महाराष्ट्र में भाजपा सरकार बहुमत पर बवाल
महाराष्ट्र विधानसभा का चुनाव में टूटे गंठबंधनों के बाद किसी भी दल को बहुमत न देनेवाले नतीजों, फिर सरकार गठन की जद्दोजहद और अब विधानसभा में बहुमत साबित करने के तरीके पर विवाद ने इसे दिलचस्प राजनीतिक घटनाक्रम बना दिया है. ध्वनिमत से बहुमत साबित कर देवेंद्र फड़नवीस सरकार फिलहाल तो सुरक्षित है, परंतु सदन […]
महाराष्ट्र विधानसभा का चुनाव में टूटे गंठबंधनों के बाद किसी भी दल को बहुमत न देनेवाले नतीजों, फिर सरकार गठन की जद्दोजहद और अब विधानसभा में बहुमत साबित करने के तरीके पर विवाद ने इसे दिलचस्प राजनीतिक घटनाक्रम बना दिया है.
ध्वनिमत से बहुमत साबित कर देवेंद्र फड़नवीस सरकार फिलहाल तो सुरक्षित है, परंतु सदन में उसका आंकड़ा बहुमत से दूर है और वह अपने अस्तित्व के लिए परोक्ष रूप से प्रतिद्वंद्वी एनसीपी पर निर्भर है. पूर्व सहयोगी शिव सेना अब उसके सामने बतौर विपक्ष खड़ी है. विधानसभा की कार्यवाही को लेकर परस्पर आरोप-प्रत्यारोप जारी हैं. इस विवाद के विभिन्न पहलुओं पर एक विमर्श..
क्या है सदन में ‘मत विभाजन’?
‘मत विभाजन’ की मांग करने करने का मतलब है कि सदन का अध्यक्ष आम ध्वनि मत से फैसला न करे, बल्कि हर एक सदस्य की गिनती करे कि वह किसी प्रस्ताव या विधेयक के पक्ष में है या विपक्ष में. इस गिनती के आधार पर ही वह अंतिम निर्णय ले.
विश्वास मत का निर्णय किन-किन तरीकों से किया जा सकता है?
ध्वनि मत की प्रक्रिया अपनाना औपचारिकता है. उसके बाद अगर मत-विभाजन की मांग होती है, तो सदस्यों के हाथ उठवा कर गिनती के द्वारा या पर्ची या इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग द्वारा मतों की गिनती की जा सकती है, अगर यह सुविधा सदन में उपलब्ध है.
मत-विभाजन करना कब अनिवार्य है?
जब कोई संविधान संशोधन विधेयक हो. पर, यह व्यवस्था सिर्फ संसद के लिए प्रासंगिक है, न कि राज्य विधानसभाओं के लिए.
क्या महाराष्ट्र विधानसभा में मत विभाजन कराया जाना चाहिए था?
जब किसी दल या गठबंधन को स्पष्ट बहुमत नहीं है, किसी अन्य दल या निर्दलीय सदस्यों के समर्थन का कोई पत्र राज्यपाल को न दिया गया हो, और शिव सेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस जैसे बड़े दल स्पष्ट रूप से अपना रवैया न बता रहे हों, तब मतों का विभाजन एक वैधानिक अपेक्षा हो जाती है. लेकिन मत विभाजन कराने के लिए मांग विधानसभा अध्यक्ष द्वारा विश्वास मत के पारित होने की घोषणा के तुरंत बाद की जानी चाहिए थी.
वास्तव में, विधानसभा के अंदर क्या घटित हुआ?
अगर शिवसेना या कांग्रेस ने ध्वनि मत के पूरा होते ही मत-विभाजन की मांग की होती, तो विधानसभा के अध्यक्ष उस मांग की अनदेखी नहीं कर सकते थे. भारतीय जनता पार्टी का कहना है कि इन दोनों दलों ने ऐसा नहीं किया, शिव सेना और कांग्रेस का आरोप है कि भाजपा ने ध्वनि मत बिना किसी चेतावनी के लिया यानी सर्वसम्मति से अध्यक्ष का निर्वाचन होने के साथ ध्वनि मत की प्रक्रिया शुरू कर दी गयी. शिव सेना विपक्ष के नेता का पद चाहती थी, और उसका आरोप है कि इसी हंगामे के बीच विश्वास मत का प्रस्ताव रख दिया. लेकिन सच्चाई संभवत: यह है कि भाजपा यह सरेआम दिखाना नहीं चाहती थी कि वह राष्ट्रवादी कांग्रेस का समर्थन ले रही है, और कांग्रेस व सेना को भय था कि मतों की गिनती की स्थिति में उनके विधायक न टूट जायें.
