श्रीराम के प्रायश्चित से बड़ी नहीं थी वह हार

अजय कुमार, बक्सर बक्सर युद्ध, 1764 : 250 साल बाद विमर्श गंगा के तट पर यह सवाल मुखर होकर उभरा कि धनुर्धर श्रीराम जब ताड़का का वध कर प्रायश्चित कर सकते हैं, तो हम अपने नायकों को इतिहास के केंद्र में क्यों नहीं ला सकते? बक्सर के रामरेखा घाट के पास गंगा उत्तरायण होकर बंगाल […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 11, 2014 10:04 AM
अजय कुमार, बक्सर
बक्सर युद्ध, 1764 : 250 साल बाद विमर्श
गंगा के तट पर यह सवाल मुखर होकर उभरा कि धनुर्धर श्रीराम जब ताड़का का वध कर प्रायश्चित कर सकते हैं, तो हम अपने नायकों को इतिहास के केंद्र में क्यों नहीं ला सकते? बक्सर के रामरेखा घाट के पास गंगा उत्तरायण होकर बंगाल की राह पकड़ती है. बक्सर से पांच किलोमीटर दूर अहिरौली गांव के बाद और एक प्रकार से गंगा के कछार पर बक्सर युद्ध के संदर्भ में विमर्श के वास्ते सोमवार को कई लोग जुटे हुए थे.
यह विमर्श बक्सर में 1764 में हुए युद्ध की 250वीं वर्षगांठ पर आयोजित किया गया था. गंगा के उस पार उत्तर प्रदेश का इलाका है. आने-जाने के लिए किनारे नाव लगी हैं. वैसे गंगा पर बना पुल ही यातायात का प्रमुख साधन बन गया है.
साझी विरासत की मिसाल
बक्सर के युद्ध में हिंदुस्तान पर राज करनेवाले मुगल, अवध और बंगाल रियासत की सेनाएं एक तरफ थीं, तो दूसरी ओर थी मेजर मुनरो के नेतृत्व में अंगरेजों की सेना. उस युद्ध में जीत के बाद इस्ट इंडिया कंपनी की शासन के लिहाज से हिंदुस्तान पर पकड़ मजबूत हो गयी थी. उसी युद्ध में सैयद अब्दुल गुलाम और अब्दुल कादिर रहमतुल्लाह जैसे दो योद्धाओं सहित संयुक्त सेना के सैकड़ों सैनिक मारे गये थे. पर, हमारे मुख्य धारा का इतिहास उन योद्धाओं, उनके प्रतिरोध को याद भी नहीं करता. कहते हैं कि संयुक्त सेना में हिंदुओं के साथ मुसलमान भी थे और दोनों ने मिल कर कंपनी की सेना का मुकाबला किया था.
मेले के बीच इतिहास पर चर्चा
अहिरौली में पंचकोसी यात्रा पर मेले का आयोजन भी होता है. ग्रामीण मेले के बीच ग्रामीण इतिहास लेखन पर चर्चा अनोखी घटना की तरह है. लगातार दूसरे वर्ष ग्रामीण इतिहास लेखन पर विमर्श हुआ. मेले में गुड़ के पाग बन रहे हैं तो गुड़ की जलेबी बिक रही है. भूईयां (जमीन) में मनिहारी की दुकानें सज गयी हैं. बच्चे झूले पर बैठे शोर कर रहे हैं. पर गांव-गिरांव के लोगों और समझदार होते युवाओं के लिए यह आयोजन कौतुहल पैदा करता है. वे एकटक सुन रहे हैं वक्ताओं को. साधारण कपड़े से टेंट बनाया गया था और कुछ कुरसियां लगायी गयी थीं. कई लोग चौकियों और टीले पर बैठ कर इतिहास में खो गये अपने नायकों को मन ही मन खोज रहे थे.
