आलू व टमाटर की करें वैज्ञानिक तरीके से खेती
आलू दुनिया में सबसे ज्यादा लोकप्रिय और सबसे ज्यादा प्रयोग की जाने वाली सब्जी है. आलू पूरी दुनिया में उगाया जाता है. चीन व रूस के बाद आलू उत्पादन में भारत तीसरे स्थान पर है और भारत में उत्तर प्रदेश व पश्चिम बंगाल के बाद आलू का सबसे अधिक उत्पादन बिहार में होता है. पौष्टिक […]
आलू दुनिया में सबसे ज्यादा लोकप्रिय और सबसे ज्यादा प्रयोग की जाने वाली सब्जी है. आलू पूरी दुनिया में उगाया जाता है. चीन व रूस के बाद आलू उत्पादन में भारत तीसरे स्थान पर है और भारत में उत्तर प्रदेश व पश्चिम बंगाल के बाद आलू का सबसे अधिक उत्पादन बिहार में होता है. पौष्टिक तत्वों से भरपूर होता है. इसका मुख्य पौष्टिक तत्व स्टार्च होता है. इसमें कुछ मात्रा उच्च जैविक मान वाले प्रोटीन की भी होती है. आलू क्षारीय होता है, इसलिए यह शरीर में क्षारों की मात्रा बढ़ाने या उसे बरकरार रखने में बहुत सहायक होता है. यह शरीर में ऐसीडोसिस भी नहीं होने देता है.
आलू फसल की वृद्धि व विकास के लिए 22 से 240 सेंटीग्रेड एवं कंद बनने के लिए 18 से 200 सेंटीग्रेड तापमान उपयुक्त होता है. यह तापमान राज्य में अक्तूबर से मार्च तक पाया जाता है. दिन का तापमान 200 सेंटीग्रेड से अधिक एवं रात का तापमान 140 सेंटीग्रेड से कम होने पर अगेती झुलसा रोग का प्रकोप बढ़ जाता है जिस कारण उपज में भारी गिरावट होती है.
इसलिए आलू की फसल को वैज्ञानिक तरीके से उचित देखभाल जरूरी है. सिंचाई के समय आलू के मेड़ दो तिहाई से ज्यादा नहीं डूबने चाहिए. प्रथम पटवन के बाद 50 किग्रा यूरिया एवं 35 से 40 किग्रा पोटाश का प्रयोग कर मिट्टी चढ़ा दें. मिट्टी चढ़ाने के समय यह ध्यान देना होता है कि आलू का दाना नहीं दिखे.
झुलसा रोगयह रोग एक प्रकार का फफूंद के कारण होता है. यह रोग फसल के किसी भी अवस्था में हो सकता है. प्रारंभ में निचले पत्ते संक्रमित होते हैं. सर्वप्रथम पानी से लथपथ धब्बे पत्ती पर दिखाई पड़ता है. आमतौर पर निचली पत्तियों की युक्तियों या किनारों पर जहां पानी या ओस इक्ट्ठा होता है वहां पर धब्बा तेजी से बढ़ता है.
धब्बा के आसपास एक व्यापक पीला प्रभावमंडल देखा जाता है. जैसे जैसे मौसम नम एवं ठंडा होता है रोग की तीव्रता बढ़ती जाती है. इस रोग से बचाव के लिये जब पौधा 8 पत्ती का हो जाय तो मैंकोजेब 2 किग्रा रसायन को 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए. छिड़काव 10 से 15 दिनों के अंतराल पर दुहराना चाहिए.
लाही कीट
इस कीट के अप्सरा एवं वयस्क दोनों पर्ण समूह से रस चूसते हैं. नयी वृद्धि रूकी एवं रूखी हो जाती है. इस कीट से प्रभावित पौधे की पत्तियों का रंग मोजैक रंग का हो जाता है. पत्तियां सिकुड़ व मुड़ जाती हैं. इस कीट से बचाने के लिये एजाडायरेक्टीन 1500 पीपीएफ रसायन को 3 मिली प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए.
कजरा पिल्लू
यह एक प्रकार का कीट है. इसके कैटरपिलर (पिल्लू) फसल को नुकसान पहुंचाता है. ये रात को नये कोमल तना एवं शाखाओं को या जमीन के अंदर के कंदों को भोजन के रूप में ग्रहन करता है या कुतरकर क्षति पहुंचाती है. प्रारंभिक अवस्था में युवा पौधों को काटता है या फिर कोमल तना एवं शाखाओं का भोजन करता है. जिससे फसल को भारी क्षति होती है.
बचाव के उपाय
इस पिल्लू से फसल को सुरक्षित करने के लिये क्लोरोपायरीफाॅस 50 ई जच1.5 मिली या लेम्ब्डा सायहोलोथ्रीन 2 मिली प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए. आलू की खुदाई के लगभग 8 से 10 दिन पूर्व लत्तर को मिट्टी की सतह से काटकर हटा देना चाहिए. इस प्रकार करने से आलू का छिलका मोटा एवं शक्त हो जाता हैं.
