उम्मीदों के प्रतीक बन गये मोदी
यह साल भारतीय राजनीति में बड़े बदलाव के लिए याद किया जायेगा. 30 साल बाद लोकसभा में किसी एक पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिला. नरेंद्र मोदी के केंद्र में आने के साथ भाजपा के पुराने दिग्गज किनारे होते गये.नरेंद्र मोदी की छवि और अमित शाह के प्रबंधकीय कौशल के बूते भाजपा नये स्वरूप में सामने […]
यह साल भारतीय राजनीति में बड़े बदलाव के लिए याद किया जायेगा. 30 साल बाद लोकसभा में किसी एक पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिला. नरेंद्र मोदी के केंद्र में आने के साथ भाजपा के पुराने दिग्गज किनारे होते गये.नरेंद्र मोदी की छवि और अमित शाह के प्रबंधकीय कौशल के बूते भाजपा नये स्वरूप में सामने आयी. 2014 में मोदी व शाह के उदय के संदर्भ में राजनीति की पड़ताल.
2014 के लोकसभा चुनाव को हम असाधारण राजनीतिक महत्व का मानते हैं. चुनाव से काफी पहले मेरी राय थी कि यह चुनाव 1971 जैसा चुनाव हो सकता है. करीब-करीब वही हुआ भी. उत्तर और पश्चिम भारत को ध्यान में रखें और पिछले चुनाव से तुलना करें, तो भाजपा के लिए यह चुनाव परिणाम 1977 जैसा दिखाई पड़ता है. छह राज्य हैं, जहां ज्यादातर सीटें मिलीं. यूपी में सिर्फ सात सीटें कम मिलीं. दिल्ली, हरियाणा, गुजरात, उत्तराखंड में सभी सीटें मिलीं. इस चुनाव परिणाम के दो रूप हैं. विगत चुनाव में बिहार और उत्तर प्रदेश का कुल सीटों में योगदान. जबकि इन दोनों राज्यों में संगठनात्मक अस्तित्व तो था, लेकिन ऐसा नहीं माना जाता है कि इन राज्यों में जनाधार भी है. लेकिन यह सही है कि इस चुनाव में नरेंद्र मोदी की आंधी बही.
राजनीति में कोई घटना अचानक नहीं होती. पीछे से चला आ रहा लंबा सिलसिला होता है. इस लिहाज से 2014 के चुनाव को पिछले चार वर्षो की घटनाओं के मद्देनजर देखना होगा. 2010 से मनमोहन सिंह की सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे और इसे मुद्दा बना कर आंदोलन की शुरुआत भी हो गयी थी. याद रहे कि राजनीतिक दलों ने नहीं, बल्कि उन लोगों ने आंदोलन और अभियान छेड़ा, जो दलीय राजनीति के दायरे से बाहर थे. एक वातावरण बना, सरकार के बारे में लोगों ने अपनी राय बनायी. लालकृष्ण आडवाणी ने 2009 के चुनाव में मनमोहन सिंह को सबसे कमजोर प्रधानमंत्री कहा था. उस वक्त यह आरोप नहीं चिपका. क्योंकि उस वक्त तक लोग मानते थे कि वे कमजोर हो सकते हैं, भ्रष्ट नहीं. अभियान चले-अदालत में मुकदमे चलाये गये. कई मंत्री जेल गये, जो तथ्य सामने आये, उससे आम आदमी ने यही अर्थ निकाला कि वे सिर्फ कमजोर ही नहीं, बल्कि भ्रष्ट प्रधानमंत्री भी हैं. यह भी कि प्रधानमंत्री तो कोई और है, मनमोहन तो सिर्फ हुक्म बजानेवाले हैं. ऐसे में लोगों के अंदर यह आम धारणा बनी कि देश को मजबूत प्रधानमंत्री चाहिए. जिन नेताओं की प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी थी, उसमें कोई भी व्यक्ति इस कसौटी पर खरा नहीं उतरा.