व्यवस्था बहाली’ के क्या मायने हैं?
ये अलग-अलग हैं. सदन से सदस्यों को बलप्रयोग कर बाहर निकालने के लिए नियुक्त मार्शलों की सेवा अक्सर उन विधानसभाओं में लेनी पड़ती है, जहां सरकार को साधारण बहुमत प्राप्त नहीं है. अक्तूबर, 1997 में उत्तर प्रदेश विधानसभा में हुई हिंसा ने मार्शल के प्रयोग का आधार दे दिया है. संसद में तो मार्शल का उपयोग बहुत ही सीमित रहा है.
दस्तावेजों के अनुसार, 1962 में पहली बार राज्यसभा में मार्शल बुलाना पड़ा था. हाल के वर्षों में 2009 में महिला आरक्षण विधेयक पर मतदान के समय राज्यसभा में मार्शल बुलाना पड़ा था. लोकसभा में तेलंगाना मसले पर हुए पेपरस्प्रे की घटना के बाद मार्शलों ने सांसदों को बाहर निकाला था.
जिन दलों या सदस्यों को लगता है कि वे असंवैधानिक प्रक्रिया के शिकार हुए हैं, उनके पास अपनी शिकायतों के समाधान के क्या उपाय उपलब्ध हैं?
ऐसे दल या सदस्य राज्यपाल के पास अपनी शिकायत लेकर जा सकते हैं, जो सैद्धांतिक रूप से दुबारा सदन की बैठक बुला कर प्रक्रिया को फिर से संपन्न करने का निर्देश दे सकता है. राज्यपाल विधानसभा के अध्यक्ष या सत्ताधारी दल को सुझाव भी दे सकता है. पिछले दो दशकों के भीतर उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और कर्नाटक में ऐसे सुझावों पर विवाद भी हो चुके हैं. पीड़ित पक्ष राष्ट्रपति के पास भी जा सकता है, जिसका एक सांकेतिक मूल्य है.
इन उपायों के अलावा, न्यायालय की शरण में जाना भी एक विकल्प है. न्यायालयों द्वारा विधायिका और सदन के अध्यक्ष के काम में हस्तक्षेप के विरुद्ध ठोस राय हैं, लेकिन 2005 में झारखंड में न्यायालय ने मत विभाजन का समय और दिनांक तय किया था. अभी हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली में सरकार के गठन और विधानसभा के भंग करने से संबंधित याचिका पर सुनवाई की थी.
क्या यह पहली बार हुआ है, जब सदन की बैठक से पूर्व विधायकों को सदन की कार्यवाही से पहले निलंबित किया गया?
नही. अक्तूबर, 2009 में तत्कालीन विधानसभा में समाजवादी पार्टी के एक विधायक ने हिंदी (मराठी में नहीं) शपथ-ग्रहण किया था. इस पर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के चार विधायकों ने इस सदस्य के साथ हाथापाई की थी. इन सदस्यों को चार वर्षों के लिए सदन से निलंबित कर दिया गया था.
(द इंडियन एक्सप्रेस से साभार)
जनादेश को समझने की जरूरत
डा शिव शक्ति बक्सी
कार्यकारी संपादक, कमल संदेश (भाजपा का मुखपत्र)
लोकतंत्र समर्थक व कानून के शासन के सिद्धांत पर आस्था रखनेवाला कोई व्यक्ति महाराष्ट्र विधानसभा अध्यक्ष के इस निर्णय का समर्थन करेगा. एनसीपी ने बहुत ही समझदारी एवं राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दिया है. विपक्ष को भाजपा सरकार को उसके कामकाज पर आंकते हुए सकारात्मक भूमिका की तलाश करनी चाहिए. कांग्रेस को हार से उबरने के लिए प्रयास करने पड़ेंगे व शिवसेना को नये राजनीतिक यथार्थ को स्वीकारना पड़ेगा. अनावश्यक मुद्दों पर जोर देने से इन दलों में राजनीतिक भटकाव एवं बिखराव का खतरा बना रहेगा.
