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क्यों कुछ नहीं देख पायीं व्यवस्था की आंखें?

फैजाबाद से कृष्ण प्रताप सिंह अयोध्या में अज्ञात अपराधी, 25 से 28 दिसंबर के बीच झारखंड के गिरिडीह जिले के बिरनी थाना क्षेत्र के झांझ गांव से आये युवा तीर्थयात्री कृष्णदेव को अगवा कर उसकी आंखें निकाल रहे थे, तो पुलिस की वे तमाम इलेक्ट्रॉनिक आंखें अंधी क्यों हो गयी थी. देश के सर्वाधिक संवेदनशील […]

फैजाबाद से कृष्ण प्रताप सिंह

अयोध्या में अज्ञात अपराधी, 25 से 28 दिसंबर के बीच झारखंड के गिरिडीह जिले के बिरनी थाना क्षेत्र के झांझ गांव से आये युवा तीर्थयात्री कृष्णदेव को अगवा कर उसकी आंखें निकाल रहे थे, तो पुलिस की वे तमाम इलेक्ट्रॉनिक आंखें अंधी क्यों हो गयी थी. देश के सर्वाधिक संवेदनशील राम जन्मभूमि-बाबरी मसजिद परिसर की मुकम्मल व चाक-चौबंद सुरक्षा के बहाने समूची अयोध्या पर नजर रखने के लिए राजकोष से भारी धन राशि खर्च करके जिन्हें लगाया गया है और जिनके बूते पुलिस दावा करती है कि इस धर्म नगरी में कहीं भी उसकी निगाह से बच कर कुछ नहीं किया जा सकता? लेकिन इस सिलसिले में यही सवाल सबसे बड़ा नहीं है. इससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि समूची सरकारी व्यवस्था की उन आंखों को क्या हुआ, जिनका दायित्व था यह देखना कि भूमंडलीकरण के पिछले 15-20 सालों में जैसे-जैसे तमाम अन्य सामाजिक सुरक्षाओं के साथ सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल होती गयी हैं. अयोध्या आंखों के इलाज के लिए निजी अस्पतालों के एक बड़े हब में बदलती गयी है और वहां न सिर्फ देश के सीमावर्ती राज्यों, बल्कि नेपाल से भी आनेवाले गरीब नेत्र रोगियों की ‘सेवा’ लाभ के बड़े धंधे में बदल गयी है. फिर, आज की तारीख में इस व्यवस्था का कोई भी अंग इस सवाल से क्यों नहीं जूझना चाहता कि कहीं कृष्णदेव की त्रसदी का कोई सिरा उक्त सेवा की आड़ में किये जाने वाले किसी गोरखधंधे से तो नहीं जुड़ा? क्या ऐसी व्यवस्था के बूते अयोध्या या देश के अमन चैन को लेकर आश्वस्त रहा जा सकता है?

अब जब मामला तूल पकड़ गया है, तो इन सवालों को दरकिनार कर उत्तर प्रदेश पुलिस कह रही है कि घटना के हर पहलू की बारीकी से जांच की जायेगी. उसने इसकी विवेचना क्राइम ब्रांच की तीन टीमों को सौंपते हुए उसके प्रभारी के अलावा दो क्षेत्रधिकारियों, पांच इंस्पेक्टरों और सात सब इंस्पेक्टरों समेत खुफिया एजेंसियों को मामले के के रहस्योदघाटन के अभियान पर लगा दिया है. लेकिन, जब कृष्णदेव के साथ उक्त घटना घट रही थी, तो उसके प्रति पुलिस का रवैया अमानवीय तो था ही, कुछ बरस पहले आतंकी हमला ङोल चुकी अयोध्या के चप्पे-चप्पे की खबर रखने और आतंकियों के दुस्साहस समेत किसी भी आपराधिक चुनौती से जूझने को तत्पर होने के उसके दावे पर प्रश्नचिह्न् लगाने वाला भी था.

