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इन्फोसिस मामला : जांच के बाद ही आयेगा सारा सच बाहर

संदीप बामजई एडिटर इन चीफ, आइएएनएस पिछले महीने 20 सितंबर को इन्फोसिस के कई कर्मचारियों ने दो पेज की चिट्ठी लिखी थी और इन्फोसिस के बोर्ड को भेजा था. उस चिट्ठी में बताया गया है कि इन्फोसिस में बहुत बड़ा घपला चल रहा है. यह स्टोरी सबसे पहले मैंने ही ब्रेक की थी कि अगर […]

संदीप बामजई

एडिटर इन चीफ, आइएएनएस

पिछले महीने 20 सितंबर को इन्फोसिस के कई कर्मचारियों ने दो पेज की चिट्ठी लिखी थी और इन्फोसिस के बोर्ड को भेजा था. उस चिट्ठी में बताया गया है कि इन्फोसिस में बहुत बड़ा घपला चल रहा है. यह स्टोरी सबसे पहले मैंने ही ब्रेक की थी कि अगर 20 सितंबर को यह चिट्ठी इन्फोसिस के बोर्ड को भेजी गयी, तो इन्फोसिस के चेयरमैन नंदन नीलेकणि और कंपनी बोर्ड की ऑडिट कमेटी 20 अक्तूबर यानी एक महीने तक चुप क्यों थे?

सबसे पहले हमने ही (आइएएनएस) इस चिट्ठी को छापा था. इस चुप्पी के पीछे कई कारण हो सकते हैं, जिससे इसमें और भी कुछ लोगों की मिलीभगत होने का पता चल सकता है. जब व्हिसिल ब्लोअर की चिट्ठी बाहर आयी, तब बीते 22 अक्तूबर को नंदन नीलेकणि ने इसकी स्वतंत्र जांच की बात कही. आखिर कंपनी के चेयरमैन ने एक महीने के भीतर जांच की बात क्यों नहीं की? ऐसे बहुत से सवाल हैं, लेकिन जब तक इनका जवाब मिलेगा, तब तक शेयरहोल्डरों का बहुत नुकसान हो चुका होगा.

इन्फोसिस में पहले भी एक बार घपला हुआ था, जिसमें सिर्फ एक व्हिसिल ब्लोअर ने भंडाफोड़ किया था. इस बार कई व्हिसिल ब्लोअर हैं. इस चिट्टी में उन्होंने लिखा है कि इन्फोसिस के सीईओ सलिल पारेख और सीएफओ निलांजन रॉय ने मिलकर किस तरह अनैतिक तरीके से फ्रॉड किया है.

दरअसल, एक डील में एक तिमाही के लाभ को अगली तिमाही में दिखाया गया है, ताकि मार्केट में प्रॉफिटेबिलिटी नंबर सबको ठीक लगे. मसलन, अगर एक तिमाही का लाभ दो सौ मिलियन है, लेकिन इस रकम को इस तिमाही में न दिखाकर अगली तिमाही में दिखाया जा रहा है, तो यह अनैतिक है और मार्केट नियमों के हिसाब से इसकी अनुमति ही नहीं है. यह एक तरह का फ्रॉड है. व्हिसिल ब्लोअरों ने ऐसे ही कई राज खोले हैं.अक्सर बड़ी-बड़ी कंपनियों में ऐसे घपले-घोटाले देश में बैठकर नहीं होते, बल्कि विदेशों से किये जाते हैं.

मसलन, एक भारतीय आईटी कंपनी विदेशों में सॉफ्टवेयर सेवाएं एक्सपोर्ट करती है. वैसे तो इसको एक्सपोर्ट में गिना जाता है, लेकिन एक तरह से यह इनविजिबल गुड्स (अदृश्य वस्तु) है. भारतीय कंपनियां विदेशी टेलीकॉम कंपनियों का काम करने के लिए उनके साथ कांट्रैक्ट साइन करती हैं, जिसमें दोनों कंपनियों के शीर्ष अधिकारी विदेशों में बैठकर आपस में बैठकर डील करते हैं, लेकिन वे क्या डील करते हैं, यह सब किसी को मालूम नहीं होता है.

