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परेशानियों और संघर्षों से भरी है गांव की जिंदगी, पर लोगों ने आस छोड़ी नहीं है

अनुज बेसरा लगभग 65 किलोमीटर की दूरी कार से सवा घंटे में तय कर दोपहर करीब 12 बजे हम झारखंड की राजधानी रांची से दूर अनगड़ा प्रखंड के सुदूरवर्ती आदिवासी बहुल गांव रामडागा पहुंचे. वहां घंटों से इंतजार कर रहे गांव के लोगों ने ‘उ देखा आय गेलाएं’ की आवाज के साथ, चमकते दांतोंवाली मुस्कान […]

अनुज बेसरा
लगभग 65 किलोमीटर की दूरी कार से सवा घंटे में तय कर दोपहर करीब 12 बजे हम झारखंड की राजधानी रांची से दूर अनगड़ा प्रखंड के सुदूरवर्ती आदिवासी बहुल गांव रामडागा पहुंचे.
वहां घंटों से इंतजार कर रहे गांव के लोगों ने ‘उ देखा आय गेलाएं’ की आवाज के साथ, चमकते दांतोंवाली मुस्कान से हमारा स्वागत किया. सबके उतरने के बाद, मोटा-सा डंडा लिये 90 वर्ष से अधिक उम्र के दादू (दादाजी) को गाड़ी से उतारने की कोशिश शुरू होती है. तभी भीड़ से एक नौजवान दौड़ते हुए आता है और कहता है- ‘दादू-दादू मोय अाहों नी चल मोए तोके धैर लेमू.’ कार से सभी के उतर जाने के बाद हम लोग आगे बढ़े. एक बुजुर्ग पूछते हैं- ‘आयक में कोनो दिकत त नी होलक नी.’ सवाल पूछनेवाले ग्राम प्रधान थे. उन्हें ही पूरा कार्यक्रम का जिम्मा सौंपा गया था.
स्वागत-सत्कार के बाद हमें कुर्सी पर बैठा दिया जाता है. सारा मंच पहले से ही सज-धज कर तैयार था. लोगों का हुजूम आस भरी नजरों से हमें निहार रहा था. मौका था मेरे डेरा मालिक जयराम मुंडा के पिताजी के 90 वर्ष से अधिक उम्र हो जाने की खुशी में पैतृक गांव में गर्म कपड़े बांट कर खुशी का इजहार करने का. विगत सात वर्षों से यह परिवार प्रत्येक वर्ष व्यक्तिगत रूप से गांव आकर गर्म कपड़ों का वितरण कर रहा है. इस वर्ष नया यह था कि भैया (शेखर मुंडा) के कहने पर मैं भी साथ आ गया गांव का माहौल देखने.
ग्राम प्रधान (मुखिया) गर्जना भरी आवाज में बोलना शुरू करते हैं- ‘आयज़ हमर बीच में आवल हमर गोतिया श्रीमती सुषमा मुंडा दुई शब्द कहबएं.’ फिर आंटी खड़ी होती हैं और बोलना प्रारंभ करती हैं- ‘गांव-ग्राम से आये माताओं- पिताओं सबों को जोहार… आज मेरे ससुर जी के 90 वर्ष से अधिक के हो जाने की खुशी में हम आपके बीच खुशी का इजहार करने आए हैं.’
तभी बीच में से घुंघराले-उलझे बालोंवाली एक बुजुर्ग महिला अपना कंबल संभालते हुए पूछ बैठती हैं- ‘ने बाबू का कहथे उगो?’ आंटी बोलना जारी रखती हैं- ‘मानव सेवा से बड़ी कोई सेवा नहीं होती. हम आदिवासी लोग सामूहिकता में जीते हैं और समुदाय में ही जीते-जीते मर जाते हैं. एक-दूसरे की भलाई करना हम आदिवासियों के रक्त में बसा हुआ है. हम सभी को एक-दूसरे का हाथ थाम कर आगे बढ़ना है. गांव को शिक्षित, नशामुक्त और अंधविश्वास-मुक्त बनाना है. तभी हम लोग आगे बढ़ सकते हैं.’
इसके बाद कंबल, साड़ी, धोती का वितरण प्रारंभ होता है. इस गांव में कृषि और वन उपज ही आजीविका का एकमात्र साधन हैं. तीन टोली मिलाकर यह गांव बनता है. गांव में एकमात्र शिक्षित परिवार मेरे डेरा मालिक का है. अंकल सदर प्रखंड में कर्मचारी और उनके छोटे भाई फौज में हैं.
