महाराष्ट्र : दुविधा में कांग्रेस, वैचारिक राजनीति का अवसान
संजय कुमार, राजनीतिक टिप्पणीकार महाराष्ट्र के राजनीतिक घटनाक्रम से स्पष्ट है कि विचाराधारा की राजनीति का अब ज्यादा कोई मायने नहीं रह गया है. हम पहले भी कहते रहे हैं कि मौजूदा राजनीति में नैतिकता और विचाराधारा का तेजी से अवसान हो रहा है. महाराष्ट्र में पिछले दिनों से तीन दलों शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस […]
संजय कुमार, राजनीतिक टिप्पणीकार
पूरे मामलों में अगर चारों पार्टियों की स्थिति देखें, तो सबसे ज्यादा दुविधापूर्ण स्थिति कांग्रेस की थी. एक तरफ तो भाजपा का विरोध करना और उसे सत्ता से बाहर रखना है, वह चाहती थी कि हर हाल में गैर-भाजपा सरकार बने, इसके लिए वह लगातार प्रयासरत थी. इस मजबूरी में कांग्रेस को शिवसेना के साथ जाना पड़ रहा था और कांग्रेस ने इसके लिए मन भी बना लिया था. लेकिन, इस फैसले पर कांग्रेस के राष्ट्रीय और महाराष्ट्र कैडर के कई नेताओं में असमंजस की स्थिति थी. पार्टी का एक धड़ा चाहता था कि भाजपा को बाहर रखने के लिए जरूरत पर शिवसेना के साथ चले जायें. जबकि अन्य धड़े का मानना था कि विचारधारा के साथ यह बहुत बड़ा समझौता था. यह एक प्रकार से यू-टर्न है, एक तरफ तो आप धर्मनिरपेक्ष राजनीति करते हैं और अल्पसंख्यकों के हितों की बात करते हैं और दूसरी तरफ आप ऐसी पार्टी के साथ सरकार बनाने जा रहे हैं, जो आपके विचारों की घोर विरोधी है. एक पक्ष खुल कर सामने नहीं आ रहा था. इसकी वजह बहुत साफ थी कि कांग्रेस के भीतर बहुत अंतरविरोध था. महाराष्ट्र की राजनीति में ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति भी कांग्रेस में स्पष्टता का अभाव साफ तौर पर दिखता है.
महाराष्ट्र की राजनीति के बाहर देखें, तो सचिन पायलट ने कहा है कि कांग्रेस भव्य राम मंदिर बनाने का समर्थन करती है. अब सवाल है कि कांग्रेस के किसी नेता के लिए यह कहना मुश्किल है कि वे राममंदिर के पक्ष हैं या इसके खिलाफ. तटस्थ रहना भी अब कांग्रेस के लिए मुश्किल होता जा रहा है. अब कांग्रेस के बड़े नेता संभल कर बयान दे रहे हैं. सचिन पायलट बड़े राज्य के उपमुख्यमंत्री हैं. उनके बयान के मायने हैं. महाराष्ट्र मामले में भी कांग्रेस के नेताओं में स्पष्टता नहीं थी. पार्टी के भीतर खींचतान चल रही है. जिस पार्टी का इतने वर्षों तक वर्चस्व रहा है, उसे अब जनता नकारते हुए दिख रही है. अगर जनता ने आपकी विचारधारा को नकार दिया और आप अपनी विचारधारा पर टिके रहे, तो शायद कांग्रेस का वह हाल होने लगेगा, जो वाम दलों का हाल हो गया. कांग्रेस में लोग तय नहीं कर पा रहे हैं कि वे कितना उदार हिंदुत्व पर जायें और कितना अल्पसंख्यक हितों के लिए अंतिम पक्षधर हों. कांग्रेस की यही सब दुविधा महाराष्ट्र में दिखायी दी.
इसमें दो राय नहीं कि तीन पार्टियों के बीच आपसी विमर्श में काफी वक्त लगा. अगर वे कुछ दिन पहले सहमति पर पहुंच गये होते, तो आज वे सरकार बना पाने की स्थिति में होते. लेकिन, मेरा यह भी मानना है कि अगर इस प्रकार का गठबंधन होने जा रहा था, जहां दो पार्टियां बिल्कुल दो ध्रुव पर खड़ी थीं, तो उस पर जल्दबाजी का कोई फायदा भी नहीं था. जल्दबाजी करने से सरकार की स्थिरता पर असर पड़ता. वैचारिक तौर पर बिल्कुल विरोधी दो पार्टियों को मिल कर सरकार बनाना था, तो उनके लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम का होना आवश्यक था. मुझे लगता है कि तीनों पार्टियां आपसी विमर्श करके इसी रास्ते पर आगे बढ़ रही थीं. वे कोशिश में थे कि जिस पार्टी की जो भी विचारधारा हो, उसे किनारे रखकर मूल मुद्दों पर सर्व सहमति बने. देरी जरूर हो रही थी, वह लाजिमी भी थी, क्योंकि बातचीत दो घोर विरोधी पार्टियों के बीच चल रही थी.
इस पूरे मामले में शरद पवार बातचीत और अपने पक्ष का नेतृत्व कर रहे थे. ऐसे में अजित पवार की भूमिका सीमित थी. अब अजित पवार ने जो फैसला लिया है, वह मौकापरस्ती है. इसमें नहीं लगता है कि बहुत विश्लेषण की जरूरत है. अजित पवार ने मौका देख कर फायदा उठाया है. उन्हें उप मुख्यमंत्री पद दे दिया है, लिहाजा उन्होंने भाजपा का समर्थन कर दिया. अब सवाल है कि सचमुच अजित पवार के साथ कितने विधायक हैं. जिस दिन विश्वास मत हासिल किया जायेगा, तभी यह सब स्पष्ट हो पायेगा. यहां अजित पवार ने कोई बदले की भावना लेकर यह फैसला किया है, ऐसा नहीं लगता. उन्हें पार्टी में दरकिनार किया जा रहा था या कोई पुरानी वजह थी, जिससे उन्होंने भाजपा के साथ जाने का फैसला किया, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है. ऐसा नहीं है कि शरद पवार के खिलाफ कोई खटक थी या पार्टी में उनकी अहमियत कम हो रही थी, जिससे उन्होंने बदला लिया है. उन्होंने बस मौका देखा और वे भाजपा के समर्थन में चले गये.