।। कृष्ण प्रताप सिंह ।।
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बाबरी विध्वंस की बरसी आज, हाशिम अंसारी के कथनों के निहितार्थ
।। कृष्ण प्रताप सिंह ।। (वरिष्ठ पत्रकार) अयोध्या में अर्धसत्यों के सहारे अपनी ‘राजनीति’ चमकानेवाले एक बार फिर सक्रिय हैं. इस बार बहाना है, मामले के वादी हाशिम अंसारी के पैरवी से हट जाने, रामलला को आजाद देखने की इच्छा जताने और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा करनेवाला बयान… जो इस कारण भी सनसनीखेज लग […]
(वरिष्ठ पत्रकार)
अयोध्या में अर्धसत्यों के सहारे अपनी ‘राजनीति’ चमकानेवाले एक बार फिर सक्रिय हैं. इस बार बहाना है, मामले के वादी हाशिम अंसारी के पैरवी से हट जाने, रामलला को आजाद देखने की इच्छा जताने और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा करनेवाला बयान… जो इस कारण भी सनसनीखेज लग रहा है कि 6 दिसंबर, 1992 के ध्वंस की 22वीं बरसी पर आया है. कई भाई हाशिम के ‘आत्मसमर्पण’ या कि ‘हृदयपरिवर्तन’ से खासे गदगद हैं.
दुर्भाग्य से इन भाइयों को मालूम नहीं कि न हाशिम ने आत्मसमर्पण किया है, न ही उनका हृदयपरिवर्तन हुआ है. उसूलन वे पहले जैसे ही हैं और उनकी रामलला को आजाद देखने की चाह को तभी समझा जा सकता है, जब जाना जाये कि उनकी अयोध्या में ही गुजरी 92 वर्ष लंबी जिंदगी में बाबरी मसजिद का वादी होने के बावजूद, उसकी जगह राममंदिर बनाना चाहने वालों की धार्मिक भावनाओं के अनादर की एक भी मिसाल नहीं है.
हाशिम शुरू से ही इस विवाद के राजनीतिकरण के विरुद्ध और उसको अदालती फैसले या बातचीत से हल करने के पक्षधर रहे हैं. हाशिम कहते आ रहे हैं, 22-23 दिसंबर, 1949 की रात रामलला को साजिशन बाबरी मसजिद में ला बैठाया गया, तो हमने उनकी शान में कोई गुस्ताखी नहीं की. न उन्हें हटाने की कोशिश, न उनके मर्यादाभंग का प्रयास. गुस्से में आकर उनका वह ह्यघरह्ण भी हमने नहीं ढहाया.
आज वे जिनके कारण तिरपाल में हैं, वे महलों में रह रहे हैं. हाशिम ने उनकी आजादी के जतन 30 सितंबर, 2010 को आये इलाहाबाद हाइकोर्ट के विवादित भूमि के तीन टुकड़े करके पक्षकारों में बांट देनेवाले फैसले के बाद भी किये थे. हनुमानगढ़ी के महंत ज्ञानदास के साथ मिल कर, कहते हैं कि, वे समाधान के निकट तक पहुंच गये थे और कह दिया था कि सुप्रीम कोर्ट में अपील नहीं करेंगे. लेकिन ज्ञानदास की मानें, तो अशोक सिंघल व विनय कटियार आदि ने ऐसा फच्चर फंसाया कि जीते व पराजित, दोनों पक्ष कोर्ट पहुंच गये.
अब हाशिम के पैरवी से हटने के निश्चय के पीछे महज उनका स्वास्थ्य है. हृदयाघात के बाद अभी हाल में ही उन्हें पेसमेकर लगा है. फिर हाशिम को धन्यवाद देनेवालों को समझना चाहिए कि मंदिर निर्माण का रास्ता साफ करने या उसमें बाधा डालने का काम वे कर ही नहीं सकते, क्योंकि अब इस मामले में सब कुछ भारत सरकार व संसद की इच्छा पर निर्भर है.
इसलिए अब मुसलिम पक्ष ने अन्यों की पहल पर समझौतावार्ताओं से तौबा कर ली और तय किया है कि सरकार की ओर से कोई सार्थक समाधान प्रस्ताव आयेगा, तो उसी पर विचार करेगा. उसके अनुसार सरकार की जिम्मेदारी है कि वह दोनों पक्षों को स्वीकार्य समाधान तलाशे. लेकिन यही बात कहते हुए हाशिम ने नरेंद्र मोदी द्वारा अपने चुनाव क्षेत्र में बुनकरों के हित में उठाये गये कदमों की प्रशंसा कर दी, तो उसके भी अर्थ निकाले जाने लगे.
आजम खां कहते हैं कि हाशिम डर गये हैं. कई अन्य लोगों को उनके नये कथनों को किसी ह्यडीलह्ण का नतीजा बताने से भी गुरेज नहीं है. लेकिन हाशिम का डरने या डील करने का कोई ज्ञात इतिहास नहीं है. यकीनन, उनके कथनों में उनके रोष, क्षोभ, खीझ, गुस्से, थकान और निराशा को भी पढ़ा जाना चाहिए. हाशिम इसे छिपाते भी नहीं हैं. कहते हैं कि इस लड़ाईर् में उन्हें अपनों व परायों से हर कदम पर दगा ही मिला. उन्हीं के शब्दों में ह्यजो आजम कभी बाबरी मसजिद ऐक्शन कमेटी में थे, अब मंत्री हैं तो उन्हें विवादित परिसर में मंदिर ही मंदिर नजर आता है, मसजिद दिखती ही नहीं.
सोचिए जरा, हाशिम की दगा वाली टिप्पणी किसके खिलाफ है? सिर्फ उस पत्रकार के, जिससे उन्होंने कहा कि शारीरिक असमर्थता के कारण वे छह दिसंबर को घर पर ही रहेंगे तो उसने इसको यौमेगम के आयोजन से दूर रहने के उनके निश्चय के रूप में लिया या फिर संविधान, न्यायपालिका व सरकार के खिलाफ भी, 65 साल लंबी अदालती लड़ाई में जिनके द्वारा उन्हें और दिवंगत परमहंस को इंसाफ नहीं दिलाया जा सका! यह उनका आत्मसमर्पण है तो किसके लिए ज्यादा लज्जाजनक है?
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