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पशुधन के सम्मान का सांस्कृतिक उत्सव है बांदना

राजेंद्र प्रसाद महतो ‘राजेन’ कुड़मी समुदाय की गाय-बैल एवं अन्य पशुधन व कृषि से संबंधित औजारों के आरदास का महान नेगाचारि व संस्कृति उत्सव है बांदना परब. सारे बिधि-बिधान गाय-बैल, कृषि व अन्य घरेलू उपयोगी उपकरण व पुरखों के सम्मान में आयोजित होती है. कृषि यंत्र व संसाधनों- जैसे हल, जुआइल, कुदाल, साबल, सहुआ, कुरअल, […]

राजेंद्र प्रसाद महतो ‘राजेन’

कुड़मी समुदाय की गाय-बैल एवं अन्य पशुधन व कृषि से संबंधित औजारों के आरदास का महान नेगाचारि व संस्कृति उत्सव है बांदना परब. सारे बिधि-बिधान गाय-बैल, कृषि व अन्य घरेलू उपयोगी उपकरण व पुरखों के सम्मान में आयोजित होती है. कृषि यंत्र व संसाधनों- जैसे हल, जुआइल, कुदाल, साबल, सहुआ, कुरअल, मइअ, गाइड़ी चाक, छाता-ठेएगा आदि के अलावा अन्य पारिवारिक उपयोगी एवं घर में सुरक्षित रखे सामान बाइंद, गरू, गाड़ी, खाटि, बाअटि, सेएरा, पहला, हाआड़ि, कुउड़ि, डोल, ढोल, नागड़ा, मादर आदि के कृषिमूलक कुड़मी समुदाय सदैव आदिकाल से आराधना करते आये हैं. इसके अलावे घर के साइकिल, मोटर साइकिल एवं अन्य वाहनों की पूजा करने का पारंपरिक प्रथा है. इस परंपरा को आज की अत्याधुनिक व वैज्ञानिक युग के परिवेश में भी कुड़मी समुदाय के बीच सहजता से देखा जा सकता है.

कुछ पारंपरिक नेगाचारि का बाखान-

तेल माखा : बांदना पर्व के 3,5,7, व 9 दिन पहले से गाय-बैलों के सींग में तेल मालिश की प्रक्रिया को तेल माखा के नाम से जाना जाता है. गाय, बैल व काड़ा के थकान मिटान के लिए तेल माखा रिवाज है. बांदना के दिन तेल के साथ सिंदूर भी लगाये जाते हैं.

जाहलि : नृत्य-संगीत व बाजा-गाजा के साथ बांदना के अवसर पर घर-घर जाकर बांदना नृत्य गीत के साथ पुरुष सामूहिक रूप से नृत्य करते हैं. जाहलिआ को पिठा एवं अन्य पकवान खिलाकर घर-घर में स्वागत किया जाता है. जाहलिआ को काली-झुली व गुड़ी के रंग से बनइआ के द्वारा प्रत्येक घर में हंसी ठिठोली के साथ रंगे जाते हैं.

काअचा दिआ : आमावस्या की संध्या चुनि (गुड़ी) ढेला की दीया-बत्ती दिखा कर व मड़दा घास खिला कर गाय-बैलों का स्वागत करने की एक विशिष्ट संस्कृति है.

चइक पुउरा : अपने पशुधन के स्वागत में कुलही से गहाइल घर के दुआइर तक सुंदर अल्पना बनाये जाते हैं. अल्पना पर गाय, बैल चलकर पार होने के बाद ही अन्य जानवर को चलने दिया जाता है.

भूत : गरइआ पूजा के लिए दो मिट्टी का छोटा – छोटा ढिप बनाकर ऊपर में गुंजा या अन्य फूल देकर पूजा करने की प्रथा है, इस ढिप को भूत कहा जाता है. भूत यानी अपने पूर्वजों की स्मृति का प्रतीक माना जाता है.

गरइआ : भूत के समीप गोहाल में मुर्गा-मुर्गी की बलि चढ़ाकर पूजा करने की विधि – विधान को गरइआ पूजा कहा जाता है. अपने पशुओं की सुरक्षा, उत्तम कृषि व समृद्धि के लिए गराम, धरम, बसुमाता के साथ-साथ अपने पूर्वजों की आराधना की जाती है.

मेएड़इर : धान की बालियां युक्त पौधों से मेएड़इर (मोड़) तैयार कर गाय बैल के साथ-साथ वृक्षों को भी बांधा कर सुरक्षा की कामना करते है. परिवार में सुख-शांति के लिए घर को भी मेएड़इर पहनाया जाता है. परिवार के मुखिया के द्वारा उपवास में रहकर मेएड़इर गाअथा जाता है.

जागर : आमास की रात मवेशियों को हरी घास खाने दिया जाता है और रात भर गोहाल में दिये जलाकर रखा जाता है ताकि दिये की रोशनी से रात को जब भी भूख लगे खा सके.

निमछा : घर की महिलाओं के द्वारा खापरा में आग लेकर, जाड़ा पत्ता के सहारे आग भरे खपड़ को पकड़ कर,सरसों जलाते हुए पशुधन को गोहाल से गाअमुड़ी तक ले जातीं है. गाअमुड़ी में खपरा को पल्टी करके बायें पैर से रौंद कर फेक देती है. ऐसा करके गाय-बैल की स्वास्थ्य की कामना करतीं हैं.

निषिद्ध : गाय बैल के सिंग में तेल लगने के बाद मवेशियों को पूर्णत: विश्राम में रखा जाता है. इसके बाद बैलों व भैसों से हल जोतना या अन्य किसी भी तरह का कृषि कार्य करना वर्जित रहता है. तेल माखा के पश्चात घर में विशेष कर मछली खाना मनाही रहता है. एेसा माना जाता है कि इस अवधि में आइस का प्रयोग करने पर पशु असुरक्षित होकर विभिन्न रोगों के शिकार होते हैं.

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