महाराष्ट्र विधानसभा में नवगठित भाजपा सरकार के बहुमत सिद्ध होने के बाद विपक्ष का आचरण स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपराओं के अनुकूल नहीं रहा.
ध्वनिमत से पारित विश्वास प्रस्ताव पर विपक्ष के प्रश्न को समझा जा सकता है, परंतु राज्यपाल के साथ हुए र्दुव्यवहार को कोई भी उचित नहीं ठहरा सकता. कांग्रेस विधायकों का यह आचरण अशोभनीय था, जिसकी कड़ी निंदा होनी चाहिए. लोकतंत्र में असहमति हो सकती है, परंतु असहमति के नाम पर उच्छृंखलता को बरदाश्त नहीं किया जा सकता.
महाराष्ट्र विधानसभा में जिस प्रकार के नतीजे आये, उसमें भाजपा ही एकमात्र दल उभरी है, जिसे विजेता के तौर पर देखा जा सकता है. यह चुनाव इसलिए भी अपनेआप में अनोखा था, क्योंकि लंबे समय से चलने वाले दो गंठबंधन ठीक चुनाव से पूर्व टूट गये थे. एक तरफ जहां भाजपा-शिवसेना गंठबंधन टूटा, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस-एनसीपी गंठबंधन भी टूटा. ऐसे में प्रदेश में चौतरफा मतविभाजन तय था. परंतु भाजपा इस चौतरफे मतविभाजन में अन्य सभी दलों से न केवल काफी आगे निकली, बल्कि बहुमत के करीब पहुंच गयी. हाल तक भाजपा प्रदेश की राजनीति में जहां शिवसेना की ‘जूनियर पार्टनर’ के रूप में देखी जाती थी, चुनाव बाद एक बड़ी ताकत के रूप में तो उभरी ही, सरकार बनाने में भी सफल रही है.
288 सीटों वाले विधानसभा (जिनमें से 287 सीटों पर चुनाव हुए) में भाजपा को 122, शिवसेना को 63, कांग्रेस को 42 और एनसीपी को 41 सीटों पर जीत मिली. यह महाराष्ट्र के लिए बहुत बड़ा परिवर्तन है, जिसमें भाजपा की तरफ मतदाताओं ने व्यापक झुकाव दिखाया है. अपने सहयोगियों एवं अन्य के साथ भाजपा लगभग 140 के आंकड़े पर है, जो बहुमत के 144 के आंकड़े के काफी नजदीक है.
महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों के संदेश को तो सभी भली-भांति समझ रहे हैं, लेकिन कुछ दल समझ कर भी इसका मतलब नहीं समझना चाहते हैं. एनसीपी ने शायद इस संदेश को ठीक से समझ लिया है, इसलिए सरकार को बिना शर्त सहयोग एवं समर्थन की बात कर रही है.
परंतु लगता है कि कांग्रेस अब भी इस बात को नहीं पचा पा रही है कि न केवल वह सत्ता से बाहर हुई है, बल्कि प्रदेश की राजनीति में हाशिये पर धकेल दी गयी है. शिवसेना नेतृत्व अनिर्णय की शिकार है, जिस कारण वह असमंजस की राजनीति में फंस चुकी है. प्रदेश में जो पार्टी अब तक ‘जूनियर पार्टनर’ थी वह अब सरकार में है, इस सच्चई को स्वीकार करने की विवशता उसके अब तक के ‘बड़े भाई’ वाली मानसिकता से मेल नहीं खा रही.
विश्वासमत के दौरान महाराष्ट्र विधानसभा के अंदर और बाहर जो कुछ हुआ, उससे विपक्ष को शायद ही लाभ दिखता है. ध्वनिमत से विधानसभाओं में सरकारें पहले भी विश्वासमत प्राप्त करती रही हैं. इस पर कोई ‘तकनीकी’ प्रश्न खड़ा कर विपक्ष को कोई राजनीतिक फायदा मिल जायेगा, इसमें शक है.
