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अयोध्या : पहली बार 200 साल पहले अंग्रेजी हुकूमत में उठा था यह मामला

राम मंदिर का मुद्दा पहली बार अंग्रेजी हुकूमत के वक्त आज से करीब 200 साल पहले उठा था. ब्रिटिश हुकूमत के वक्त साल 1813 में हिंदू संगठनों ने पहली बार यह दावा किया था कि यहां राम मंदिर था. उस वक्त भी दोनों पक्षों के बीच हिंसात्मक घटनाएं हुई थीं. ब्रिटिश सरकार ने साल 1859 […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 9, 2019 5:21 AM
राम मंदिर का मुद्दा पहली बार अंग्रेजी हुकूमत के वक्त आज से करीब 200 साल पहले उठा था. ब्रिटिश हुकूमत के वक्त साल 1813 में हिंदू संगठनों ने पहली बार यह दावा किया था कि यहां राम मंदिर था. उस वक्त भी दोनों पक्षों के बीच हिंसात्मक घटनाएं हुई थीं. ब्रिटिश सरकार ने साल 1859 में विवादित जगह पर तार की एक बाड़ बनवा दी. इसके बाद साल 1885 में पहली बार महंत रघुबर दास ने ब्रिटिश शासन के दौरान ही अदालत में याचिका देकर मंदिर बनाने की अनुमति मांगी थी.
नयी दिल्ली : पहली बार अयोध्या विवाद से संबंधित मामला जनवरी 1885 में कोर्ट पहुंचा था, जब महंत रघुवर दास ने फैजाबाद कोर्ट में मुकदमा दर्ज कर विवादित ढांचे में पूजा की इजाजत मांगी थी. इस पर 24 दिसंबर, 1885 को फैसला भी आ गया था.
इसके खिलाफ दायर अपील पर फैजाबाद कोर्ट ने 18 मार्च, 1886 को अपना फैसला सुनाया था. हालांकि, कोर्ट ने इस फैसले में संबंधित पक्षों को यथास्थिति रखने का आदेश दिया था. कोर्ट के इस फैसले के बाद 22 दिसंबर, 1949 तक वहां यथास्थिति बनी रही थी. बहरहाल, इलाहाबाद हाइकोर्ट ने विवादित भूमि को विभक्त करने का जो फैसला लिया था, वह निष्कर्ष एक अप्रैल, 1950 को दीवानी न्यायाधीश द्वारा पहले वाद में नियुक्त कमिश्नर शिव शंकर लाल द्वारा तैयार नक्शे के आधार पर निकाला गया था.
हाइकोर्ट के फैसले के अनुसार, मुस्लिम पक्षकारों ने इन नक्शों में दर्शाये गये परिमाप पर कोई आपत्ति नहीं की थी, लेकिन उनकी आपत्ति कमिश्नर की रिपोर्ट में विभिन्न हिस्सों को दिये गये नामों पर थी, मसलन, सीता रसोई, भंडार, हनुमान गढ़ी आदि. ये आपत्तियां पहले वाद में 20 नवंबर, 1950 के आदेश में शामिल की गयी थीं.
कोर्ट चाहता था कि इस अत्यंत संवेदनशील मुद्दे का बातचीत के माध्यम से शांतिपूर्ण समाधान खोजने के प्रयास हों. इसी उम्मीद के साथ मई, 2017 में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर ने कहा था कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच एक सदी से भी अधिक पुराने इस विवाद के समाधान के लिए पक्षकार यदि मध्यस्थों का चयन करते हैं तो वह प्रमुख मध्यस्थ के रूप में उनके साथ बैठने के लिए तैयार हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार दोहराया था कि इस प्रकरण को दीवानी अपील के अलावा कोई अन्य शक्ल देने की इजाजत नहीं दी जायेगी और यहां भी वही प्रक्रिया अपनायी जायेगी जो हाइकोर्ट ने अपनायी थी. 2018 में तत्कालीन सीजेआइ दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने इसे भूमि विवाद बताया था. 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या विवाद मामले में 40 दिन तक लगातार दलीलें सुनने के बाद अपना फैसला सुरक्षित रख लिया. सर्वोच्च अदालत का फैसला आने के बाद 134 साल से भी ज्यादा समय से चल रहे इस ऐतिहासिक मुकदमे का समाधान शनिवार को हो जायेगा.
पुनर्विचार याचिका दाखिल करने का रहेगा मौका
अयोध्या विवाद पर कोर्ट के फैसले के बाद हर पक्ष के पास पुनर्विचार याचिका (रिव्यू पिटीशन) डालने का मौका रहेगा. कोई भी पक्षकार फैसले को लेकर सुप्रीम कोर्ट से पुनर्विचार याचिका दाखिल कर सकता है, जिस पर बेंच सुनवाई कर सकती है.
