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खाता-खतियान का डेटाबेस

सरकार चाहे, तो क्या नहीं हो सकता! लगभग डेढ़ दशक पहले कर्नाटक सरकार ने ‘भूमि’ परियोजना के नाम से जमीन दस्तावेजों के कंप्यूटरीकरण का काम शुरू किया था. उस समय जब देश के अधिकांश लोग कंप्यूटर का ‘क’ भी नहीं जानते थे, कर्नाटक में हस्तलिखित भू-अभिलेखों पर पूर्णतया पाबंदी लगा दी गयी. आज किस मुकाम […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 5, 2014 8:40 AM
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सरकार चाहे, तो क्या नहीं हो सकता!
लगभग डेढ़ दशक पहले कर्नाटक सरकार ने ‘भूमि’ परियोजना के नाम से जमीन दस्तावेजों के कंप्यूटरीकरण का काम शुरू किया था. उस समय जब देश के अधिकांश लोग कंप्यूटर का ‘क’ भी नहीं जानते थे, कर्नाटक में हस्तलिखित भू-अभिलेखों पर पूर्णतया पाबंदी लगा दी गयी. आज किस मुकाम पर और क्या रंग दिखा रही है यह परियोजना, आइए जानें ..
पटवारी से जमीन का खाता-खतियान बनवाना या उसमें सुधार करवाना आज की तारीख में भी एक टेढ़ी खीर है. शहरों में तो वे कुछ ले-दे कर काम कर भी देते हैं, लेकिन गांवों के लिए तो वे जैसे अपनी मरजी के मालिक हो जाते हैं. एक ही काम के लिए फरियादी से अंचल कार्यालय के चार बार चक्कर लगवाने में जैसे उन्हें बड़ा मजा आता है.
और तो और समय-समय पर जमीन कागज खोने या फाइल नष्ट होने का उनका बहाना तो सदाबहार होता है. ऐसे में सन् 1985 में तत्कालीन केंद्र सरकार की एक घोषणा से लोगों में इस बात की उम्मीद जगी कि जल्द ही उन्हें पटवारी के आगे घिघियाने से छुटकारा मिलेगा.
दरअसल, तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने जमीन के सारे खातों को कंप्यूटरीकृत करने की घोषणा की थी. लेकिन घोषणा तो घोषणा होती है, उसे धरातल पर उतरने में समय लगता है.
खैर, सन् 1998 में कर्नाटक सरकार ने ‘भूमि’ के नाम से एक नयी तरह की परियोजना शुरू की. इसके तहत जमीन संबंधी दस्तावेजों को कंप्यूटरीकृत किया जाना था. यह आइआइटी से पास आउट आइएएस अधिकारी राजीव चावला का प्रयास था, जिन्होंने इस काम के लिए डेटा एंट्री सॉफ्टवेयर तैयार कर राज्यभर के दो करोड़ दस्तावेजों को कंप्यूटरीकृत कराया. यह काम नया था, लिहाजा उन्होंने इस पर काम करने के लिए राज्यभर के नौ हजार से अधिक ग्रामीण लेखाकारों, राजस्व निरीक्षकों, सहायक आयुक्तों, तहसीलदारों और उपायुक्तों को प्रशिक्षण दिया.
दस्तावेजों की सही ढंग से एंट्री सुनिश्चित करने के लिए प्रत्येक एंट्री को उसके कागजी दस्तावेज और उस पर लगी आधिकारिक मुहर और हस्ताक्षर के साथ मिलाया जाता था. जब सारे दस्तावेजों का कंप्यूटरीकरण कर दिया गया, तो कागजी कार्यवाही पर रोक लगा दी गयी. अब सरकार कंप्यूटर से प्रिंट किये गये दस्तावेज ही जारी करने लगी थी.
जमीन के मालिकों को इससे तिहरा लाभ मिलने लगा. पहला, अब लोगों को अपनी जमीन के दस्तावेज साफ -सुथरे और स्पष्ट अक्षरों में मिलने लगे थे, जिन्हें वे बड़े आराम से पढ़ सकते थे. दूसरा, लोगों को अपने दस्तावेज पाने के लिए अंचल कार्यालय की भीड़-भाड़ का सामना नहीं के बराबर करना पड़ रहा था.
इस काम के लिए राज्यभर में तालुका स्तर पर 203 कियॉस्क बनाये गये थे, जहां 15 रुपये की मामूली फीस चुका कर कोई भी अपनी जमीन का कंप्यूटरीकृत दस्तावेज पा सकता था. तीसरा फायदा यह था कि अब जमीन के दस्तावेजों में किसी भी तरह की छेड़छाड़ संभव नहीं रह गयी. पहले लोग ग्रामीण लेखाकार को कुछ पैसे दे कर अपने जमीन के दस्तावेज में सुधार करा लेते थे, जबकि वह इस काम के लिए प्राधिकृत पद नहीं था.
