”जनादेश विश्लेषण” : झारखंड सरकार के प्रति असंतोष से हारी भाजपा, पढ़ें ये खास रिपोर्ट

झारखंड में रघुवर दास सरकार की चुनावी हार पर राजनीितक दलों के साथ-साथ आम लोगों में भी मंथन शुरू हो चुका है. ऐसे में प्रभात खबर ने चुनाव विश्लेषण में महारत रखनेवाली संस्थाओं सीएसडीएस और लोकनीति के विद्वानों की मदद से यह बताने की कोशिश की है कि इस जनादेश को कैसे देखें और समझें. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 26, 2019 3:32 AM

झारखंड में रघुवर दास सरकार की चुनावी हार पर राजनीितक दलों के साथ-साथ आम लोगों में भी मंथन शुरू हो चुका है. ऐसे में प्रभात खबर ने चुनाव विश्लेषण में महारत रखनेवाली संस्थाओं सीएसडीएस और लोकनीति के विद्वानों की मदद से यह बताने की कोशिश की है कि इस जनादेश को कैसे देखें और समझें. जनादेश में निहित भावनाओं को समझना नयी सरकार के लिए भी जरूरी है, क्योंकि यही उसके लिए गाइडलाइन का काम करेंगी. चार दिनों तक चलनेवाली इस शृंखला ‘जनादेश विश्लेषण’ में आज उन मुख्य पहलुओं को सामने लाने की कोशिश की गयी है जिनके चलते भाजपा को हार का सामना करना पड़ा, जबकि झामुमो के नेतृत्ववाले गठबंधन ने शानदार जीत दर्ज की.

झारखंड का चुनावी फैसला स्थानीय मुद्दों और राज्य के नेतृत्व पर मतदाताओं की स्पष्ट प्रतिक्रिया है. गुजरात विधानसभा चुनाव से ही पूरे देश में यह रुझान बना है कि राज्यों के चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों और पार्टियों के केंद्रीय नेताओं के असर से ज्यादा स्थानीय विशिष्टताओं पर ही केंद्रित रहते देखे जा रहे हैं. झारखंड में सीएसडीएस-लोकनीति के मतदान बाद सर्वेक्षण (पोस्ट पोल सर्वे) में सामने आये आंकड़े, चुनावी नतीजों में स्थानीय पहलुओं और बदले घटनाक्रमों की मुख्य भूमिका पर ही मुहर लगाते हैं. हर 10 में से चार से अधिक मतदाताओं (43%) ने यह संकेत दिया कि मतदान के लिए अपनी पसंद चुनते समय उनके लिए सबसे अहम वजह आर्थिक मुद्दे थे. एक मायने में, राज्य सरकार की हार को लोगों के जीवन को प्रभावित करनेवाले मुख्य आर्थिक मुद्दों पर उसके लचर रवैये के खिलाफ जनादेश के रूप में देखा जा सकता है.

यहां यह जिक्र करना अहम है कि मतदान बाद सर्वेक्षण में, आधे से अधिक मतदाताओं (55%) ने विदाई रघुवर दास सरकार के प्रति असंतोष जाहिर किया. जबकि पांच साल पहले, 2014 के विधानसभा चुनाव में उस समय की हेमंत सोरेन सरकार से महज एक-तिहाई मतदाता (34%) ही असंतुष्ट थे. पूर्व के सर्वेक्षणों ने यह दिखाया है कि जब सत्तारूढ़ सरकार के खिलाफ मतदाताओं में असंतोष का स्तर ऊंचा रहा है तो अक्सर ही उन सरकारों को सत्ता से बेदखल होना पड़ा है. झारखंड भी इसका अपवाद साबित नहीं हुआ.