और जब ‘तकनीकी’ प्रश्न की वैधता पर ही यदि प्रश्नचिह्न् लगा हो, तो इसमें नुकसान ज्यादा है. कांग्रेस का यह कहना कि यदि बाद में भी मत विभाजन की मांग की गयी तो विधानसभा अध्यक्ष को उसे मान लेना चाहिए, इस देश की संवैधानिक-वैधानिक परंपराओं पर एक चोट है. उन्हें यह समझना चाहिए कि हमारी वैधानिक व्यवस्थाओं में, वैधानिक प्रक्रियाओं एवं परंपराओं पर बहुत ज्यादा बल दिया गया है.
इनका बहुत बड़ा महत्व है. यदि इनको धता बता कर इस देश में काम होने लगेगा, तो फिर से वही कुव्यवस्था और कुशासन देखने को मिलेगा, जो कांग्रेसनीत यूपीए के शासन में दिखाई पड़ रहा था. इस देश का कोई भी लोकतंत्र समर्थक और कानून के शासन के सिद्धांत पर आस्था रखने वाला व्यक्ति महाराष्ट्र विधानसभा अध्यक्ष के इस निर्णय का समर्थन करेगा. एनसीपी ने इस मुद्दे पर बहुत ही समझदारी एवं राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दिया है.
महाराष्ट्र की राजनीति एक नये दौर में प्रवेश कर चुकी है. बदले हुए समीकरणों एवं परिस्थितियों से तालमेल करते हुए सभी दलों को प्रदेश की जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए काम करना होगा. विपक्ष के स्थान की मांग कर शिवसेना ने एक मौका गंवा दिया है. प्रदेश की जनता का संदेश यह था कि शिवसेना अभी भाजपा सरकार को बिना शर्त अपना समर्थन देती.
केंद्रीय मंत्रीमंडल विस्तार में भी शिवसेना ने अनावश्यक पेंच फंसा कर भाजपा से अपने संबंधों पर प्रश्न खड़े किये. जबकि दोनों दलों में एक समझदारी थी कि केंद्रीय मंत्रीमंडल का मामला महाराष्ट्र के मामले से अलग होगा. और इसी कारण दोनों दलों के अलग-अलग चुनाव लड़ने के बावजूद शिवसेना के अनंत गीते केंद्रीय मंत्रीमंडल में बने हुए हैं. विश्वासमत के मुद्दे पर कांग्रेस के सुर में सुर मिला कर शिवसेना अपना भारी नुकसान कर रही है.
विश्वासमत पर प्रश्न उठाना न केवल स्वस्थ लोकतंत्र पर चोट है, बल्कि प्रदेश की जनता के संदेश को नकारने का एक प्रयास भी है. इससे प्रदेश की राजनीति नकारात्मकता की ओर बढ़ेगी, जिसके लिए लोग विपक्ष को कठघरे में खड़ा करेंगे. विपक्ष को भाजपा सरकार को उसके कामकाज पर आंकते हुए अपनी सकारात्मक भूमिका की तलाश करनी चाहिए. कांग्रेस को अपनी हार से उबरने के लिए प्रयास करने पड़ेंगे तथा शिवसेना को प्रदेश के नये राजनीतिक यथार्थ को स्वीकारना पड़ेगा. अनावश्यक मुद्दों पर जोर देने से इन दलों में राजनीतिक भटकाव एवं बिखराव का खतरा बना रहेगा.
स्वस्थ लोकतंत्र के लिए लोकतांत्रिक मर्यादाओं एवं गरिमापूर्ण आचरण की जिम्मेवारी विपक्ष को भी लेनी पड़ेगी. इसी से जनता के बीच विश्वास बनाये रखा जा सकता है.
अब दोबारा हासिल करना चाहिए विश्वास मत
डॉ अश्विनी कुमार
राजनीतिक विश्लेषक
मत विभाजन के जरिये विश्वास मत हासिल करना प्रचलित प्रथा है, लेकिन ध्वनिमत से विश्वास हासिल करने की परंपरा भी कोई नयी नहीं है. महाराष्ट्र विधानसभा में जिस तरह से अध्यक्ष ने ध्वनिमत के आधार पर सरकार के विश्वास मत को मान्यता दी, उस पर विपक्षी दलों के विरोध को देखते हुए अध्यक्ष को लोकतांत्रिक प्रक्रिया की विश्वसनीयता बरकरार रखते हुए एक निश्चित समय सीमा के भीतर फिर से विश्वास मत हासिल करने की दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए.
