गांवों में मुफ्त इंटरनेट मुहैया करा सकती है, व्हाइट स्पेस टेक्नोलॉजी
दुनिया की अग्रणी सॉफ्टवेयर कंपनी ‘माइक्रोसॉफ्ट’ भारत के सुदूर गांवों में मुफ्त इंटरनेट सुविधा प्रदान करने की योजना बना रही है. इसके लिए ‘ह्वाइट स्पेस टेक्नोलॉजी’ का इस्तेमाल किया जायेगा. क्या है व्हाइट स्पेस और उससे जुड़ी तकनीक, कैसे हुई इसकी शुरुआत, दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों में पहुंच के लिए कैसे सक्षम है यह तकनीक […]
दुनिया की अग्रणी सॉफ्टवेयर कंपनी ‘माइक्रोसॉफ्ट’ भारत के सुदूर गांवों में मुफ्त इंटरनेट सुविधा प्रदान करने की योजना बना रही है. इसके लिए ‘ह्वाइट स्पेस टेक्नोलॉजी’ का इस्तेमाल किया जायेगा. क्या है व्हाइट स्पेस और उससे जुड़ी तकनीक, कैसे हुई इसकी शुरुआत, दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों में पहुंच के लिए कैसे सक्षम है यह तकनीक और क्या है इसका भविष्य, ऐसे ही पहलुओं के बारे में बता रहा है नॉलेज..
नयी दिल्ली:देश में इंटरनेट उपभोक्ताओं को आनेवाले दिनों में मुफ्त इंटरनेट की सुविधा मिल सकती है. दुनिया की अग्रणी सॉफ्टवेयर कंपनी माइक्रोसॉफ्ट ने घोषणा की है कि भविष्य में वह भारत में फ्री इंटरनेट मुहैया करवाने की योजना पर काम कर रही है. माइक्रोसॉफ्ट ने भारत के ग्रामीण व दूरदराज के इलाकों में फ्री इंटरनेट मुहैया कराने के लिए सरकार के समक्ष ‘व्हाइट स्पेस स्पेक्ट्रम बैंड’ का इस्तेमाल करने का प्रस्ताव रखा है. मीडिया खबरों के अनुसार, माइक्रोसॉफ्ट इंडिया के चेयरमैन भास्कर प्रमाणिक ने कहा है कि व्हाइट स्पेस में उपलब्ध 200-300 मेगाहट्र्ज का स्पेक्ट्रम बैंड 10 किलोमीटर तक पहुंच सकता है. जबकि वाइ-फाइ के माध्यम से मुहैया कराया जानेवाला स्पेक्ट्रम बैंड मात्र 100 मीटर की दूरी तक ही पहुंचता है.
बताया गया है कि फिलहाल ये स्पेक्ट्रम सरकार और दूरदर्शन के पास हैं, जिसका इस्तेमाल तकरीबन नहीं के बराबर होता है. माइक्रोसॉफ्ट कंपनी ने इस प्रोजेक्ट को दो जिलों में शुरू करने के लिए सरकार की मंजूरी मांगी है. यदि इन प्रोजेक्ट्स को मंजूरी मिलती है, तो देश की बहुत बड़ी आबादी को सस्ता इंटरनेट मुहैया कराने की दिशा में यह मील का पत्थर साबित होगा. पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर दो जिलों में शुरू की गयी यह योजना सफल होती है, तो इसे देशभर में लागू किया जा सकता है. यह योजना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘डिजिटल इंडिया’ कैंपेन के तहत चलायी जाने वाली एक प्रभावी योजना बन सकती है.
‘ट्रैक डॉट इन’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, माइक्रोसॉफ्ट कंपनी ने सरकार के पास इस ब्रिलिएंट योजना का खाका पेश किया है और कहा है कि ‘व्हाइट स्पेस टेक्नोलॉजी’ के इस्तेमाल से देश के ग्रामीण और दूरदराज क्षेत्रों में वायरलेस इंटरनेट कनेक्टिविटी बहाल की जा सकती है.
