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छठ महापर्व-4: बेटी मांगनेवाला है यह कठिन व्रत

सूर्योपासना के लोक पर्व छठ की अपनी खास विशेषताएं भी हैं. यह ऐसा पर्व है, जिसमें पहले डूबते हुए सूर्य को और फिर उगते हुए सूर्य को अर्घ प्रदान किया जाता है. भगवान भास्कर से सुख के सभी साधनों के साथ-साथ बेटियां भी मांगी जाती हैं. महिलाओं के खिलाफ बढ़ रही हिंसा के इस दौर […]

सूर्योपासना के लोक पर्व छठ की अपनी खास विशेषताएं भी हैं. यह ऐसा पर्व है, जिसमें पहले डूबते हुए सूर्य को और फिर उगते हुए सूर्य को अर्घ प्रदान किया जाता है. भगवान भास्कर से सुख के सभी साधनों के साथ-साथ बेटियां भी मांगी जाती हैं. महिलाओं के खिलाफ बढ़ रही हिंसा के इस दौर में बेटियों को प्रतिष्ठित करनेवाले इस पर्व की बहुत सारी खूबियां हैं. पढ़ें अगली कड़ी.

यूं तो शास्त्र-पुराण और लोक साहित्य की दुहाई देकर लोग लिखते -पढ़ते, बोलते- कहते सुने जाते हैं कि भारतीय समाज में स्त्री-विरोधी मन और व्यवहार रहा है. बेटी के जन्म लेते ही उसे नमक चटा कर मार देने, उसका पालन-पोषण उचित ढंग से नहीं करने, उसे घर के अंदर पीड़ित करने तथा समाज में भी दोयम दर्जा देने के उदाहरण दिये जाते हैं. विदेशों में भी यही धारणा फैलायी गयी कि भारतीय समाज स्त्री विरोधी है.

सच बात तो यह है कि जैसा चश्मा चढ़ाओगे, वैसा दिखेगा रंग. तीन दशकों से इसी समाज में एक नयी बीमारी फैली है, कन्या भ्रूण हत्या. इसी बालिका विरोधी कार्यो की प्रगति के कारण स्त्री -पुरुष अनुपात में भारी कमी आ गयी है. यह वर्तमान का सच है, पर भारतीय समाज का सच नहीं है. इतिहास नहीं है. सच तो यह है कि यदि भारतीय समाज के मन या इसकी विशेषता समझनी हो, तो इसके लोक साहित्य में झांकना आवश्यक होता है. लोक परंपराएं रीति-रिवाज, पर्व-त्योहारों, सोलह स्ांस्कारों के अवसर पर गाये जानेवाले लोकगीतों में समाज की दृष्टि और व्यवहार परिलक्षित होते हैं.

बिहार-झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश में मनाया जानेवाला व्रत ‘छठ पूजा’ देश के कोने-कोने और विदेशों में भी (जहां बिहारी जाकर बस जायें) मनाया जाता है. चार दिनों तक चलनेवाले इस कष्टप्रद और आनंददायी व्रत की अपनी कुछ विशेषताएं हैं. जैसे डूबते हुए सूर्य को पहला अर्घ देना. उगते हुए को सब प्रणाम करते हैं, पर डूबते को प्रणाम करना अस्वाभाविक ही दिखता है. इसका गहरा अर्थ है – जो गया है, वह आयेगा. आशा झलकती है. आस्था की जड़ में आशा ही तो है. दूसरी विशेषता है संपूर्ण समाज को जोड़नेवाला भाव. इस व्रत के अवसर पर गाये जानेवाले गीतों से समाज के मन का पता चलता है. एकमात्र व्रत है, जिसमें व्रती महिलाएं सूर्य देव से बेटी भी मांगती हैं. एक गीत में सूर्य देव स्त्री की तपस्या से प्रसन्न हो जाते हैं. वे कहते हैं – ‘मांगू मांगू तिरिया किछु मांगव जे किछु हृदय में समाये.’ व्रती महिला सूर्य से मांगना प्रारंभ करती हैं. हल-बैल, नौकर-चाकर, गाय, बेटा-बहू मांग लेती हैं, पर उसे बेटी भी चाहिए. इसलिए वह कहती है. ‘बायना बांटे ला बेटी मांगी ले, पढ़ल पंडित दामाद’ सूर्य देव प्रसन्न होते हैं. वे उस व्रती महिला की सभी मांगें पूरी करने का आश्वासन देते हैं और कहते हैं- ‘एहो जे तिरिया सर्व गुण आगर, सब कुछ मांगे समलुत. ‘यह व्रती स्त्री सभी गुणों से भरपूर है. इसने परिवार चलाने के जो चीजें मांगी हैं, वे एक संतुलित पारिवारिक जीवन के लिए आवश्यक हैं. सूर्य देव स्त्री की सूझ-बूझ की प्रशंसा करते हैं .

