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नयी लिपि नहीं, साहित्य सृजन में ऊर्जा लगाएं

गुंजल इकिर मुंडा आम बोलचाल में हममें से अधिकतर लोग भाषा और लिपि को एक ही मान लेते है, जबकि वास्तविकता यह नहीं है. मौखिक भाषा, जिसे हम आमतौर से ‘भाषा’ बोलते हैं, अपनी सोच एवं भावनाओं को बोल-सुन कर एक-दूसरे तक पहुंचाने का माध्यम है, जबकि लिपि आड़ी-तिरछी रेखाओं का व्यवस्थित एवं पूर्व निर्धारित […]

गुंजल इकिर मुंडा

आम बोलचाल में हममें से अधिकतर लोग भाषा और लिपि को एक ही मान लेते है, जबकि वास्तविकता यह नहीं है. मौखिक भाषा, जिसे हम आमतौर से ‘भाषा’ बोलते हैं, अपनी सोच एवं भावनाओं को बोल-सुन कर एक-दूसरे तक पहुंचाने का माध्यम है, जबकि लिपि आड़ी-तिरछी रेखाओं का व्यवस्थित एवं पूर्व निर्धारित रूप है जिसके जरिये हम किसी भाषा को लिख सकते हैं.
भाषा और लिपि में भिन्नता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि विश्व में लगभग 7000 भाषाएंं हैं, जिनमें से लगभग 3500 लिखी जा रही हैं, लेकिन लिपियां मात्र 120 के करीब है! हिंदी-अंग्रेजी जैसी प्रतिष्ठित भाषाएं, जो कि अभी उनके मौजूदा लिपि से अटूट रूप से बंधे हुए दिखते हैं, शुरुआत से ऐसे नहीं थे.
अंग्रेजी जो कि अभी रोमन लिपि में लिखी जा रही है लगभग पांचवीं शताब्दी में रून लिपि में लिखी जाती थी. प्रेमचंद अपने हिंदी के उपन्यास अरबी लिपि में लिखते थे. तुर्क भाषा जो कि पिछले 1000 वर्षों तक अरबी लिपि में लिखी जाती थी, 20वीं शताब्दी में रोपन लिपि में लिखी जाने लगी. भाषा और लिपि का इतिहास उठाने पर हम देखेंगे कि दोनों के बीच रिश्ते बनते-बिगड़ते रहते हैं.
शायद यह बात ‘भाषाई शुद्धता’ पर जोर देने वालों को पसंद नहीं आयेगी, पर भाषाएं अपनी लिपियां बदलती रहती हैं. वर्तमान परिस्थितियों को ही देख लीजिए – एसएमएस, वाट्सएप, फेसबुक, सोशल मीडिया एवं विज्ञापनों में हिंदी को लिखने के लिए देवनागरी से ज्यादा हम रोमन लिपि का प्रयोग कर रहे हैं!
किसी लिपि का प्रयोग में आना तीन प्रमुख कारणों का सम्मिश्रण होता है: पहला, किफायत, दूसरा तकनीक व तीसरा अस्मिता.
किफायत- लिपि जो कि आर्थिक एवं श्रमिक रूप से समाज पर बोझ न हो, लोग उसे ही पसंद करते हैं. तकनीक- लिपियों को लिखने की विभिन्न तकनीकों से जुड़ा रहना आवश्यक है. दक्षिण भारत के लिपियों का आकार गोल इसलिए हो गया, क्योंकि वहां के लोग ताड़ के पत्तों पर लिखते थे और उसपर गोलाकार रेखाओं में लिखना आसान होता था, जबकि उत्तर भारत में लोग कपड़े पर लिखते थे
इसलिए खड़ी लकीरों का बोलबाला रहा. मौजूदा दौर में जो लिपि कंप्यूटर के आधुनिक मानकों पर खरी उतरेंगी उनका प्रयोग बढ़ता जायेगा. अस्मिता- शायद यह कारण लोगों को सबसे ज्यादा प्रभावित करता है क्योंकि लोग इसे महसूस कर सकते है और वे इसे नियंत्रित करने की क्षमता की अनुभूति रखते हैं.
लिपियों के बारे में धारणा कमोबेश इस प्रकार बनी हुई है – रोमन लिपि ईसाई अस्मिता का बोध कराता है, अरबी लिपि इस्लामी अस्मिता का और देवनागरी लिपि हिंदू अस्मिता का. यह धारणा अब धीरे-धीरे टूट रही है, तुर्की, वियतनाम, इंडोनेशिया जैसे गैर ईसाई देश रोमन लिपि अपना रहे हैं, उर्दू शायरी देवनागरी लिपि में लिखी जा रही है.
अभी तक हम बहुसंख्यक भाषाओं के बारे में चर्चा कर रहे थे जो कि पिछले कई वर्षों से लिखित रूप में मौजूद हैं. अगर हम अल्पसंख्यक भाषाओं की बात करें, जो कि अब तक न के बराबर ही लिखे गये हैं, तो उनमें भी लिपि का मुद्दा खासतौर पर आ जाता है. किस लिपि का प्रयोग हो, यह सवाल भाषा वैज्ञानिक से ज्यादा समाज के लोगों को परेशान करता है, और क्यों न हो, भाषा के संरक्षण का प्रथम दायित्व समाज का ही होता है. अपनी भाषा बचाने के लिए लोग हर संभव कोशिश करते हैं.
जब हम लुप्त प्राय भाषाओं के प्रलेखन (डॉक्यूमेंटेशन) की बात करते हैं तो ध्येय यह होता है कि उस भाषा में निहित ज्ञान एवं दर्शन का अतिशीघ्र संरक्षण हो, संकलन हो, जिसे कि समाज के दूसरे लोग एवं कोई अन्य समान विचार वाला पढ़ सके. इस बिंदु पर दो विकल्प आते हैं – या तो किसी मौजूदा लिपि का, आंशिक बदलाव के साथ, प्रयोग करें, या फिर एक नयी लिपि का आविष्कार करें. झारखंडी भाषाओं में दोनों विकल्पों का प्रयोग हुआ है.