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में पिछले दिनों हुए बहुमत परीक्षण को लेकर विपक्षी दलों द्वारा उठाई जा रही आपत्तियों के मद्देनजर कई सवाल खड़े होते हैं. इसके जद में संवैधानिक और राजनीतिक निहितार्थ दोनों हैं. अगर महाराष्ट्र विधानसभा की विश्वास प्रस्ताव की प्रक्रिया को संवैधानिक तौर पर देखें तो ऐसा लगता है कि विश्वास मत की प्रक्रिया को ध्वनिमत से नहीं पारित कराया जाना चाहिए.
झारखंड में भी ऐसा हुआ था, और जहां तक मुझे याद है विरोध होने के बाद दोबारा मतदान कराना पड़ा. तथ्य भी यही है कि जब पूरी राजनीति और पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था आंकड़ों के गणित से ही संचालित होती है, तो ऐसे में कोई भी सरकार ध्वनिमत से विश्वास मत कैसे हासिल कर सकती है. यह एक नीतिगत प्रश्न महाराष्ट्र के घटनाक्रम के मद्देनजर खड़ा होता है.
महाराष्ट्र में 1995 से गंठबंधन की सरकारें चल रही हैं. मत विभाजन के बजाय ध्वनिमत से विश्वास मत हासिल करने की परंपरा महाराष्ट्र में नहीं रही है. हमेशा ही विश्वासमत के दौरान मत विभाजन ही होता रहा है. अगर इस मसले को लेकर कोई अदालत में जाता है, तो यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि अदालत विधानसभा अध्यक्ष के फैसले पर प्रत्यक्षत: कोई हस्तक्षेप करेगी. संवैधानिक तौर पर ऐसा नहीं लगता कि विधानसभा अध्यक्ष ने कोई गैर-कानूनी काम किया है. वह वैधानिक रूप से विधानसभा के अंदर स्वतंत्र तरीके से फैसला लेने को अधिकृत है.
लेकिन इस विशेषाधिकार का एक और पहलू है, जिसे 1994 में ‘एसआर बोम्मई बनाम यूनियन ऑफ इंडिया’ के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा लिये गये निर्णय के तहत देखा जा सकता है. जब राज्यपाल की अनुशंसा पर राष्ट्रपति ने महाराष्ट्र सरकार को बरखास्त किया और इस फैसले को जब सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी. उस वक्त सर्वोच्च अदालत ने इस मामले की विवेचना करते हुए कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपाल को प्राप्त विशेषाधिकार पर अदालत कुछ नहीं कह सकती, लेकिन राज्यपाल के समक्ष जो साक्ष्य प्रस्तुत किये गये और जिसके आधार पर राज्यपाल ने यह फैसला लिया, उसकी जांच की जा सकती है.
इसी पृष्ठभूमि में यदि महाराष्ट्र में हुए विश्वास प्रस्ताव के दौरान विधानसभा अध्यक्ष द्वारा लिये गये निर्णय को अदालत में चुनौती दी जाती है, तो यह देखना दिलचस्प होगा कि अदालत स्पीकर के समक्ष प्रस्तुत किये गये साक्ष्य को देख कर उनके द्वारा लिये गये निर्णय की जांच करने का आदेश दे सकती है. यह कानूनी पहलू है.
अब यदि हम विधानसभा अध्यक्ष द्वारा लिये गये निर्णय को इस पटल पर देखें तो यह देखना होगा कि क्या विधानसभा अध्यक्ष ने जिस तरह से बहुमत साबित कराया, वह नैसर्गिक न्याय के धरातल पर सही दिखता है. बहुमत साबित कराने में उनका कोई गलत इरादा तो नहीं था. उनके समक्ष जो बहुमत के लिए साक्ष्य प्रस्तुत किये गये, वे सही थे या नहीं इसकी जांच अवश्य की जा सकती है. उस मामले की तरह कांग्रेस इस मामले में भी सर्वोच्च अदालत में जाने को स्वतंत्र है.