लेकिन, 2014 के चुनाव में कई नयी बातें थीं. तकरीबन 12 करोड़ नये मतदाता थे और युवा मतदाताओं की संख्या 65 फीसदी थी. उन्हें तो अपना भविष्य दिखाई दे रहा था. उन्हें गंठबंधन के इतिहास से कोई वास्ता नहीं था. जो कोई भी एक मजबूत प्रधानमंत्री और भविष्य का आश्वासन दे सके, ये दो बातें लोगों के मन में बैठी थी. अगर यह सामान्य चुनाव होता, तो मोदी की कमियां खा जातीं. मजबूत मुख्यमंत्री, गुजरात को विकास के पथ पर ले जाने की उपलब्धि मोदी के नाम थी, लेकिन उन पर यह भी आरोप था कि उन्होंने 2002 का कत्लेआम होने दिया. कांग्रेस ने इस मसले को जोर-शोर से चुनावी मुद्दा भी बनाया. वह इसे अपनी ताकत समझती थी. लेकिन, परिणाम ऐसा नहीं हुआ.
परिणाम का विश्लेषण करें, तो यही दिखता है कि 30 साल से जो गंठबंधन की राजनीति चल रही थी, उससे मतदाताओं ने देश को मुक्ति दिलायी. दूसरी बात, राष्ट्रीय दल के रूप में कांग्रेस जिस पायदान पर नीचे खिसक आयी, उसका किसी ने अनुमान नहीं लगाया था. मैं चुनाव परिणाम का एक तीसरा पहलू भी देखता हूं, जो महत्वपूर्ण है और वह यह है कि मतदाता विकास चाहता है. इस लिहाज से देखें, तो विकास के मसले पर हुआ यह पहला आम चुनाव है.
आमतौर पर चुनाव तो एक व्यक्ति के नेतृत्व के करिश्मे से जीता जाता है. जो परिस्थितियां चुनाव से पहले बन रही थीं, उन्हें देखते हुए वह करिश्मा मोदी में दिख रहा था, किसी दूसरे में नहीं. इस मायने में मोदी की तुलना नेहरू से की जा सकती है. पहले आम चुनाव में जब नेहरू उतरे, तो उन्हें भरोसा नहीं था कि कांग्रेस केंद्र में व राज्यों में भारी बहुमत से जीतेगी. नेहरू के समान ही आजादी की लड़ाई से निकले लोहिया, अच्युत पटवर्धन, जेपी नारायण, अशोक मेहता, जेबी कृपलानी, टी प्रकाशम, पश्चिम बंगाल में प्रफुल्ल घोष आदि राष्ट्रीय नेता थे. नेहरू के साथ ही ये सब कांग्रेस में रहे हुए थे और आजादी की लड़ाई के सेनानी थे. पहले आम चुनाव में इन्होंने अपना दल बना कर चुनाव लड़ा.
कुछ ऐसी ही परिस्थिति 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी व दूसरे नेताओं के बीच थी. मोदी राष्ट्रीय नेता इन अर्थो में नहीं थे कि दिल्ली में बैठ कर राजनीति करते हैं. वे राज्य के मुख्यमंत्री थे. इस तरह से ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, मुलायम सिंह समेत कई नेता थे. लेकिन यहां मोदी के पक्ष में जो बातें थीं, वे इन कई नेताओं के पक्ष में नहीं थीं. मोदी को भाजपा ने अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया. भाजपा को आरएसएस का समर्थन पूरे देश में प्राप्त हुआ. पहले के चुनावों में भाजपा के किसी भी उम्मीदवार को इस तरह का समर्थन आरएसएस का नहीं मिला, जिस तरह का समर्थन नरेंद्र मोदी को प्राप्त हुआ. जिन मानदंडों पर कोई नेता वोट कैचर माना जाता है, वे सभी मानदंड मोदी में लोगों ने पाये. सामाजिक न्याय के आंदोलन से वीपी सिंह जो लक्ष्य हासिल करना चाहते थे, उसमें यह एक बड़ी विडंबना है. लेकिन यह हकीकत भी है कि सामाजिक न्याय का चक्र दो-तीन जातियों में फंस गया था. वीपी सिंह अपने जीवन के आखिरी दिनों में इस पर अफसोस जताते पाये गये थे. नरेंद्र मोदी ने उस दुष्चक्र को तोड़ा, जो एक असंभव सी बात थी. तो इस मायने में 2014 का चुनाव नये अनुभवों से भरा हुआ है. चुनाव से जो सरकार बनी है, उसके बारे में अभी प्रतिक्रियाएं मिश्रित हैं. फिर भी लोग उम्मीद में हैं और उन्हें मोदी के नेतृत्व पर भरोसा है. यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद आमतौर पर उस नेता की लोकप्रियता में कमी आती है. मोदी की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है.
