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क्या आतंकी शार्ली एब्दो के कार्टूनों से आहत थे?

शार्ली एब्दो के दफ्तर में हुए आतंकी हमले ने एक बार फिर वैश्विक आतंक के भयानक खतरे को रेखांकित किया है. इस पर मीडिया में भी विचारोत्तेजक विचार व्यक्त किये जा रहे हैं. बहस जारी है. दुनिया के नामचीन अखबारों वाशिंगटन पोस्ट, द टेलिग्राफ, डॉन और अल जजीरा समेत मीडिया के हर क्षेत्र से प्रतिक्रियाएं […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 10, 2015 5:21 AM
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शार्ली एब्दो के दफ्तर में हुए आतंकी हमले ने एक बार फिर वैश्विक आतंक के भयानक खतरे को रेखांकित किया है.
इस पर मीडिया में भी विचारोत्तेजक विचार व्यक्त किये जा रहे हैं. बहस जारी है. दुनिया के नामचीन अखबारों वाशिंगटन पोस्ट, द टेलिग्राफ, डॉन और अल जजीरा समेत मीडिया के हर क्षेत्र से प्रतिक्रियाएं आयी हैं. तमाम इसलामिक देशों ने भी इस घटना की निंदा की है. पूरी दुनिया यह मान रही है कि आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता. पेरिस की घटना की पृष्ठभूमि में आज पढ़ें कुछ नामचीन विदेशी अखबारों के विचार..
माइकल डीकॉन
संसदीय स्केच राइटर, द टेलीग्राफ लंदन
मेरी राय में आतंकवादी कार्टूनों ने आहत नहीं होते हैं. उन कार्टूनों से भी नहीं, जिनमें पैगंबर पर व्यंग्य किया गया हो. उन्हें व्यंग्य की परवाह नहीं होती. जहां तक मेरी समझ है, उन्हें पैगंबर मुहम्मद की भी परवाह नहीं है.
दरअसल, वे सिर्फ आहत होने का ढोंग कर रहे हैं, ताकि उन्हें हत्या करने का बहाना मिल सके. ऐसी भयावह हत्या, और ऐसे गैर-पश्चिमी बहाने की आड़ में कि गैर-मुसलिम दुख और आक्रोश से अंधे होकर मुसलिम समुदाय के विरुद्ध खड़े हो जायें. उन्हें इसके लिए जिम्मेवार ठहराने लगें. उन्हें प्रताड़ित करने लगें.
उनकी किताब जलाने लगें. उनकी मसजिदों पर हमला करने लगें. सड़कों पर उन्हें धमकी देने लगें. पश्चिमी समाजों से उन्हें निष्कासित करने की मांग करने लगें. ये वे प्रतिक्रियाएं हैं, जो पश्चिम में रहनेवाले मुसलमानों को भयभीत करती हैं, उन्हें मुख्य धारा से अलग-थलग करती हैं और उनमें विलगाव पैदा करती हैं. और इस तरह उनमें से कुछ को आतंकवादियों का समर्थन करने के बिंदु तक ले जाती हैं- यहां तक कि कुछ स्वयं ही आतंकवाद का रास्ता अपना लेते हैं.
परिणाम : आतंकवादी अपनी संख्या बढ़ाते जाते हैं, ताकि गैर-मुसलिमों के साथ गृह युद्ध के उनके लक्ष्य के लिए परिस्थितियां पैदा हो सकें.
हालांकि, हम अपनी क्रोधित निदरेषता की भावना में यही सोचते हैं कि यह घटना कार्टूनों से संबंधित है. हम सोचते हैं कि अगर हम इन कार्टूनों को बार-बार न बनायें और प्रकाशित करें, तो यह आतंकवादियों की ‘जीत’ होगी, और अगर हम ऐसा करें, तो यह उनकी ‘हार’ होगी. मानो, ठीक इस घड़ी में पश्चिम में बैठे आतंकी सरगना छुप कर मातम मना रहे हों, क्योंकि कई अखबारों ने उन कार्टूनों को फिर से छापा है.
