भारतीय कला में देवी
मनीष पुष्कले पेंटर भारतीय कला में विशेष कर उसकी चित्रकला, शिल्पशास्त्र और वास्तुकल में धार्मिक अनुष्ठानों के निमित्त से देवी के माध्यम से स्त्री के रूपक का विशेष स्थान रहा है. हम सभी जानते हैं कि प्राचीन काल में जिस प्रकार से चाहे वह चौंसठ योगिनी के मंदिर हों या विभिन्न शक्तिपीठ हों, ये सभी […]
मनीष पुष्कले
पेंटर
भारतीय कला में विशेष कर उसकी चित्रकला, शिल्पशास्त्र और वास्तुकल में धार्मिक अनुष्ठानों के निमित्त से देवी के माध्यम से स्त्री के रूपक का विशेष स्थान रहा है. हम सभी जानते हैं कि प्राचीन काल में जिस प्रकार से चाहे वह चौंसठ योगिनी के मंदिर हों या विभिन्न शक्तिपीठ हों, ये सभी स्थान हमारी पारंपरिक ऊर्जाओं के साथ धार्मिक अनुष्ठान से ओतप्रोत होते हुए हमारे सामाजिक मानस का अभिन्न अंग हैं, लेकिन समय के साथ हमारे समाज के आधुनिक कलाकारों ने भी देवी के इस रूपक के साथ अपना संबंध बनाया है.
कभी महिषासुर मर्दिनी, तो कभी दुर्गा, कभी काली, तो कभी कामधेनु के रूप में भारतीय कलाकार अपने पारंपरिक मूल्यों और सामाजिक विशिष्टताओं को टटोलते रहे हैं. इसी प्रसंग में सबसे पहले अबनींद्र नाथ टैगोर के द्वारा बनायी एक ऐसी कृति को याद करना बहुत आवश्यक लगता है और प्रासंगिक भी, जिसमें उन्होंने देवी की पारंपरिक छवि से प्रेरणा लेते हुए भारत माता की छवि गढ़ी थी.
इसके पहले भारत माता की आकृतिमूलक कल्पना इस प्रकार से नहीं की गयी थी. उसी प्रकार राजा रवि वर्मा ने भी भारतीय पौराणिक कथाओं, सामाजिक लोकोक्तियों और मिथकों से प्रेरित होकर देवी और देवताओं के ऐसे अनेक चित्र बनाये, जो आज भी हमारे समाज के मानस में विन्यस्त हैं.
इसी तर्ज में देश की आजादी के बाद ऐसे अनेक कलाकार हुए हैं, जिनकी रुचि और उनके रचनात्मक विचार की धुरी देवी के रूपक के ईर्द-गिर्द बनी रही.
इनमें से सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण प्रख्यात चित्रकार तैयब मेहता का है, जिन्होंने देवी के अनेक रूपों को चित्रित किया और उन्हें अपनी रचनाशीलता से समकालीन भी किया. तैयब मेहता की प्रसिद्ध चित्र कृति ‘महिषासुर मर्दिनी’ भारतीय समकालीन कला के सबसे प्रमुख उदाहरणों में से एक है.
इसी तर्ज पर उन्होंने ‘काली’ को भी चित्रित किया. वहीं बंगाल के प्रमुख चित्रकार बिकास भट्टाचार्य की दुर्गा पर केंद्रित शृंखला अपनी विशिष्ट शैली व सौंदर्यबोध के कारण अविस्मरणीय है. दक्षिण में लक्ष्मा गौण, रेडप्पा नायडू और एसजी वासुदेव उन प्रमुख कलाकारों में से हैं, जिनके चित्र-फलक पर देवी का रूपक लगातार बना रहा.
गुजरात में रिनी धुमाल भी अपने चित्रों में देवी शक्ति के माध्यम से स्त्री शक्ति को चित्रित करने के लिए विशेष रूप से जानी जाती हैं. वैसे ही दिल्ली के चित्रकार गोगी सरोजपाल ने स्त्री के वैशिष्ट्य को कामधेनु के रूपक से प्रकट करने का अद्भुत प्रयास किया है.
यह अपने आप में महत्वपूर्ण प्रसंग बन जाता है, जब हमारे समकालीन कलाकार अपनी पारंपरिक मान्यताओं, धारणाओं, रूपकों और उसकी विशिष्टताओं को अपने समय से ताकते हुए उन्हें समकालीन करने का प्रयत्न करते हैं.
यह कलाकार की नैतिक जिम्मेदारी भी होती है कि वह उन पारंपरिक मूल्यों में अपनी आधुनिक चेतना का सामंजस्य बैठाने का प्रयत्न करता रहे. आधुनिक कलाकार की रचनाशीलता व धर्म इस संघर्ष से न गुजरे, तो उसकी यात्रा अधूरी है.
बिना इस संघर्ष से गुजरे हुए कोई भी कलाकार न तो पूरी तरह आधुनिक हो सकता है और न ही पूरी तरह पारंपरिक. अंत में मैं मकबूल फिदा हुसैन की कृति ‘सरस्वती’ का भी उदाहरण देना चाहूंगा. मकबूल फिदा हुसैन ने लंबे अरसे तक प्रख्यात समाजसेवी बद्री विशाल पित्ती के सहयोग और लोहिया जी के सुझाव से हमारे प्राचीन लोकशास्त्रों का अध्ययन किया था.
यह बात हम सभी जानते हैं कि उन्होंने लोहिया जी के सुझाव से प्रेरित होकर रामायण और महाभारत पर केंद्रित चित्रों की एक विशिष्ट शृंखला तैयार की थी और उन्होंने उन चित्रों की प्रदर्शनी देश के विभिन्न ग्रामीण अंचलों में की थी. यह प्रसंग आधुनिक भारतीय संस्कृति के संवर्धन में बड़ा विशिष्ट स्थान रखता है.
नवरात्रि के इस पावन पर्व के अवसर पर हम मां दुर्गा के विभिन्न रूपों के माध्यम से शक्ति के विभिन्न आयामों को समझने का प्रयत्न करते हैं. शायद, मां दुर्गा की इसी विरलता के कारण और उनकी बहुरूपकता के कारण वे हमेशा से कलाकारों के मानस में एक विशिष्ट स्थान रखती हैं. आखिर यह भारतीय परंपरा की विशिष्टता ही तो है कि वह हमें एक मार्गीय होने के बजाय बहुमार्गीय होने का भी अवसर प्रदान करती है.