टमाटर से हो सकती है अच्छी आमदनी
टमाटर भारत में सालों भर उगायी जाने वाली फसल है. मानव शरीर के लिए बहुत ही पौष्टिक आहार है. पौष्टिक आहार
होने के साथ ही विभिन्न प्रकार के भोजन को स्वादिष्ट भी बनाता है. भोजन में इसका उपयोग प्रतिदिन किया जाता है. इसका उपयोग सब्जी के अलावा सूप, सलाद, चटनी, साॅस आदि के रूप में किया जाता है. बिहार के सभी जिलों में इसका उत्पादन होता है. लेकिन इसकी खेती पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है. इसकी खेती व फसल की देखरेख वैज्ञानिक तरीके से कर किसान अच्छी आमदनी कर सकते हैं.
प्रमुख रोग व बचाव
अगेती झुलसा व इसके लक्षण :
इस रोग से ग्रसित पौधों के किनारे के भाग पर अनियमिताकार मेंढ़क की आंख के समान त्रिकोणीय धब्बा दिखाई देता है. धब्बे के बाहरी किनारे पर पीलापन होता है. धब्बा जमीन के ऊपर सभी पत्तियों पर दिखाई देता है.
बचाव के उपाय
गर्मी में खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए.
रोगमुक्त बीज को बोना चाहिए.
उचित फसल चक्र अपनाना चाहिए.
पौधों के संक्रमित पत्तियों को जलाकर नष्ट कर देना चाहिए.
इसकी रोकथाम के लिए क्लोरोथैलोनील के 0.02 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिए.
अवशेष को नष्ट करें
खेत व खेत के किनारे उगे हुए खरपतवार एवं फसल
कटने के बाद फसल अवशेष को नष्ट कर देना चाहिए. उचित फसल चक्र अपनाना चाहिए. रोकथाम के लिए क्लोरोथैलोनील के 0.02 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिए.
आर्द्र गलन
आर्द्र गलन रोग पौधों के किसी भी अवस्था में हो सकता है. लेकिन
शुरू अवस्था में इस रोग से अधिक हानि होती है. इस रोग के जीवाणु मिट्टी में रहते हैं जो बीज में सड़न उत्पन्न करता है और पौधे के तनों को भूमि की सतह से गला देता है. पुराने पौधों के तने काॅलर के ऊपर व नीचे सड़कर सिकुड़ जाता है. अंत में पौधा सड़े हुए भाग से जमीन पर गिर जाता है.
बचाव के उपाय
पौधषाला में जल निकासी की अच्छी व्यवस्था
होनी चाहिए. क्यारी जमीन की सतह सेे 15-20 सेमी ऊंची बनाने की जरूरत होती है. पौधशाला को 2-3 सप्ताह के लिए पारदर्शी पाॅलीथीन से ढंक देना चाहिए.
बीज को बोने से पूर्व क्यारी में 50 ग्राम ट्राइकोडर्मा विरीडी प्रति वर्ग मीटर की दर से सड़ी गोबर की खाद या वर्मी कम्पोस्ट में मिलाकर करनी चाहिए.15 दिनों के अन्तराल पर काॅपर आॅक्सीक्लोराइड की 3 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए.
धड़ गलन
रोग ग्रसित पौधा अचानक मुरझाकर सूखने लगता है. पौधों के धड़ व मूल पर सफेद दाने जैसे फफूंद निकल जाता है.
बचाव के उपाय : गर्मी में खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए. 15 दिनों के अन्तराल पर काॅपर आॅक्सीक्लोराइड की 3 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में मिलाकर 20 मिली प्रति पौधा की दर से प्रयोग करना चाहिए.
फफूंदजनित उखटा व इस रोग के लक्षण
इस रोग में पौधों की निचली पत्तियां पीली हो जाती हैं और बाद में झड़ जाती है. पत्तियों का झड़ना धीरे-धीरे पौधे में नीचे से ऊपर की ओर बढ़ता है. मुड़झाये हुए पौधें का तना नीचे की ओर सिकुड़ जाता है. ग्रसित तने के संवाहक उतक भूरा रंग का हो जाता है. कभी-कभी पूरा पौधा पीला पड़ जाता है.
बचाव के उपाय : खेत में पोटाश का प्रयोग करना चाहिए. पौधा लगाने के पूर्व बिचड़े को 0.2 प्रतिशत कार्बेन्डाजीम के घोल में 5 मिनट तक डुबाकर रखने के बाद रोपाई करनी चाहिए. रोग का प्रकोप देखते ही 0.1 प्रतिशत कार्बेन्डाजीम के घोल से भूमि का उपचार करना चाहिए. 15 दिनों के अन्तराल पर काॅपर आॅक्सीक्लोराइड की 3 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में मिलाकर 20 मिली लीटर प्रति पौधा की दर से प्रयोग करना चाहिए.
जीवाणुजनित उखटा
इस रोग से ग्रसित पौधे अचानक ही सूखने लगता है. पत्तियां झड़ने लगती हैं व यह रोग खेत में कहीं-कहीं समूह में लगता है. इसका संक्रमण प्रायः जड़ तथा तने से आरंभ होता है.
बचाव के उपाय : रोगग्रस्त पौधों को जला देना चाहिए. गाय की गोबर की 50 ग्राम मात्रा प्रति पौधा डालने के बाद सिंचाई करनी चाहिए.