वह परिवार की आर्थिक उन्नति के लिए हल – बैल और हलवाहा (कृषि प्रधान परिवार) मांगती है, सेवक- सेविकाएं और गाय मांगती है. बेटा-बहू, पर साथ -साथ बेटी और दामाद भी मांगती है. यह भारतीय समाज की दृष्टि रही है. बेटा तो चाहिए ही , पर बेटी के बिना घर की शोभा नहीं बढ़ती. हमारे ग्रामीण जीवन में यहां ‘कुंआरे आंगन’ जैसे शब्द भी हैं. धारणा है कि यदि किसी आंगन में बेटी के विवाह के फेरे नहीं पड़े, तो वह आंगन ही कुंआरा रह गया. भाई के घर हुए शुभ अवसरों पर बहन नहीं नाची, तो आंगन सूना और रस्म फीकी रह गयी. आज कई सामाजिक कारणों से बेटी बोझ लगने लगी है. सच बात तो यह है कि बेटा- बेटी दोनों के होने से ही परिवार पूरा होता है. इसी समाज में बहुत से तीज -त्योहार और संस्कार बेटी के बिना पूरे ही नहीं होते.

समाज के मन को लोकगीतों के माध्यम से समझते हुए यह सूत्र हाथ लगा कि समाज और परिवार के लिए बेटी कभी बोझ नहीं रही है. बेटी की कामना तो हर मां-बाप की होती है. बेटी सुख भी अधिक देती है, परंतु वर्तमान सामाजिक कुरीतियों और आज एक ही बच्चा पैदा करने के मानस के कारण बहुत -सी बेटियां भ्रूण में भी समाप्त कर दी जाती हैं. समाज का सामूहिक मन आज भी बेटियों का सम्मान करता है. बृहतर समाज का मन इन्हीं लोक त्योहारों और गीतों से बनता है.

हम शहरीकरण और आधुनिकीकरण के कारण इन रीति-रिवाजों और त्योहारों के मूल भावों को भूलते जा रहे हैं. तीज-त्योहार भी बाजार पर निर्भर हो रहे हैं. बाजार समा गया है व्रत -त्योहारों के अंदर. आस्था- विश्वास और उमंग समाप्त हो रहा है. जन्मदिन से लेकर भाई दूज पर भी कौन कितना बड़ा उपहार लाता है, उसकी प्रधानता बढ़ गयी.

छठ पूजा (कार्तिक शुक्ल पक्ष, षष्ठी तिथि) सूर्य की पूजा है. सूर्य से ही सारी सृष्टि चल रही है. सब कुछ सूर्य पर निर्भर है. प्रकाश ही नहीं , जीवन देता है सूर्य, पर लोकमन के अंदर सूर्य की विशेषताओें और प्रभाव का एहसास लोकगीतों के माध्यम से कराया जाता रहा है- ‘अन्न, धन, लक्ष्मी हे दीनानाथ अहई के देवल ़़़.’ लोकगीतों में लोकमन स्वीकार करता है कि अन्न, धन और लक्ष्मी यानी भौतिक जगत सूर्य के कारण ही है. सूर्य पूजा में व्रती महिलाएं बार-बार सूर्य का धन्यवाद ज्ञापन करती हैं. उनकी महिमा गाती हैं.

औपचारिक शिक्षा में इन व्रत- त्योहारों का महत्व नहीं बताया जाता है. आज तो इंजीनियर, डॉक्टर, कंप्यूटर सांइंटिस्ट बनाया जाता है. पारिवारिक और सामाजिक स्त्री-पुरुष नहीं. जीवन संस्कार बदल गये. हमारा लोक जीवन विकास की दौर में बहुत पीछे छूटता और टूटता जा रहा है. बिना शास्त्र-पुराण और प्रवचन के भी लोकमन संस्कारित रहता है, स्त्री-पुरुष संतुलित व्यवहार करते आये हैं. इसका बड़ा कारण लोकगीत थे. आधुनिक शहरी जीवन में इन लोक व्यवहारों के लुप्त होने के कारण भी स्त्री के प्रति दृष्टिकोण बदल रहा है. बेटियां बोझ लगने लगीं. स्त्री सशक्तीकरण भी नारा होकर रह गया.

छठ पूजा में स्त्री की प्रधानता होती है. वही सूर्य से वार्तालाप करती है. सूर्य उसी की मांग मान कर परिवार को सुखमय करने के सारे उपकरण देते हैं. स्त्री परिवार की धुरी है. उसके सारे व्रत- त्योहार परिवार को सुखमय करने के लिए ही हैं. तभी तो बचपन से भाई, पति, पिता और फिर बेटे और पोते के दीर्घायु होने के लिए वह विभिन्न व्रत-त्योहार करती है. इस बार भी करोड़ों लोग जलाशयों में खड़े होकर (विशेषकर स्त्रियां) सूर्य द्वारा दिये गये सामानों से ही उन्हें अर्घ देंगे. व्रती स्त्री-पुरुषों से दस गुणा लोग व्रत देखेंगे. सूर्य को प्रणाम कर कृतज्ञता ज्ञापन करेंगे- ‘त्वदीयम् वस्तु गोविंदम् तुभ्यमेव समर्पये.’ सुख के सभी साधनों के साथ बेटी भी मांगेंगे. इन व्रतों की आस्था और अर्थ समाज में फैलना चाहिए.

मृदुला सिन्हा

हिंदी लेखिका और गोवा की राज्यपाल

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