गांव आने पर सभी ग्रामीण अंकल को बेबसी के साथ आशा भरी नजरों से देखते हैं. शुरू में बात करने में हिचकिचाहट हो रही थी, पर आखिरकार एक बूढ़ी दादी से पूछ बैठा- ‘का तियन खाले आजी?’ आजी मुस्कुराते हुए जवाब देती है- ‘मांड भात और भाथुआ साग बाबू.’ फिर तो बातचीत का सूत्र मिल गया. ठंड में गोरसी के चारों ओर बैठे बुजुर्गों से सवालों की मैंने झड़ी लगा दी. मैंने पूछा- ‘बिरसा मुंडा के जानल?’ एक बुजुर्ग ने जवाब दिया- ‘हां बाबू उगो तो हमर भगवान हेके. उकरे चलते तो हमर जमीन मन बंचल आहे. दिकु मन हमर जमीन छीन लेगत रहे से घरी बिरसा मुंडा गोहे हमर जमीन के बचालक और आपन जान के कुर्बान कैर देलक.’
जवाब सुनकर मन प्रसन्न हो उठा. अपने आदर्शों के प्रति सम्मान और प्यार उनके चेहरे पर झलक रहा था. मैंने अगला सवाल किया- ‘तोहाएं मन भोट (वोट) देल?’ सभी बोलने लगे- ‘हां बाबू, हमें भोट देईल….भोट देक तो हमर अधिकार हके. हमें पूरा गांव कर मन आखरा में मीटिंग करिल उकर बाद सबे झन मिलजुइल के भोट देईल.’ मैं मन ही मन सोचने लगा कि जहां शहरी क्षेत्रों में खाये-अघाये लोगों का मततदान प्रतिशत दिनोंदिन घटता जा रहा है वहीं सुदूरवर्ती क्षेत्रों में अशिक्षित लोग भी अपने समाज-देश के प्रति कितनी श्रद्धा रखते हैं. यह प्रेरणादायक था.
मैंने अगला सवाल किया- ‘तोहरे मनके कोनो सरकारी सुविधा मिलेल कि नहीं?’ जवाब बहुत प्यार से मिला- ‘कहां बाबू… सरकार बेचारा तो देल होई जून लेकिन हमर नेता मन हें पोंचेक नी देन तो… सब पैसा के एक्ला खाए जैन. सरकार बट से दूई- तीन झान कर सरकारी घर बैनहे और बाथरूम घर सबके मिल है लेकिन ओहो धासाथे.’ सरकार के प्रति श्रद्धा और स्थानीय नेताओं के प्रति रोष देखते ही बन रहा था.
जबसे गांव में प्रवेश किया था गांव में युवक-युवती बहुत कम दिख रहे थे. मन नहीं मानने पर वह भी पूछ लिया- ‘गांव में छोड़ा-छोड़ि मन नी दिखेन, कहां चैल जाहैं साउब?’ बुजुर्ग एक साथ जवाब देते हैं- ‘बहुत मन खेत बटे जहायं बाबू, लेकिन बगरा मन पैसा कमयक परदेश जहाएं… उ मन सोउब खेती-बाड़ी करेक समय में घूरेन उकार बाद ओहाय बटे चैल जयन.’
कपड़ा वितरण लगभग समाप्त हो रहा था, लेकिन मेरे सवाल खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे. मैंने एक और सवाल किया- ‘गांव में का का समस्या मन आहे तब?’ एक-एक कर सभी ने समस्या गिनाना प्रारंभ की- ‘नौजवान मन मुरुक दारू पियन बाबू, स्कूल मूरुक दूर आहे, गर्मी कर सीजन में कोनो काम नी मीलेल, कुआं कर पानी सुईख जायल.’ जवाब सुनकर सोचने लगा कि शहरी क्षेत्र में लोग समाज सेवा का ढोंग करते हैं, यदि ऐसे जगहों पर एक दिन रह जाते तो असलियत पता चलती.
आखिरकार कार्यक्रम संपन्न हुआ. भैया कार सड़क किनारे लगा चुके थे. सामने सरना स्थल था. गांव के बड़े-बुजुर्ग सरना स्थल स्थित एक मोटे-से साल वृक्ष को दूर से प्रणाम कर घरों की ओर लौट रहे थे. हम भी सभी को जोहार करते हुए बैठ चुके थे. दादू को पिठलादू कर एक नौजवान ने कार में बैठा दिया. भैया कार स्टार्ट कर चुके थे. शाम का लगभग छह बज चुके थे. चिड़िया चहकने लगी थीं. जंगलों में एक खामोशी पसरती जा रही थी. हमारी कार भी शनै: शनै: घने जंगलों से निकलकर कंक्रीट से भरे शहर की ओर बढ़ चुकी थी. आंटी का भजन पुनः प्रारंभ हुआ, लेकिन इस बार मेरा मन गांव में ही था. गांव की महिलाओं, बुजुर्गों की आंखें और उनके बात करने का अंदाज बार-बार याद आ रहे थे.
लेखक, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय, रांची में बीए-पार्ट 3 (अर्थशास्त्र) के विद्यार्थी हैं.

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