। योगेंद्र यादव ।।
उप चुनाव के नतीजे भाजपा के लिए निश्चित ही अशुभ हैं. बहरहाल, यह बात दावे के साथ नहीं कही जा सकती कि ये नतीजे कांग्रेस या फिर अन्य विपक्षी पार्टी के लिए खास हैं. पिछले उप चुनाव से भाजपा के लिए जो अशुभ संदेश निकला उसने इस उप चुनाव के नतीजों में अपने को दोहराया है. लेकिन, कांग्रेस या फिर अन्य पार्टी के लिहाज से संकेत ना इतने सुसंगत हैं और ना ही इतने पुरजोर कि उन्हें इन पार्टियों के पक्ष में पैदा होते रु झान का नाम दिया जाये.
भाजपा अब इस बहाने की ओट में नहीं छुप सकती कि उप चुनाव मुकामी थे, सो इनके नतीजों से राष्ट्रीय स्तर के रु झान का पता नहीं चलता. यह बात ठीक है कि उप चुनावों में स्थानीय स्तर की बहुत सारी बातों का जोर रहता है और इसकी वजह से किसी सीधे रु झान को पकड़ना मुश्किल होता है. लेकिन, अगस्त से सितंबर के बीच करीब 50 सीटों पर उपचुनाव हुए हैं और इनमें ज्यादातर सीटों पर भाजपा का कब्जा था. यहां भाजपा ने मुंह की खायी है. इसे संयोग मात्र कह कर नहीं टाला जा सकता.
ऐसा नहीं है कि उप-चुनाव के नतीजे सिर्फ राज्य केंद्रित रुझान बता रहे हों. अमूमन, उपचुनावों में राज्य की सत्ताधारी पार्टियां बेहतर नतीजे हासिल करती हैं. एक तो, सत्ताधारी पार्टी प्रशासनिक तंत्र का इस्तेमाल वरदहस्त के रूप करती है. दूसरे, लोग खुद भी चाहते हैं कि सत्ताधारी पार्टी से शासन के शेष दिनों में उन्हें लाभ हो. इसलिए, उपचुनाव के नतीजों से यह भांप पाना मुश्किल होता है कि आगामी विस के चुनाव में मतदाताओं का मूड किस ओर झुकनेवाला है. उप चुनावों में राज्य स्तर पर सत्ताधारी पार्टी की तरफ झुकाव का मामला हाल के उप चुनावों में भी दिखा.
कांग्रेस ने उत्तराखंड और कर्नाटक में बेहतरीन प्रदर्शन किया. इन राज्यों में उसे सत्ताधारी पार्टी होने का लाभ मिला. शिरोमणि अकाली दल ने पंजाब में हुए दोनों उप चुनाव में बेहतर किया (एक सीट जीती और दूसरे पर वोट बढ़ाये). अकाली के इस सुधरे हुए प्रदर्शन से सत्ताधारी पार्टी की ताकत और उससे जुड़े लाभों की झलक मिलती है. यूपी के उपचुनाव में सपा की बड़ी जीत की वजह बसपा की गैर-मौजूदगी है. पर, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यूपी में सत्ताधारी पार्टी के रूप में सपा ने अपनी किस्मत को चमकाने के लिए जतन किये और उसे फायदा मिला. बिहार के उपचुनाव के नतीजों में गंठबंधन का जोर ज्यादा रहा, सत्ताधारी पार्टी होने से जुड़े फायदों का जोर कम.
ये सब राज्य-स्तरीय रु झान हैं. इन रु झानों से राष्ट्रीय स्तर का कोई निष्कर्ष निकालते वक्त सतर्क रहना जरूरी है. भाजपा की मुश्किल यह है कि राजस्थान और गुजरात में उसे सत्ताधारी पार्टी होने का फायदा नहीं मिला. जो पार्टी केंद्र और इन दो राज्यों में एकदम से चुनावी सुनामी सरीखे जोर के बूते सत्ता में बैठी, उस पार्टी के पैर एकदम खिसक गये. इसलिए, भाजपा उपचुनाव के नतीजों को राज्य स्तरीय कह कर खारिज नहीं कर सकती. दरअसल, जहां गैर-भाजपा दलों का शासन है, वहां भी भाजपा को खास फायदा नहीं हुआ.
पश्चिम बंगाल में उसने एक सीट जरूर हासिल किया, लेकिन असम में हासिल अपनी हालिया कामयाबी को वह अबकी ना भुना सकी. क्या उपचुनाव के नतीजों से कोई राष्ट्रीय रु झान उभरता है-यह सवाल तौ खैर पूछा ही जायेगा. लेकिन, इसका उत्तर देते वक्त सतर्क रहने की जरूरत है. राज्य स्तर पर होनेवाले चुनाव राष्ट्रीय स्तर पर मतदाताओं का मूड भांप पाने के लिहाज से बहुत कारगर साबित नहीं होते. भाजपा इस तर्क का इस्तेमाल उप चुनाव के नतीजों से ध्यान भटकाने के लिए कर सकती है. लेकिन, असल में मुद्दे की बात भी तो यही है. उपचुनाव के नतीजों ने जता दिया है कि मोदी मैजिक राज्य स्तरीय चुनावों के स्वायत्त आभामंडल की काट नहीं कर पाया है. भाजपा को उम्मीद होगी कि आम चुनाव में मिली बड़ी जीत कम से कम साल भर तक पूरे देश में उसे फायदा पहुंचायेगी. लेकिन, ऐसा होता नहीं दिख रहा.
लेकिन, तब क्या यह मानें कि मोदी लहर अब अपना शिखर छू कर पीछे लौट रही है? यह थोड़ा हड़बड़ी का फैसला होगा. हमें आगामी महीनों में होनेवाला विधानसभा चुनावों से मिलनेवाले संकेतों की प्रतीक्षा करनी चाहिए. भारत के चुनावी इतिहास में विरले ही ऐसा कोई उदाहरण देखने को मिला है, जब किसी पार्टी ने भारी बहुमत के बूते केंद्र में सरकार बनायी हो और उसके तुरंत बाद चुनावी जमीन पर उसके पैर उखड़ने लगे हों. (1980 व 1984 की कांग्रेस की जीत या फिर 1989 में जनता दल की जीत के तुरंत बाद विधानसभा के चुनाव हुए तो इन पार्टियों की जीत का सिलसिला जारी रहा) साफ है, अगर सारा देश अच्छे दिन के सुखसागर में गोते लगा रहा होता, तो फिर हमें ऐसे नतीजे ना देखने को मिलते.
भाजपा के लिए इन नतीजों के क्या सबक हैं? क्या भाजपा यह माने कि ह्यलव जिहादह्ण जैसे बेतुके और बनावटी मुद्दे खड़ा करने से उसे फायदा नहीं होनेवाला और उसके लिए बेहतर होगा कि एक बार फिर से वह विकास के अपने मुद्दे पर लौट आये? या फिर भाजपा यह माने कि वह मतदाताओं के बीच पर्याप्त ध्रुवीकरण नहीं कर पायी? क्या भाजपा को दिल्ली विधानसभा के लिए एक अनैतिक सरकार बनाने की अपनी कोशिशों से बाज आना चाहिए? या फिर भाजपा यह निष्कर्ष निकाले कि दिल्ली में उसका चुनावी भविष्य सफाचट हो चला है, सो उसे किसी भी जतन से दिल्ली में सरकार बनाना ही होगा? उपचुनाव के सीमित संकेतों से कहीं ज्यादा ऊपर के इन प्रश्नों के जवाब से तय होगा कि आगे राजनीति किस करवट बैठनेवाली है.