ढुल्लुओं पर ढलती भाजपा

अच्छे दिनों की आस में संघ-भाजपा कार्यकर्ताओं के बुरे दिन-तीन कुजात स्वयंसेवक हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥ -ईशोपनिषद् अर्थात् ‘सत्य का मुख सोने के (चमकीले) आवरण से ढका है. सत्य का दर्शन करने के लिए उस चमकदार आवरण को हटाना होगा.’ उपनिषद् का ऋषि ठीक तो कहता है. आरएसएस एवं भाजपा के […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 8, 2014 7:25 AM
अच्छे दिनों की आस में संघ-भाजपा कार्यकर्ताओं के बुरे दिन-तीन
कुजात स्वयंसेवक
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥
-ईशोपनिषद्
अर्थात् ‘सत्य का मुख सोने के (चमकीले) आवरण से ढका है. सत्य का दर्शन करने के लिए उस चमकदार आवरण को हटाना होगा.’ उपनिषद् का ऋषि ठीक तो कहता है. आरएसएस एवं भाजपा के अंदर का सत्य इनके कर्णधारों के पाखंडपूर्ण क्रियाकलापों के चमकीले आवरण से ढका है. अगर सच को जानना-समझना हो तो उस आवरण के नीचे झांकना होगा.
देखिए, ‘अच्छे दिन आनेवाले हैं’ के कपटपूर्ण-स्वर्णमृग के पीछे अनुयायी कार्यकर्ताओं को दौड़ा कर संघ-भाजपा के मिथ्याचारी आदर्शवाद रूपी सीता के अपहरण में पूरे जी-जान से लगे हैं. झारखंड विधानसभा चुनाव के लिए घोषित पहली सूची में भाजपा ने दर्जन भर दल-बदलुओं को पार्टी-टिकट थमा दिया है. हां, घोषित 63 उम्मीदवारों में 12, यानी 20} (शेष बची सीटों पर भी यही ट्रेंड रहनेवाला है). इसे देख कर संघ के आदर्शवादी स्वयंसेवक, भाजपा का निष्ठावान कार्यकर्ता वर्ग एवं पार्टी के प्रतिबद्ध समर्थक आठ-आठ आंसूबहा रहे.
लेकिन सत्ता के स्वाद को किसी भी कीमत पर चखने को आतुर संघ-भाजपा के नेताओं को इससे क्या फर्क पड़ता है? क्या वध के लिए लायी गयी गाय के रोने-कलपने का किंचित असर वधिकों (बूचड़ों) पर होते किसी ने देखा है? नहीं, कदापि नहीं.
संघ-भाजपा के वंचकों के चरित्र का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण एक ऐसे ‘महामानव’ को पार्टी टिकट से नवाजना है, जिस पर रंगदारी, अपहरण एवं हत्या के प्रयास (धारा 307) के संगीन मामले चल रहे हैं. जो ऐसे मामलों में जेल की सजा काट कर अभी जमानत पर है. हां, वही ढुल्लू महतो जिसे भाजपा ने बाघमारा विधानसभा (धनबाद) से पार्टी टिकट पर चुनाव मैदान में उतारा है. पार्टी की पंच-निष्ठाओं में शामिल ‘मूल्याधारित राजनीति’ (वैल्यू बेस्ड पॉलिटिक्स) की कितनी सुंदर मिसाल है यह, जिसकी डींगें हांकते हमारे महानुभाव थकते नहीं. बेशर्मी की हद तो यह है कि इसके बावजूद भाजपा स्वयं को ‘पार्टी विथ डिफरेंस’ कहना नहीं छोड़नेवाली!
सर्वाधिक विस्मयकारी तब होगा जब कोई कार्यकर्ता अपने इन माननीयों के पास दल के घोषित सिद्धांतों या आदर्शो की पटरी से उतरने की शिकायत लेकर जाता है. बड़े महात्माई अंदाज में प्रवचन सुनने को मिलेगा- ‘‘अरे भई, तुम राजनीति में केवल आदर्श की बात करते हो, व्यवहार नहीं समझते? आप सिद्धांत जानते हैं, नीति नहीं.
यहां राम के आदर्श नहीं, श्रीकृष्ण की कूटनीति चलती है.’’ लेकिन जब वह कार्यकर्ता अपने माननीयों से यह प्रश्न करता है कि ‘‘भगवन्! श्रीकृष्ण की तो सारी राजनीति, सारी कूटनीति अन्यायियों, अत्याचारियों एवं भ्रष्टाचारियों को सत्ता से हटाने और धर्ममार्ग पर चलनेवाले सदाचारियों को सत्ता में बैठाने की रही. देखिए, कृष्ण ने आततायी कंस का वध कर उग्रसेन को मथुरा की राजगद्दी सौंपी.
