विकेंद्रीकरण : पंचायत प्रतिनिधियों का एक अधूरा सपना

।। सिराज दत्ता ।। मनरेगा ही एक मात्र आशा थी हमलोगों के लिए, और अब वो भी हम से ले ली गयी है- ये शब्द हैं पश्चिमी सिंहभूम के एक पंचायत मुखिया के. वह काफी उत्साहित थीं जब 2010 के पंचायत चुनाव में वह मुखिया चुनी गयी थीं और उनकी एक ही तमन्ना थी कि […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 24, 2014 4:28 AM
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।। सिराज दत्ता ।।

मनरेगा ही एक मात्र आशा थी हमलोगों के लिए, और अब वो भी हम से ले ली गयी है- ये शब्द हैं पश्चिमी सिंहभूम के एक पंचायत मुखिया के. वह काफी उत्साहित थीं जब 2010 के पंचायत चुनाव में वह मुखिया चुनी गयी थीं और उनकी एक ही तमन्ना थी कि वह पंचायत को विकास की ओर ले जानेवाली जन-प्रतिनिधि बनें. लेकिन उन्हें मालूम न था कि जल्द ही वह सिर्फ एक कठपुतली प्रतिनिधि बन के ही रह जायेंगी.
मनरेगा कानून के अनुसार, ग्राम पंचायत को कम से कम 50 फीसदी योजनाओं का चयन एवं क्रि यान्वयन करना है. इस कानून का एक मुख्य उद्देश्य विकेंद्रीकरण एवं जमीनी लोकतांत्रिक व्यवस्था को सशक्त करना है. लेकिन झारखंड एक ऐसा राज्य है, जहां पंचायतों से मनरेगा के तहत दिये हुए अधिकारों को फिर से वापस ले लिया गया है.
2010 के चुनाव के बाद पंचायतों को मनरेगा के तहत वित्तीय अधिकार दिया गया था. मनरेगा का फंड सीधा पंचायत के खाते में दिया जाता था. मुखिया, मस्टर रोल के अनुसार, चेक के माध्यम से पंचायत खाते से मजदूर के खाते में भुगतान करते थे. लेकिन, 2013 में इस अधिकार को वापस ले लिया गया है.
यह एक इलेक्ट्रॉनिक फंड प्रबंधन प्रणाली है. इसका काम मजदूरी भुगतान में देरी को कम करना एवं फंड स्थानांतरण प्रसंस्करण को नियमित करना है. यह प्रणाली आंध्र प्रदेश से ली गयी है. इस ह्यमॉडलह्ण को पूरे देश में कार्यान्वित किया जा रहा है. इस प्रणाली का मूल उद्देश्य है – जिला के नरेगा खाता से सीधा मजदूर के खाते में भुगतान हो जाये. मस्टर रोल की एंट्री के बाद एक एफटीओ (फंड स्थानांतरण आदेश) उत्पन्न होता है, जिसे डिजिटल हस्ताक्षर के माध्यम से प्रखंड, जिला एवं बैंक या पोस्ट ऑफिस के स्तर पर स्वीकृत करना पड़ता है. हर स्तर पर स्वीकृत होने के बाद जिला खाते से मजदूर के खाते में भुगतान ट्रांसफर की प्रक्रि या शुरू होती है.
इएफएमएस के प्रखंड विकास पदाधिकारी को एफटीओ स्वीकृत करने का अधिकार दिया गया है. इस वजह से अब मुखिया की कोई वित्तीय भूमिका नहीं बची. दिलचस्प बात यह है कि पंचायत के मुखियाओं को यह खबर भी नहीं थी कि इस प्रणाली के जरिए उन्हें मनरेगा के वित्तीय अधिकार से वंचित किया जा रहा था.
उन्हें सिर्फ इतना बताया गया था कि इएफएमएस द्वारा मजदूरी भुगतान समय पर हो पायेगा. इसके पहले की वह समझ सकते कि इएफएमएस क्या है, वह पूरे तंत्र के बाहर हो चुके थे. अब ज्यादातर मुखिया मनरेगा में अब कोई रुचि नहीं रखते हैं. यह भी देखा जा रहा है कि पोस्ट ऑफिस एवं ग्रामीण क्षेत्रों में इएफएमएस के बुनियादी ढांचे के अभाव के कारण मजदूरी भुगतान में और भी देरी हो रही है.
सरकारी पदाधिकारी अक्सर बोलते हैं कि पंचायत के पास इएफएमएस से जुड़ने के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचा नहीं है और इसी कारण से बीडीओ को वित्तीय स्वीकृति का अधिकार दिया गया है. ग्रामीण विकास मंत्रालय ने हाल में ही एक परिपत्र के माध्यम से सभी राज्यों को प्रखंड स्तर पर इएफएमएस लागू करने के लिए बुनियादी ढांचा सुनिश्चित करने का आदेश दिया है. सवाल यह है कि क्या यह ढांचा पंचायत स्तर पर सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है?
पंचायत चुनाव के बाद ग्रामीण खुश थे कि सरकार पंचायत के माध्यम से अब उनके और करीब आ रही थी. पश्चिमी सिंहभूम के कुछ ग्रामीणों से जब इएफएमएस के विषय में पूछा गया, तो उनकी एकमत राय थी- इसके कारण स्थानीय सरकार (पंचायत) का महत्व कम हो गया है. उनका यह भी कहना था कि मुखिया से वह कभी भी मजदूरी भुगतान में देरी के संबंध में जवाब मांग सकते थे और अच्छा प्रदर्शन न करने पर नया मुखिया भी चुन सकते थे, पर अब ऐसा न हो पायेगा.
पंचायत प्रतिनिधियों ने वित्तीय एवं प्रशासनिक विकेंद्रीकरण के विषय में राज्य सरकार को कई बार बताया है. लेकिन उसका कोई प्रभाव नहीं दिख रहा है. प्रतिनिधियों में असंतोष बढ़ता जा रहा है. हालांकि, राज्य में कुछ ऐसे अफसर हैं, जो मानते हैं कि लोकतंत्र के मजबूती के लिए उचित विकेंद्रीकरण की जरूरत है. वित्तीय और कार्यकारी शक्तियों के विकेंद्रीकरण के लिए प्रशासनिक दूरदर्शिता की आवश्यकता है.
(लेखक विकास के मुद्दे पर काम करनेवाले संगठन से जुड़े हैं.)
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