भारत-ऑस्ट्रेलिया के बीच संभावनाओं की साझेदारी
1986 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के ऑस्ट्रेलिया दौरे के 28 वर्षो के बाद भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस देश के दौरे पर जा रहे हैं. उनकी यह यात्र दोनों देशों के संबंधों के लिहाज से बेहद अहम मानी जा रही है. दोनों देशों के बीच कारोबारी संभावनाएं, भारत-ऑस्ट्रेलिया परमाणु समझौता, दोनों […]
1986 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के ऑस्ट्रेलिया दौरे के 28 वर्षो के बाद भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस देश के दौरे पर जा रहे हैं. उनकी यह यात्र दोनों देशों के संबंधों के लिहाज से बेहद अहम मानी जा रही है. दोनों देशों के बीच कारोबारी संभावनाएं, भारत-ऑस्ट्रेलिया परमाणु समझौता, दोनों देशों के बीच रक्षा एवं सुरक्षा संबंध और अनिवासी भारतीयों के लिए बनाये गये नियमों पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज..
मंगलवार 11 नवंबर से शुरू हुई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 10 दिवसीय विदेश यात्र नाय-प्यी-दो में भारत-आसियान और पूर्वी एशिया की शिखर बैठक, ब्रिस्बेन में जी-20 देशों की शिखर बैठक के बाद ऑस्ट्रेलिया और फिजी के साथ द्विपक्षीय संबंधों को नया आयाम देते हुए संपन्न होगी. इस यात्र में भारत-ऑस्ट्रेलिया द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत आधार देने संबंधी प्रयास सबसे अहम होंगे, क्योंकि एशिया-प्रशांत क्षेत्र के साथ भारत की साङोदारी में ऑस्ट्रेलिया एक ‘कोर कंट्री’ की भूमिका में आ रहा है. इसके साथ ही भारत की ऊर्जा (विशेष कर परमाणु ऊर्जा) जरूरतों को पूरा करने में यह एक रणनीतिक सहयोगी बनेगा, जिससे भारत के विकास की गति और तीव्र होगी. लेकिन इस मार्ग में बहुत सी चुनौतियां भी हैं, क्योंकि एशिया-प्रशांत क्षेत्र इस समय काफी हलचल भरा है. इसलिए भारत को हर कदम बेहद गंभीरता के साथ बढ़ाने की आवश्यकता होगी.
प्रधानमंत्री मोदी की ऑस्ट्रेलिया यात्र, सितंबर में हुई ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री टोनी एबॉट की भारत यात्र के दौरान हुई द्विपक्षीय प्रगति को और आगे ले जाने का काम करेगी. नयी दिल्ली में दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों ने हाल के वर्षो में आपसी संबंधों में तेजी से हुई वद्धि का स्वागत करते हुए आपसी सामरिक भागीदारी को सशक्त बनाने और उसे आपसी विश्वास के नये स्तर तक ले जाने की प्रतिबद्धता दोहरायी थी तथा इसके साथ ही आपसी भागीदारी के सशक्त प्रतीक के रूप में द्विपक्षीय असैन्य परमाणु सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर होने का स्वागत किया. इसी समझौते में भारत-ऑस्ट्रेलिया यूरेनियम करार भी शामिल था, जिससे ऑस्ट्रेलिया द्वारा भारत को यूरेनियम ईंधन बेचने का और भारत को अपनी बढ़ती ऊर्जा संबंधी जरूरतें पूरा करने में ऑस्ट्रेलिया के सहयोग का रास्ता साफ हुआ था.
देशों के बीच कूटनीतिक रिश्ते
सामान्य तौर पर सभी देश अपने राष्ट्रीय-हितों के अनुसार ही द्विपक्षीय या बहुपक्षीय संबंधों को स्थापित करने का फैसला करते हैं. लेकिन यह बात ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया के मामले में थोड़ी भिन्न रहती है. इन देशों के बारे में आम तौर पर यह धारणा है कि ये देश उन्हीं के साथ खड़े होते हैं, जिनके साथ अमेरिका खड़ा होता है. वैसे ऑस्ट्रेलिया भी भारत और अमेरिका के साथ उसी तरह का त्रिपक्षीय संवाद कायम करना चाहता है, जैसा कि भारत-जापान-अमेरिका के बीच है, लेकिन भारत और चीन की चिंताओं को समझते हुए वह ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहता था, जिससे उसके सामने सामरिक चुनौतियां उत्पन्न हों. लेकिन जूलिया लेगार्ड के समय से ही उसके दृष्टिकोण में परिवर्तन शुरू हो गया था, जो अब व्यावहारिक धरातल पर पहुंचता हुआ दिख रहा है. चूंकि अब जापान और अमेरिका भारत से मित्रता के लिए बेताब हैं, इसलिए ऑस्ट्रेलिया की ङिाझक भी समाप्त हो रही है.