अन्यायी कौरवों को अपने कूटनीतिक कौशल से परास्त कर हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर सत्यवादी पांडवों को बैठाया. महात्मन्! आप तो श्रीकृष्ण की कथित कूटनीति का आश्रय लेकर मर्यादापुरुष श्रीराम के हाथों अन्यायी बाली की जगह निरीह सुग्रीवों (कार्यकर्ताओं) को ही निशाना बनाने की पटकथा पर यह जो ‘लभेद रामायण’ रच रहे हैं, उसका गूढ़ार्थ कृपया हमें समझाइए.’’ इस पर ये बौद्धिक पुरुष, संघ के प्रचारक व अधिकारीगण तथा वाक्-चातुर्य में माहिर भाजपा के महान नेतागण एवं ‘संगठन मंत्री भाई साहब लोग’ सुविधा के अनुसार सत्य का ऊटपटांग व्याख्या करने लगेंगे- सत्ता का स्वाद चखने की सुविधा के अनुरूप! हां, कार्यकर्ता अगर थोड़ा अधिक बहस करने की हिमाकत करें तो माननीयों की मंडली कथित अनुशासन की कैंची निकाल कर उसके ‘पर कतरने’ की बहादुरी पर उतर आयेगी. पार्टी के सिद्धांतों-आदर्शो एवं मर्यादाओं को तहस-नहस कर पार्टी के अंदर न्याय-व्यवस्था पर बुलडोजर चलानेवाले इन नेताओं के क्रियाकलापों को देख-समझ कर मुङो तो श्रीगुरुजी गोलवलकर के श्रीमुख से सन 1969 में सुनी गयी एक बोधकथा का बरबस स्मरण हो आता है, जब मैं ओटीसी तृतीय वर्ष के शिक्षार्थी के नाते नागपुर गया था.
श्रीगुरुजी ने सुनाया -‘‘प्रोक्रस्टीज नामक एक हिंसक राक्षस राहगीरों की असावधानी का लाभ उठा कर उनको जंगल में स्थित अपनी कुटिया में आमंत्रण देता था. वह खाट पर उन्हें सुलाता था. यदि आदमी खाट से लंबा होता तो वह क्रूर लुटेरा राहगीर की अतिरिक्त लंबाई छांट देता. यदि वह खाट से छोटा होता तो उसे बलपूर्वक खींच कर खाट के बराबर लंबा कर डालता. इस प्रकार वह दानव राहगीरों की हत्या करने का नायाब प्रयोग करता रहता था.’’ इस कहानी को सुना कर श्रीगुरुजी बतलाते थे कि देश के नेतागण अपनी सुविधावादी राजनीति के हिसाब से किस प्रकार सिद्धांतों की कांट-छांट करते हैं. तब श्रीगुरुजी का इशारा कांग्रेस की भ्रष्ट राजनीति की ओर था. लेकिन आज यदि श्रीगुरुजी की उस बोधकथा के मर्म को देखना हो तो जरा उनके ही कथित मानस पुत्रों के अंदर झांकिए- उस मर्म के दर्शन हो जायेंगे.
श्रीगुरुजी एक जगह कहते हैं – ‘‘सत्ता भ्रष्ट करती है तथा संपूर्ण सत्ता संपूर्णरूपेण भ्रष्ट करती है.. एक बार सत्ता मिलने पर उसे किसी भी मूल्य पर बनाये रखने की आकांक्षा सत्ताधारियों में उत्पन्न हो जाती है. ऐसी दशा में जनता के प्रति देखने का यह भाव हो ही जायेगा कि मैं स्वामी हूं, और तुम मेरे दास हो.. एक समय कांग्रेस के बड़े नेता बड़े ही त्यागी एवं देशभक्त थे. उनके ज्वलंत उदाहरणों से जनता भी सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्राप्त करती थी, किंतु आज उनकी दशा क्या है? उनके वर्ग में भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद तथा सत्ता-लोलुपता अनियंत्रित रूप से बढ़ रही है.. आज हम इसके भयंकर परिणाम देखते हैं. उन परिणामों की भयंकरता केवल कांग्रेस तक ही सीमित नहीं, अपितु संपूर्ण देश में भुगतने के लिए है.- मा. स. गोलवलकर/ विचार नवनीत – पृष्ठ 67. लोकहित प्रकाशन लखनऊ (1979).
कहना नहीं होगा कि ये जो बातें श्रीगुरुजी ने कांग्रेस के लिए कही थीं, उसे अब भाजपा चरितार्थ कर रही है. क्या आज इसके अंदर भ्रष्टाचार, सत्ता-लोलुपता तथा भाई-भतीजावाद बेलगाम नहीं हो चला है? क्या ऐसा ही दल अपने अनुयायियों में ध्येयवाद या आदर्शवाद की प्रेरणा भर सकता है जो कि गांधी, गोलवलकर, दीनदयाल या जयप्रकाश नारायण के अनुसार राष्ट्र-निर्माण की प्रथम शर्त है?
