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पुलिस के नेचर और स्ट्रर में परिवर्तन की जरूरत

आरके मल्लिक हाल में दो घटनाएं घटीं. पहली घटना आस्ट्रेलिया के सिडनी शहर में और दूसरी घटना पाकिस्तान के पेशावर में. पहली घटना में एक व्यक्ति ने नागरिकों को कैफे में बंधक बनाया. दूसरी में जान-बूझ कर, होशो-हवास में स्कूली बच्चों की नृशंस हत्या कर दी गयी. दोनों घटनाएं एक दिन के अंतराल में घटी, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 2, 2015 6:49 AM
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आरके मल्लिक
हाल में दो घटनाएं घटीं. पहली घटना आस्ट्रेलिया के सिडनी शहर में और दूसरी घटना पाकिस्तान के पेशावर में. पहली घटना में एक व्यक्ति ने नागरिकों को कैफे में बंधक बनाया. दूसरी में जान-बूझ कर, होशो-हवास में स्कूली बच्चों की नृशंस हत्या कर दी गयी. दोनों घटनाएं एक दिन के अंतराल में घटी, लेकिन दोनों घटनाओं के मूल स्थल भौगोलिक रूप से काफी दूर-दूर थे.
इन घटनाओं की वजह से आतंकवाद का वैश्विक चेहरा फिर से सामने आया. इसके बाद जो बहस छिड़ी, वह मुख्य रूप से वैश्विक आतंकवाद का सामना कैसे किया जाये, इस पर केंद्रित रही. पर, इन घटनाओं में स्थानीय पुलिस की क्या भूमिका हो सकती थी, यह बहस का मुद्दा नहीं बन सका. यह याद रखने वाली बात है कि दोनों घटनाएं युद्ध क्षेत्र में नहीं घटी, बल्कि शहर की गलियों में हुई. जहां पर नागरिकों की सुरक्षा का दायित्व स्थानीय पुलिस पर था.
इन घटनाओं के बाद हमारे देश में भी सभी पुलिस एवं सूचना तंत्रों को आगाह कर दिया गया और वे इस तरह की घटना को रोकने की जद्दोजहद में जुट गये. इस शोर-शराबे के बीच लंदन मेट्रोपोलिटन पुलिस के पूर्व आयुक्त यान ब्लेयर का कथन याद रखने की आवश्यकता है कि वैश्विक आतंकवाद को रोकने के लिए स्थानीय बीट पुलिस पदाधिकारी की क्षमता एवं सक्रियता को काफी बढ़ाना पड़ेगा. क्योंकि पुलिस ही संभवत: एकमात्र ऐसी सरकारी संस्था है, जिसकी पहुंच घर-घर तक है. ऐसे समय में जब झारखंड में एक नयी सरकार का गठन हुआ है, इस सरकार की प्रमुख चुनौती यह है कि किस प्रकार पुलिस-व्यवस्था में सुधार किया जाये.
जिससे की पुलिस 21वींशताब्दी के नागरिकों की अपेक्षाओं पर खड़ी हो सके. यह इसलिए भी आवश्यक है कि पटना के गांधी मैदान में वर्ष 2013 में हुए सीरियल ब्लास्ट की घटना के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि वैश्विक आतंकवाद की जड़े रांची में भी गहरी हैं. पुलिस सुधार के संबंध में कदम उठाने का सबसे सही वक्त यही है. राज्य पुलिस एवं उसके सहयोग के लिए आये सीआरपीएफ पिछले डेढ़ दशक में माओवाद के खिलाफ लड़ाई में 450 से अधिक जवान व पदाधिकारी गंवा चुकी है. माओवादियों के प्रभाव क्षेत्र में कमी आयी है और उनका अवैध नियंत्रण भी कम होता जा रहा है.
हाल में संपन्न विधानसभा चुनाव में वोटों की अप्रत्याशित वृद्धि इसका बहुत बड़ा प्रमाण है, लेकिन यह करते-करते राज्य की असैनिक पुलिस का बहुत हद तक सैन्यकरण हो गया है, जो कि एक प्रजातांत्रिक समाज के लिए शुभ संकेत नहीं है. अत: राज्य के राजनीतिक नेतृत्व एवं पुलिस नेतृत्व के समक्ष यह दोहरी चुनौती है कि किस पर एक तरफ पुलिस के ‘नेचर और स्ट्रक्चर’ में मौलिक परिवर्तन करते हुए उसे सभी प्रकार के आतंकवाद का सामना करने के लायक बनाया जायेऔर दूसरी तरफ साथ ही साथ ‘कानून का राज’ की प्राथमिकता को भी स्थापित किया जा सके. जॉन लॉक ने कहा है ‘जहां कानून का राज समाप्त होता है, वहीं से उत्पीड़न, अव्यवस्था व कुव्यवस्था शुरू होती है’. उदाहरण के तौर पर यह जान लेना आवश्यक है कि मन हरोन मोनिस, जिसने सिडनी में लोगों को बंधक बनाया था, को स्थानीय पुलिस ने अपने सर्विलांस से अलग कर दिया था, जबकि पूर्व में भी उसके खिलाफ यौन-शोषण के अपराध दर्ज थे और अपनी पूर्व पत्नी की हत्या की साजिश में उसका नाम आया था.
और उसके द्वारा अफगानिस्तान और तालिबान के विरुद्ध लड़ाई में शहीद हुए आस्ट्रेलियाई सैनिकों के परिवारजनों को कई पत्र लिखा गया था, जिसमें उसके द्वारा शहीद सैनिकों को हत्यारा बताया गया था. इसी प्रकार पेशावर में जिन आतंकवादियों द्वारा स्कूल में घटना को अंजाम दिया गया, वे हवा में उड़ कर नहीं आये थे. सड़क मार्ग से ही शहर में घुसे और स्थानीय पुलिस को इसकी भनक तक नहीं लगी. आस्ट्रेलिया की घटना इस बात की ओर इशारा करती है कि पाश्चात्य देशों में जो पुलिस व्यवस्था है और जिनके क्रिया-कालापों की नकल करने की होड़ लगी हुई है, उसमें भी कई कमजोरियां है. जहां तक पेशावर पुलिस का प्रश्न है, तो वह तो कमोवेश अपनी पुलिस जैसी ही है.
पुलिस के सुधार के संबंध में बहस करते वक्त उपरोक्त दोनों व्यवस्थाओं की खामियों को ध्यान में रखना पड़ेगा. ताकि सही निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके. इन सभी चीजों के बीच इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि किसी भी प्रकार के सुधार की परिकल्पना के मूल में थाने की पुलिस व्यवस्था को सुदृढ़ करना तथा बीट पेट्रोलिंग को कारगर बनाना हो. यही दो उपाय हैं, जिनसे किसी भी प्रकार के अपराध का सामना किया जा सकता है. (जारी).
लेखक एसटीएफ के आइजी हैं और ये उनके निजी विचार हैं.
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