(‘तबाही! हमने तो ऐसा नहीं सोचा था! हमें तो लेने के देने पड़ गये! स्याही ने क्लाश्निकोव को सच में पछाड़ दिया! व्यंग्य ने एक बार फिर हमें हरा दिया!’)
कुल मिला कर, मुङो नहीं लगता है कि ऐसा हो रहा होगा. मैं नहीं मानता हूं कि अगर हम कार्टूनों को फिर से न प्रकाशित करें, तो यह आतंकवादियों की जीत होगी. मेरे विचार में आतंकियों की जीत तब होती है, जब हम उनके इरादों के अनुरूप काम करें और मुसलमानों से घृणा करने लगें. यह सब व्यंग्य के बारे में नहीं है. यह व्यंग्य से अलग कुछ है.
(द टेलीग्राफ, लंदन से साभार)
घर में घुस कर लड़ना होगा
जेनिफर रूबिन
स्तंभकार,
द वाशिंगटन पोस्ट
मध्य-पूर्व की लड़ाइयों में ‘खुद को संलिप्त’ नहीं करके या फिर क्रूर दुश्मनों के खिलाफ युद्ध में आपराधिक न्याय सिद्धांतों को लागू करके हम महफूज रह सकते हैं- ऐसा धोखा अपने आप को देते हुए काफी समय बीत चुका है.
क्या हमने 11 सितंबर से यह नहीं सीखा कि अगर हम जेहादियों से उनके देश में घुस कर नहीं लड़ते हैं, तो हमें उनसे अमेरिकी शहरों की गलियों में लड़ना पड़ेगा?
फ्रांस में भयावह सामूहिक हत्याओं के संदर्भ में इजराइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने जो व्याख्या दी है, उसे बहुत से अमेरिकी सुनना तक पसंद नहीं करते हैं. यहां यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि नेतन्याहू जेहादी खतरे के बारे में इस धरती के किसी भी नेता से ज्यादा जानते हैं.
‘द जेरूसलम पोस्ट’ के मुताबिक, नेतन्याहू ने इस बात पर जोर दिया कि कट्टरपंथी इसलामी आतंकवाद किसी सरहद को नहीं मानता, और इसलिए इसके खिलाफ संघर्ष भी किसी सरहद तक सीमित नहीं होना चाहिए.
उन्होंने कहा, ‘‘मैं चंद महीनों पहले संयुक्त राष्ट्र के मंच पर भाषण के लिए खड़ा था, जहां मैंने कहा कि अगर हमास, हिजबुल्ला और इसलामिक स्टेट का धर्माध आतंकवाद यहीं पर नहीं रुकेगा, तो यह पूरी दुनिया में फैल जायेगा.’ उन्होंने इसमें आगे जोड़ा कि अगर यह लड़ाई अनवरत, दृढ़निश्चयी और एकताबद्ध नहीं होती है, तो हमने आज पेरिस में जो भयावह कृत्य देखा है, वह आखिरी नहीं होगा.’’
नेतन्याहू ने कहा कि कट्टरपंथी इसलामी आतंकवाद का मुख्य लक्ष्य, यहां तक कि पहला और सबसे पहला लक्ष्य इजराइल नहीं है, बल्कि उनका लक्ष्य है ‘‘हमारे समाजों और राज्यों को तबाह करना, चुनने की स्वतंत्रता की संस्कृति और आजादी पर आधारित सभ्यता को उखाड़ फेंकना और एक कट्टरपंथी निरंकुश शासन थोपना, जो मानवता को बहुत-बहुत साल पीछे ले जायेगा.’’ इसी वजह से उन्होंने कहा, ‘‘स्वतंत्र समाजों और सभी सभ्य लोगों को आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में अवश्य ही एकजुट हो जाना चाहिए.’’
नेतन्याहू सही कह रहे हैं. पश्चिम को इस पर दोबारा ध्यान केंद्रित करना चाहिए कि हम किस चीज के लिए लड़ रहे हैं. यह हमारी सभ्यता से जुड़ा मामला है. यह स्वतंत्र समाजों की मूलभावना से जुड़ा मामला है.