शुरू में पुलिस द्वारा बरती गई कोताही का ही नतीजा है कि सुराग के लिहाज से वह अभी भी खाली हाथ है और अंधेरे में तीर चला रही है. उसे यह तक पता नहीं कि अयोध्या के अपने कई दिनों के प्रवास में कृष्णदेव कहां ठहरा था, किस जगह से उसे अपहृत किया गया और कहां ले जाकर उसकी आंखें निकाली गयी?

प्रसंगवश, कृष्णदेव प्राय: अयोध्या आया जाया करता था. इसलिए गत 24 दिसंबर को अपने घर से चल कर 25 दिसंबर को वह अयोध्या पहुंचा, तो उसे कतई कोई अंदेशा नहीं सता रहा था. 27 दिसंबर तक विभिन्न मंदिरों में दर्शन-पूजन और भ्रमण करते हुए उसने अपने परिजनों से बातें भी की. लेकिन 28 दिसंबर की शाम कुछ लोग जब वह वापस जाने के लिए रेलवे स्टेशन की ओर जा रहा था, अज्ञात अपराधी उसे अपहृत कर अज्ञात स्थान पर ले गये और नशीला पदार्थ खिला कर आंखें निकालने के बाद रायगंज मुहल्ले में छोड़ गये.

रायगंज पुलिस चौकी के प्रभारी सुनील कुमार को, जिन्हें अब लापरवाही बरतने के कारण सिपाही इंद्रभूषण पटेल समेत निलंबित कर दिया गया है, सूचना मिली तो उन्होंने एंबुलेंस बुला कर उसे अयोध्या के जुड़वा शहर फैजाबाद के जिला अस्पताल में पहुंचवा दिया और अपना कर्तव्य खत्म मान लिया. अस्पताल में डॉक्टरों व स्वास्थ्य कर्मियों ने भी उसकी अपेक्षित मदद नहीं की. यहां तक कि उन्होंने पुलिस को भी अपराधियों की करतूत को गंभीरता से अवगत नहीं कराया.

वारदात के साथ उपेक्षा से भी त्रस्त कृष्णदेव ने अस्पताल के अपने ही वार्ड के एक अन्य मरीज के तीमारदार के मोबाइल से अपने दिल्लीवासी रिश्तेदार चिंतामणि को अपने साथ हुए वाकये की सूचना दी. चिंतामणि के मार्फत खबर पाकर उसका भाई चंद्रदेव जीजा सुरेंद्र के साथ अस्पताल आया. उसे अपने जोखिम पर साथ ले गये और गिरिडीह के एक अस्पताल में भरती कराया, जहां स्थिति गंभीर होने के कारण बाद में उसे रांची के रिम्स भेज दिया गया.

इतना सब हो जाने के बावजूद उत्तर प्रदेश पुलिस सामान्य घटना मान कर इस पर ध्यान देने की जरूरत नहीं समझ रही थी. उसके कानों पर जूं तो तब रेंगी, जब कोडरमा के सांसद व झारखंड प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष रवींद्र कुमार राय ने फैजाबाद के भाजपा सांसद लल्लू सिंह को उलाहना देकर पीड़ित की मदद करने का अनुरोध किया, फिर लल्लू ने अपने स्तर से पुलिस अधिकारियों से संपर्क साधा. मामला दो राज्यों के बीच का हो गया, तो पुलिस ने थोड़ी तेजी दिखायी, लेकिन उसकी लापरवाही के लिए यह सब इतना अप्रत्याशित था कि वह कई दिनों तक यही तय नहीं कर सकी कि अपहर्ताओं ने कृष्णदेव की आंखें फोड़ी है या किसी और को प्रत्यारोपित करने के लिए निकाल ली है. यानी करतूत सामान्य अंग-भंग की है या किसी मानव अंग तस्कर गिरोह की? कृष्णदेव का इलाज करने वाले फैजाबाद जिला अस्पताल के डॉक्टर इस मामले में पुलिस को किसी नतीजे तक पहुंचा सकते थे, लेकिन उन्होंने भी उसी की शैली में इस पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी और कृष्णदेव का भाई व जीजा उसे अस्पताल से डिस्चार्ज करा ले गये, तो बला को अपने सिर से टली मान लिया था. उन्होंने इस तथ्य पर भी ध्यान नहीं दिया था कि यह अंग भंग का मामला होता, तो कृष्णदेव के शरीर के और हिस्सों पर भी चोटें होती, जो एकदम नहीं थी.

