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15वें वित्त आयोग की सिफारिश, समावेशी विकास पर जोर
15वें वित्त आयोग की प्रारंभिक रिपोर्ट से स्पष्ट है कि केंद्र सरकार देश में सतत विकास लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में प्रयासरत है. केंद्र और राज्यों के बीच कर राजस्व वितरण की व्यवस्था तय करने के अलावा आयोग ने कई महत्वपूर्ण अनुशंसाएं की हैं. हालांकि, आयोग द्वारा तय किये गये जनसंख्या मानकों की […]
15वें वित्त आयोग की प्रारंभिक रिपोर्ट से स्पष्ट है कि केंद्र सरकार देश में सतत विकास लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में प्रयासरत है. केंद्र और राज्यों के बीच कर राजस्व वितरण की व्यवस्था तय करने के अलावा आयोग ने कई महत्वपूर्ण अनुशंसाएं की हैं.
हालांकि, आयोग द्वारा तय किये गये जनसंख्या मानकों की दक्षिण भारतीय राज्यों द्वारा आलोचना की गयी है. आयोग के सुझाव और सिफारिशों के अनुपालन में केंद्र से साथ-साथ स्थानीय निकायों की महत्वपूर्ण भूमिका होगी. 15वें वित्त आयोग की सिफारिशों, राजस्व विभाजन प्रक्रिया, अनुदान प्रक्रिया समेत विभिन्न जानकारियों के साथ प्रस्तुत है इन-दिनों पेज…
हाल में 15वें वित्त आयोग की रिपोर्ट और सुझाव को संसद के पटल पर रखा गया. आयोग ने केंद्र द्वारा राज्यों के साथ साझा किये जानेवाले कर राजस्व को 42 प्रतिशत से घटाकर 41 प्रतिशत कर दिया है. राज्यों के हिस्से में जो एक प्रतिशत की कमी की गयी है, वह आयोग द्वारा निर्धारित फॉर्मूले के अनुसार, पूर्ववर्ती राज्य जम्मू-कश्मीर के हिस्से (0.85 प्रतिशत) के लगभग बराबर है. एनके सिंह की अध्यक्षता वाले 15वें वित्त आयोग ने 1 फरवरी, 2020 को प्रस्तुत पहली रिपोर्ट में वित्त वर्ष 2020-21 के लिए सिफारिशें की हैं. इसकी फाइनल रिपोर्ट 2021-26 की अवधि के लिए 30 अक्तूबर, 2020 तक सौंपी जायेगी.
कैसे किया गया है राजस्व का विभाजन
वित्त आयोग ने वर्ष 2011 की जनसंख्या के साथ वन आवरण, कर प्रयासों और ‘जनसांख्यिकीय प्रदर्शन’ को आधार मानते हुए राज्यों की हिस्सेदारी का निर्धारण किया है. राज्यों द्वारा जनसंख्या नियंत्रण प्रयासों के प्रोत्साहन के लिए आयोग ने एक मानदंड विकसित किया है, जो 1971 में राज्य की आबादी और साल 2011 की प्रजनन दर के अनुपात में निर्धारित की गयी है. इसके लिए 12.5 प्रतिशत अधिभार तय किया गया है. कर राजस्व हिस्सेदारी के फॉर्मूले पर पहुंचने के लिए राज्यों केपूर्ण क्षेत्रफल में वन क्षेत्र एवं ‘आय विस्थापन’ को भी शामिल किया गया है.
मुख्य सुझाव
आयोग ने राज्यों की हिस्सेदारी को 42 प्रतिशत से घटाकर 41 प्रतिशत कर दी है.
आयोग ने रक्षा खर्च हेतु अव्यपगत निधि (नॉन-लैप्सेबल फंड) शुरू करने के लिए एक विशेषज्ञ टीम के गठन का प्रस्ताव किया है.
राज्यवार वितरण
दक्षिण राज्यों की हिस्सेदारी (तमिलनाडु को छोड़कर) में गिरावट आयी है, इसमें मुख्य रूप से कर्नाटक है.
महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, पंजाब की हिस्सेदारी में मामूली बढ़त हुई है. इन राज्यों की प्रजनन दर प्रतिस्थापन दर से नीचे है.
वहीं दूसरी ओर, आंध्र प्रदेश, केरल, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों की हिस्सेदारी में कमी आयी है, जबकि इन राज्यों की प्रजनन दर अपेक्षाकृत कम ही है.
संयोगवश, इस प्रक्रिया में कर्नाटक को बड़ा नुकसान हुआ है. आरबीआई की राज्य वित्त पर जारी रिपोर्ट के अनुसार, 2017-18 में इस राज्य का टैक्स-जीएसडीपी अनुपात उच्चतम रहा.