(जैसा कि सीनेटर लिंडसे ग्राहम इस बारे में कहते हैं, ‘मैं डरता हूं कि और भी हमले हो सकते हैं और हमें निश्चय ही भविष्य में ऐसे और हमलों से निबटने के लिए तैयार रहना चाहिए. आइएसआइएस को खूब धन मिल रहा है और उसके पास एक मजूबत, एक हुक्म से संचालित ढांचा है, जो दुनियाभर में आतंकवादी हमलों को पूरी सक्रियता से प्रेरित कर रहा है..
हमें यह कबूल करना चाहिए कि जब विध्वंस और इंसानी जिंदगी लेने की बात आती है, तो कट्टरपंथी इसलामवादी किसी भी हद तक जा सकते हैं. यही वजह है कि यह हमारे लिए एक तरह से हुक्म हो जाता है कि हम कभी भी व्यापक जन-संहार के हथियार कट्टरपंथी इसलामी आतंकवादियों के हाथों में न पड़ने दें.’) एक बार जब हम इस मूल सत्य को ग्रहण कर लेंगे कि दुश्मन तार्किक वजहों से नहीं, बल्कि धार्मिक वहशीपन से प्रेरित है, और न यह किसी भूगोल तक सीमित है और न किसी कालक्रम से बंधा है, तब हम अपनी कुछ दिग्भ्रमित परिकल्पनाओं पर दोबारा विचार कर पायेंगे.
जेहादी खतरे की वास्तविकता के कारण ही हम ईरान से रिश्ते ठीक करने का लक्ष्य हासिल नहीं कर सकते. वह आतंक के इसलामवादी अभियान का केंद्रीय खिलाड़ी है. इसीलिए हम सीरिया व इराक में संकट को पनपने और इसलामिक स्टेट को जेहादियों को प्रेरित करने तथा उनकी मदद करने की छूट देकर, जहां-तहां हवा से बम नहीं गिरा सकते. इसीलिए हम इसलामिक स्टेट के खिलाफ युद्ध के लिए एक या तीन साल जैसी कोई समय-सीमा तय नहीं कर सकते.
इसीलिए हम कैफे में आतंकवादियों पर ड्रोन हमले के लिए पेचीदा नियम नहीं बना सकते, जो नियम यह मान कर चलता है कि हम आसन्न खतरे और उस खतरे के बीच फर्क कर सकते हैं, जो एक दिन या दो दिन या फिर एक साल या दो साल बाद सामने आनेवाला है. इसीलिए हम राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी को लालफीताशाही में नहीं बांध सकते और डाटा की गहन छानबीन को गैरजरूरी ढंग से जटिल नहीं बना सकते, जिससे हम संभावित हमलों की आशंका और पैटर्न का पता लगा पाते हैं.
इसीलिए गुआंतानामो जेल से आतंकवादियों को ऐसे देशों में छोड़ना, जो न उनकी मॉनीटरिंग करेंगे और न कर सकते हैं, आत्मघाती होगा. इसीलिए इजराइल-फिलिस्तीन का टकराव हमारी प्राथमिकता में नीचे रहना चाहिए. फिलिस्तीनी नेता जो आतंकवाद को भड़काते हैं, पुरस्कृत करते हैं, उनकी मदद करना और उनका मन बढ़ाना विनाशकारी है.
राष्ट्रपति ओबामा ‘युद्ध खत्म’ करना चाहते हैं. सीनेटर पैट्रिक लेहाई और टेड क्रूज एनएसए में ‘सुधार’ चाहते थे. वाम और दक्षिण झुकाव वाले वास्तविकता-विरोधी जैसे सीनेटर रैंड पॉल, इसलामिक स्टेट से लड़ने के लिए राष्ट्रपति को सिर्फ एक साल देना चाहते हैं. वे चाहते हैं कि अमेरिकी जेहादियों को भी बचाव का वही हक मिले, जो अन्य अपराधों के मुल्जिमों को मिलता है.
