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भारत को दिया प्रवृत्ति का उपदेश

यू रोप और अमेरिका में भोग की सामग्रियां प्रचुर परिमाण में उपलब्ध थीं. इसलिए स्वामी विवेकानंद जी ने वहां के निवासियों को संयम और त्याग की शिक्षा दी. किंतु, भारत में दरिद्रता का साम्राज्य था, निर्धनता का नग्न वास था एवं यहां के लोग धनाभाव के कारण भी जीवन के ऊंचे गुणों से वियुक्त हो […]

यू रोप और अमेरिका में भोग की सामग्रियां प्रचुर परिमाण में उपलब्ध थीं. इसलिए स्वामी विवेकानंद जी ने वहां के निवासियों को संयम और त्याग की शिक्षा दी. किंतु, भारत में दरिद्रता का साम्राज्य था, निर्धनता का नग्न वास था एवं यहां के लोग धनाभाव के कारण भी जीवन के ऊंचे गुणों से वियुक्त हो गये थे.

अतएव, भारतवासियों को स्वामीजी ने जो उपदेश दिया, वह केवल धर्म के लिए नहीं था, प्रत्युत, उन्होंने यहां के लोगों में असंतोष जगाना चाहा, उन्हें कर्म की भावना से आंदोलित करने की चेष्टा की तथा शताब्दियों से आती हुई निवृत्ति की विषैली जंजीरों से मुक्त करके उन्होंने भारतवासियों को प्रवृत्ति के कर्म-मार्ग पर आरूढ़ करने का प्रयास किया.
शिकागो के विश्व-धर्म सम्मेलन में भी स्वामीजी ने ईसाइयों के समक्ष निर्भीक गर्जना की थी, ‘तुम ईसाई लोग मूर्तिपूजकों की आत्मा के बचाव के लिए भारत में धर्म-प्रचारक भेजने को बहुत ही आतुर दिखते हो, किंतु इन मूर्तिपूजकों को शरीर की क्षुधा की ज्वाला से बचाने के लिए तुम क्या कर रहे हो? भयानक दुर्भिक्षों के समय लाखों भारतवासी निराहार मर गये, किंतु, तुम लोगों से कुछ भी नहीं बन पड़ा.
भारत की भूमि पर तुम गिरजों पर गिरजे बनवाते जा रहे हो, किंतु तुम्हें यह ज्ञात नहीं है कि पूर्वी जगत की आकुल आवश्यकता रोटी है, धर्म नहीं. धर्म एशियावालों के पास अब भी बहुत है. वे दूसरों से धर्म का पाठ नहीं पढ़ना चाहते. जो जाति भूख से तड़प रही है, उसके आगे धर्म परोसना उसका अपमान है. जो जाति रोटी को तरस रही है, उसके हाथ में दर्शन और धर्म-ग्रंथ रखना उसका मजाक उड़ाना है.’
कहते हैं एक बार कोई नवयुवक स्वामीजी के पास गया और बोला, ‘स्वामीजी! मुझे गीता समझा दीजिये.’ स्वामीजी ने सच्चे मन से कहा, ‘गीता समझने का वास्तविक क्षेत्र फुटबाल का मैदान है.
जाओ, घंटे भर खेल-कूद लो, गीता तुम स्वयं समझ जाओगे.’ स्वामी विवेकानंद संसार में घूम कर देख चुके थे कि नयी मानवता कितनी उच्छल और बलवती है. उसकी तुलना में भारत के लोग उन्हें बौने और बीमार दिखायी देते हैं.
अतएव, भारत में उनके अधिकांश उपदेश उन्नति, साहस, सेवा और कर्म की महत्ता सिद्ध करने को दिये गये. भारतवर्ष को वे क्षीण और कोमल संन्यासियों का देश बनाना नहीं चाहते थे, न उनका यही उद्देश्य था कि यहां के लोग अनिवार्यत: शाक-भोजी होकर धर्म की साधना करते हुए निर्धनता और गुलामी का दंश सहें और मौन रहें.
अपने एक शिष्य द्वारा यह पूछे जाने पर कि संन्यासियों को मांस-मछली खानी चाहिए या नहीं, स्वामीजी ने कहा, ‘हां, निंदा का भय माने बिना मांस-मछली तुम जी भर कर खा सकते हो. शाक-पात खाकर जीनेवाले अमाशय के रोगी साधुओं से सारा देश भर गया है.
यह लक्षण सत्व के नहीं, भयानक तमस के हैं और तमस मृत्यु की कालिमा का नाम है. आकृति में दमकती हुई कांति, हृदय में अदम्य उत्साह और कर्म-चेष्टा की विपुलता और उद्वेलित शक्ति, ये सत्व की पहचान हैं. इसके विपरीत, तमस का लक्षण आलस्य और शैथिल्य है, अनुचित आसक्ति और निद्रा का मोह है.
कौन भोजन शुद्ध और कौन अशुद्ध है, क्या इसी विचिकित्सा में जीवन बिता दोगे अथवा इंद्रिय-निग्रह का भी कुछ ध्यान है? हमारा लक्ष्य इंद्रियों का निग्रह है, मन को वश में लाना है. अच्छे और बुरे का भेद, शुद्ध और अशुद्ध का विचार इंद्रिय-निग्रह नहीं, उस ध्येय के सहायक मात्र हैं.’
स्वामीजी बार-बार कहते थे कि भारत का कल्याण शक्ति की साधना में है. जन-जन में जो शक्ति छिपी हुई है, हमें उसे साकार करना है. जन-जन में जो साहस और जो विवेक प्रच्छन्न है, हमें उसे ही बाहर लाना है.
‘मैं भारत में लोहे की मांसपेशियों और फौलाद की नाड़ी तथा धमनी देखना चाहता हूं, क्योंकि इन्हीं के भीतर वह मन निवास करता है, जो शंपाओं एवं वज्रों से निर्मित होता है. शक्ति, पौरुष, क्षात्र-वीर्य और ब्रह्मा-तेज इनके समन्वय से भारत की नयी मानवता का निर्माण होना चाहिए…’
(रामधारी सिंह दिनकर की पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ से साभार)

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