इस बारे में सर्वे सेटलमेंट और भू-अभिलेख विभाग के आयुक्त वी पोनुराज का कहना है कि ऐसे ‘पावर’ वाले लोगों को पहले लालच दिया जाता है और इस तरह भ्रष्टाचार की गंगा बहती जाती है. चूंकि कंप्यूटरीकृत व्यवस्था के लागू होने से पहले तक जमीन-जायदाद संबंधी सारे दस्तावेज ग्रामीण लेखाकार के ही पास होते थे. और किसान को कभी कृषि ऋण लेने तो कभी जमीन की खरीद-बिक्री के लिए उनकी जरूरत पड़ती थी. अब अगर उसे मन किया तो वह आपका काम करे या न भी करे, और अगर करे तो आपसे अपने काम की मनमाफिक कीमत वसूल कर ले, यह उसकी मरजी.
पोनुराज आगे कहते हैं कि इस व्यवस्था के जरिये लेखाकार से लेकर उपायुक्त स्तर तक हर व्यक्ति की शक्तियां सीमित कर दी गयीं हैं. पोनुराज कहते हैं, हमने शक्तियों का बंटवारा हर स्तर पर किया है और हमारे यहां तीन स्तरीय सुरक्षा प्रणाली है. ‘भूमि’ को पासवर्डस, बायोमीट्रिक और डिजिटल सिग्‍नेचर के जरिये सुरक्षित किया गया है. इस तरी एक ग्रामीण लेखाकार चाह कर भी तहसीलदार की शक्तियों का प्रयोग नहीं कर सकता. इसके अलावा, दस्तावेजों के हर फेरबदल के बाद हमारा सॉफ्टवेयर खुदबखुद एक लॉग मेंटेन करता है.
इस व्यवस्था में हर काम के लिए एक निश्चित प्रक्रिया है, जिसे अपनाये बिना आप भू-अभिलेख में कोई बदलाव नहीं कर सकते. पोनुराज कहते हैं कि आज की तारीख में देश के कई राज्य हमारा मॉडल अपना रहे हैं, लेकिन हमारा सिस्टम सबसे सुरक्षित है और इसमें छेड़छाड़ की कोई गुंजाइश नहीं है. ऐसा इसलिए है क्योंकि जब आप एक समानांतर व्यवस्था चलाते हैं तो इस बात की ज्यादा संभावनाएं होती हैं कि आप पुरानी व्यवस्था पर लौट आयें.
पोनुराज बताते हैं कि अब कंप्यूटरीकृत दस्तावेज बनावेने का शुल्क 15 रुपये से घटा कर 10 रुपये कर दिया गया है. फिर भी हमें इतनी आय हो जाती है कि इस परियोजना का खर्च चलाने के लिए हमे सरकार पर निर्भर रहना नहीं पड़ता. बहरहाल, सन् 2008 में ‘भूमि’ परियोजना के साथ स्टाम्प्स ऐंड रेजिस्ट्रेशन सॉफ्टवेयर को जोड़ा गया.
इससे दस्तावेजों के मामले में जालसाजी और मुश्किल हो गयी. इसे समझाते हुए पोनुराज कहते हैं कि जमीन की बिक्री पंजीकृत होने से पहले खरीदने और बेचनेवाली, दोनों पार्टियों के दावे की जांच ‘भूमि’ डेटाबेस कर लेता है. इसमें जमीन के मालिक के नाम से लेकर उसकी संपत्ति के रकबे तक का मिलान शामिल होता है.यही नहीं, करीब चार साल पहले ‘भूमि’ परियोजना से अपरोक्ष तौर पर बैंकों को भी जोड़ा गया.
इसके तहत अगर कोई अपनी जमीन के एवज में बैंक से ऋण की मांग करता है तो बैंक की संतुष्टि के लिए ‘भूमि’ सॉफ्टवेयर के भू-अभिलेखों को बैंकों को मुहैया कराया जाता है. इंटरनेट के जरिये बैंक के संबंधित अधिकारी भू-अभिलेख की जांच कर संतुष्ट होने के बाद ऋण की राशि निर्गत कर देते हैं. पोनुराज बताते हैं कि इससे आम लोगों को भी फायदा है. चूंकि उन्हें ऋण के लिए बार-बार बैंकों के चक्कर नहीं लगाने पड़ते. ‘भूमि’ की इस नयी व्यवस्था के लागू होने के बाद भू स्वामी को केवल दो बार बैंक जाने की जरूरत होती है. पहली बार तब जब उसे ऋण लेने के लिए आवेदन देना होता है और दूसरी बार तब जब बैंक उसे ऋण की रकम देने के लिए बुलाता है. पहले यह काम दो से तीन महीने में होता था, अब इसमें महज दो से तीन दिन लगते हैं.
‘भूमि’ परियोजना के तहत कम समय में ज्यादा से ज्यादा लोगों की जरूरतों को पूरा कर पाने के लिए और अधिक कियॉस्क्स की जरूरत पर बल देते हुए पोनुराज कहते हैं कि पहले जिन लोगों के काम होने में दो महीने लगते थे, वे अब कतार में 10 मिनट खड़े होने के लिए तैयार नहीं दिखते. इसे कहते हैं विकास!
(इनपुट : फाउंटेन इंक)
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