रांची में डॉक्टरों ने पाया कि कृष्णदेव की दोनों आंखों के आइबॉल निकालने के बाद उसे टांके लगाये गये हैं, जो किसी आई सजर्न की मदद के बगैर संभव नहीं, तो फैजाबाद में उसका इलाज करने वाले डॉ राजेश सिंह भी ‘हां में हां’ मिलाते हुए कह रहे हैं कि उन्होंने या उनके अस्पताल में किसी और ने ये टांके नहीं लगाये, तो अब पुलिस इसे मानव अंग तस्करों की कारस्तानी मान कर जांच को उस दिशा में बढ़ा रही है. उसने अयोध्या और आसपास के सारे आंख के अस्पतालों व डॉक्टरों के यहां 25 से 30 दिसंबर के बीच हुए ऑपरेशन का ब्योरा तलब किया है, जिससे हड़कंप तो मचा है, लेकिन उसके पास अभी भी इस सवाल का जवाब नहीं है कि सीसीटीवी कैमरों समेत अत्याधुनिक उपकरणों से लैस उसकी चुस्त निगरानी में रहनेवाली अयोध्या में उसकी आमतौर पर हाइ अलर्ट पर रहनेवाली सुरक्षा व्यवस्था को धता बता कर यह सब हो कैसे गया और किया गया तो उसे कानों कान खबर क्यों नहीं हो पाई?

क्या उसकी इस सफाई को पर्याप्त माना जा सकता है कि चूंकि रेलवे स्टेशन रोड का क्षेत्र सीसीटीवी कैमरों की परिधि से बाहर है, इसलिए उसे कुछ पता नहीं चल सका? जवाब तो उसके पास अपने महानिरीक्षक संजय कक्कड़ के इस प्रश्न का भी नहीं है कि विभिन्न शहरों में बहुत आसानी से कार्निया प्रत्यारोपण की सुविधा उपलब्ध है, जो नेत्र बैंकों से नि:शुल्क उपलब्ध कराया जाता है, तो किसी को आंख निकालने की जरूरत क्यों पड़ी?

खासकर जब निकालने के 48 घंटों में प्रत्यारोपण न हो पाने पर निकाले गये अंग बेकार हो जाते हैं. पुलिस सूत्रों की मानें, तो इस सिलसिले में लखनऊ के विशेषज्ञों से परामर्श लिया जा रहा है, जहां 15 साल पहले कुछ भिखारियों की आंखों को धोखे से निकालने की घटना घटी थी. इसी के साथ स्टेट क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की मदद से ऐसी प्रकृत्ति के अपराधों का इतिहास भी खंगाला जा रहा है. दूसरी ओर भाजपा के स्थानीय सांसद लल्लू सिंह मामले का राजनीतिकरण करते हुए इसे प्रदेश की अखिलेश सरकार पर हमले के मौके के रूप में इस्तेमाल करने के फेर में हैं. उनकी रुचि जितनी कृष्णदेव के कसूरवारों का पता लगा कर उन्हें सजा दिलाने में है, उससे ज्यादा इस सवाल में कि अनाप शनाप उगाही करनेवाली अखिलेश की पुलिस ऐसे ही अयोध्या आये तीर्थयात्रियों की सुरक्षा के प्रति लापरवाह रही, तो अयोध्या का पर्यटन विकास कैसे होगा? कोई पर्यटक उसकी ओर मुंह क्यों करेगा?

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