पहले विकल्प को अपनाने वाले झारखंड की सारी भाषाएं हैं – वे सभी रोमन या देवनागरी लिपि को अपने भाषा के अनुरूप ढाल कर उसका प्रयोग किया/करते रहे हैं. उदाहरण के तौर पर- काकल्य ध्वनि (ग्लौटल साउंड), जो कि आर्य भाषाओं मे मौजूद नहीं है, के लिए मुंडारी, हो, खड़िया भाषा में ‘:’ (विसर्ग) का प्रयोग होता है. संताली क्रमशः ‘क्, ग्, च्’ इत्यादी का प्रयोग करता है. आर्य भाषा- नागपुरी, पंचपरगनिया इत्यादि भी हिंदी से इतर देवनागरी हिज्जे की अपनी एक अलग शैली विकसित की है. इस विकल्प का एक और फायदा होता है कि लिपि का प्रारंभिक प्रशिक्षण सरकार द्वारा प्रायोजित होता है, समाज को इसमें अतिरिक्त धन अथवा समय नहीं लगाना पड़ता है.
साथ ही एक भाषा-समूह के लोग एक दूसरे के साहित्य को लिख-पढ़ सकते हैं, उदाहरण के तौर पर देवनागरी लिपि में लिखी असुर भाषा की कविता को मुंडा, हो, संताल, बिरजिया, कोरबा आदि समझ सकते हैं एवं दूसरे लोग पढ़ भी सकते हैं. यहां तक कि यह उम्मीद है कि कालांतर में एक लिपि के प्रयोग से आस्ट्रिक भाषा समूह का एक साझा साहित्य तैयार हो सकता है, जैसे कि हिंदी साहित्य उत्तर भारत के सम्मिलित साहित्य को दर्शाता है. इस विकल्प को नकारने वालों का तर्क है कि रोमन या देवनागरी लिपि से मूल भाषा के उच्चारण में अशुद्धि आ जाती है, जो कि आंशिक रूप से सही है.
लेकिन, अगर रोमन या देवनागरी लिपि को मूल भाषा के सिद्धांतों के अनुरूप ढाला जाए, तो इस परेशानी से निजात पाया जा सकता है, और रही बात शुद्धता कि तो ‘शुद्धता के पैमाने’ में रोमन-लिखित अंग्रेजी से दरिद्र कुछ भी नहीं है, लेकिन फिर भी यह विश्व विजयी भाषा है. बात साफ है, किसी भाषा की महत्ता उसकी लिपि की ‘शुद्धता’ तय नहीं करती. दूसरा तर्क है कि रोमन या देवनागरी बाह्य प्रभाव को दर्शाता है. यह बात सच है कि रोमन या देवनागरी लिपि में से किसी का भी आविष्कार झारखंड में नहीं हुआ.
लेकिन, समय चक्र घुमाने से पता चलेगा कि रोमन एवं देवनागरी लिपियां भी किसी अन्य पुरानी लिपि से बनी हैं जो कि हिंदी-अंग्रेजी के मौजूदा स्थान से कोई रिश्ता नहीं रखती. इन तथ्यों को देख कर यही लगता है कि लिपि को भावनात्मक रूप से न देख कर उसकी व्यावहारिकता देखी जाए.
लिपि एक तकनीकी आविष्कार है, जिस तरह हम मोबाइल का प्रयोग इसलिए बंद नहीं करते क्योंकि वह अपने देश में नहीं बना है उसी प्रकार किसी व्यावहारिक लिपि को ‘बाहरी’ बोल कर उसका प्रयोग न करना प्रतिगामी-सा प्रतीत होता है. यूरोप में विभिन्न समूह के लोग एक ही लिपि का प्रयोग कर रहे हैं, ऐसा करने पर भी उनकी भाषाई अस्मिता पर खतरा नहीं आया.
नयी लिपि तैयार करने के विकल्प को भी झारखंड की लगभग सभी भाषाओं ने अपनाया – संताली में लगभग 17 अलग-अलग लिपियों का आविष्कार हुआ, हो में दर्जन के करीब लिपियां बनायी गयीं, मुंडारी में लगभग 3 लिपियां प्रकाश में आयी हैं, कुड़ुख में भी करीब चार … ! यद्यपि सभी लिपियां का कार्य सिद्धांत एक-सा है, अंतर सिर्फ अक्षरों के बनावट में है, सभी का दावा है कि उनकी लिपि सबसे बेहतर है. सभी मानते हैं कि उनकी लिपि से संसार की सारी भाषाएं लिखी जा सकती हैं, लेकिन संसार की दूसरी लिपि उनकी भाषा को लिख पाने में अक्षम है!
असल बात यहां अस्मिता के संकट की है, जिसे हम वैज्ञानिकता की आड़ में छिपा रहे हैं और इस संकट का समाधान नयी लिपि की रचना में नहीं, बल्कि साहित्य सृजन में है. इस वैश्वीकरण के दौर में एक सशक्त सम्मिलित पहचान ही सबको बचा सकती है और झारखंड के परिप्रेक्ष्य में अपनी-अपनी ‘नयी’ लिपि पकड़ने से हम यह कभी भी नहीं कर पायेंगे.
(सहायक प्राध्यापक, लुप्त प्राय भाषा केंद्र, झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय, रांची)

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