टीकाकरण की जरूरत समझें भारत के लोग

बुलेट ट्रेन की बाट जोहते भारत को आज भी पिछड़ा माना जाता है. तभी तो कई लोग यहां से पढ़-लिख कर अमेरिका में जा बसने की फिराक में रहते हैं. लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो विकसित देशों की चमक -दमक को पीछे छोड़ कर अपनी जड़ों को सींचने के खयाल से भारत आ कर […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 10, 2014 3:18 AM
an image

बुलेट ट्रेन की बाट जोहते भारत को आज भी पिछड़ा माना जाता है. तभी तो कई लोग यहां से पढ़-लिख कर अमेरिका में जा बसने की फिराक में रहते हैं. लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो विकसित देशों की चमक -दमक को पीछे छोड़ कर अपनी जड़ों को सींचने के खयाल से भारत आ कर इसे संवारने की कोशिश करते हैं. यह श्रृंखला आपको अप्रवासी भारतीयों की दूसरी पीढ़ी की ऐसी ही कुछ शख्सीयतों से रू -ब-रू करायेगी. आज पहली कड़ी में पढ़ें डब्ल्यूएचओ के अंतर्गत मास इम्यूनाइजेशन कैंपेन चलानेवाली मेघना श्रीवत्सवा के बारे में.

राजीव चौबे
अमेरिका के न्यू जर्सी में पली-बढ़ीं 31 साल की मेघना श्रीवत्सवा डब्ल्यूएचओ यानी विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ जुड़ कर बड़े पैमाने पर विकासशील देशों के गांव-देहातों में मास इम्यूनाइजेशन कैंपेन यानी व्यापक टीकाकरण का अभियान चलाती हैं. फिलहाल वह नाइजीरिया में काम कर रही हैं, जहां उन्हें काम करते हुए लगभग एक साल हो चुका है.

इससे पहले वह लाओस और भारत में काम कर चुकी हैं. उनके परिवार की जड़ें बेंगलुरु से जुड़ी हैं, इसलिए वह भारत में स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में बेहतरी के प्रयास कर रही हैं.

बात 2006 की है जब मेघना विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ भारत में पोलियो के व्यापक टीकाकरण अभियान के देखरेख का काम करती थीं. उस समय तक भारत पूरी तरह पोलियोमुक्त नहीं हुआ था. भारत में विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से स्थानीय स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को पोलियो टीकाकरण के काम पर लगाया गया था. इसके तहत हर जिले के हर गांव और हर घर के पांच साल की उम्र तक के हर बच्चे को पल्स पोलियो की दवा पिलायी जानी थी. काम ठीक ढंग से चल रहा है या नहीं, यह देखना मेघना की जिम्मेदारी थी.

मेघना बताती हैं कि यह काम इतना भी आसान नहीं था कि किसी छोटे बच्चे को देखा, दवा पिलायी और आगे बढ़ गये. अधिकांश जगहों पर लोग यह काम उतनी मुस्तैदी से नहीं करते थे जितनी जरूरत थी और यही हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती थी. मैं उत्तर प्रदेश में पल्स पोलियो अभियान के संचालन की मॉनीटरिंग करती थी. यह देश के सबसे गरीब राज्यों में से एक है, जहां साफ -सफाई और सीवेज प्रबंधन की स्थिति बिल्कुल ठीक नहीं है. और ऐसी ही जगहों पर छोटे बच्चे पोलियो की चपेट में आ जाते हैं. इसके अलावा, जागरूकता के अभाव में कई लोग पोलियो की दवा को आज भी अपने बच्चों के लिए खतरनाक मानते हैं. कई तो अपने बच्चों को पोलियो की दवा से बचाने के लिए घर में छिपा देते हैं. मेघना याद करती हैं कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक गांव में एक परिवार अपने बच्चे को पोलियो की दवा पिलाने के लिए तब तक तैयार नहीं हुआ, जब तक इसके बदले उसे पैसे नहीं दिये गये. कई बार तो पोलियो की दवा पिलाने के लिए राजी करने के लिए हमारे साथियों को सड़कों पर, गलियों में बच्चों की मां का पीछा तक करना पड़ जाता था. ऐसे कई कार्यकर्ताओं के सहयोग से 2012 में भारत पोलियोमुक्त हुआ.