इस विमर्श में पूर्व सांसद नागेंद्र नाथ ओझा हैं, तो कथाकार सुरेश कांटक भी हैं. बक्सर के चर्चित नामों में से एक डॉ दीपक राय और कवि कुमार नयन तो थे ही. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर देवेंद्र चौबे इस आयोजन के केंद्र में रहे. सबने ग्रामीण इतिहास के बिखरे तथ्यों को एक जगह लाने की कोशिशों को अभियान के तौर पर चलाने की बात की. आज के विमर्श को रामायण चौबे स्मृति लोक व्याख्यान का नाम दिया गया था.
वक्ताओं ने कहा कि पराजय का भी अपना गौरवबोध होता है और उसे इस नाम पर भुलाया नहीं जा सकता कि वह हार का इतिहास था. उन्होंने कहा कि इतिहास हार या जीत का नहीं होता. इतिहास में दर्ज वे घटनाएं हैं, जिन्हें समग्रता में देखने-समझने की जरूरत है. यह बात भी सही है कि मुख्य धारा के इतिहासकारों ने बक्सर युद्ध पर गहराई से काम नहीं किया. यह भी कहा गया कि मुख्य धारा का इतिहास वस्तुत: शहरी घटनाओं और उसकी सूचनाओं पर आधारित है.
पंचकोसी यात्रा
धार्मिक नगरी बक्सर में मंगलवार से पंचकोसी यात्रा शुरू होगी. इस मौके पर बक्सर में उत्सव का माहौल है. ऐसी मान्यता है कि ताड़का वध के बाद भगवान श्रीराम को प्रायश्चित हुआ कि एक स्त्री उनके हाथों मारी गयी. राम दुखी थे. महर्षि विश्वामित्र ने उन्हें सुझाव दिया कि वह बक्सर में वास करनेवाले पांचों ऋषियों के पास जाएं. विश्वामित्र खुद तपोभूमि में रहते थे. नारद ऋषि का वास स्थान नदांव था. भृगू ऋषि भभुवर और उदालक ऋषि का वास उनवास नामक स्थान पर होता था. श्रीराम इन पांच स्थानों पर गये और वहां रात्रि विश्रम किया. अलग-अलग स्थानों पर ऋषियों ने उन्हें भोज्य पदार्थ देकर सत्कार किया था.
तभी से पंचकोसी की परंपरा चली आ रही है. मंगलवार से शुरू होनेवाली यह यात्रा पांचवें दिन बक्सर में लिट्टी-चोखा के आयोजन के बाद खत्म होगी. बक्सर के घरों में पांचों दिन अलग-अलग भोज्य पदार्थ बनते हैं, जिन्हें कभी ऋषियों ने श्रीराम को खिलाया था. गंगा तट पर अपने टेंट में बैठे लक्ष्मी नारायण त्रिदंडी स्वामी कहते हैं, महिलाओं को सम्मान मिलना चाहिए. जो समाज महिलाओं का सम्मान नहीं दे सकता, वह कभी तरक्की नहीं कर सकता.
12 को शहीद स्मारक से किला मैदान तक मार्च
अहिरौली के पास ही बसा है कथकौली गांव. 12 नवंबर को इस गांव से किला मैदान तक संस्कृतिकर्मियों, साहित्यकारों, रंगकर्मियों और लेखकों का मार्च निकलेगा. इसका मकसद ग्रामीण इतिहास के प्रति आम लोगों की दिलचस्पी पैदा करना है. प्रोफेसर देवेंद्र चौबे कहते हैं कि कोई भी घटना एकांगी नहीं होती. उसके कई आयाम होते हैं. जरूरी है कि समाज भी घटनाओं की बहुआयामी प्रवृत्ति को देखे-सुने. अहिरौली के बारे में मान्यता है कि गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या को यहीं मुक्ति मिली थी. श्रीराम के चरण रज के स्पर्श के बाद वह जी उठी थीं. उनकी याद में अहिल्या मंदिर भी है. अहिल्या शब्द का अपभ्रंश के बाद यह गांव प्रकारांतर में अहिरौली हो गया.

Next Article

Exit mobile version