इसी से जुड़ा एक और पहलू सत्तारूढ़ मुख्यमंत्री की स्वीकार्यता का है. जब बिना कोई विकल्प दिये मतदाताओं से यह पूछा गया कि वे अगले मुख्यमंत्री के रूप में किसे देखना चाहते हैं, तो हर 10 में से एक से कुछ ही अधिक मतदाताओं (14%) ने रघुवर दास का नाम लिया. जबकि, हेमंत सोरेन का नाम पांचवें हिस्से से अधिक मतदाताओं (21%) ने लिया था. सत्तारूढ़ मुख्यमंत्री और उन्हें चुनौती देनेवाले के बीच सात प्रतिशतता अंकों (परसेंटेज प्वाइंट) का यह अंतर दिखाता है कि राज्य स्तरीय नेताओं की लोकप्रियता किस तरह चुनावी नतीजों पर असर डाल सकती है. किसी सत्तारूढ़ मुख्यमंत्री के इतने अलोकप्रिय होने का उदाहरण शायद ही कोई है.

पिछले एक ठीकठाक समय से, भारतीय मतदाता राष्ट्रीय स्तर के चुनावों और राज्य के चुनावों के बीच एक स्पष्ट विभाजन रेखा बना रहे हैं. आंकड़े साफ बताते हैं कि राज्य के चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दों को कम प्राथमिकता दी जा रही है. विधानसभा चुनाव में स्थानीय मुद्दे और आर्थिक पहलुओं का असर अहम भूमिका निभाते दिखते हैं. कई सूचक हैं जो इस तथ्य की ओर इशारा करते हैं.

यहां यह जिक्र जरूरी है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में जिन लोगों ने भाजपा को वोट किया था, ऐसे हर पांच से दो मतदाता ने इस बार दूसरी पार्टी को वोट किया. भाजपा के मतदाताओं में से, हर 10 में से केवल दो ने यह कहा कि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ख्याल करके पार्टी को वोट किया है. इसके साथ ही यह उल्लेख भी जरूरी है कि दूसरे कार्यकाल के बाद से मोदी सरकार की लोकप्रियता में झारखंड में गिरावट आयी है. 2019 के लोकसभा चुनाव के समय, सर्वेक्षण में शामिल झारखंड के मतदाताओं में से तीन-चौथाई ने केंद्र सरकार के कामकाज पर संतोष जताया था. लेकिन झारखंड विधानसभा चुनाव के मतदान बाद सर्वेक्षण में आधे से कम मतदाताओं (47%) ने केंद्र सरकार के कामकाज पर संतोष जाहिर किया. अगर लोकसभा चुनाव के समय एक-चौथाई मतदाता केंद्र सरकार के कामकाज से पूरी तरह संतुष्ट थे, तो झारखंड विधानसभा चुनाव में ऐसे लोगों की संख्या गिरकर कुल का सातवां हिस्सा ही रह गयी. 2019 के लोकसभा चुनाव में केवल एक चौथाई लोग केंद्र सरकार के काम से असंतुष्ट थे, जबकि झारखंड विधानसभा चुनाव के समय ऐसे लोगों की संख्या बढ़कर आधे के करीब (47%) पहुंच गयी. इन रुझानों के निहितार्थ महत्वपूर्ण हैं. केंद्र सकार की लोकप्रियता में ठीकठाक गिरावट है, मगर राज्य सरकार से और उसके नेतृत्व से नाराजगी सुस्पष्ट थी और यही राज्य में सत्तारूढ़ पार्टी की हार की मुख्य वजह बनी.

क्या नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के चलते कोई असर पड़ा? इसके सबूत कम ही हैं. नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी) पर बहस और उसके पारित होने के बाद के बाद अंतिम दो चरणों (चौथे और पांचवें) के लिए वोट पड़े. चौथे चरण में 15 सीटों के लिए मतदान हुआ जिनमें से आठ भाजपा ने जीतीं. 2014 में, इनमें से 11 सीटें भाजपा ने जीती थीं. पांचवें चरण की 16 में से तीन सीटें भाजपा को मिलीं. 2014 में, इनमें से पांच सीटें भाजपा को आयी थीं. चौथे और पांचवें चरणों में जिन विधानसभा क्षेत्रों के लिए मतदान हुआ उनमें भाजपा का वोट शेयर सभी सीटों के औसत वोट शेयर की तुलना में अधिक रहा. लेकिन यहां गौरतलब है कि इन विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा का वोट शेयर 2014 के विधानसभा चुनावों में भी अधिक रहा था. इसके अलावा, सर्वेक्षण में शामिल मतदाताओं ने विरले ही सीएए और एनआरसी को, वोट देने के लिए प्रभावित करनेवाले मुद्दे के रूप में माना.

