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विभूतियों की विरासत पर खींच-तान

शम्सुल इस्लाम राजनीतिक विश्लेषक वैचारिक मत-भिन्नताओं के कारण इतिहास की व्याख्या के भी कई संस्करण होते हैं, जिनके आधार पर राजनीतिक परंपराएं अपने-अपने नायक-नायिकाएं चुनती हैं तथा उनसे प्रेरणा ग्रहण करती हैं. लेकिन हमारे देश में मामला कुछ अलग है. भारत को राष्ट्र-रूप में गढ़ने और रचनेवाले राष्ट्र-निर्माताओं के नाम और तसवीरों को राजनीतिक दल […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 24, 2015 5:22 AM
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शम्सुल इस्लाम
राजनीतिक विश्लेषक
वैचारिक मत-भिन्नताओं के कारण इतिहास की व्याख्या के भी कई संस्करण होते हैं, जिनके आधार पर राजनीतिक परंपराएं अपने-अपने नायक-नायिकाएं चुनती हैं तथा उनसे प्रेरणा ग्रहण करती हैं. लेकिन हमारे देश में मामला कुछ अलग है.
भारत को राष्ट्र-रूप में गढ़ने और रचनेवाले राष्ट्र-निर्माताओं के नाम और तसवीरों को राजनीतिक दल और सरकारें अपने संकीर्ण दायरों में बांधने की कवायद में व्यस्त हैं. नाम पर कब्जे की कोशिश है, पर उन नेताओं के संदेश पर कोई चर्चा नहीं करना चाह रहा है. महापुरुषों को स्वार्थ के खांचों में बांटने की रस्साकशी पर एक बहस आज विशेष में..
भारत के तमाम महापुरुष, चाहे वे राजनेता रहे हों, राष्ट्र-निर्माता रहे हों, समाज सेवा करनेवाले रहे हों, विचारक या दार्शनिक रहे हों या फिर किसी धर्म समुदाय का प्रतिनिधित्व करनेवाले धर्मगुरु रहे हों, इन्हें वर्तमान संदर्भो में किसी भी समुदाय से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए.
ऐसा इसलिए, क्योंकि अपने वक्त में वे भले ही किसी एक विचारधारा को लेकर चलनेवाले रहे हों, लेकिन वर्तमान में उनकी प्रासंगिकता पूरे भारत के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व के लिए है. उन्हें हम किसी समुदाय विशेष का बता कर उनके और साथ ही भारत-निर्माण के लिए किये गये उनके कामों की उपेक्षा ही करेंगे.
स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, सरदार पटेल, पंडित नेहरू, बाबा आंबेडकर, मौलाना अबुल कलाम आजाद, सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खां आदि ऐसी ही शख्सियात हैं, जिनका वैचारिक उत्तराधिकारी हमारा पूरा देश है. इन्हें किसी एक समुदाय विशेष से जोड़ कर देखने का अर्थ है, उनकी अच्छी वैचारिक छवि पर गंदी सियासत को अंजाम देना.
आजादी की लड़ाई में शामिल हमारे राजनेता, जिन्होंने आजादी मिलने के बाद भारत को एक मजबूत लोकतांत्रिक देश बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया, वे सभी के सभी कांग्रेस के नेता रहे हैं.
चाहे वह सरदार पटेल हो या फिर कोई और राजनेता, जिनकी विरासत को लेकर आज भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग अपनी ओछी राजनीति कर रहे हैं. संघ और भाजपा के लोग कभी सरदार पटेल को अपना कहते हैं, तो कभी स्वामी विवेकानंद के बारे में कहते हैं कि वे हिंदू राष्ट्र चाहते थे. आधुनिक भारत का इतिहास गवाह है कि स्वतंत्रता आंदोलन में एक भी संघ का सदस्य शामिल नहीं है और न ही एक भी सदस्य आजादी आंदोलन में जेल ही गया था.