सीनेट के डेमोक्रेट सांसद सीधे-सीधे भले न सही, पर सीआइए को दोषी ठहराना चाहते थे. उस काम के लिए जो उसने 11 सितंबर, 2001 के हमलों के बाद अमेरिका को महफूज बनाने के लिए किया था. (कल्पना कीजिए कि यदि फ्रांसीसी पुलिस ने शार्ली एब्दो पर हमले के सरगना को पहले ही पकड़ लिया होता.
और उससे वो सूचनाएं, जो 12 लोगों की जान बचा सकती थीं, उगलवाने के लिए उसे नींद से वंचित रखा होता या फिर ठंडे पानी में उसे डुबकी लगवायी होती, तो क्या हम गुस्से से ‘युद्ध अपराध! युद्ध अपराध!’ चिल्ला रहे होते?)
यह सब कल्पना-लोक की चीजें हैं. मध्य-पूर्व की लड़ाइयों में ‘खुद को संलिप्त’ नहीं करके या फिर क्रूर दुश्मनों के खिलाफ युद्ध में आपराधिक न्याय सिद्धांतों को लागू करके हम महफूज रह सकते हैं- ऐसा धोखा अपने आप को देते हुए काफी समय बीत चुका है. क्या हमने 11 सितंबर से यह नहीं सीखा कि अगर हम जेहादियों से उनके देश में घुस कर नहीं लड़ते हैं, तो हमें उनसे अमेरिकी शहरों की गलियों में लड़ना पड़ेगा?
जब कार्टून ‘गलत लोगों’ को आहत करते हैं
खालिद अलबेह
राजनीतिक कार्टूनिस्ट, सूडान
मध्य-पूर्व एशिया में काम करनेवाले अरब और मुसलिम कार्टूनिस्ट के रूप में ‘गलत लोगों’ को आहत करने का भय रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा है. कार्टून बनाना मेरी लगन है. यह बड़े सम्मान की बात है, लेकिन इसमें खतरे भी हैं.
सभी तरह के सेंसरशिप की बाधाओं को पार कर कार्टून बना पाना कोई आसान काम नहीं होता है. इसकी शुरुआत स्वयं के स्तर पर होती है और सरकार द्वारा नियंत्रित सेंसरशिप तक पहुंचती है. दुनिया के इस हिस्से के कई देशों में तो सेंसर एक स्थापित काम है, जहां कुछ लोगों की यह जिम्मेवारी होती है कि वे कार्टूनों के संभावित आक्रामक अर्थो का पता लगायें.
इसलिए मैं यह समझ पाता हूं कि पश्चिमी देशों में अभिव्यक्ति की अधिकतम स्वतंत्रता को बचाने के लिए पूरजोर कोशिश की जा रही है. मैं. फ्रांसीसी व्यंग्यात्मक पत्रिका शार्ली एब्दो पर हुए निंदनीय हमले के लिए हो रही दुनिया भर में भर्त्सना के साथ हूं.
मैं कार्टूनिस्टों पर हमले की निंदा करता हूं, हालांकि मैं पत्रिका के संपादकीय रवैये से असहमत हूं, जिसे मैं दुख पहुंचानेवाले और नस्लवादी मानता हूं. इसके बावजूद मैं अभिव्यक्ति की उनकी स्वतंत्रता के पक्ष में हमेशाखड़ा रहूंगा. मेरी राय में हत्यारों का धर्म या विचारधारा अप्रासंगिक है.
मैं समझता हूं कि वे बस किसी हमले की फिराक में थे. अगर वे शार्ली एब्दो पर हमला नहीं करते, तो फिर कहीं और हमला करते. ऐसा लगता है कि दोनों ही स्थितियों में नुकसान मुसलमानों का ही है. उनके ऊपर उन अपराधों के लिए क्षमा मांगने का दबाव लगातार बनाया जाता है, जो न तो उनके द्वारा किये गये हैं और न ही उन्होंने कभी उन अपराधों का समर्थन किया है.