भारत के इतिहास में मत विभाजन के जरिये विश्वास मत हासिल करना आम प्रथा है, लेकिन ध्वनिमत से विश्वास मत हासिल करने की परंपरा भी कोई नयी नहीं है. कर्नाटक में भी ध्वनिमत से आनन-फानन में विश्वास मत हासिल किया गया था. अब यदि राजनीतिक धरातल पर महाराष्ट्र विधानसभा में हुए विश्वास मत के प्रस्ताव को देखा जाए तो भाजपा के अलावा वहां तीन प्रमुख दल हैं. किसी भी निर्दलीय ने अभी तक भाजपा को लिखित में समर्थन नहीं दिया है.
विधानसभा में विश्वास प्रस्ताव पारित हो गया, भले ही यह ध्वनिमत से ही हुआ हो. लेकिन आज तक किसी को यह पता नहीं है कि देवेंद्र फड़नवीस की सरकार के पक्ष में कितने मत पड़े और कितने विपक्ष में. कुल मिलाकर यह एक अजीबोगरीब संवैधानिक स्थिति है. विधानसभा अध्यक्ष ने जो ध्वनिमत से बहुमत कराया है, उससे यह स्पष्ट नहीं होता कि कौन दल सरकार के पक्ष में हैं और कौन विरोध में. कौन सा छोटा दल या निर्दलीय सरकार के साथ खड़ा है, और कौन विरोध में. एनसीपी विधानसभा में विश्वास मत के दौरान अनुपस्थित रही, लेकिन उन्होंने राज्यपाल को इस तरह का कोई पत्र नहीं दिया है कि वे समर्थन में खड़े हैं, या विरोध में. इसी तरह किसी भी निर्दलीय ने अपना पत्ता नहीं खोला है.
सबसे बड़ी बात यह है कि जो शिवसेना विधानसभा में विपक्ष के नेता के रूप में अपने नेता का चयन करती है, वही पार्टी परदे के पीछे सरकार से मंत्रीमंडल में शामिल होने को लेकर बातचीत भी कर रही है. विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच की लकीर इतनी धुंधली पड़ गयी लगती है कि आम मतदाता यह नहीं समझ पा रहा है कि उसने जिस दल के पक्ष में वोट किया है, वह सत्ता पक्ष में है या विपक्ष में. ऐसी परिस्थिति में यह साफ नहीं हो पा रहा है कि राज्य में कौन सत्ता के साथ है और कौन विरोधी या प्रमुख विपक्षी दल है.
इस ऐतिहासिक परिस्थिति में जिस तरह का राजनीतिक घटाटोप महाराष्ट्र की राजनीति में छाया हुआ है, उससे निपटने के दो ही रास्ते हैं. एक यह कि विपक्षी दलों की मांग को देखते हुए विश्वास मत और उसे हासिल करने की प्रक्रिया की वैधानिकता, विश्वसनीयता और राजनीतिज्ञों को सवालों के दायरे में खड़ा करते हुए आम जनमानस का राजनीति के प्रति विश्वास बहाली के मद्देनजर खुद विधानसभा अध्यक्ष को एक सीमित समय सीमा में दोबारा विश्वास मत हासिल करने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चाहिए.
यदि विधानसभा अध्यक्ष ऐसा नहीं करते हैं, तो राज्य में संवैधानिक प्रमुख की हैसियत से केंद्र द्वारा नियुक्त किये राज्यपाल को विधानसभा अध्यक्ष से विमर्श कर इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चाहिए. दूसरा विकल्प यह है कि विपक्ष में बैठे राजनीतिक दल विधानसभा अध्यक्ष के फैसले के विरोध में अदालत जायें, तभी इस मसले पर सही फैसला आ सकता है.