क्या है व्हाइट स्पेस
टेलीक म्युनिकेशन के क्षेत्र में ‘व्हाइट स्पेस’ का तात्पर्य उस स्पेस से है, जिसे टीवी चैनलों को आबंटित किये गये निर्धारित स्पेक्ट्रम या फ्रिक्वेंसी इस्तेमाल में नहीं ला पाते हैं यानी जितना स्पेस उनके लिए अनुपयोगी रह जाता है. इन्हीं अनुपयोगी फ्रिक्वेंसी को उपयोगी बनाते हुए देशभर में वायरलेस ब्रॉडबैंड इंटरनेट मुहैया कराया जा सकता है. इस कार्य को व्यावहारिक बनाने के लिए जिन उपकरणों को इस्तेमाल में लाया जायेगा, उसे ‘व्हाइट स्पेस डिवाइसेज’ के तौर पर जाना जाता है.
हालांकि, ऐसा नहीं है कि दूरदराज के इलाकों में इंटरनेट पहुंचाने के लिए इस तरह की तकनीकों का इस्तेमाल पहली बार हो रहा है. सोशल नेटवर्क मुहैया कराने वाली बड़ी कंपनी फेसबुक और सर्वाधिक लोकप्रिय सर्च इंजन गूगल ने ड्रोन के माध्यम से दूरदराज के इलाकों में इंटरनेट पहुंचाने का काम पहले ही कर लिया है. प्रोजेक्ट लून के तहत इन कंपनियों ने वायुमंडल के स्ट्रेटोस्फियर में अत्यधिक ऊंचाई पर बैलून इंस्टॉल किया है.
घाना, दक्षिण अफ्रीका और यूके जैसे देशों में ‘व्हाइट स्पेस टेक्नोलॉजी’ का इस्तेमाल किया जा रहा है. भारत में फिलहाल इस तकनीक को कारोबारी तौर पर उपयोग में नहीं लाया जा रहा है, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि भारत जैसे देशों में इंटरनेट कनेक्टिविटी बहाल करने के लिए इसका इस्तेमाल किया जा सकता है. माइक्रोसॉफ्ट की योजना इस तकनीक को कारोबारी तौर पर अनुकूल बनाने की है. इसके लिए जरूरी है कि देश की संबंधित विनियामक निकायों से स्पेक्ट्रम इस्तेमाल की हरी झंडी मिले. माना जा रहा है कि यदि इस आइडिया पर काम किया जाये, तो 4 एमबीपीएस तक का इंटरनेट130 रुपये में मुहैया कराया जा सकता है.
क्या है व्हाइट स्पेस (रेडियो)
संचार की दुनिया में स्पेक्ट्रम और फ्रिक्वेंसी का उल्लेखनीय योगदान है और इसी की बदौलत आपको मोबाइल व इंटरनेट कनेक्टिविटी मुहैया करायी जाती है. टेलीविजन प्रसारण भी इसी स्पेक्ट्रम की बदौलत आप तक पहुंचाया जाता है. स्थानीय तौर पर स्पेक्ट्रम व फ्रिक्वेंसी से जुड़ी सेवाओं का उपयोग नहीं किया जाना यानी जितना स्पेस आवंटित किया गया है, उतने का उपयोग नहीं करने पर जो खाली जगह बचती है, उसे व्हाइट स्पेस कहा जाता है.
दरअसल, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय निकायों द्वारा खास इस्तेमाल करने के लिए विभिन्न फ्रिक्वेंसियां आवंटित की जाती है और ज्यादातर मामलों में इन फ्रिक्वेंसियों पर प्रसारण के लिए लाइसेंस लेने की जरूरत होती है. किसी तरह के आपसी हस्तक्षेप से बचने के लिए फ्रिक्वेंसियों के आवंटन के समय ही यह निर्धारित किया जाता है कि रेडियो बैंड और टीवी चैनलों के लिए कितना स्पेस दिया जायेगा. सामान्य तौर पर ये ‘व्हाइट स्पेस’ चैनलों के बीच इस्तेमाल में लाये जाने वाले स्पेस में वास्तविक रूप से अस्तित्व में होते हैं. टेलीविजन प्रसारण के डिजिटल होने की दशा में भी स्थानीय तौर पर करीब 50 से लेकर 700 मेगाहट्र्ज तक का स्पेस रिक्त हो जाता है. ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि डिजिटल ट्रांसमिशन अपने नजदीकी चैनलों से प्रभावित होता है, जबकि एनालॉग में ऐसा नहीं होता है.