रही बात भारत की तो मनमोहन सिंह के कार्यकाल में एशिया-प्रशांत के साथ भारतीय साङोदारी में खासी प्रगति हो चुकी है. यह अलग बात है कि इस साङोदारी की प्रस्तावना भारत या ऑस्ट्रेलिया ने नहीं लिखी थी, बल्कि अमेरिका ने लिखी थी. इसका खुलासा तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने ‘फॉरेन पॉलिसी’ नाम की एक पत्रिका में एक लेख के जरिये किया था, जिसमें उन्होंने लिखा था कि ‘भारत भावी दुनिया की धुरी’ है. दरअसल, एशिया-प्रशांत में भारतीय भूमिका पर व्यापक दृष्टि रखने वाली हिलेरी क्लिंटन और उनकी एशिया टीम (जिसमें सहायक विदेश मंत्री कर्ट कैंपबेल सहित कई रणनीतिकार शामिल थे) ने एशिया-प्रशांत क्षेत्र का अध्ययन किया था, जिसमें जापान, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया के साथ अमेरिकी गंठबंधन के लिए महत्वपूर्ण सहयोगी बिंदुओं को तलाशने का कार्य किया गया था. इन्हीं बिंदुओं को तलाशते समय भारत-अमेरिका-जापान त्रिभुज एवं भारत-अमेरिका-जापान-ऑस्ट्रेलिया चतुभरुज की रूपरेखा तय हुई थी.
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से एशिया-प्रशांत क्षेत्र की रणनीति में सक्रियता पहले की अपेक्षा अधिक दिख रही है. इसका कारण है नरेंद्र मोदी की जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अबे से अच्छी दोस्ती और अमेरिका को भारत की चाह. यही नहीं जापान के साथ ‘टू प्लस टू’ रणनीति का विकास, जापान का अमेरिका और भारत के साथ ‘मालाबार’ युद्धाभ्यास में शामिल होना, एक वृहत सामरिक गठजोड़ का संकेत दे रहे हैं. देखना यह है कि ऑस्ट्रेलिया भी इस वृहत सामरिक गठजोड़ का सक्रिय हिस्सा बनेगा या फिर द्विपक्षीय संबंधों को अधिक तरजीह देगा? जो भी हो भू-रणनीतिक एवं आर्थिक लिहाज से ऑस्ट्रेलिया भारत की एशिया-प्रशांत नीति की अहम कड़ी है. इसलिए उसके बगैर भारत की एक्ट इस्ट नीति समर्थ और पूर्ण फलदायी नहीं हो पायेगी.
भारत-ऑस्ट्रेलिया परमाणु समझौता
अक्तूबर, 2008 से ‘यूनाइटेड स्टेट्स-इंडिया न्यूक्लियर कोऑपरेशन एप्रूवल एंड नॉन-प्रॉलीफिरेशन इनहैंसमेंट एक्ट’ के साथ भारत ने परमाणु ऊर्जा कूटनीति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कदम रखा था. लेकिन सही अर्थो में यह कूटनीति ऑस्ट्रेलिया के साथ संपन्न हुए परमाणु समझौते के बाद ही सही दिशा प्राप्त कर पायी. 2012 में लेबर पार्टी के 46वें राष्ट्रीय सम्मेलन में 185 प्रतिनिधियों के मुकाबले 206 ने भारत को यूरेनियम निर्यात किये जाने के पक्ष में मत दिया था. ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री टोनी एबॉट की सितंबर में संपन्न हुई भारत यात्र के साथ ही भारत-ऑस्ट्रेलिया परमाणु समझौता संपन्न हुआ, जिसके बाद ऑस्ट्रेलिया द्वारा भारत को यूरेनियम आपूर्ति करने का रास्ता खुल गया. चूंकि ऑस्ट्रेलिया के पास दुनिया के यूरेनियम संसाधनों का लगभग 40 प्रतिशत भंडार है और वह लगभग 7,000 टन यूरेनियम प्रतिवर्ष बेचता है. इसलिए भारत-ऑस्ट्रेलिया परमाणु समझौते से यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि इससे भारत की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने का एक बेहतर अवसर मिलेगा. चूंकि ऑस्ट्रेलिया के साथ हुए परमाणु समझौते में भारत-अमेरिका परमाणु समझौते की तरह हाइड एक्ट या एग्रीमेंट 123 जैसा बैरियर नहीं हैं, इसलिए भारत को अमेरिका की अपेक्षा ऑस्ट्रेलिया के साथ किये गये परमाणु समझौते से अधिक लाभ मिल सकता है.