जिस झारखंड को पार्टी के महान नेता अटलजी ने जन्म दिया, उसे आगे बढ़ाने का क्या यही मार्ग है? अगर भाजपा खुल्लमखुल्ला दल-बदलुओं, सत्ता-लोभियों, भ्रष्टाचारियों, रकीबुलों की पीठ पर हाथ फेर कर प्रदेश को वर्तमान राजनीतिक दलदल से उबारने का दावा कर रही है तो यह राज्य की जनता को बेवकूफ बनाने के सिवा और क्या है?
संघ एवं भाजपा के कार्यकर्ताओं ने देश की राजनीति में दशकों मगजमारी रूपी समुद्र मंथन कर पार्टी को सत्ता रूपी अमृत पाने योग्य बनाया. जो अवसरवादी तत्व समुद्र मंथन के वक्त न तो वासुकि के मुंड की तरफ थे और न ही पूंछ की तरफ, अब वे अमृत पीने की अग्र पंक्ति में पार्टी द्वारा बैठाये जा रहे हैं. दूसरी ओर समुद्र मंथन में खून-पसीना बहानेवाले उस पंक्ति से धकिया कर निकाले जा रहे हैं, जिसका परिणाम झारखंड प्रदेश भाजपा कार्यालय में कार्यकर्ताओं के फूटते प्रचंड आक्रोश के रूप में सामने है, जिससे घबरा कर पार्टी के माननीय लोग गेट में ताले जड़वा कर हाउस-अरेस्ट हो गये हैं.
समाज व जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय अच्छे, चरित्रवान एवं निष्ठावान लोग राजनीति में आयेंगे तभी राजनीति संवरेगी. राजनीति संवरेगी तो समाज, राज्य और देश का चित्र भी बदलेगा. लेकिन जिनके कामों से अनाचार, दुराचार, कदाचार एवं भ्रष्टाचार को बल मिलता है, उनको गोद में बैठा कर सांसद, विधायक या मंत्री बनानेवाली भाजपा अपनी कब्र खुद ही खोद रही है. गलत तत्वों के संक्रमण से पार्टी की उज्ज्वल परंपरा लगातार प्रदूषित हो रही है, जिससे दल के अच्छे कार्यकर्ता भी गलत राह पर चल पड़े हैं.
भाजपा की स्थापना के बाद दिसंबर 1980 में पार्टी के प्रथम पूर्ण अधिवेशन को संबोधित करते हुए दल के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था- ‘हमें एक ऐसा समाज बनाना है जो कुछ जीवन-मूल्यों पर आधारित हों.
भाजपा राजनीति में, राजनीतिक दलों में तथा राजनीतिक नेताओं में जनता के खोये विश्वास को बहाल करने के लिए सिद्धांतों की राजनीति करेगी. पद-पैसा-प्रतिष्ठा के पीछे पागल होने वालों के लिए यहां कोई जगह नहीं होगी.’ अब कोई बतलाये कि पार्टी अपने कार्यकर्ताओं काहक मार कर रातोंरात झंडे, नारे एवं टोपियां बदलनेवाले दल-बदलुओं को टिकट परोस कर किन सिद्धांतों की राजनीति कर रही है? इन दल-बदलुओं के कौन से जीवन-मूल्य हैं? क्या ऐसी ही राजनीति करके भाजपा जनता का भरोसा राजनेताओं और राजनीतिक दलों में बहाल कर पायेगी? संघ-भाजपा के पुरोधा यह बतलाने की कृपा करें कि जिस बात से अटलजी ने आगाह किया था, उसी पद-पैसे-प्रतिष्ठा के पीछे पागल होनेवालों के लिए वे पार्टी के अंदर जगह क्यों बना रहे हैं?
आपातकाल के दौरान संघ-जनसंघ का आदर्शवाद सैद्धांतिक मतभेद रखनेवाले लोकनायक जयप्रकाश नारायण को भी इनके निकट लाया था. अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘मेरा देश मेरा जीवन’ में पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी कहते हैं- ‘‘जेपी की यह मान्यता थी कि राजनीति में सिद्धांत से अधिक महत्वपूर्ण आदर्शवाद होता है. जब वे महसूस करते थे कि जनसंघ का सिद्धांत उनकी मान्यताओं के अनुरूप नहीं है, तब भी वे उसके कार्यकर्ताओं के आदर्शवाद की सराहना करते थे. वे सचमुच विश्वास करते थे कि जनसंघ के नेता और कार्यकर्ता ईमानदार हैं, देशभक्त हैं, जिन्हें भ्रष्ट नहीं किया जा सकता.. ’’ आत्मा अमर है. आज जेपी की आत्मा यह देख कर तड़प रही होगी कि किस प्रकार संघ-भाजपा के महानुभाव आदर्शवाद को कसाईघर की ओर घसीट रहे हैं.
11 फरवरी, 1968 को किसी हत्यारे ने तो पं दीनदयाल उपाध्याय के शरीर की हत्या की, लेकिन दीनदयाल के विचारों, एवं आदर्शो के हत्यारे तो उनके कथित मानस पुत्र ही सिद्ध हो रहे हैं. .. रचयितुं विनायक, रचयामास वानर: (गणोश बनाते-बनाते हमने उसे बंदर बना डाला).

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