कैसे हुई व्हाइट स्पेस की शुरुआत
दुनियाभर में हाइ-स्पीड इंटरनेट सर्विस मुहैया कराने के मकसद से आठ बड़ी कंपनियों ने मिल कर वर्ष 2007 में व्हाइट स्पेसेज कॉएलिशन यानी समूह का गठन किया था. इस समूह में माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, डेल, एचपी, इंटेल, फिलिप्स, अर्थलिंक और सैमसंग इलेक्ट्रो-मैकेनिक्स शामिल थीं. इसके बाद गूगल प्रायोजित ‘फ्री द एयरवेव्स’ के नाम से अभियान शुरू किया गया. टेलीविजन प्रसारण में अनुपयोगी तत्कालीन व्हाइट स्पेस का इस्तेमाल करते हुए फरवरी, 2009 में पहली बार अमेरिका में लोगों को यह सुविधा मुहैया करायी गयी थी. व्हाइट स्पेस शॉर्ट-रेंज नेटवर्किग के लिए 80 एमबिट की दर से इंटरनेट मुहैया करायी गयी थी.
आरंभिक परीक्षण
इस तकनीक के परीक्षण की दिशा में फेडरल कम्यूनिकेशंस कमिशंस ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी (एफसीसी) की ओर से पहल की गयी थी. हालांकि, आरंभिक परीक्षण सफल नहीं हो पाये, लेकिन एफसीसी ने लगातार इसका परीक्षण जारी रखा. बाद में इसमें माइक्रोसॉफ्ट की भी दिलचस्पी बढ़ी और आइडेंटिकल प्रोटोटाइप डिवाइसों की मदद से आइडेंटिकल टेस्टिंग मैथड को विकसित करते हुए डीटीवी सिगनलों के माध्यम से इसका सफल परीक्षण किया गया. अमेरिका में माइक्रोसॉफ्ट रिसर्च रेडमंड के शोधकर्ताओं ने अक्तूबर, 2009 में व्हाइट स्पेस नेटवर्क का सफल इस्तेमाल किया, जिसे ‘व्हाइट फाइ’ नाम दिया गया. इस नेटवर्क में अनेक उपभोक्ताओं को यूएचएफ फ्रिक्वेंसी से जोड़ा गया. जून, 2011 में यूनाइटेड किंगडम में इसका कॉमर्शियल परीक्षण किया गया. माइक्रोसॉफ्ट ने ‘एडेप्ट्रम’ द्वारा विकसित की गयी तकनीक का इस्तेमाल करते हुए ऐसा करने में सफलता पायी थी. मालूम हो कि यूनाइटेड किंगडम में स्पेक्ट्रम आवंटित करने वाले लाइसेंसिंग निकाय ने व्हाइट स्पेस के मुफ्त इस्तेमाल की इजाजत दे रखी है.
एफसीसी के संबंधित विशेषज्ञ एलन स्टिलवेल के हवाले से ‘टेक रिपब्लिक डॉट कॉम’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, लैपटॉप को सीधे ब्रॉडबैंड स्पेक्ट्रम से नहीं जोड़ा सकता है. यदि आप टीवी के व्हाइट स्पेस का इस्तेमाल करना चाहते हैं, तो इसके लिए लैपटॉप में अलग से डिवाइस इंस्टॉल कराना होगा. साथ ही, कंप्यूटर या टैबलेट पर भी इसे डायरेक्ट इस्तेमाल में नहीं लाया जा सकता, बल्कि इसके लिए आपको एक रिसिवर की जरूरत होगी.