वे भी अतिवादियों की हिंसा के भुक्तभोगी हैं. फिर भी, उनसे क्षमा मांगने को कहा जाता है और बहुत हद तक इन अपराधों का प्रायश्चित करने के लिए कहा जाता है, जो उनके धर्म के नाम पर अंजाम दिये जाते हैं. फिर वे अतिवादियों के आक्रोश का निशाना बनते हैं, क्योंकि वे हिंसात्मक तौर-तरीकों को वाजिब मानने से इनकार करते हैं.
यह स्थिति उस दशा का ही विस्तार है, जो मध्य-पूर्व में आज है- यह कार्टून बनाने की प्रक्रिया से बहुत अधिक जटिल है. इस माहौल में रचनात्मक भूमिका के रूप में हमें एक-दूसरे पर उंगली उठाने से बचना चाहिए. तथा उन उत्प्रेरकों का परीक्षण करना चाहिए, जो युवकों को हिंसा और अतिवाद की ओर धकेलते हैं.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक शक्तिशाली हथियार है- जो मुङो कभी पूरी तरह से हासिल नहीं हो सका है- लेकिन जिन लोगों को यह मिला है, काश, वे इसके बने रहने को लेकर लापरवाह होना छोड़ सकते. जरूरत तो यह है कि वे सही सवाल पूछें, बजाये इसके कि आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहें और इनसे पूर्वाग्रहों को बल मिलता रहे, जो मुख्यधारा की मीडिया से पैदा होता है.
सही संदेशों को प्रसारित करने पर उनका ध्यान केंद्रित होना चाहिए. उन्हें समुदायों के बीच की दूरियों को पाटने की कोशिश करनी चाहिए, न कि उन्हें और बढ़ाना चाहिए.
(अल जजीरा से साभार)
पेरिस हमला
शार्ली एब्दो के कार्यालय में हुए जनसंहार को लेकर दुनिया भर में क्षोभ है, पर अफसोस की बात है कि कुछ लोग आस्था पर चोट और शांतिपूर्ण तरीके से रहने के बावजूद कई देशों में मुसलमानों के हाशिये पर किये जाने का तर्क देकर इस हमले को एक संदर्भ देने की कोशिश कर रहे हैं.
ऐसे लोगों से साधारण सवाल पूछा जाना चाहिए : पत्रिका के संपादकीय निर्णय से असहमति को ऐसे घृणित तरीके से प्रदर्शित कर हमलावरों ने अपने धर्म और इसके अनुयायियों का क्या भला किया? क्या उनकी इस हरकत ने मुसलमानों के बुनियादी रूप से ‘भिन्न’ होने को लेकर व्याप्त पूर्वाग्रहों और आशंकाओं को मजबूती नहीं दी है?
क्या पेरिस के हत्यारे बंदूकधारियों ने गैर-मुसलमानों या गैर-मुसलिम देशों के प्रवासियों के मन में इस तथ्य को ठोस बनाया है कि ये हत्यारे हिंसक अतिवादियों के एक अल्पसंख्यक समूह से हैं और इनका धर्म या उसके अधिकतर शांतिपूर्ण अनुयायियों से कोई लेना-देना नहीं है?
निश्चित रूप से इन प्रश्नों का उत्तर ‘नहीं’ में है. एक बार फिर इसलाम और मुसलिम चर्चा के केंद्र में हैं, और एक बार फिर इसके पीछे गलत कारण हैं. मुसलिम समुदायों और संगठनों द्वारा इस घटना की घोर निंदा बिल्कुल उचित है. आतंकी घटनाएं बहुसंख्यक धर्मावलंबियों की इच्छा का परिणाम नहीं है. फिर भी, बहुत से लोगों में असहजता व्याप्त है. यह समझ भी कम होती जा रही है कि अतिवादी तत्व धर्म का दुरुपयोग कर रहे हैं.