इससे यह बात निकलती है कि नरेंद्र मोदी को लोग वक्त देना चाहते हैं. मोदी के प्रभाव का विस्तार देशव्यापी है. इसलिए आनेवाले दिनों में इसका राजनीतिक रूपांतरण भी दिखाई पड़ेगा.
लेकिन मोदी की कुछ स्थापनाएं हैं, उन पर प्रश्न खड़ा करने का समय भी आ गया है. पहला यह कि मोदी मानते हैं कि इसी शासन तंत्र से विकास के नये लक्ष्य, रोजगार के नये अवसर पैदा किये जा सकते हैं. इस स्थापना के आधार पर घोषित लक्ष्य पूरा कर दिखाते हैं, तो एक बहुत बड़ा आश्चर्य ही होगा. मेरा मानना है कि जिस संविधान के तहत हमारा शासन तंत्र संचालित किया जा रहा है, वह 200 वर्षो के औपनिवेशिक गुलामी की मानसिकता का परिचायक है. इसमें भारत की आत्मा, संस्कृति, समाज व्यवस्था का कोई तत्व नहीं है, सिवाय संविधान की जो प्रस्तावना है, वह सराहनीय है. परंतु संविधान से जो शासन तंत्र, जो शासन व्यवस्था निकल रही है, उसके संबंध में जेपी कहते थे कि वह हमारे समाज का उल्टा पिरामिड है, इस संविधान में पिरामिड को सीधा करने की गुंजाईश नहीं. गांधी जी की ग्राम स्वराज की जो कल्पना है, वह इस संविधान से पूरा नहीं हो सकती. ग्राम स्वराज्य के बिना भारत की 125 करोड़ जनता को बेरोजगारी से मुक्त नहीं किया जा सकता. ये जो कुछ अनसुलङो सवाल हैं, उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर संवाद चला कर हल करना होगा. लेकिन ऐसे किसी संवाद या जनांदोलन की पहल सरकार की तरफ से नहीं दिखती.
प्रधानमंत्री बनने के बाद उनकी कुछ घोषणाओं पर गौर करें, तो गांधी जी के जन्मदिन पर स्वच्छता आंदोलन की घोषणा की गयी. लेकिन इसे जनांदोलन बनाये बिना मंजिल नहीं मिलेगी. इसी तरह गंगा सफाई का मामला है, राजीव गांधी ने 1985 में गंगा सफाई का मसला उठाया था. इसे शुरू भी किया गया, लेकिन आज तक गंगा मैली की मैली ही रही. इससे जाहिर होता है कि सिर्फ सरकारी तंत्र से गंगा की सफाई नहीं हो सकती. यदि यह सरकार पिछली सरकार की भूलों को नहीं दोहराये, तभी इसे सार्थक सरकार भी माना जा सकता है और सफल सरकार भी.
(संतोष कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)
रामबहादुर राय
वरिष्ठ पत्रकार
नये मुहावरों, नये तरीकों की ताकत
नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय परिदृश्य में उभरने से पहले से ही एक बड़े और सुलङो हुए नेता थे. 2014 के चुनाव के समय तक वे लंबे समय से गुजरात के मुख्यमंत्री रहे. मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने शासन और राजनीति से जुड़ी चीजों को नजदीक से परखा था. उन्होंने अपनी राजनीति का आधार गुड गर्वनेंस को बनाया था.