भारत में यह काम करने से पहले मेघना ने कभी सोचा भी नहीं था कि उन्हें किसी बीमारी का दमन करने के लिए न्यू जर्सी की चमक -दमक से दूर, भारत के सुदूर गांवों की धूल भरी सड़कों पर महिलाओं और बच्चों की खोज में भटकना पड़ेगा. लेकिन मेघना का मानना है कि ऐसा करके कोई समाजसेवा का काम नहीं कर रहीं. वह कहती हैं, ऐसा नहीं है कि मैं निस्वार्थ भाव से सेवा करनेवाली कोई महान शख्सियत हूं. यह मेरे लिए एक ऐडवेंचर, एक पैशन की तरह है. और मुङो इसी में मजा आता है. मेघना आगे बताती हैं, इस ओर मेरा आकर्षण तब जागा, जब मैंने जिनेवा में अपने साथियों को विकासशील देशों में मास इम्यूनाइजेशन कैंपेन में काम करते देखा. मेघना वहां एलन रोजेनफील्ड ग्लोबल हेल्थ फेलोशिप प्रोगाम के तहत टीकाकरण अभियानों के आंकड़े जुटाने के लिए गयी थीं, जो समय-समय पर विज्ञान पत्रिकाओं में छपते हैं. फिर क्या था! टीकाकरण अभियानों में लगे अपने साथियों के काम करने के तरीके और फील्ड वर्क की चुनौतियों को खुद से महसूस करने के लिए मेघना ने भी इस क्षेत्र में अपना हाथ आजमाने का फैसला किया. इसके लिए उन्होंने जॉजिर्या स्थित एमरी यूनिवर्सिटी से पब्लिक हेल्थ इन एपिडीमियोलॉजी से मास्टर्स की डिग्री ली.

अमेरिका में बसे अन्य भारतीयों की तरह मेघना को भी दो से तीन हफ्तों के भीतर ही असली भारत का अनुभव हो गया. और तो और, बेंगलुरु जैसे शहरी इलाके से ताल्लुक रखनेवाली मेघना को उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों का अनुभव कभी नहीं हुआ था. वह कहती हैं, मैं इस क्षेत्र की गरीबी और पिछड़ेपन को देखकर अचरज में पड़ गयी थी. अमेरिका में जब आप बीमार होते हैं तो लोग आपकी खोज-खबर लेते हैं, लेकिन यहां तो स्थिति बिलकुल उलट थी. लोगों का जीवन स्तर, खान-पान और यहां तक कि पीने का पानी भी उस ढंग का नहीं है, जैसा होना चाहिए. भारत के अलावा, लाओस और नाइजीरिया जैसे देशों में काम कर चुकीं मेघना कहती हैं कि इलाज के लिए तड़पते बीमार बच्चे और कुपोषण की ऐसी स्थिति मैंने और किसी देश में नहीं देखी.

इन सबके बावजूद, मेघना भारत में फिर काम करना चाहती हैं. वह कहती हैं, मैं भारत की प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा में सुधार और शिक्षा के जरिये महिलाओं को समर्थ होते देखना चाहती हूं, ताकि वे अपने बच्चों का लालन-पालन स्वच्छ और स्वस्थ वातावरण में कर सकें. और एक दिन ऐसा आये कि इस देश की महिलाएं अपने घर से निकल कर स्वास्थ्य केंद्रों तक आकर यह कहें कि मेरे बच्चे को टीके की जरूरत है. (इनपुट – रेडिफ)

Exit mobile version