जर्मनी में आजकल हजारों की संख्या में लोग आप्रवासन के विरोध में प्रदर्शन कर रहे हैं. मुसलिम समाजों को इस सच को पहचानना होगा और इसका प्रतिकार करना होगा. यह प्रतिकार उन पहलों से ही आ सकता है, जो उनके वश में है : सहिष्णुता को बढ़ावा, अतिवादी मनोवृत्तियों का दमन, और अपने समाजों में हिंसा पर नियंत्रण. ऐसा कर वे यह संकेत देंगे कि पेरिस जैसे हमलों का दुनिया में कहीं भी और कभी भी बचाव नहीं किया जा सकता है.
(पाकिस्तान के अखबार डान का संपादकीय)
शार्ली एब्दो पर हमले में मृत लोग
स्टीफन काबरेनियर उर्फ कार्ब (47 वर्ष)
काबरेनियर वर्ष 2009 से शार्ली एब्दो के संपादक थे और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर उन पर विवादित धार्मिक काटरून प्रकाशित करने का आरोप लगाया गया था. नवंबर, 2011 से ही उन्हें पुलिस सुरक्षा मुहैया करायी गयी थी.
उस वर्ष पत्रिका के कार्यालय पर बम फेंका गया था. वे एक प्रसिद्ध काटरूनिस्ट थे और पूर्व में कम्युनिस्ट डेली ह्यूमेनाइट और एक फ्रैंको-बेल्जियन कॉमिक मैगजीन में काम कर चुके थे.
ज्यां काबु उर्फ काबु (75 वर्ष)
काबु को फ्रांस के बेहतरीन काटरूनिस्टों में गिना जाता है. 1970 और 1980 के दशक में उनकी अनेक लोकप्रिय कॉमिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. अपने कैरियर के दौरान उन्होंने शार्ली एब्दो समेत कई देशों की व्यंग्य पत्रिकाओं के लिए कार्टून बनाये.
त्वरित कैरिकेचर तैयार करने की उनकी प्रतिभा ने उन्हें पॉलिटिकल टेलीविजन शो तक पहुंचा दिया, जहां उन्होंने लाइव काटरून बनाये. पेरिस में कला की शिक्षा हासिल करने के बाद उन्होंने एल’ यूनियन डी रीम्स नामक अखबार से अपने कैरियर की शुरुआत की थी.
जॉर्ज वॉलिंस्की (80 वर्ष)
काटरूनिस्ट वॉलिंस्की फ्रांस में व्यंग्यात्मक काटरून की दुनिया के प्रमुख स्तंभ थे और एक लंबे अरसे से शार्ली एब्दो पत्रिका से जुड़े हुए थे. 1970 से 1981 के बीच वे संपादक भी रह चुके थे. फ्रैंको-इटैलियन माता और पॉलिश यहूदी पिता की संतान वॉलिंस्की का जन्म ट्यूनिश में हुआ था.
उनका पालन-पोषण उनके नाना ने फ्रांस में किया था. अपने जीवनकाल के दौरान उन्होंने फ्रांस-सोइर, लिबरेशन, एल ह्यूमेनाइट और पेरिस मैच समेत फ्रांस की अनेक व्यंग्य पत्रिकाओं में काम किया तथा 1968 में उन्होंने एल एनरेग नामक अखबार शुरू किया. वर्ष 2005 में उन्हें फ्रांस के सबसे बड़े नागरिक सम्मान से नवाजा गया था.
बर्नार्ड वेरहाक उर्फ टिग्नस (58 वर्ष)
वेरहॉक एक प्रतिभाशाली काटरूनिस्ट थे. शार्ली एब्दो और फ्रेंको-बेल्जियन कॉमिक मैगजीन फ्लूड ग्लेशियल समेत फ्रेंच न्यूज मैगजीन्स जैसी व्यंग्य पत्रिकाओं में उनके काटरून प्रकाशित हो चुके हैं. 1980 से उन्होंने कॉमिक गढ़ने की शुरुआत की थी. फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी के काल में उन्होंने उन पर एक किताब भी लिखी थी.