इसी बात में घोटालों के बीज बोये जाते हैं, जो आगे चलकर कंपनी को डुबा देते हैं. दरअसल, ये डील बहुत बड़े होते हैं और एक-एक कांट्रैक्ट पांच-छह सौ मिलियन डॉलर या एक बिलियन डॉलर या इससे भी अधिक के होते हैं.

भारतीय रुपये में बात करें तो तीन-चार हजार करोड़ रुपये का एक कांट्रैक्ट होता है. ऐसे में अगर पैसे को लेकर जरा सी भी ऐसी ऊंच-नीच की गयी या इस तिमाही के लाभ को अगली तिमाही में दिखाया गया, तो कंपनी को बहुत बड़ा नुकसान हो सकता है और शेयरहोल्डरों का पैसा भी डूब जायेगा. अब देखना यह है कि जांच में यह फ्रॉड पकड़ा जाता है या नहीं. जांच के बाद ही ठोस नतीजे पर पहुंचा जा सकता है.

शिकायती पत्र की महत्वपूर्ण बातें

पिछली तिमाही में कर्मचारियों से कहा गया कि वीजा कॉस्ट जैसे कॉस्ट को पूरी तरह ना जोड़ा जाये, ताकि कंपनी का लाभ बेहतर दिखे. इस बात पर जब ऑडिटर ने एतराज जताया, तो मामले को स्थगित कर दिया गया.

2019-20 के मौजूदा तिमाही में कर्मचारियों पर दबाव बनाया गया कि वे एफडीआर कॉन्टैक्ट में पांच करोड़ डॉलर के अपफ्रंट पेमेंट के लौटाने का जिक्र न करें. ऐसा होने से तिमाही का लाभ कम होगा और असर शेयर की कीमतों पर पड़ेगा.

ऑडिटर्स और कंपनी के बोर्ड से अहम जानकारियां छिपायी गयीं. वेरिजॉन, इंटेल और जापान में जेवी, एबीएन एमरो जैसी बड़ी डील में राजस्व का मामला अकाउंटिंग स्टैंडर्ड के मुताबिक नहीं था. कर्मचारियों को निर्देश दिया गया था कि वे ऑडिटर्स को बड़ी डील की जानकारी ना दें. सीईओ द्वारा रिव्यू और अप्रूवल्स की अनदेखी की जा रही है और सेल्स टीम को निर्देश दिया गया कि वे अप्रूवल के लिए मेल ना करें.

सीएफओ ने कर्मचारियों से यह भी कहा कि बोर्ड का कोई भी सदस्य इन बातों को नहीं समझता है. जब तक शेयर का मूल्य ऊंचा है, वे खुश हैं. उन्होंने कंपनी के निदेशकों को डी सुंदरम और डीएन प्रह्लाद को ‘मद्रासी’ और किरण मजूमदार शॉ को ‘दिवा’ कहकर मजाक उड़ाया और कहा कि वे मूर्खतापूर्ण बातें करते हैं. कर्मचारियों को उन्हें नजरअंदाज करना चाहिए.

एक शिकायत में सीईओ की अमेरिका और मुंबई यात्रा से जुड़े आरोप भी हैं. आरोप है कि सीईओ सप्ताह में ढाई दिन ही बेंगलुरु में बिताते हैं, बाकी के दिन मुंबई रहते हैं. उनके सभी निजी यात्रा खर्च का भुगतान कंपनी करती है. वे ग्रीन कार्ड होल्डर हैं और अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान करों की कटौती से बचते हैं, जो कानून का उल्लंघन है.

2017 में भी हो चुका है विवाद

मौजूदा विवाद की शुरुआत इन्फोसिस के होम टाउन बंगलौर से हुई है, जिसे देश की तकनीक की राजधानी कहा जाता है. कंपनी एक ऐसे ही घटनाक्रम से साल 2017 में भी रूबरू हो चुकी है, जब नेतृत्व स्तर पर बड़ा बदलाव हुआ था. दो साल पहले भी व्हिसल ब्लोअर की शिकायत में 20 करोड़ डॉलर के अधिग्रहण में अनियमितता का आरोप लगाया गया था.

