष से 10 वर्ष तक की बच्चियों में देवी के नौ रूपों की, क्रमशःकुमारी, त्रिमूर्ति, कल्याणी, रोहिणी, कालिका, चण्डिका, शाम्भवी, दुर्गा तथा सुभद्रा- इन नौ नामों से प्रतिष्ठा दी है. उन्होंने कुमारी-पूजन को सभी तीर्थों और करोड़ों यज्ञों का फल देनेवाला बताया है.
हां, तंत्रशास्त्रों में (रुद्रयामल एवं बृहद्नील) में एकवर्षीया से षोडश वर्षीया तक देवियों का उल्लेख है, पर प्रचलित एवं प्रशस्त परंपरा द्विवर्षीया से दशवर्षीया कुमारियों की पूजा की ही है.
नवरात्र में हो सके तो प्रतिदिन एक, नौ या वृद्धिक्रम (1,2,3,..) से या, दुगुनी (2,4,6,..) या तिगुनी (3,6,9) कुमारियों को साक्षात् देवी मानकर सादर, सप्रेम आमन्त्रित कर पांव पखारकर विधिवत् पूजा कर सुस्वादु भोजन कराना चाहिए. दक्षिणा देकर और उनकी परिक्रमा कर ससम्मान विदा देनी चाहिए. इनका मंत्र पता न हो, तो इन नाममंत्रों से ही सविधि अर्चना की जा सकती है-
1. ऊँ कुमार्यै नमः, 2. ऊँ त्रिमूर्त्यै नमः, 3. ऊँ कल्याण्यै नमः, 4. ऊँ रोहिण्यै नमः, 5. ऊँ कालिकायै नमः, 6. ऊँ चण्डिकायै नमः, 7. ऊँ शाम्भव्यै नमः, 8. ऊँ दुर्गायै नमः,9. ऊँ सुभद्रायै नमः।
नवमी का कार्यसाधन में मूल्य
आश्विन शुक्ल नवमी को ही देवताओं द्वारा सम्पूजित दुर्गति-हारिणी दुर्गा मां ने देवों के लिए अबध्य महिषासुर का संहार का किया था. इसलिए इसका कार्यसाधन में मूल्य अधिक है.
ब्रह्मा स्वरूप है जौ
धर्मग्रंथों में जौ को ब्रह्मा माना गया है, इसलिए आदिकाल से पूजा-पाठ, हवन में जौ की आहुति देने की परंपरा है. इसका अर्थ है कि अन्न यानी जौ ब्रह्मा स्वरूप है, उसका सम्मान करना चाहिए.
ब्रह्मा ने की थी देवी की विशेष पूजा
‘कालिका पुराण’ के अनुसार नवमी को श्रीराम में प्रविष्ट हो महाशक्ति ने रावण का संहार किया. तब ब्रह्मा ने देवी की विशेष पूजा की और दशमी को शाबरोत्सव के द्वारा विदा की.