डॉ रहीस सिंह
विदेश मामलों के जानकार
रक्षा एवं सुरक्षा संबंध
भारत-ऑस्ट्रेलिया ने वर्ष 2007 में अमेरिका और जापान के साथ मिल कर हिंद महासागर में मालाबार नामक संयुक्त नौसेनिक युद्धाभ्यास किया था. इसी वर्ष जॉन हावर्ड की लिबरल पार्टी ने भारतीय नाभिकीय रिएक्टरों को यूरेनियम देने पर सहमति जतायी थी. इसका तात्पर्य यह हुआ कि भारत-ऑस्ट्रेलिया संबंधों में ऊर्जा और सामरिक कूटनीति का एक साथ आरंभ हुआ. एबॉट की भारत यात्र के समय दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों ने सहकारी तंत्रों के समर्थन से शांतिपूर्ण, समृद्ध और स्थिर एशिया-प्रशांत क्षेत्र की स्थापना के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रकट की थी और इसके लिए रक्षा, आतंकवाद से निपटना, साइबर नीति, अंतरराष्ट्रीय अपराध, निरस्त्रीकरण और अप्रसार, मानवीय सहायता, आपदा प्रबंधन और शांतिरक्षण में सहयोग बढ़ाने का संकल्प लिया गया था. 2015 में होने वाले प्रारंभिक समुद्री अभ्यास की तैयारियों तथा रक्षा विज्ञान एवं उद्योग के क्षेत्र में करीबी संपर्क एवं सहयोग बढ़ाने सहित रक्षा सहयोग मजबूत बनाने के लिए आगे बढ़ने का निर्णय लिया गया था.
ऊर्जा, विज्ञान, जल, शिक्षा और कौशल सहभागिता
भारत और ऑस्ट्रेलिया के मध्य ऊर्जा सुरक्षा सहयोग को मजबूत करने पर सहमति पहले ही बन चुकी है और अब इसे और अधिक व्यापक एवं लक्ष्य आधारित बनाने की जरूरत है. इस दृष्टि से दोनों देशों के सहयोग क्षेत्र कोयला, एलएनजी, नवीकरणीय एवं यूरेनियम, लौह अयस्क, तांबा और स्वर्ण आदि होंगे. इसके अतिरिक्त दोनों देश घटते जल संसाधनों और नदी बेसिन प्रबंधन की चुनौतियों का सामना करने के लिए सहयोग बढ़ाने की दिशा में आगे की रणनीति तय करेंगे. उद्यम क्षेत्र में सहयोग के साथ-साथ दोनों देश संयुक्त रूप से युवा कौशल विकास पर साझा प्रयास करने के लिए प्रतिबद्ध हैं. इस लिहाज से ऑस्ट्रेलिया का ‘न्यू कोलम्बो प्लान’ बेहद महत्वपूर्ण है. क्षेत्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय सहभागिता एशियन क्षेत्रीय फोरम और एशिया-यूरोप मीटिंग जैसे अन्य क्षेत्रीय निकायों के साथ चल रहे सहयोग पर दोनों देश साझा रणनीति विकसित कर सकते हैं. उल्लेखनीय है कि ऑस्ट्रेलिया एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग फोरम (अपेक) में भारत की सदस्यता का समर्थन करता है. हिंद महासागर क्षेत्रीय संघ (आइओआरए) की अधिक प्रभावी भूमिका का समर्थन भी दोनों देश करते हैं.
भारत-ऑस्ट्रेलिया द्विपक्षीय व्यापार
भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच द्विपक्षीय व्यापार वर्ष 2012-13 में 17.68 बिलियन डॉलर था. भारतीय निर्यात 3.59 बिलियन डॉलर का था, जबकि शेष आस्ट्रेलिया का. हालांकि, पिछले तीन वर्ष से ऑस्ट्रेलियाइ वस्तुओं का भारत को निर्यात में 11 प्रतिशत की गिरावट आयी है.
ऑस्ट्रेलिया के साथ दुनियाभर के व्यापार के साझीदार के रूप में पांचवां स्थान है, लेकिन भारतीय निर्यात में वृद्धि हो रही है. वर्ष 2016 के आखिर तक इसके 40 बिलियन डॉलर होने की उम्मीद है. ऑस्ट्रेलिया मुख्य रूप से कोयला, गैर-मौद्रीकृत स्वर्ण, कॉपर और कृषि वस्तुएं, जबकि भारत पल्र्स, कीमती पत्थरों, वस्त्र का निर्यात करता है. दोनों देशों के बीच अच्छे रिश्तों को देखते हुए व्यापार में बढ़ोतरी होने की उम्मीद है.
