वर्ष 2000 के शुरुआत में भारत की अर्थव्यवस्था बूम पर थी, तो उसे दुनिया भर में सुपर पावर की तरह देखा जाने लगा था. यह मान लिया गया था कि एशिया में चीन को सिर्फ हिंदुस्तान ही टक्कर दे सकता है. फलस्वरूप अमेरिका समेत तमाम देश आर्थिक और रक्षा संबंध भारत से ही मजबूत करना चाहते थे. दुनिया भर के निवेशकों का यह पसंदीदा देश बन गया था. लेकिन, हाल के वर्षो में भारत की अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन को देखते हुए विदेशी निवेशक तो दूर हुए ही, देश के उद्योगपति भी अन्य देशों में निवेश करने लगे. तीन दशक बाद पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आयी नरेंद्र मोदी की अगुवाईवाली एनडीए सरकार अब दुनिया को यह भरोसा दिलाने की कोशिश कर रही है कि भारत में माहौल बदल रहा है. यहां धन लगानेवालों को कोई नुकसान नहीं होगा. मोदी की बातों का असर भी हो रहा है. यही वजह है कि गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी को वीजा देने से इनकार करनेवाला अमेरिका आज उनके वहां पहुंचने पर पलकें बिछाये खड़ा है. पहली बार भारत के प्रधानमंत्री का अमेरिका में उस अंदाज में स्वागत हो रहा है, जैसे दुनिया के किसी भी देश में अमेरिका के राष्ट्रपति का अब तक स्वागत होता रहा है.
बाज का ध्यान खींचने के लिए हाथी को नचाएं
स्वामीनाथन एसए अय्यर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा कोई रणनीतिक संबंध स्थापित कर लेने का विजय अभियान नहीं, नुकसान की भरपाई की कोशिश है. भारत-अमेरिका संबंध धूल से भरे टूटे कार की तरह है. मोदी को धूल साफ करने से अधिक कुछ करना चाहिए. उन्हें भारत को आर्थिक ऊर्जा घर में बदलना चाहिए, जो वैश्विक स्तर पर फिर से प्रासंगिक हो सके और दूसरों के लिए रणनीतिक महत्व रख सके.
इस सदी के पहले दशक में भारत का सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) तेजी से बढ़ा था, जिससे उसे संभावित आर्थिक महाशक्ति और एशिया में चीन के रणनीतिक उत्तर के रूप में देखा जाने लगा था. भारत, अमेरिकी व्यापार के लिए आकर्षक ठिकाना भी बन गया था, जिसके कारण वाशिंगटन में एक मजबूत भारत समर्थक समूह भी तैयार हुआ. उसी समूह के प्रयासों से परमाणु संधि हुई और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत के स्थायी सदस्यता के दावे को ओबामा का समर्थन मिला.
लेकिन, 2010 के बाद भारत की अर्थव्यवस्था में गिरावट आने लगी. डॉलर के हिसाब से तो यह बिल्कुल ही सिमट गयी थी. चीन की अर्थव्यवस्था की तुलना में इसका आकार एक-तिहाई से उसके पांचवें हिस्से तक पहुंच गया. नीतियां लोक-लुभावन, बाधक और निवेश के प्रतिकूल हो गयीं, जिससे विदेशी निवेश के साथ भारतीय निवेश भी गिरता चला गया.
पिछली गर्मियों में यह ‘संभावित महाशक्ति’ आर्थिक विनाश के कगार पर पहुंच गये ‘दुर्बल पांच’ देशों में गिना जाने लगा. एक डॉलर की कीमत 55 रुपये से 68 रुपये हो गयी. भारतीय नौकरशाही के अवरोधों और बाजार-विरोधी रवैये से तंग आकर अमेरिकी व्यापारियों का धैर्य जवाब दे गया. भारत समर्थक समूह भारत विरोधी हो गया. भारत के बाधक पेटेंट व्यवस्था, बढ़ते संरक्षणवाद, इन्फ्रास्ट्रक्चर की बरबादी, नये कर नियमन को पहले के व्यापार पर लागू करना (जैसा वोडाफोन मामले में हुआ), अंतरण मूल्यों पर अनगिनत कर विवाद, गैस खोजों पर मुक्त मूल्य निर्धारण पर भारत का पीछे हटना, दवा क्षेत्र में मूल्य नियंत्रण पर तेज दबाव, विश्व व्यापार संगठन समझौते में रोड़ा डालना और नयी परियोजनाओं की मंजूरी में लकवाग्रस्त देरी जैसे मसलों को लेकर अब अमेरिकी व्यापारी बहुत कड़वाहट से शिकायत करते हैं.
इन मसलों को निपटारे के लिए देश के बाहर जाकर हाथ मिलाने और देश को बड़ा निर्माण केंद्र बनाने के लिए विदेशियों से निवेश करने के निवेदन करने की नहीं, बल्कि देश के भीतर गंभीर परिवर्तन करने की जरूरत है. जब भारतीय ही देश में निवेश करने के लिए उत्साहित नहीं हैं, तो भला अमेरिकी क्यों करेंगे? मंगल ग्रह की कक्षा में अंतरिक्ष यान स्थापित करना बहुत बड़ा तकनीकी प्रदर्शन है, लेकिन यह वाणिज्यिक सफलता का विकल्प नहीं है. भारत के परमाणु कानून में मौजूद उत्तरदायित्व के उपनियम ने एक झटके में ही बुश-सिंह परमाणु करार को बेमतलब कर दिया. नये रिएक्टर के लिए अब तक कोई एक भी ठोस समझौता नहीं हुआ है.
अगर मोदी इस स्थिति में बदलाव लाने का निर्णय करते हैं, तो यह एक महत्वपूर्ण बात होगी. लेकिन, इसके लिए मनोवृत्ति में बड़े बदलाव की जरूरत है. मोदी द्वारा रक्षा, बीमा और रेल के बुनियादी ढांचे में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) की सीमा बढ़ाने से अमेरिकी व्यापारियों का उत्साह नहीं बढ़ा है, क्योंकि वे प्रबंधन पर कोई नियंत्रण नहीं होने और 49 फीसदी की हिस्सेदारी से संतुष्ट नहीं होंगे.
कुल मिला कर, भारत-अमेरिकी रणनीतिक संबंध के लिए जरूरी है कि भारत अपनी व्यवस्था को पटरी पर लाये और संभावित महाशक्ति के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करे. ऐसा होने पर ही अमेरिका की दिलचस्पी बढ़ेगी. दूसरी जरूरत रणनीतिक संबंध में विदेशी व्यापार और निवेश के प्रति भारत के खुलेपन की है, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सोच के विपरीत है. तीसरी जरूरत अमेरिका की विशेष रुचियों पेटेंट व्यवस्था और परमाणु उत्तरदायित्व जैसे पेचीदा मसलों पर ध्यान देने की है. इनके बिना, मोदी की यह यात्र अमेरिकी टेबुल से दोस्ती के झूठे वादों से सजे कुछ टुकड़ों से अधिक हासिल कर ले, तो यह भाग्य की बात होगी.
(अनुवाद : खुशहाल सिंह) (इकॉनोमिक टाइम्स से साभार)