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टुसू थापना के साथ ही गूंजने लगते हैं टुसू गीत

राजेंद्र प्रसाद महतो ‘राजेन’ समाजिक एकता व माधुर्य से कुड़मी लोक संस्कृति उत्सव टुसू परब का आगाज होता है. टुसू परब में पूरे पुस महीना गांव गुलजार रहता है. पूरे पुस माह में मनाये जाने वाले इस त्यौहार को पुस परब के नाम से भी जाना जाता है. कुड़मि बहुल गांव टुसू थापना के पश्चात […]

राजेंद्र प्रसाद महतो ‘राजेन’

समाजिक एकता व माधुर्य से कुड़मी लोक संस्कृति उत्सव टुसू परब का आगाज होता है. टुसू परब में पूरे पुस महीना गांव गुलजार रहता है. पूरे पुस माह में मनाये जाने वाले इस त्यौहार को पुस परब के नाम से भी जाना जाता है. कुड़मि बहुल गांव टुसू थापना के पश्चात टुसू लोक गीतों की लय से संगीतमय हो जाता है तथा मादेइर की थाप से गाँव गुंजित होने लगता है.
टुसू परब के ठीक एक महीना पहले अगहन सक्रांति को पारंपरिक नेगाचारि के अनुसार अविवाहित युवतियों के द्वारा टुसू थापना की प्रथा है. टुसू परब संस्कृतिमूलक त्योहार है. इस परब में लोक गीत के माध्यम से अपनी संस्कृति के साथ रितु, कृषि, प्रेमालाप, टिटकारी, दिल्लगी, व्यंग्य आदि विभिन्न तरह के गीतों का समावेश मिलता है.
कृषिमूलक कुड़मी समुदाय का प्रमुख फसल धान की कटनी समाप्त हुए रहता है.कृषक कृषि कार्य समाप्ति के बाद नये जोश व उमंग के साथ नये धान के चावल की गुड़ी से टुसू थापना के साथ चकली पीठा बनाना प्रारंभ कर देते है.
अगहन सक्रांति को पारंपरिक नेगाचारि के अनुसार छोटा मकर के रूप में मनाया जाता है. छोटा मकर यानी अगहन सक्रांति को हर घर में तलाउआ, सीम, भिंडी आदि कृषि उत्पाद सब्जियों का छिलका पीठा बनाया जाता है.
गांव की अविवाहित युवतियां गांव के किसी खाली पड़े घर में एकत्रित होती हैं. इस घर का अगहन सक्रांति के पूर्व लिपाई पुताई कर साफ-सुथरा करके गोबर कर शुध्दीकरण किया जाता है. इसके बाद घर के एक कोने में मिट्टी का ढीप बनाते हैं.
इसमें अगहन सक्रांति के दिन युवतियां पूजा पाठ करती हैं. नये धान की चावल की गुड़ी एवं तेल सिंदूर लगाकर ढीप स्थापित करने की विधि विधान को टुसू थापना के नाम से जाना जाता है. थापना में नये धान को संस्थापित किया जाता है. टुसू थापना के बाद युवतियां टुसू लोकगीत गाना प्रारंभ करती है.
इस थापना में प्रति शाम गांव की युवतियां एकत्रित होकर सामूहिक टुसू गीत गाती है. प्रतिदिन यहां नाच गान का कार्यक्रम लगातार एक महीना तक यानी मकर संक्रांति तक अनवरत चलता है. दोले गीत के माध्य से युवतियां घर-घर जाकर धान एकत्रित किया करती थीं. एकत्रित धान को बेच कर टुसू या चौड़ल खरीदा जाता था.
अब धान की जगह प्रत्येक घर से नगद राशि एकत्रित कर टुसू या टुसू की पालकी प्रतिरूप चौड़ल खरीदती हैं. मकर के दो-चार दिन पहले इस ढीप पर टुसू स्थापित किया जाता है. इसके बाद टुसू चुमान शुरू हो जाता है. बाउड़ी के पहले दिन से ही थापना में भीड़ प्रारंभ होने लगती है और टुसू लोकगीत का कार्यक्रम जोर पकड़ने लगता है.
बाउड़ी की रात को रात भर टुसू बुउला का कार्यक्रम के तहत जागरण होता है. सुबह यानी मकर संक्रांति के दिन गांव की युवतियों के साथ महिलाएं भी बाजा गाजा के साथ नदी या तालाब घाट में जाकर टुसू का भासान करते हैं.
भासान के बाद नहाने के क्रम में अपने पूर्वजो की स्मृति में गुड़ पीठा अर्पित करते है. इसके बाद नहा धोकर नये वस्त्र धारण करके चावल, गुड़ पीठा, रुपये आदि दान कर अपने घर वापस आते हैं. टुसू भासान के बाद थापना का महत्व समाप्त हो जाता है.

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