हालांकि, कोर्ट को यह तय करना होगा कि वह पुनर्विचार याचिका को कोर्ट में सुने या फिर चैंबर में सुने. बेंच अपने स्तर पर ही इस याचिका को खारिज कर सकती है या फिर इससे ऊपर के बेंच को स्थानांतरित कर सकती है. हालांकि, कोर्ट के फैसले के अब तक के इतिहास बताते हैं कि बेंच अपने स्तर पर ही याचिका पर फैसला ले लेता है. सुप्रीम कोर्ट की ओर से पुनर्विचार याचिका पर फैसला सुनाये जाने के बाद भी पक्षकारों के पास एक और विकल्प होगा. कोर्ट के फैसले के खिलाफ यह दूसरा और अंतिम विकल्प है जिसे क्यूरेटिव पिटीशन (उपचार याचिका) कहा जाता है.
हालांकि, क्यूरेटिव पिटीशन पुनर्विचार याचिका से थोड़ा अलग है, इसमें फैसले की जगह मामले में उन मुद्दों या विषयों को चिन्हित करना होता है जिसमें उन्हें लगता है कि इन पर ध्यान दिये जाने की जरूरत है. इस क्यूरेटिव पिटीशन पर भी बेंच सुनवाई कर सकता है या फिर उसे खारिज कर सकता है. इस स्तर पर फैसला होने के बाद केस खत्म हो जाता है और जो भी निर्णय आता है, वही सर्वमान्य हो जाता है.
सभी को उम्मीद, फिर भी कर रहे संभावनाओं पर गौर
अब फैसले का समय करीब है तो सभी पक्ष यह उम्मीद लगाये बैठे हैं कि फैसला उनके पक्ष में होगा. सभी पक्ष अलग-अलग संभावित नतीजों पर गौर कर रहे हैं, वे संभावित नतीजे कुछ इस तरह हैं.
1. अगर इलाहबाद हाइकोर्ट का फैसला बरकरार रहा तो?
अगर ऐसा हुआ तो राम लला और निर्मोही अखाड़े में से मंदिर कौन बनायेगा? हिंदू पक्षों के बीच सहमति इस बात पर जरूर है कि राम मंदिर का निर्माण हो लेकिन निर्माण कौन करे, इसमें आपसी मतभेद है. निर्मोही अखाड़े के कार्तिक चोपड़ा कहते हैं कि जीत उनकी हुई तो मंदिर वे बनायेंगे, अगर पुराना फैसला बरकरार रहा तो हम हिंदू समाज और साधु-संतों के साथ मिलकर एक भव्य राम मंदिर का निर्माण करेंगे. विश्व हिंदू परिषद, हिंदुओं के दूसरे पक्ष रामलला विराजमान के साथ है. इसके एक वरिष्ठ अधिकारी चंपत राय कहते हैं कि मंदिर रामजन्म भूमि न्यास बनायेगा.
2. अगर फैसला सुन्नी वक्फ बोर्ड के पक्ष में आया तो?
हाल में कुछ मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने एक बयान में कहा था कि अगर अदालत का फैसला मुस्लिम पक्ष में जाये भी तो उन्हें इस स्थान को हिंदुओं के हवाले कर देना चाहिए. लेकिन, मुस्लिम पक्ष की ओर से पक्षकार इकबाल अंसारी इस सुझाव से सहमत नहीं हैं. वे कहते हैं कि अभी फैसला आया नहीं है. निर्मोही अखाड़ा मुस्लिम पक्ष को एक दावेदार की हैसियत से मान्यता जरूर देता है, लेकिन उसे उम्मीद है कि अदालत का फैसला उसके पक्ष में आयेगा. राम लला विराजमान के मुख्य पुजारी सत्येंद्र दास कहते हैं कि ऐसा नहीं होगा. वे कहते हैं कि हमारे प्रधानमंत्री कह चुके हैं कि पहले आप कोर्ट पर विश्वास कीजिए.
3. अगर फैसला रामलला के हक में जाता है तो क्या होगा?
रामलला की तरफ से जो मुकदमा फाइल किया गया है, वह उसकी तरफ से अपने आपको रामलला का दोस्त मानता है. परम मित्र और परम सेवक (रामलला का) तो निर्मोही अखाड़ा ही है.
रामलला की असली लड़ाई कोर्ट में निर्मोही अखाड़ा की तरफ से है. रामलला विराजमान के मुख्य पुजारी सत्येंद्र दास कहते हैं कि फैसला चाहे जिस हिंदू दावेदार के पक्ष में हो राम मंदिर के निर्माण में सबकी सहमति है. वे कहते हैं कि अगर फैसला रामलला के पक्ष में आता है तो सभी हिंदुओं की विजय होगी. सुन्नी वक्फ बोर्ड के इकबाल अंसारी के अनुसार अदालत जिसके पक्ष में फैसला करेगी, उन्हें स्वीकार होगा.

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