बर्नार्ड मैरिस (68 वर्ष)
अर्थशास्त्री और पत्रकार मैरिस शार्ली एब्दो में साप्ताहिक अंकल बर्नार्ड कॉलम लिखा करते थे. टूलुस से उन्होंने अर्थशास्त्र में ग्रेजुएशन किया था और वहीं वे प्रोफेसर बन गये थे. उन्होंने प्रसिद्ध अर्थशास्त्री कींस एक किताब भी लिखी थी. फिलहाल वे पेरिस यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र पढ़ाते थे और शार्ली एब्दो के बोर्ड में भी शामिल थे. आर्थिक मसलों पर वे टीवी चर्चाओं में भी भाग लेते थे, जहां उन्हें वैश्वीकरण के महत्वपूर्ण आलोचकों में गिना जाता था.
फिलिप ऑनर उर्फ ऑनर (73 वर्ष)
इस हत्याकांड से महज कुछ देर पूर्व पत्रिका ने जो काटरून ट्वीट किया था, उसे ऑनर ने ही बनाया था. ऑनर ने कला की कहीं से औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी, बल्कि वे खुद से सीखते हुए कलाकार बने थे. जब वे 16 वर्ष के थे उस समय एक क्षेत्रीय अखबार सुड-क्वेस्ट में उनका पहला इलस्ट्रेशन प्रकाशित हुआ था. ले मोंदे और लिबरेशन समेत अन्य प्रमुख फ्रांसीसी अखबारों से वे जुड़े हुए थे. शार्ली एब्दो से वे 1992 से उसके शुरुआत से ही जुड़े थे.
माइकल रिनॉड
माइकल रिनॉड एक पूर्व पत्रकार थे और सेंट्रल फ्रांस के अपने गृहनगर में उन्होंने कल्चरल फेस्टिवल का गठन किया था. रिनॉड शार्ली एब्दो के कार्यालय में किसी काम के सिलसिले में आये हुए थे.
अहमद मेरबेट
मेरबेट शार्ली एब्दो कार्यालय के निकट स्थानीय पुलिस स्टेशन से जुड़े सुरक्षाकर्मी थे. ट्यूनीशिया में एक मुसलिम परिवार में जन्मे मेरबेट घटना के समय उस इलाके की निगरानी कर रहे थे.
एलसा कयात
इस हमले में मारी जाने वाली कयात एकमात्र महिला थीं. वे एक मनोवैज्ञानिक, लेखिका और शार्ली एब्दो की स्तंभकार थीं. प्रत्येक दूसरे सप्ताह उनका कॉलम प्रकाशित होता था. 2007 में उन्होंने सेक्सुअल रिलेशनशिप पर एक किताब लिखी थी.
मुस्तफा ऊराद
अल्जीरियाई मूल के ऊराद शार्ली एब्दो में सब-एडीटर के पद पर कार्यरत थे. पूर्व में वे फ्रांस में म्यूचुअलिस्ट संघों के समर्थन में काम करने वाली एक पत्रिका में कार्य कर चुके हैं. ले मोंदे के मुताबिक, वे अनाथ थे और महज 20 वर्ष की उम्र में फ्रांस आये थे.
फ्रैंक ब्रिंसोलेरो (49 वर्ष)
ब्रिंसोलेरो शार्ली एब्दो के संपादक स्टीफन काबरेनियर के पुलिस बॉडीगार्ड थे. वे एक जांबाज पुलिस ऑफिसर थे और 2013 से पुलिस प्रोटेक्शन सर्विस में कार्यरत थे. घटना के समय वे भी संपादकीय कक्ष में मौजूद थे.
फ्रेडरिक बोइसेउ
बॉइसेउ एक मैंटेनेंस वर्कर थे और आतंकी जब बिल्ंिडग में घुसे उस समय वह रिसेप्शन एरिया में मौजूद थे. बताया जाता है कि आतंकियों ने उससे शार्ली एब्दो के कार्यालय की ओर जाने का रास्ता पूछा था. (साभार : द गार्डियन)
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