ऑस्ट्रेलिया में बड़ी संख्या में हैं भारतीय प्रवासी
पि छली जनगणना के अनुसार ऑस्ट्रेलिया में भारतीय प्रवासियों की संख्या 2,95,000 है. लेकिन यदि अस्थायी प्रवासियों को जोड़ दिया जाए तो यह संख्या करीब चार लाख के आसपास पहुंच जायेगी. उल्लेखनीय है कि ऑस्ट्रेलिया में सबसे अधिक प्रवासी ब्रिटेन के हैं, जिनकी संख्या कुल ऑस्ट्रेलियाई आबादी की 14.2 फीसदी है, जबकि भारत इस मामले में 11.2 प्रतिशत के साथ तीसरे (दूसरे स्थान पर 11.4 प्रतिशत के साथ न्यूजीलैंड है) नंबर पर आता है.
एक अनुमान के मुताबिक, वर्ष 2007-2011 के बीच ऑस्ट्रेलिया में भारतीय प्रवासियों की संख्या में 47 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. ऑस्ट्रेलिया में निवास करने वाली इतनी विशाल भारतीय आबादी भारत-ऑस्ट्रेलिया संबंधों पर अनुकूल असर डाल सकती है. शायद इसे देखते हुए ही भारत ने 2013 में ऑस्ट्रेलिया में क्षेत्रीय भारतीय प्रवासी दिवस का आयोजन किया था. हालांकि, ऑस्ट्रेलिया ने अभी तक यह तय नहीं किया है कि वहां रहने वाले भारतीयों का दर्जा क्या हो.
अनिवासी भारतीयों के लिए भारत में संवैधानिक उपाय : भारत सरकार ने प्रवासी भारतीयों को ‘पर्सन ऑफ इंडियन ऑरिजिन’ का नाम देकर संवैधानिक उपचार प्रदान किये हैं. इन्हें पीआइओ एवं ओसीआइ कार्ड जारी किये गये हैं. पर्सन ऑफ इंडियन ओरिजिन (पीआइओ) वह व्यक्ति है, जो भारत का नागरिक होने के साथ-साथ किसी अन्य देश की भी नागरिकता ले सकता है. पीआइओ कार्ड की शुरुआत 1999 से की गयी थी. इसके तहत निम्नलिखित प्रावधान किये गये हैं:
अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, चीन, नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका को छोड़कर अन्य सभी देशों के पीआइओ को अलग से वीजा की दरकार नहीं होती.
180 दिन की यात्र करने के लिए भारत में उन्हें रजिस्ट्रेशन कराने की जरूरत नहीं होती है.
पीआइओ कार्ड धारक, कार्ड के जारी होने की तिथि से 15 वर्ष तक भारत की यात्र बिना वीजा के कर सकता है. यह कार्ड शैक्षणिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं अन्य कई सुविधाएं प्रदान करता है.
पर्सन ऑफ इंडियन ओरिजिन, प्रवासी भारतीय और ओवरसीज इंडियन के मामले में भारत चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे ज्यादा संख्या वाला देश माना जाता है.
ओवरसीज सिटीजनशिप ऑफ इंडिया (ओसीआइ)
ओसीआइ योजना 2 दिसंबर, 2005 से कार्य कर रही है. भारतीय संविधान किसी भी नागरिक को भारत की नागरिकता के साथ किसी विदेशी राज्य की नागरिकता रखने की अनुमति नहीं देता. विदेशों में बसे भारतीयों पर उच्च स्तरीय समिति की सिफारिश के आधार पर भारत सरकार ने ओसीआइ (ओवरसीज सिटीजनशिप ऑफ इंडिया) देने का निर्णय लिया. विशेष श्रेणी के भारतीय मूल के व्यक्ति (पीआइओ) को नागरिकता अधिनियम 1955 की धारा 7 (क) के तहत ओसीआइ के रूप में रजिस्ट्रेशन के लिए पात्र माना गया.
पाकिस्तान और बांग्लादेश को छोड़कर शेष देशों में रह रहे भारतीय मूल के लोगों को ओसीआइ योजना के तहत आवेदन के योग्य माना गया. यह कार्ड एक प्रकार से ‘लाइफ लॉन्ग मल्टी पर्पज’ वीजा है. इसके धारक को भारत की यात्र के दौरान स्थानीय पुलिस अथॉरिटीज के समक्ष रजिस्ट्रेशन नहीं कराना पड़ता.