संघ परिवार तो स्वतंत्रता आंदोलन का भी विरोध करता था. जब भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु शहीद हुए तो संघ के लोगों ने कहा कि ये ‘बेवकूफ लोग’ थे. इन महान क्रांतिकारियों की देशभक्ति को संघसरचालक हेडगेवार ने ‘छिछोरी देशभक्ति’ करार दिया था. जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस आजाद हिंद फौज के जरिये देश को आजाद कराने की कोशिश कर रहे थे, तब सावरकर और संघ परिवार स्वयंसेवकों को अंगरेजी सेना में भरती करा रहे थे.
यहीं दिक्कत है. दरअसल, जब स्वतंत्रता संग्राम में इनकी कोई हिस्सेदारी ही नहीं है, तो आखिर ये किस बिना पर देश को गुमराह करेंगे, इसलिए इन लोगों ने कभी गांधी को, कभी आंबेडकर को, कभी सरदार पटेल को, तो कभी किसी को अपना बताते हैं और राष्ट्रवाद की दुहाई देते हैं. ऐसे में यह समझ में नहीं आता कि किस आधार पर संघ परिवार और भाजपा के लोग खुद को महान नेताओं का उत्तराधिकारी समझते हैं. यह सिर्फ ओछी राजनीति ही नहीं, बल्कि राजनीतिक मूर्खता भी है.
जहां तक स्वामी विवेकानंद की बात है. तो एक बात यह समझ लेना चाहिए कि विवेकानंद भारत की मुक्ति के लिए इसलाम का शरीर और हिंदू धर्म की आत्मा का पैमाना रखते थे. यानी उनका कहना था कि भारत की मुक्ति तभी हो सकती है, जब इसलाम धर्म का शरीर हो और उसमें हिंदू धर्म की आत्मा हो. लेकिन वर्तमान राजनीति और धर्म में जो कुछ चल रहा है, वह सब स्वामी विवेकानंद के विचारों के खिलाफ चल रहा है.
आज यह कहा जा रहा है कि आगामी 2025 तक भारत पूरी तरह से एक हिंदू राष्ट्र हो जायेगा. इसका अर्थ तो यही हुआ न, कि आगे आनेवाले दिनों में भारत में एक भी मुसलमान नहीं रहेगा, एक भी ईसाई नहीं होगा. घर वापसी इसी की परिणति है.
किसी को अपना कहने का अर्थ है उसकी विचारधारा को पूरा सम्मान देना. लेकिन यहां ठीक इसके उल्टा है. लोग विवेकानंद को तो अपना कहते हैं, लेकिन उनके विचारों की अवहेलना करते हैं.
लोग सरदार पटेल को तो अपना कहते हैं, लेकिन उनके विचारों को आत्मसात नहीं कर पाते. यही सब महात्मा गांधी और बाकी महान विभूतियों के साथ भी हो रहा है. वैसे भी भाजपा हो, संघ हो या कोई और दल या संगठन हो, किसी भी यह अधिकार नहीं है कि इन महान लोगों की महान विरासत में अपनी हिस्सेदारी को सिद्ध करें. क्योंकि इनकी विरासत इतनी कमजोर नहीं कि वह टुकड़ों में बंटे और उसकी उपेक्षा की जाये. यह विरासत बहुत मजबूत विरासत है, जो पूरे भारत के लिए है.
जो राजनीतिक नेता थे, उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया और इस देश को प्रजातांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश बनाया. लेकिन वहीं जो लोग उनके उत्तराधिकार की बात करते हैं, वे स्वतंत्रता और प्रजातंत्र के खिलाफ हैं. धर्मनिरपेक्ष राज्य के खिलाफ हैं. तो फिर ऐसे लोग उनकी विरासत में अपनी हिस्सेदारी का दावा कैसे कर सकते हैं. यह एक विडंबना ही है कि देश में ऐसा कुछ हो रहा है और हमारा केंद्रीय नेतृत्व मौन है. कम से कम भाजपा या संघ परिवार के लोग तो इस विरासत या उत्तराधिकार का दावा नहीं कर सकते हैं.