आय विस्थापन
आय विस्थापन, किसी राज्य की आय का सबसे अधिक आय वाले राज्य की आय से अंतर है. राज्य की आय की गणना, 2015-16 और 2017-18 के बीच तीन साल की अवधि के दौरान उस राज्य की प्रति व्यक्ति जीएसडीपी के औसत के रूप में की गयी है. निम्नतर प्रति व्यक्ति आय वाले राज्यों को उच्चतम हिस्सा प्रदान किया जायेगा.
जनसांख्यिकीय प्रदर्शन : आयोग ने उक्त अनुशंसाएं 2011 के जनगणना आंकड़े के आधार पर की है. राज्यों द्वारा जनसंख्या नियंत्रण को प्रोत्साहित करने के लिए जनसांख्यिकीय प्रदर्शन मानदंड को शुरू किया गया है.
इसकी गणना 1971 के जनगणना आंकड़ों के अनुसार, प्रत्येक राज्य के कुल प्रजनन अनुपात के संदर्भ में की गयी है. कम प्रजनन अनुपात वाले राज्यों को इस माप पर अधिक स्कोर प्रदान किये जायेंगे. किसी विशिष्ट वर्ष में कुल प्रजनन अनुपात को उन बच्चों की कुल संख्या के रूप में परिभाषित किया जाता है, जो किसी महिला द्वारा अपने प्रजनन काल के दौरान जन्म दिया जाता है.
वन एवं पारिस्थितिकी : किसी राज्य की कुल वन सघनता का सभी राज्यों की कुल सघनता में हिस्सा निर्धारित करके इसकी पात्रता निर्धारित की गयी है.
कर प्रयास : इस मानदंड का प्रयोग उच्च कर संग्रह दक्षता वाले राज्यों को पुरस्कृत करने के लिए किया गया है. इसकी गणना 2014-15 और 2016-17 के बीच तीन साल की अवधि के दौरान प्रति व्यक्ति औसत कर राजस्व और औसत प्रति व्यक्ति राज्य जीडीपी के अनुपात के रूप में की गयी है.
अनुदान सहायता
2020-21 में राज्यों को निम्न सहायता दी जायेगी :
राजस्व घाटा अनुदान : हस्तांतरण के बाद अनुमान है कि 2020-21 में 14 राज्यों का कुल राजस्व घाटा लगभग 74,340 करोड़ रुपये रह जायेगा. आयोग ने इन राज्यों के लिए राजस्व घाटा अनुदान की सिफारिश की है.
विशेष अनुदान : तीन राज्यों कर्नाटक, मिजोरम और तेलंगाना के लिए आयोग ने 6764 करोड़ के विशेष अनुदान की सिफारिश की है.
क्षेत्र विशेष के लिए अनुदान : 2020-21 में आयोग ने पोषण के लिए 7375 करोड़ की सिफारिश की है. अंतिम रिपोर्ट में सेक्टर विशेष के लिए प्रावधान किये जायेंगे. इसमें पोषण, स्वास्थ्य, पूर्व प्राथमिक शिक्षा, विधायिका, ग्रामीण संपर्क, रेल, पुलिस प्रशिक्षण और आवास आदि को शामिल किया जायेगा.
स्थानीय निकायों के लिए अनुदान : स्थानीय निकायों के लिए 2020-21 में 90,000 करोड़ रुपये तय किये गये हैं. इसमें से ग्रामीण स्थानीय निकाय के लिए 60,750 करोड़ (67.5 प्रतिशत) और शहरी स्थानीय निकाय के लिए 29,250 करोड़ (32.5 प्रतिशत) निर्धारित किये गये हैं. ये अनुदान पंचायत के तीन स्तरों-गांव, ब्लॉक और जिला स्तर पर उपलब्ध होंगे.
आपदा प्रबंधन अनुदान : स्थानीय स्तर पर राहत कार्यों को बेहतर बनाने के लिए आयोग ने राष्ट्रीय और राज्य आपदा प्रबंधन कोष (एनडीएमएफ और एसडीएमएफ) के गठन की सिफारिश की है. केंद्र और राज्यों के बीच खर्च साझाकरण की वर्तमान व्यवस्था को जारी रखने की बात कही है. वर्तमान में केंद्र और सभी राज्यों के बीच यह अनुपात 75:25 और पूर्वोत्तर व हिमालयीय राज्यों के लिए 90:10 है.साल 2020-21 में राज्य आपदा प्रबंधन कोष के लिए 28,983 करोड़ का आवंटन है, जिसमें केंद्र का हिस्सा 22,184 करोड़ रुपये है. राष्ट्रीय आपदा प्रबंध कोष के लिए 12,390 करोड़ आवंटित किया गया है.
