हिंगलाज मां तुम्हीं भवानी, महिमा अमित न जात बखानी
दक्षिण-पश्चिम पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में मकरान के सम्मोहक समुद्र तट पर सुरम्य हिंगोल राष्ट्रीय उद्यान है, जिसके मध्य से होकर हिंगोल नदी की वेगवती धारा प्रवाहित होती है. हिंगलाज माता का सुप्रसिद्ध मंदिर इसी नदी के किनारे एक पहाड़ी गुफा में अवस्थित है. इस विशाल राष्ट्रीय उद्यान का क्षेत्र इस प्रांत के तीन जिलों […]
दक्षिण-पश्चिम पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में मकरान के सम्मोहक समुद्र तट पर सुरम्य हिंगोल राष्ट्रीय उद्यान है, जिसके मध्य से होकर हिंगोल नदी की वेगवती धारा प्रवाहित होती है. हिंगलाज माता का सुप्रसिद्ध मंदिर इसी नदी के किनारे एक पहाड़ी गुफा में अवस्थित है. इस विशाल राष्ट्रीय उद्यान का क्षेत्र इस प्रांत के तीन जिलों में फैला है, जिनके नाम लासबेला, ग्वादर और अवरान हैं.
कराची से इस मंदिर तक पहुंचने के लिए सड़क मार्ग से 250 किमी की दूरी तय करनी पड़ती है. हाल ही में मैं अपने दो मित्रों के साथ जब इस यात्रा पर गया, तो हमने पाया कि दो चट्टानी तथा बीहड़ पहाड़ों को जोड़नेवाले पुल की मरम्मत चल रही थी.
हमने अपनी कार पुल के दूसरे सिरे पर पार्क की और चिलचिलाती धूप में पानी की बोतलें लेकर पांच किमी का पहाड़ी रास्ता नापने पैदल चल पड़े. खामोशी में डूबे इन पर्वतों के साथ ही इनके ऊपर खिंचे साफ आसमान पर एक सुकून-सा छाया था. इस पहाड़ी पगडंडी पर लगभग चालीस मिनट चलने के बाद जब हम माता मंदिर के मुख्य द्वार के निकट पहुंचे, तो वहां हमें हिंदू श्रद्धालुओं का एक जत्था मिला.
अतीत के विपरीत, इधर कुछ वर्षों से बलूचिस्तान प्रांत की एक के बाद दूसरी सरकारें इस मंदिर के चतुर्दिक निर्माण कार्य संचालित कर रही हैं, जिनमें माता के दर्शनार्थियों के ठहरने के लिए कई विश्राम गृह भी शामिल हैं. गुफा के सामने हाल ही में निर्मित एक छोटे चबूतरे पर टाइलें लगी थीं, जिन पर एक कंबल डाल केसरिया कमीज और सफेद शलवार पहने महाराज गोपाल बैठे थे. महाराज गोपाल सिंध में थट्टा से हैं. वे बताते हैं कि उन्होंने अपने गृह नगर में स्थित एक काली मंदिर में 25 वर्ष व्यतीत किये हैं.
लगभग एक दशक पूर्व वे हिंगलाज आये और फिर यहीं के होकर रह गये. लंबे, कृशकाय और दाढ़ी बढ़ाये महाराज ने पेडस्टल पंखे को हमारी ओर मोड़ते हुए कहा, ‘अतिथियों के रूप में भगवान आते हैं. आप सब पसीने से तरबतर हैं और मुझे पता है कि आप पैदल ही यहां तक पहुंचे हैं.’ फिर उन्होंने दूसरे पेडस्टल पंखे का रुख भी हमारी ओर करते हुए कहा, ‘इन पंखों से आपको थोड़ी राहत मिलेगी.’
