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हिंदू बिजली, मुसलमान टमाटर.. नहीं चाहिए

चोटी की बैठकों से पहले दिलों की बैठक तो बुला लो पिछले दिनों नेपाल की राजधानी काठमांडू में सार्क का शिखर सम्मेलन आयोजित हुआ. एक समझौते से किसी तरह इसकी लाज बचायी गयी. पढ़िए इसी पर यह गुदगुदाती, लेकिन साथ में चुभती हुई टिप्पणी. वुसतुल्लाह खान दक्षिण एशिया में जिस तरह एक-दूसरे के प्रति दिल […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 2, 2014 7:48 AM
चोटी की बैठकों से पहले दिलों की बैठक तो बुला लो
पिछले दिनों नेपाल की राजधानी काठमांडू में सार्क का शिखर सम्मेलन आयोजित हुआ. एक समझौते से किसी तरह इसकी लाज बचायी गयी. पढ़िए इसी पर यह गुदगुदाती, लेकिन साथ में चुभती हुई टिप्पणी.
वुसतुल्लाह खान
दक्षिण एशिया में जिस तरह एक-दूसरे के प्रति दिल तंग हो रहे हैं उनके होते सार्क शिखर सम्मेलन में ऊर्जा का क्षेत्रीय नेटवर्क बनाने का फैसला एक महत्वपूर्ण कदम है. वैसे सार्क ने अब तक हर सम्मेलन में कदम तो बहुत ही महत्वपूर्ण उठाये हैं, पर नतीजा क्या निकला, एक और महत्वपूर्ण कदम..बस. पिछले तीस वर्ष से सार्क की गति देखें तो कछुआ भी हिरण लगे है.
अगर सार्क इसी स्पीड से चलता रहा तो आशा है अगले 100 साल में वहां तक जरूर पहुंच जायेगा जहां दक्षिण-पूर्व एशिया का आसियान 47 वर्ष में पहुंच चुका है. और अगर सार्क को यूरोपीय संघ (ईयू) के स्तर तक पहुंचना है तो भइया, आज की स्पीड से उसे कम से कम 150 साल और चाहिए.
निराश नहीं, दुखी हूं : आप कह सकते हैं कि मैं इतना निराश क्यों हूं? मैं निराश नहीं, दुखी हूं. क्योंकि आठ देशों के सार्क को भारत और पाकिस्तान ने बंदी बना रखा है. दोनों देश पूरे संसार को फलता-फूलता देखना चाहते हैं, सिवाय अपने मोहल्ले के. संयुक्त राष्ट्र हो या शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन या एशियाई और यूरोपीय देशों की इकोनॉमी कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन, भारत और पाकिस्तान इन संगठनों की शिखर बैठकों में बड़ी शराफत दिखाते हैं, लेकिन अपने ही मोहल्ले की पंचायत में बाहुबली बन जाते हैं और नाक गजभर की कर लेते हैं. और फिर बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, मालदीव और अफगानिस्तान दोनों की नाक लपेटने के काम में जुट कर, जो करने के काम हैं वो भूल जाते हैं.
दावे पर दावे : उस पर दावे ऐसे कि बस लपेटते जाओ.. यूरोपीय संघ बन जायेंगे, कॉमन करेंसी (साझा मुद्रा) इस्तेमाल करेंगे, वीसा खत्म हो जायेगा, कॉमन इकोनॉमी जोन (संयुक्त आर्थिक क्षेत्र) बन जायेगा, कोलंबो से काबुल तक सार्क सड़क चमकेगी, ढाका से कराची तक सार्क रेल बनेगी. ये तीर मार लेंगे, वो भाला चला लेंगे. और हालत यह है कि एक ही कमरे में होते हुए एक दूसरे से कन्नी काट लेंगे, रास्ता बदल लेंगे, मैगजीन मुंह के सामने रख लेंगे कि कहीं आंखें न चार हो जाएं, कहीं हाथ मिलाना न पड़ जाये.अपनी बुलेटप्रूफ गाड़ी लेकर जायेंगे कि कहीं दूसरे की बुलेटप्रूफ में न बैठना पड़ जाये.
दोनों तरफ का रवैया
लेकिन दोनों तरफ जिस तरह का बचपना दिन-ब-दिन बढ़ता चला जा रहा है, उसके होते मुङो तो बिल्कुल आश्चर्य न होगा कि अगर पाकिस्तान में कोई पागल ये उठ कर नारा लगा दे कि सीमा पार से हिंदू बिजली नहीं चाहिए, भारतीय शक्कर मुर्दाबाद. और भारत में कोई दीवाना जुलूस निकाल दे कि मुसलमान टमाटर नामंजूर.. चरमपंथी प्याज हाय-हाय.. घुसपैठी बांग्लादेशी मछली नहीं चलेगी- नहीं चलेगी, वगैरह-वगैरह.
सार्क देशों के झंडे
हर सार्क सम्मेलन में सबसे बड़ी खबर यही क्यूं होती है कि भारत और पाकिस्तान के नेताओं ने एक-दूसरे से हाथ मिलाया या नहीं मिलाया. क्यूं इतना खर्चा करते हो चोटी की कांफ्रेंसें करने में, क्यूं थकते हो मुस्कराने के लिए जबरदस्ती बांछें खिलाने में? पहले दिलों की बैठक तो बुला लो.. सार्क भी खुद-ब-खुद सीधा हो जायेगा.
(लेखक पाकिस्तान में बीबीसी संवाददाता हैं)

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