इसके बाद मामला गंभीर होता गया और कंपनी के सह-संस्थापक नारायणमूर्ति के साथ टकराव बढ़ गया. आरोपों के चलते विशाल सिक्का को हटा दिया गया. हालांकि, उनके खिलाफ लगे आरोप कभी साबित नहीं हुए.

सतर्कता और सावधानी से कंपनी कर रही जांच : सिक्का और पारेख दोनों बाहर से नियुक्ति किये गये ऐसे प्रोफेशनल्स हैं, जिन्हें पहली बार 38 साल पुरानी कंपनी को चलाने की जिम्मेदारी सौंपी गयी.

इससे पहले दशकों तक सह-संस्थापकों द्वारा कंपनी के सीईओ की भूमिका अदा की गयी. जनवरी, 2018 में पारेख के आने के बाद इन्फोसिस के शेयरों में 50 फीसदी की बढ़ोतरी हुई, जबकि सिक्का के तीन साल के कार्यकाल में औसतन 20 प्रतिशत की बढ़त हुई. दोनों के कार्यकाल में कंपनी के राजस्व में औसतन 25 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई. सिक्का और पारेख की इस्तीफे के दौरान कई शिकायतें की गयीं.

इसमें कई तरह के आरोप लगाये गये. लेकिन, मार्केट में इतना बड़ा प्रभाव कभी नहीं पड़ा, जितना कि सोमवार को एक समाचार पत्र में प्रकाशित खबर के बाद पड़ा है. लेकिन, अब कंपनी जल्दबाजी करने की बजाय बहुत सावधानी पूर्वक मामले की जांच कर रही है. व्हिसल ब्लोअर के पत्रों का परीक्षण कर रही है, साथ ही थर्ड पार्टी जांचकर्ता की नियुक्ति की है.

मार्केट में इन्फोसिस के सामने बढ़ रही है चुनौती : निवेशकों और विश्लेषकों के सामने खुद को बेहतर प्रदर्शित करने के लिए कंपनियां कई तरह का शॉर्ट कट लेती हैं. इन्फोसिस का मौजूदा संकट केवल कंपनी के लिए नहीं, बल्कि कॉरपोरेट इंडिया के लिए भी चिंता का विषय है. मौजूदा विवाद इन्फोसिस को गंभीर संकट में धकेल सकता है.

मार्केट में भी कंपनी के लिए तमाम तरह की चुनौतियां बढ़ रही हैं. सॉफ्टवेयर आउटसोर्सिंग इंडस्ट्री की सबसे बड़ी चुनौती है, जहां अाधुनिक तकनीकों में विशेषज्ञता के साथ नये प्रतिद्वंद्वी कांट्रैक्ट पर बढ़त बना रहे हैं. क्लाइंट तेजी से भुगतान-दर-घंटे आउटसोर्सिंग व्यवस्था से मुंह मोड़ रहे हैं, जिसके लिए इन्फोसिस और उसकी प्रतिद्वंद्वी टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज लिमिटेड स्पेशलाइज्ड हैं.

ऑपरेटिंग मार्जिन में गिरावट : इन्फोसिस के रेवेन्यू ग्रोथ में कमी आ रही है और ऑपरेटिंग मार्जिन तेजी से सिकुड़ रहा है. इससे उस दौर की समाप्ति का संकेत स्पष्ट है, जब कंपनी तिमाही-दर-तिमाही बेहतर प्रदर्शन कर रही थी और लगातार निवेशकों को आकर्षित कर रही थी.

कॉलेजों से निकलनेवाले इंजीनियरों के लिए इन्फोसिस का जॉब ऑफर बिल्कुल लॉटरी की तरह माना जाता था. ऐसी चुनौतियों के बीच पारेख ने ग्रोथ को जारी रखने का प्रयास किया. दोनों ने इनोवेशन, डिजिटल सर्विसेज और ऑटोमेशन और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के लिए कर्मचारियों को प्रशिक्षण पर निवेश भी किया.

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