इस उपमहाद्वीप के हिंदुओं के लिए हिंगलाज माता मंदिर का एक श्रद्धापूरित स्थान है. अप्रैल महीने में, जब इस मंदिर में ‘तीर्थ यात्रा’ नामक चार दिनों का धार्मिक अनुष्ठान आयोजित होता है, तो उस समय हर साल दसियों हजार श्रद्धालु यहां इकट्ठे होते हैं. कहा जाता है कि जब भगवान विष्णु ने देवी सती के शव को कई टुकड़ों में काटा, तो वे पूरे उपमहाद्वीप के विभिन्न हिस्सों में गिरे, जिनमें सती का सिर इसी स्थल पर गिरा था.
महाराज ने अपने पुत्र को हमारे लिए पानी लाने का निर्देश देते हुए बताया कि ‘कभी इस अवसर पर यहां एक लाख तक तीर्थ यात्री पहुंचा करते थे. पर इसका अर्थ यह नहीं कि श्रद्धालु सिर्फ अप्रैल में ही आते हैं. पाकिस्तान के हिंदू परिवार सालों भर यहां आते ही रहते हैं.’
बलूचिस्तान की राजधानी क्वेटा निवासी एक विद्वान श्याम कुमार के अनुसार, नाथपंथ के संस्थापक, गुरु गोरखनाथ सन् 600 ईसवी के आसपास इस तीर्थ का भ्रमण करने यहां आया करते थे. इसी तरह, सिंधी रहस्यवादी कवि शाह अब्दुल लतीफ भिटाई भी माता के दर्शनों के लिए यहां आया करते. उन्होंने हिंगलाज माता मंदिर के प्रति अपनी श्रद्धा निवेदित करने के लिए कई छंद भी रचे थे.
अतीत में हिंगलाज की तीर्थयात्रा बड़ी मुश्किलों से भरी थी. यहां के लिए कोई सड़क मार्ग नहीं होने की वजह से तीर्थयात्रियों को खासकर कराची से मंदिर तक पहुंचने के लिए पांव-प्यादे हफ्तों का सफर तय करना पड़ता था. कई तो मार्ग में ही काल कवलित हो जाते. रीमा अब्बासी अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘पाकिस्तान में ऐतिहासिक मंदिर: अंतरात्मा को एक पुकार’ में लिखती हैं,
‘वर्ष 1970 तक हिंगलाज आधुनिकता के स्पर्श से अछूता तथा अक्षुण्ण रहा. कराची से आनेवाले श्रद्धालु तीन दिनों की यात्रा के बाद ही यहां पहुंच पाते थे. इसके एक दशक बाद यात्रा का यह वक्त घटकर 20 घंटे रह गया और आज तटीय राजपथ से होकर कराची से यहां आने में मात्र चार घंटे लगते हैं.’
वर्तमान में यहां ज्यादातर श्रद्धालु सिंध से आते हैं, जहां की आबादी में हिंदुओं की खासी तादाद है. महाराज कहते हैं कि अभी भी सिंध और अन्य स्थलों से बहुत-से श्रद्धालु पैदल ही यहां आते हैं. यही कारण है कि इन पदयात्रियों के लिए मार्ग में भी कई सुविधाएं मुहैया की गयी हैं.
हिंगोल के पौराणिक आख्यान की जानकारी देते हुए महाराज गोपाल ने कहा, पहले यहां हिंगोली नामक एक कबीला रहता था, जिसका राजा हिंगोल था. इस कबीले के लोग हिंगलाज माता के भक्त थे. दरबारियों के बहकावे में आकर राजा हिंगोल सुरा-सुंदरियों के रस में डूब गया. अंततः, माता ने तलवार से उसका सिर काट डाला.
मगर इसके पूर्व, राजा ने माता से दो वरदान मांग लिये: पहला यह कि माता फिर से प्रस्तर प्रतिमा में परिवर्तित हो जायें और दूसरा, अच्छा या बुरा कोई भी व्यक्ति माता का शरणागत हो, तो माता उसका कल्याण करें.’
अंत में, महाराज के पुत्र से प्रसाद स्वरूप नारियल ग्रहण कर हम हिंगलाज
मंदिर से विदा लेते हैं.
(अनुवाद: विजय नंदन)