मोदी की उम्मीदवारी का फायदा
जब गुजरात के मुख्यमंत्री रहते उन्हें भाजपा ने 2014 के चुनाव के लिए प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया, तो विरोधी इस बात को लेकर खुश हो रहे थे कि मोदी के आने से भाजपा के खिलाफ मतों का ध्रुवीकरण होगा और आसानी से चुनावी वैतरणी पार की जा सकती है. लेकिन ये दल शायद इस बात को भूल गये थे कि 2014 के चुनाव में लगभग 12 करोड़ नये मतदाता थे. युवा मतदाताओं की संख्या कुल मतों का 65 फीसदी है. मोदी ने इस तथ्य को बखूबी समझा. वह यह अच्छी तरह जान रहे थे कि 21 वीं सदी का युवा न तो धर्म से मतलब रखता है, न ही क्षेत्र और न ही जाति से. आज के युवाओं की आकांक्षाएं अलग हैं. इसलिए मोदी ने अपने चुनाव प्रचार में युवाओं को खास तवज्जो दी.
हमें यह ध्यान रखना होगा कि 2014 के चुनाव के पहले ही देश में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चला. अण्णा हजारे के नेतृत्व में चलने वाले इस आंदोलन में बड़ी संख्या में युवा सड़क पर उतरे. उन्होंने करीब से यह महसूस किया कि इस देश की राजनीति को भ्रष्टाचार के घुन ने काफी गहरा नुकसान पहुंचाया है. कांग्रेस अपने सहयोगी दलों के मत्थे भ्रष्टाचार के आरोपों को मढ़ कर खुद अपना दामन पाक-साफ दिखाना चाहती थी. लेकिन जिस तरह सरकार जन लोकपाल के गठन के मसले पर टाल-मटोल का रवैया अपना रही थी और अण्णा और उनके सहयोगी इस मसले को जनता के सामने ले जा रहे थे, उससे प्रधानमंत्री की जो छवि युवाओं के मन में बैठी, वह यही थी कि वे भ्रष्टाचार को छुपाने वाले और महत्वपूर्ण मुद्दों पर निर्णय न लेने वाले एक कमजोर प्रधानमंत्री हैं.
युवाओं से सीधा संवाद
मोदी ने अपना चुनाव प्रचार शुरू करने से काफी पहले से ही देश के अलग-अलग हिस्सों में जिस तरह से रैलियां की और युवाओं के साथ अपना जुड़ाव बढ़ाया और जिस तरह से बड़ी संख्या में युवा उनकी रैलियों में शिरकत कर रहे थे, उससे साफ था कि मोदी युवाओं की पसंद बनते जा रहे हैं. नरेंद्र मोदी ने अपने प्रत्येक रैली में पॉलिटिक्स ऑफ गर्वनेंस की बात कही. गुजरात मॉडल को सामने रखा. बताया कि एक प्रदेश का मुख्यमंत्री रहते हुए ये काम किये हैं, और यदि देश की जनता उन्हें मौका देती है तो वे यह काम कर दिखायेंगे. मोदी की बातें अन्य मुख्यमंत्रियों, जो कि प्रधानमंत्री पद के संभावित दावेदार के रूप में देखे जा रहे थे, के लिए एक तरह से चुनौती के रूप में सामने आ रही थीं. मोदी ने गुड गर्वनेंस को आइडियोलॉजी के रूप में सामने रखा. एनडीए ने अपने पूर्व के शासन में गवर्नेस को बेहतर बनाने की दिशा में काम किया था, लेकिन मोदी ने गर्वनेंस को विचारधारा बनाकर प्रस्तुत किया.