हां अगर किसी का सच में दावा है, तो वह उनसे जुड़े लोगों का हो सकता है. मसलन, पंडित नेहरू, सरदार पटेल, महात्मा गांधी, आंबेडकर आदि पर कांग्रेस दावा कर सकती है कि ये लोग कांग्रेस के नेता थे. आंबेडकर कहते थे कि धर्म की राजनीति देश के लिए सबसे खतरनाक है, लेकिन आज धर्म-परिवर्तन की बात हो रही है.
जिस दिन संविधान सभा ने तिरंगा झंडा तय किया, उस दिन संघ परिवार ने कहा कि ये तिरंगा झंडा ‘मनहूस’ है और इस देश के हिंदुओं को इसको नहीं मानना चाहिए. संघ नेताओं ने साफ कहा है कि ये तीन रंग मनहूस होते हैं. तो जो लोग तिरंगे में विश्वास नहीं करते, प्रजातंत्र में विश्वास नहीं करते, धर्मनिरपेक्ष राज्य में विश्वास नहीं करते, वे इन महान नेताओं को कैसे अपना कह सकते हैं, क्योंकि सरदार पटेल हों या गांधी, सभी को तिरंगा झंडा और लोकतंत्र में पूरा विश्वास था.
इस विश्वास के कारण ही देश आगे बढ़ा. लेकिन अब तो ऐसा लगता है कि धर्म की राजनीति करनेवाले लोग देश को किसी और ही दिशा में ले जाकर ही छोड़ेंगे.
संघसरचालक मोहन भागवत का यह कहना कि रबींद्र नाथ टैगोर भी हिंदू राष्ट्र चाहते थे, सर्वथा ही गलत है. अगर टैगोर की आत्मा ने मोहन भागवत के बयान को सुना होगा, तो मेरा ख्याल है कि वह बहुत विचलित हुई होगी. क्योंकि टैगोर ने हिंदूवादी राजनीति को ‘देश-विरोधी’ कहा था.
वे तो किसी राष्ट्रवाद में विश्वास ही नहीं रखते थे, बल्कि वे पूरे विश्व को एक मानते हुए किसी राष्ट्रवाद की जगह विश्ववाद की अवधारणा को मानते थे. दुनिया में कोई राष्ट्र या राज्य होना चाहिए, इस बात को टैगोर बिल्कुल भी नहीं मानते थे, तो वे हिंदू राष्ट्र की कैसे कल्पना कर सकते हैं. दरअसल, महान विभूतियों की विरासत को लेकर जो भी राजनीति कर रहे हैं, उन्हें इतिहास-भूगोल का जरा भी ज्ञान नहीं है.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
महापुरुष प्रेरणा के प्रतीक हैं
सिद्धार्थनाथ सिंह
सचिव, भाजपा
भाजपा हमेशा से राष्ट्र-निर्माण में योगदान देनेवाले महापुरुषों को आदर भाव से देखती रही है और चाहती है कि युवा पीढ़ी भी इनके योगदान से सीख लेकर राष्ट्र-निर्माण में अपना योगदान दे सके. सिर्फ दिखावे और प्रतीक की राजनीति करने के दिन अब लद गये हैं.
विवेकानंद, महात्मा गांधी, सरदार पटेल, लाल बहादुर शास्त्री जैसे महापुरुष किसी एक दल के नहीं, बल्कि देश की विरासत हैं. विपक्षी दल भाजपा पर इन महापुरुषों के नाम का दुरुपयोग करने का आरोप लगाकर इनका अपमान कर रहे हैं. भाजपा राष्ट्रवाद की शिक्षा इन महापुरुषों से लेती रही है. ये हमारे लिए प्रेरणास्नेत हैं.
कांग्रेस का कोई वैचारिक आधार नहीं है और वह सिर्फ एक परिवार से प्रेरणा लेती है. जिन महापुरुषों ने देश और समाज निर्माण में अपना जीवन खपा लिया, अगर उनसे कुछ सीखा जाये और भावी पीढ़ी को उनके योगदान से अवगत कराया जाये तो इसमें बुराई नहीं है.