(संतोष कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)
उधार की जिंदगी जी रही सरकार
प्रेम शुक्ला
संपादक, दोपहर का सामना
(शिवसेना का मुखपत्र)
महाराष्ट्र सरकार उधार की जिंदगी जी रही है. लेखक चेतन भगत ने ठीक ही कहा है कि राष्ट्रवादी कांग्रेस भाजपा की हाफ गर्लफ्रेंड है, जिसके सहारे वह अपनी गृहस्थी चलाने की कोशिश कर रही है.. शिव सेना और कांग्रेस ने राज्यपाल को अलग-अलग ज्ञापन देकर मांग की है कि वे सरकार को दोबारा विश्वास-मत हासिल करने का निर्देश दें. अगले सत्र से पहले सरकार को समुचित तरीके से विश्वास-मत प्राप्त करनी चाहिए. जब राष्ट्रवादी कांग्रेस का समर्थन है, तो सदन में पारदर्शिता के साथ बहुमत साबित करने में उसे क्या दिक्कत है?
सरकार गठन की प्रक्रिया में पहला महत्वपूर्ण चरण यह है कि राज्यपाल इस बात की तस्दीक कर लें कि जिस दल या गंठबंधन को वे सरकार बनाने के लिए निमंत्रित कर रहे हैं, उसे सदन में बहुमत है या नहीं. वर्तमान महाराष्ट्र विधान सभा त्रिशंकु विधानसभा है और इसमें किसी भी एक दल या गंठबंधन को पूर्ण बहुमत नहीं है. सबसे बड़े दल के रूप में राज्यपाल ने भाजपा को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया था, लेकिन उन्हें शपथ-ग्रहण से पहले ही उन्हें यह जानकारी मांगनी चाहिए थी कि क्या भाजपा के पास सरकार बनाने के लिए जरूरी विधायकों की संख्या है या नहीं. बहरहाल, यह उनका संवैधानिक अधिकार है और वे विधानसभा अध्यक्ष को कहें कि वे यह निर्धारित करें कि सदन के पटल पर सरकार अपना बहुमत सिद्ध करे.
विधानसभा और लोकसभा में ऐसी स्थितियों के लिए एमएन कौल और एसएल शकधर द्वारा 1968 में स्थापित दिशा-निर्देश हैं, जिनके अनुरूप कार्यवाही की प्रक्रिया संपन्न की जाती है. इसके अनुसार जो एजेंडा तैयार होता है, उसे सदन को पालन करना चाहिए. सदन का शुरू होने से पूर्व इस संबंध में बिजनेस एडवाइजरी कमिटी की बैठक होती है, जहां एजेंडे को अंतिम रूप दिया जाता है.
जिस दिन महाराष्ट्र विधानसभा में विश्वास-मत के बारे में फैसला होना था, उस दिन यह तय हुआ था कि पहले विधानसभा अध्यक्ष का निर्वाचन होगा. इसके बाद नवनिर्वाचित अध्यक्ष विपक्ष के नेता के नाम की घोषणा करेंगे. फिर सरकार विश्वास-मत हासिल करने के लिए प्रस्ताव सदन में रखेगी. पर विधानसभाध्यक्ष ने इसमें फेर-बदल कर दिया. इस पर विपक्षी दलों- शिव सेना और कांग्रेस- ने मांग रखी कि विधानसभाध्यक्ष तय प्रक्रिया के अनुसार पहले विरोधी पक्ष के नेता की घोषणा करें. इस पर सदन में हंगामे की स्थिति उत्पन्न हो गयी. कुछ लोग बहिर्गमन की बात भी कह रहे थे, कुछ लोग वेल में चले आये थे. इसी शोर-शराबे के बीच सरकार की तरफ से विश्वास-मत पटल पर रख दिया गया और उसे ध्वनि मत से पारित करने की बातें की जाने लगीं.
ध्वनि मत से विश्वास-प्रस्ताव के पारित होने की परंपरा रही है, लेकिन लेकिन ऐसे प्रस्तावों को पारित तब माना गया है, जब राज्यपाल के पास सरकार का समर्थन कर रहे विधायकों की सूची पहले ही दे दी गयी हो और यह स्पष्ट हो कि सरकार के पास बहुमत है. लेकिन आज विधानसभाध्यक्ष स्वयं ही यह नहीं बता सकते कि सरकार के पास 122 विधायकों के अलावा कौन और कितने विधायक खड़े हैं. क्या राष्ट्रवादी कांग्रेस ने उन्हें समर्थन दिया है और क्या उन्हें पांच वर्ष तक सरकार चलाने का कोई आधार है, इन बातों पर कोई स्पष्टीकरण नहीं है.