ब्रांड के रूप में उभरे मोदी
नरेंद्र मोदी ने जब हैदराबाद में रैली कि तो उनको सुनने के लिए टिकट रखा गया था. उनको सुनने के लिए बड़ी संख्या में युवा आये. यह भारतीय राजनीति में पहली बार हो रहा था कि किसी नेता को सुनने के लिए लोग टिकट कटा कर आये. आज तक भारतीय राजनीति ने उन नेताओं को देखा था, जिनकी रैलियों में भीड़ के लिए लोगों को बहला फुसला कर लाया जाता रहा है, लेकिन यह एक नयी बात थी. नरेंद्र मोदी एक ब्रांड के रूप में चुनाव से काफी पहले उभर चुके थे. एक तरफ जहां अन्य नेता अपनी चुनावी रैलियों में मोदी को हराने पर अपना ध्यान केंद्रित किये हुए थे, वहीं मोदी का सारा ध्यान गुड गर्वनेंस के मुद्दे को देश के सामने रखने पर था.
अपने चुनाव अभियान के दौरान नरेंद्र मोदी ने सौ से ज्यादा चुनावी रैलियां की. आम युवाओं के लिए यह चुनाव आशा का चुनाव था, बदलाव का चुनाव था, नये विजन का चुनाव था और मोदी सभी मानदंडों पर खरा उतरते हुए एक मजबूत नेता के रूप में उभर रहे थे. चुनाव में करीब से परख रहा युवा सिर्फ भ्रष्टाचार विरोध के मसले पर अपना निर्णायक मत मोदी को दिया हो, ऐसा नहीं था. यदि सिर्फ भ्रष्टाचार ही मुद्दा होता, तो वीपी सिंह के जमाने में हुए भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन के बाद जो जनमत आया था, उसमें किसी एक दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिला था. इस बार युवा जानना चाहते थे कि देश के विकास की दिशा और गति क्या होगी. देश की जनता को गरीबी तक का समाधान मोदी में नजर आ रहा था. चुनाव अभियान में गति को पूरी तरह से बनाए रखना मोदी की बहुत बड़ी विशेषता थी.
यह बात सही है कि इस चुनाव में नरेंद्र मोदी की तुलना में भाजपा के बाकी बड़े नेता फीके नजर आ रहे थे, फिर भी उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में मोदी को अमित शाह के रूप में एक बेहतर संगठनात्मक क्षमता वाला नेता मिला था. एक ऐसे प्रदेश में जहां भाजपा तीसरे या चौथे पायदान की लड़ाई लड़ रही थी, भाजपा की सफलता का श्रेय अमित शाह को जाता है. नरेंद्र मोदी के समर्थन में ऊपरी स्तर पर जो लहर थी, उसे शाह ने अपने संगठनात्मक क्षमता की बदौलत वोट में परिणत किया. लेकिन यह लहर केवल लोकसभा चुनाव के लिए थी. उत्तर प्रदेश का युवा जाति के लिए नहीं, बल्कि भारत के नव-निर्माण के लिए वोट कर रहा था. यदि ऐसा न होता, तो आगे होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा उपचुनाव में भी भाजपा को उसी तरह की सफलता मिलती. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
ऐसा नहीं था कि मोदी को अन्य नेताओं से चुनौती न मिली हो. लेकिन मोदी जिस तरह से भारतीय मतदाताओं के मन को पढ़ पाये, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, मुलायम सिंह जैसे अन्य नेता नहीं परख पाये. वे सिर्फ आंकड़ों के गणित में उलङो रहे और वोट को जाति और धर्म के हिसाब से देखते रहे. इसके उलट मोदी ने युवाओं के मन में राष्ट्रीयता की भावना भरी तथा विकास और राष्ट्रवाद को अपने प्रचार का आधार बनाया. नतीजा हुआ कि बाकी पीछे रह गये और मोदी गेम चेंजर बन कर भारी जीत दर्ज कराने में सफल रहे. (संतोष कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)
सुदेश वर्मा
वरिष्ठ पत्रकार एवं ‘नरेंद्र मोदी : दि गेम चेंजर’ के लेखक