टुसू पर्व आज : बांसेक टुपलाय थापना करि सजाय हेतेक फूल मोहने
डॉ राजाराम महतो कुरमाली भाषा बोलनेवाले की संस्कृति में प्रकृति के बोल समाये हुए हैं. उनके पूजा-पर्व सभी प्रकृति के चतुर्दिक संपन्न होते हैं. यह प्रसिद्ध कुरमाली गीत यहां की प्रकृति में रमे एक कवि ने लिखा है – ‘‘वसंत समये दूती, गृहे नाइ मर बज्रपति/नाना फूले फूले मधुमासे/सुनो राखी गो/ अवला धइरज धरि कइसे./ […]
डॉ राजाराम महतो
कुरमाली भाषा बोलनेवाले की संस्कृति में प्रकृति के बोल समाये हुए हैं. उनके पूजा-पर्व सभी प्रकृति के चतुर्दिक संपन्न होते हैं. यह प्रसिद्ध कुरमाली गीत यहां की प्रकृति में रमे एक कवि ने लिखा है –
‘‘वसंत समये दूती, गृहे नाइ मर बज्रपति/नाना फूले फूले मधुमासे/सुनो राखी गो/ अवला धइरज धरि कइसे./ नीम, नेवारी जाम, सिरिस, कुसुम जाम/फूले फले भरी गेला रसे./सुनी, सखी गो./फुलेर मधु फूले पसे, भ्रमर नाइ मर केवा चुसे/फरी-पाकी-किछु-किछु खसे./सुनो सखी गो/ शाम रूप मने रिक, दुनयने बहे बारी/भाभी गुनी विनन्द नइरासे.’’
अब जरा टुसू पर्व की ओर देखें, तो लगेगा कि इस पर्व में प्रकृति समायी हुई है. वसुधा जीवित हो उठी है, अंकुरित हो उठी है. यह पर्व प्रकृति के एक मोहक मोड़ पर होता है, जब धान की सुनहरी फसल कटती है और कुरमाली क्षेत्र में जीवन का राग गूंज उठता है. हर वर्ष यह पर्व समाज में नये प्राण फूंक जाता है –
अगहन सांकराइत कर शुभे दिने/टुसुक थापना करोब गीत गाने/बांसेक टुपराय थापना करि -/सजायक हेतेक फूल मोहने/नित-नित सान्ङोक बेराय -/सांझा दिहोक खुश मने/अगहन संकराइत कर शुभ दिने/टुसुक थापना करोब गीत गाने/टुसुक नित भोग देबीहोक -/बेश बेश आर मिष्ठाने/माइसभर टुसू कर पूजा-/खुशी सहुब जने-जने/अगहन सांकराइत कर शुभ दिने/टुसुक थापना करोब गीत गाने/टुसुक गुनोगान टा-/मने पड़ेइक जीवने/सारा दिनों डूसू गीते -/मातल आहे देवने/अगहन सांकराइत कर शुभ दिने/टुसुक थापना करोब गीत गो.
सात-आठ हजार साल से भी अधिक गुजर गये, कुरमाली बोलनेवाले झारखंड में आये. यहां उनका बसना,मैदान को सीढ़ीनुमा कर खेती योग्य बनाना और समाज में समरसता पैदा कर, प्रकृति की पूजा में रम जाना आदि को एक बड़े समाज शास्त्रीय नजर से देखने की जरूरत है. कुरमाली भाषियों ने प्रकृति की पूजा और कर्म की रीत को खूब निभाया है.
इस भाषा को बोलनेवालों में गजब की सहिष्णुता है, जो भारतीय संस्कृति का प्रतीक है. आदि ऋषियों ने लिखा है कि हरा पेड़ काटना पाप का कारण होता है और ऐसा अपराध करनेवाले को यमदूत नरक में ले जाकर शाल्मली वृक्ष में लटका कर आग में जलाते हैं. सही अर्थो में अगर कोई मानव समूह प्रकृति की रक्षा के लिए खड़ा रहा है, तो वह है कुरमाली भाषी लोगों का समूह है या उसके नजदीक का समूह.
हरे वृक्ष में देव का वास है, वह पूजनीय है. वृक्ष तो बहुत बड़ा दानी है, वृक्ष जीवन भर फल देता है. औषधीय बीज देता है. पत्ते बिखेर कर जमीन को उपजाऊ खेत बनाते हैं. विभिन्न पंछियों को आश्रय देता है. पथिकों को छाया देता है. भूमि को बांधे रखता है. इसलिए कुरमालियों के लिए पेड़ देवता है.
इस पर्व के साथ वसंत की धुन सुनाई पड़ने लगती है. कुरमाली क्षेत्र प्रकृति के साथ नृत्य करने लगता है और हर ओठ पर गीत के बोल गूंजने लगते हैं. धान की बालियों से भरे-पूरे खलिहान में उमंग का संचार हो जाता है. किसान की तपस्या सफल हो जाती है और उसमें पूरे समाज की हिस्सेदारी निश्चित होती है.
जब समाज के लोग नाचते-गाते टुसू की झाकियां ले कर चलते हैं और एक मैदान में इकट्ठा होकर प्रकृति को धन्यवाद देते हैं, तो लगता है कि पृथ्वी पर स्वर्ग उतर आया है.
इस पर्व को हजारों साल से सहेजी गयी विधियों में बिना किसी परिवर्तन के मनाया जाता है. इस पर्व को सादगी के साथ मनाते हुए संकल्प लिया जाता है कि हम अपनी खेतों में मेहनत कर समाज की भूख समाप्त करेंगे. यह पर्व जीवन के पुनर्जागरण का पर्व है.