भाजपा का आजूस के साथ गठबंधन तोड़ना वोटों के बिखराव की एक वजह हो सकता है, जिसने झामुमोनीत गठबंधन के पक्ष में काम किया हो. अगर सभी 81 सीटों के भाजपा और आजसू के वोट शेयर को जोड़ दें तो 40 सीटों पर उन्हें बढ़त मिल जाती. यह अलग बात है कि दोनों का गठबंधन होने पर क्या गठबंधन प्रत्याशियों को एक-दूसरे का पूरा वोट ट्रांसफर होता.

भाजपा की हार की व्याख्या करते समय उन कुछ प्रमुख जनसांख्यकीय भिन्नताओं पर नजर डालना उपयोगी हो सकता है जो झामुमोनीत गठबंधन और भाजपा के पक्ष में थीं. अगर मतदाताओं की शैक्षणिक योग्यता को आधार मानें तो भाजपा के पक्ष में कुछ खास अलग तस्वीर नहीं थी. सभी आयु समूहों में भाजपा और झामुमोनीत गठबंधन के बीच फासला बना हुआ दिखता है. हालांकि युवाओं के मुकाबले अधिक उम्र के मतदाताओं के बीच भाजपा ने थोड़ा बेहतर किया है. असली फर्क आर्थिक श्रेणियों के लिहाज से दिखता है. भाजपा ने प्रभावशाली तबके के बीच बेहतर किया, जबकि झामुमोनीत गठबंधन ने आर्थिक रूप से कम सशक्त लोगों के बीच.

झारखंड में आदिवासी वोट एक अहम पहलू है. 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को जो आदिवासी वोट मिले थे उनमें से आधे ही वह इस विधानसभा चुनाव में पा सकी. संताल और मुंडा को छोड़कर, उरांव और अन्य आदिवासियों में भाजपा का वोट शेयर काफी गिरा. भाजपा की हार और झामुमोनीत गठबंधन की जीत में यह पहलू अहम रहा.

सीएसडीएस-लोकनीति का मतदान बाद आंकड़ा, धर्म के आधार पर समर्थन में स्पष्ट विभाजन भी दिखाता है. भाजपा को हिंदू वोटों के मामले में नौ प्रतिशतता अंकों (परसेंटेज प्वाइंट) की बढ़त रही, जबकि झामुमो गठबंधन की धार्मिक अल्पसंख्यकों व अन्य के मामले में दो अंकोंवाली बड़ी बढ़त रही. गठबंधन को ईसाइयों के बीच 18 प्रतिशतता अंकों, मुसलमानों के बीच 39 प्रतिशतता अंकों और अन्य के बीच 12 प्रतिशतता अंकों की बढ़त रही. गैर-हिंदू वोटों को अपने पक्ष में मोड़ने की भाजपा की अक्षमता और हिंदुओं खासकर यादवों में घटा समर्थन सत्तारूढ़ पार्टी की हार में अहम कारण रहे.

कुल मिलाकर, झारखंड का नतीजा राज्य सरकार और उसके नेतृत्व के प्रति आम जनता के असंतोष का प्रकटीकरण है. राज्य विधानसभा चुनावों के नतीजे अक्सर ही राष्ट्रीय मुद्दों, रुझानों व नेतृत्व के बारे में जनमत संग्रह की तरह नहीं होते. झारखंड का जनादेश इस बात का एक और सबूत है कि लोग विधानसभा चुनाव में राज्य के मुद्दों के आधार पर, वोट करने के लिए अपनी पसंद बनाते हैं, न कि राष्ट्रीय मुद्दों पर. स्थानीय मुद्दों पर ध्यान देने से ज्यादा झारखंड के प्रचार अभियान को राष्ट्रीय रुझानों और पार्टी के दिल्ली नेतृत्व पर केंद्रित करने की कीमत भाजपा को चुकानी पड़ी. भाजपा राष्ट्रीय मुद्दों पर प्रचार अभियान चलाते हुए झारखंड के लोगों के साथ एक तारतम्य स्थापित नहीं कर पायी. ऐसा लगता है कि झारखंड के मतदाताओं के लिए राज्य में उनकी सरकार का पिछला रिकॉर्ड और राज्य स्तरीय नेताओं के प्रति उनका भरोसा सबसे अहम था, जबकि राष्ट्रीय मुद्दों का उन पर असर कम ही पड़ा.