भाजपा हमेशा से ऐसे महापुरुषों का सम्मान करती रही है. सवाल इन महापुरुषों के वैचारिक उत्तराधिकारी का नहीं है, इनके वास्तविक उत्तराधिकारी देश के लोग हैं. कांग्रेस ने गांधी परिवार के लोगों को छोड़ कर सबकी उपेक्षा की है. केंद्र सरकार ऐसे लोगों के योगदान से लोगों को अवगत करा रही है.
राष्ट्र और समाज निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले महापुरुषों के सम्मान को राजनीति से नहीं जोड़ा जाना चाहिए. इन महापुरुषों को किसी दलीय दायरे में नहीं देखा जाना चाहिए. संकीर्ण राजनीतिक सोच रखनेवाले लोग ही इस पर विवाद खड़ा कर रहे हैं.
आज लोहिया और जेपी के नाम पर राजनीति करने वाले लोग और उनकी सोच के विपरीत काम कर रहे हैं. वोट के लिए महापुरुषों का नाम लेनेवाले दलों की वैचारिक स्थिति क्या है, हम सब जानते हैं. भाजपा हमेशा से राष्ट्र-निर्माण में योगदान देनेवाले महापुरुषों को आदर भाव से देखती रही है और चाहती है कि युवा पीढ़ी भी इनके योगदान से सीख लेकर राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान दे सके.
सिर्फ दिखावे और प्रतीक की राजनीति करने के दिन अब लद गये हैं. कांग्रेस ने ऐसे महापुरुषों की हमेशा अनदेखी की है और वामदलों के लिए वैचारिक स्त्रोत मार्क्‍स और लेनिन है, जिनका भारत के निर्माण में कोई योगदान नहीं रहा है.
(बातचीत: विनय तिवारी)
महापुरुष किसी दल के प्रतीक नहीं
अतुल अंजान
नेता, भाकपा
कांग्रेस की नाकामी के कारण ही भाजपा ने गांधी नाम का अपहरण कर लिया. जबकि 60 के दशक में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् और जनसंघ गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे के भतीजे गोपाल गोडसे के साथ सेमिनार आयोजित करते थे.
भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का राष्ट्रीय संघर्ष से कोई वास्ता नहीं रहा है. वर्ष 1925 में ही संघ का गठन हो गया था और इसके प्रमुख बने थे हेगडेवार. लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन में इन्होंने कोई भूमिका नहीं निभायी.
जब लालकृष्ण आडवाणी संघ में शामिल हुए तो वे 20 साल के हो चुके थे, लेकिन उन्होंने भी राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया. भाजपा या संघ के किसी भी नेता के आजादी के आंदोलन में हिस्सा नहीं लेने के कारण महापुरुषों के नाम पर राजनीतिक फायदा उठाने की उनकी कोशिश सफल नहीं हो सकती हैं.
भाजपा की दिक्कत यह है कि वह राष्ट्रीय विरासत के मूल्य को नहीं समझती. पहले उसने सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु को अपना प्रतीक बनाने की कोशिश की, लेकिन जब भगत सिंह की डायरी की बात सामने आयी, तो उसे त्याग दिया. फिर पार्टी ने अपना प्रतीक दीनदयाल उपाध्याय को बनाया, लेकिन उपाध्याय की भी राष्ट्रीय आंदोलन में कोई भूमिका नहीं थी. ऐसे में भाजपा को प्रतीकों की जरूरत सबसे अधिक है.
इसलिए वह गांधी, विवेकानंद, पटेल आदि को अपनाने की कोशिश कर रही है. दरअसल महात्मा गांधी को कांग्रेस पूरी तरह भुला चुकी है. गांधी के विचारों को अपनाने के बजाय कांग्रेस ने गांधी के नाम का उपयोग सत्ता हासिल करने के लिया किया है.