केंद्र के कर राजस्व में राज्यों की हिस्सेदारी (15वें वित्त आयोग के अनुसार)
राज्य 41 प्रतिशत में हिस्सा विभाज्य पूल में हिस्सा 2020-21 के लिए हिस्सा (करोड़ में)
बिहार 4.13 10.06 86,039
झारखंड 1.36 3.31 28,332
प बंगाल 3.08 7.52 64,301
वित्त आयोग और इसके कार्य
वित्त आयोग एक संवैधानिक निकाय है, जो आवश्यकताओं के अनुरूप केंद्र व राज्यों और राज्यों के बीच कर राजस्व को वितरित करने के लिए सूत्र निर्धारित करता है. संविधान के अनुच्छेद-280 के अनुसार, केंद्र और राज्यों के बीच करों की शुद्ध आय के वितरण की सिफारिश के लिए एक वित्त आयोग का गठन आवश्यक है. भारत के राष्ट्रपति पांच साल के अंतराल पर या उससे पहले आयाेग का गठन करते हैं.
इसमें अध्यक्ष के अलावा चार सदस्य होते हैं. भारत सरकार एक सचिव सहित आवश्यक सहायता और श्रमशक्ति उपलब्ध कराती है. संविधान निर्माताओं को केंद्र और राज्यों की वित्तीय आवश्यकताओं के बारे में पता था. वे केंद्र व राज्यों के बीच के असंतुलन और राज्यों के बीच अंसतुलन या असमानता को दूर करना चाह रहे थे, इसलिए संघ और इकाइयों के कर्तव्यों और जिम्मेदारियों का स्पष्ट रूप से विभाजन किया. इसके लिए ही वित्त आयोग अस्तित्व में आया.
समावेशी व्यवस्था सुनिश्चित करना वित्त आयोग का प्रमुख काम होता है. इसका अर्थ यह नहीं है कि सबसे अच्छा प्रदर्शन करनेवाले राज्य को उच्चतम हिस्सा आवंटित किया जायेगा, बल्कि राज्यों के बीच विकास के अंतर को कम करने का प्रयास किया जायेगा.
प्रथम वित्त आयोग
संविधान सभा के पूर्व सदस्य केसी नियोगी की अध्यक्षता में नवंबर 1951 में पहले वित्त आयोग का गठन किया गया था.
आयोग के सदस्यों का निर्धारण
यह वित्त आयोग के नियम, 1951 के तहत निर्धारित मानदंड के आधार पर तय होता है. वित्तीय मामलों और प्रशासन का व्यापक ज्ञान और अनुभव वाले लोग इस आयोग के सदस्य बन सकते हैं.
आयोग की बदलती भूमिका
वर्ष 1950 से अब तक आयोग की भूमिका में महत्वपूर्ण बदलाव आया है. वर्ष 1950 में जहां केंद्र को कुल 10 प्रतिशत कर की प्राप्ति हुई थी, वह वाईवी रेड्डी की अध्यक्षता वाले 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों के बाद बढ़कर 42 प्रतिशत हो गया.
15वें वित्त आयोग ने सिफारिश की है कि जम्मू-कश्मीर की सुरक्षा व्यवस्था और विशेष जरूरतों को पूरा करने के लिए इस आवंटन को एक प्रतिशत कम करके 41 प्रतिशत कर दिया जाये. 12वें आयोग की सिफारिश के परिणामस्वरूप केंद्र और राज्य सरकारों के बीच समीकरण में आया बदलाव भी महत्वपूर्ण है. इस सिफारिश की बदौलत केंद्र सरकार द्वारा राज्यों को कर्ज देने के नियम में बदलाव किया गया. 13वें आयोग ने राज्यों के लिए जीएसटी को लागू करने के विस्तृत उपाय किये थे, वहीं 14वें आयोग ने एक राजकोषीय परिषद के निर्माण की सिफारिश की थी.
राजकोषीय रोडमैप के लिए अनुशंसाएं
केंद्र और राज्य सरकारों को ऋण समेकन पर ध्यान देना चाहिए और राजकोषीय घाटे व ऋण स्तर का उनके संबंधित राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियमों के अनुसार पालन करना चाहिए.
केंद्र और राज्य सरकारों को अतिरिक्त बजटीय ऋण का खुलासा करना चाहिए. बकाया बजटीय देनदारियों को समय-सीमा में स्पष्ट रूप से पहचाना और समाप्त किया जाना चाहिए.
विशेषज्ञ समूह तैयार करना, जो सार्वजनिक प्रबंधन प्रणाली के लिए वैधानिक ढांचा उपलब्ध कराने हेतु कानूनी मसौदा तैयार कर सके.
कर आधार को व्यापक बनाना, कर दरों को सुव्यवस्थित करना और सभी सरकारी स्तरों पर कर प्रशासन की क्षमता और विशेषज्ञता बढ़ाना.
कम खपत वाले राज्यों के लिए जीएसटी के संरचनात्मक प्रभावों पर विचार करने की आवश्यकता है.
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