मतदान-बाद सर्वेक्षण की प्रक्रिया
सीएसडीएस के लोकनीति कार्यक्रम द्वारा यह मतदान बाद सर्वेक्षण 2 दिसंबर से 22 दिसंबर के बीच किया गया. इसमें राज्य के 27 विधानसभा क्षेत्रों के 108 मतदान केंद्रों पर 2700 मतदाताओं ने हिस्सा लिया. सैंपल डिजाइनिंग के लिए बहु-स्तरीय रैंडम सैंपलिंग पद्धति अपनायी गयी. विधानसभा क्षेत्रों और इसके बाद हर ऐसे विधानसभा क्षेत्र में चार मतदान केंद्रों को रैंडम तरीके से चुना गया. फिर हर मतदान केंद्र के 35 मतदाताओं को रैंडम तरीके से चुना गया. इनमें से 25 साक्षात्कार लक्षित थे. पांचवें चरण के अलावा, सभी साक्षात्कार मतदान के एक या दो दिन बाद किये गये. ये साक्षात्कार उन मतदाताओं के घरों में बैठ कर आमने-सामने किये गये थे. साक्षात्कार की भाषा हिंदी थी और ये एक मानक प्रश्नावली पर आधारित थे. साक्षात्कार की अवधि औसतन 35 मिनट थी. प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने, तथा महत्वपूर्ण जनसांख्यकीय समूहों के कमतर प्रतिनिधित्व को ठीक करने के लिए प्राप्त नमूनों की लिंग, धर्म, स्थानीयता और जाति के आधार पर समीक्षा की गयी, जिनके आंकड़े 2011 की जनगणना से लिये गये थे. यहां प्रस्तुत सभी विश्लेषण समीक्षित आंकड़ों पर आधारित हैं. इस सर्वेक्षण की पूरी प्रक्रिया लोकनीति से जुड़े शोधार्थियों के दल द्वारा संचालित की गयी है. झारखंड में इसका संयोजन और निरीक्षण रांची के संत जेवियर्स कॉलेज के अर्थशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर हरीश्वर दयाल और रांची के इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट के अमित कुमार ने किया. इसका निर्देशन सीएसडीएस के प्रोफेसर संजय कुमार ने किया.

-प्रचार अभियान को राष्ट्रीय मुद्दों पर ज्यादा केंद्रित करना भाजपा को पड़ा भारी

-मोदी सरकार की गिरी लोकप्रियता के साथ सीएम के प्रति रहा गुस्सा

-अल्पसंख्यकों और आदिवासियों का झामुमो गठबंधन को भारी समर्थन

ये हैं हमारे विश्लेषक

संजय कुमार: प्रोफेसर और सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के वर्तमान निदेशक हैं.

संदीप शास्त्री: जैन यूनीवर्सिटी, बेंगलुरू के प्रो-वीसी और लोकनीति नेटवर्क के राष्ट्रीय समन्वयक हैं.

सुहास पलशीकर: लोकनीति के सह-निदेशक और स्टडीज इन इंडियन पॉलिटिक्स के मुख्य संपादक हैं. पहले वह सावित्री बाई फुले यूनीवर्सिटी, पुणे में राजनीति विज्ञान पढ़ाते थे. मतदाताओं ने राष्ट्रीय स्तर पर चल रही बहसों को ज्यादा तरजीह नहीं दी.

(इस लेख में आये हार-जीत के कई कारणों को कल और विस्तार से पढ़ें.)

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