कांग्रेस की नाकामी के कारण ही भाजपा ने गांधी नाम का अपहरण कर लिया. जबकि 60 के दशक में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् और जनसंघ गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे के भतीजे गोपाल गोडसे के साथ सेमिनार आयोजित करते थे.
उसी तरह सरदार पटेल को भी कांग्रेस ने भुला दिया और कुछ राजनीतिक दलों ने उन्हें कुर्मी नेता का प्रतीक बना दिया. भाजपा अंतरराष्ट्रीय फलक पर अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए गांधी के नाम का प्रयोग कर रही है. मौजूदा माहौल में गांधी के अहिंसा के सिद्धांत का महत्व काफी बढ़ गया है. ऐसे में भाजपा अपने साथ गांधी को जोड़ कर नया चेहरा बनाना चाहती है.
यह सबकी जिम्मेवारी है कि महापुरुषों को किसी दल विशेष से जोड़ने की कोशिश का पुरजोर विरोध किया जाये.
इतिहास बदलने की कोशिश
अजय कुमार
प्रवक्ता, कांग्रेस
ऐसे महापुरुषों का योगदान काफी बड़ा है, भाजपा को इतिहास से सीख लेनी चाहिए. महापुरुषों को दलीय सीमा में बांधना काफी खतरनाक है. तथ्यों से छेड़-छाड़ कर सच्चई को नहीं बदला जा सकता है. दरअसल भाजपा की वैचारिक सोच काफी संकुचित है.
केंद्र सरकार जिस प्रकार महापुरुषों का प्रयोग राजनीतिक फायदे के लिए कर रही है, वह दुर्भाग्यपूर्ण है. यह इतिहास के पुनर्लेखन जैसा है. मौजूदा केंद्र सरकार इतिहास को भी बदलने पर आमादा है. जबकि इतिहास तथ्यों के आधार पर लिखा जाता है. भाजपा को तथ्यों से डर लगता है, इसलिए वह महापुरुषों के नाम का उपयोग अपने राजनीतिक लाभ के लिए कर रही है.
इतिहास को नये तरीके से परिभाषित करने की कोशिश की जा रही है. पार्टी स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, सरदार पटेल के नाम का प्रयोग कर रही है, जबकि भाजपा की विचारधारा से इनका कभी ताल्लुक नहीं रहा है.
स्वामी विवेकानंद भारत को आधुनिक बनाना चाहते थे. वे सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ थे. छुआछूत, जाति व्यवस्था के खिलाफ थे. क्या भाजपा ने कभी इसके खिलाफ कोई आंदोलन किया गया है? उसी प्रकार सरदार पटेल देश को एकजुट रखने के पक्षधर थे. उन्होंने ही हिंदू महासभा पर प्रतिबंध लगाया था. आज भाजपा पटेल को अपना बताने पर आमादा है.
उसने नेहरू को कांग्रेस का बना दिया. आंबेडकर ने समाज निर्माण के लिए काफी काम किया. वे कांग्रेस से नहीं जुड़े थे, लेकिन कांग्रेस उनके विचारों का हमेशा सम्मान करती रही है.
स्वतंत्रता संगाम से लेकर राष्ट्र-निर्माण में महापुरुषो का अहम योगदान रहा है. उन्हें किसी दल विशेष का नहीं कहा जा सकता है. उनका वैचारिक उत्तराधिकारी कोई दल नहीं हो सकता है. ऐसे महापुरुषों का योगदान काफी बड़ा है, भाजपा को इतिहास से सीख लेनी चाहिए.
महापुरुषों को दलीय सीमा में बांधना काफी खतरनाक है. तथ्यों से छेड़-छाड़ कर सच्चई को नहीं बदला जा सकता है. दरअसल, भाजपा की वैचारिक सोच काफी संकुचित है. इन महापुरुषों का प्रयोग कर वह अपना वैचारिक दायरा बढ़ाना चाहती है. लेकिन ये राष्ट्र-निर्माता समूचे देश की धरोधर हैं.
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