बहरहाल, जब ध्वनि मत की बात आयी, तो विपक्ष ने मत-विभाजन की मांग रखी. शिव सेना और कांग्रेस दोनों की ओर से यह मांग की गयी. इन स्थितियों के लिए भी पहले के उदाहरण मौजूद हैं कि जब ध्वनि मत की बात हो और मत-विभाजन की मांग की जाये, तो सदन के अध्यक्ष को गिनती करनी होती है. ऐसा नहीं किया गया और विश्वास-मत के पारित होने की घोषणा कर दी गयी.
आज राज्यपाल भी आश्वस्त नहीं हैं कि सरकार के साथ समर्थन देनेवाले 145 विधायक कौन हैं. भाजपा के 121 विधायक हैं और एक राष्ट्रीय समाज पार्टी का विधायक उनका समर्थन कर रहा है. यह तो स्पष्ट है, लेकिन पूर्ण बहुमत के लिए जरूरी संख्या पूरा करने के लिए शेष 22 विधायक कौन हैं? भारतीय लोकतंत्र की संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार लोकसभा और विधानसभा में पूर्ण बहुमत के लिए सरकार को जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों में अधिकांश का समर्थन प्राप्त होना चाहिए. इस आधार पर महाराष्ट्र की वर्तमान सरकार की वैधानिकता संदिग्ध है. कांग्रेस ने राज्यपाल को पत्र लिख कर कहा था कि आप अभिभाषण पढ़ने से पहले यह सुनिश्चित कर लें कि जिस सरकार की ओर से आप अभिभाषण पढ़ने का संवैधानिक दायित्व निभाने जा रहे हैं, उसे बहुमत प्राप्त है या नहीं. अभिभाषण तो मंत्रिमंडल ही तैयार करता है, ऐसे में जब सरकार ही असंवैधानिक है, तो उसके द्वारा तैयार अभिभाषण भी असंवैधानिक है. इसलिए दोनों सदनों की संयुक्त बैठक को संबोधित करने से पहले राज्यपाल को यह निर्धारित कर लेना चाहिए थी कि जिस सरकार का अभिभाषण पढ़ने जा रहे हैं, उस की वैधानिकता है या नहीं. लेकिन राज्यपाल ने ऐसा नहीं किया.
महाराष्ट्र की भाजपा सरकार उधार की जिंदगी जी रही है. लेखक चेतन भगत ने ठीक ही कहा है कि राष्ट्रवादी कांग्रेस भाजपा की हाफ गर्लफ्रेंड है, जिसके सहारे वह अपनी गृहस्थी चलाने की कोशिश कर रही है. अब गर्लफ्रेंड से तो गृहस्थी नहीं चलती, ऊपर से यह तो महज हाफ गर्लफ्रेंड ही है. इस स्थिति की जिम्मेवारी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भी आती है. भाजपा ने वोट उनके नाम पर मांगा था और उन्हीं की पसंद का व्यक्ति भाजपा विधायक दल का नेता चुना गया. देवेंद्र फड़नवीस ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के तुरंत बाद कहा था कि वे स्वच्छ और पारदर्शी सरकार चलायेंगे. लेकिन जिस सरकार का बहुमत ही स्वच्छ और पारदर्शी नहीं है, उससे स्वच्छ और पारदर्शी सरकार की अपेक्षा कैसे की जा सकती है!
शिवसेना और कांग्रेस ने राज्यपाल को अलग-अलग ज्ञापन देकर मांग की है कि वे सरकार को दोबारा विश्वास-मत हासिल करने का निर्देश दें. अगर विपक्ष विधानसभाध्यक्ष की अनुमति से अविश्वास प्रस्ताव लायेगा, तो उसे छह महीने का इंतजार करना होगा. कानूनी प्रक्रिया का भी विकल्प है, लेकिन उसमें भी समय लग सकता है. ऐसे में अगले सत्र से पहले सरकार को समुचित तरीके से विश्वास-मत प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए. जब भाजपा को कथित रूप से राष्ट्रवादी कांग्रेस का समर्थन है, तो सदन में पारदर्शिता के साथ बहुमत साबित करने में उसे क्या दिक्कत है?
(प्रकाश कुमार रे से बातचीत पर अधारित)