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दो अतियों के बीच स्वास्थ्य सेवा

हार्वर्ड मेडिकल स्कूल में मेडिसिन के प्रोफेसर अतुल गवांडे, जो एक सर्जन होने के साथ-साथ लेखक, विचारक और राजनीतिक विश्लेषक भी हैं, ने बीबीसी रीथ लेक्चर्स के तहत 2014 में चिकित्सा का भविष्य पर चार भाषण दिये. आज हम चौथा लेक्चर प्रकाशित कर रहे हैं, जो उन्होंने दिल्ली में दिया. इसका विषय था-‘द आइडिया ऑफ […]

हार्वर्ड मेडिकल स्कूल में मेडिसिन के प्रोफेसर अतुल गवांडे, जो एक सर्जन होने के साथ-साथ लेखक, विचारक और राजनीतिक विश्लेषक भी हैं, ने बीबीसी रीथ लेक्चर्स के तहत 2014 में चिकित्सा का भविष्य पर चार भाषण दिये. आज हम चौथा लेक्चर प्रकाशित कर रहे हैं, जो उन्होंने दिल्ली में दिया. इसका विषय था-‘द आइडिया ऑफ वेलबीइंग’ (अच्छी सेहत की परिकल्पना). इसमें उन्होंने बताया कि एक तरफ लोगों की चिकित्सा तक पहुंच नहीं है, तो दूसरी तरफ चिकित्सकीय सुविधाओं का दुरुपयोग नुकसानदेह हद तक हो रहा है.

मुझे अपने परिवार की कहानी बताने दीजिए क्योंकि ये कहानी विश्व स्वास्थ्य में हुई प्रगति और इसकी कमियों की भी झलक देती है. मेरे पिता जी महाराष्ट्र के एक गांव में पैदा हुए और वो 13 भाई-बहनों में एक थे. मेरे दादाजी, सीताराम की जब शादी हुई, तब वह 18 साल के थे. उस साल मानसून की बारिश नहीं होने के कारण फसल नहीं हुई और उनके पिताजी (मेरे परदादा) का देहांत हो गया. सीताराम को अपने पिताजी का महाजनी कर्ज विरासत में मिला और इसलिए उनको बेगार मजदूर के रूप में काम करना पड़ा. एक समय ऐसा भी आया जब उनको और उनकी मां को सिर्फ नमक-रोटी ही नसीब हो पाती थी. वे भूख से मरने के कगार पर थे. पर उन्होंने प्रार्थना की और उनकी प्रार्थना भगवान ने सुनी. उस साल फसल बहुत अच्छी हुई. अब घर में खाने के लिए अनाज था और अब वह अपना कर्ज चुका सकते थे. उन्होंने शादी की और मेरे पिताजी पैदा हुए. मेरे पिताजी अभी 10 साल के ही हुए थे कि मेरी दादी का मलेरिया के कारण देहांत हो गया. इस समय तक मलेरिया की दवा क्लोरोक्विन खोजी जा चुकी थी, पर भारत में तब तक वह नहीं आयी थी. और यही कारण था कि मेरे पिताजी डॉक्टर बनना चाहते थे. एक बच्चे के रूप में उन्होंने गांव में डॉक्टर देखा नहीं था. उन्होंने अपनी मां को मलेरिया से मरते देखा था और वह जानते थे कि दुनिया में इस तरह की जानकारी उपलब्ध है जिससे उनको बचाया जा सकता था.

भारत में भी उम्र बढ़ी

मेरे मां-बाप ने डॉक्टर बनने के लिए बहुत ही अलग तरह का रास्ता चुना. वो एक ऐसे गांव में रहते थे जिसमें हाईस्कूल नहीं था, उन्नत शिक्षा की व्यवस्था नहीं थी. इसलिए वो दूसरे गांव चले गये जहां उनके सगे-संबंधी थे और इस प्रयास में तब तक लगे रहे जब तक कि वह नागपुर नहीं पहुंच गये जहां उन्होंने मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया. मेरी मां, सुशीला जो यहां मौजूद हैं, उनके माता-पिता ने उन्हें अंग्रेजी माध्यम के एक निजी स्कूल में पढ़ाया. दोनों ने पढ़ाई अच्छी की थी और उन दोनों को विदेश में स्पेशलिस्ट की पढ़ाई के लिए जाने का मौका मिला. दोनों अमेरिका आये और दोनों एक-दूसरे से 1964 में न्यूयॉर्क में मिले. दोनों में प्यार हो गया और अपने मां-बाप की अनुमति के बिना दोनों ने शादी कर ली. वो 1960 का दशक था.. और वो दोनों अमेरिका में बस गये, जहां मेरी बहन और मैं पैदा हुए.

उधर भारत में मौजूद उनके परिवारों को 20वीं सदी में अर्जित किये गये ज्ञान का फायदा होने लगा था. ऐसा ज्ञान जिसने पश्चिमी देशों के लोगों की आयु में 30 साल जोड़े थे और इसमें से कुछ ज्ञान का प्रवाह भारत की ओर भी शुरू हो गया था. इस क्षेत्र में हुई प्रमुख प्रगति वैसे तो बहुत ही साधारण थी, जिसे मामूली आर्थिक प्रगति से हासिल किया जा सकता था. साफ पानी और सिंचाई के प्रबंध ने आमदनी और खाद्य आपूर्ति को स्थायित्व दिया और इसलिए महाराष्ट्र में मेरे पिताजी के गांव में लोगों को पोषक आहार मिलने लगा. एंटीबायोटिक्स, वैक्सीन, और डायरिया जैसी बीमारियों के इलाज के लिए दवाइयां उनको उपलब्ध थीं. इस तरह पूरी दुनिया में इस समय जो डेमोग्राफिक बदलाव देखा जा रहा है, मेरा परिवार भी इससे अछूता नहीं रहा और मेरे परिवार के लोग पिछली पीढ़ी की तुलना में ज्यादा दिनों तक जीवित रहे. मेरे पिता जी की बड़ी बहनें 90 साल से अधिक जीवित रहीं और मेरे दादा जी लगभग 110 साल तक जीवित रहे.

बीमारियों का बदलता स्वरूप

समय के साथ-साथ बीमारियों के पैटर्न में भी बदलाव आया. अब गांव के लोग डाइबिटीज और हाइपरटेंशन जैसी बीमारियों से ज्यादा ग्रस्त होने लगे हैं, न कि कुपोषण से. वैसे कुपोषण भी साथ-साथ चल रहा है. निश्चित रूप से हृदयाघात और स्ट्रोक जैसी कार्डियोवैस्क्यूलर स्थितियों ने सांस की बीमारियों, डायरिया की जगह ले ली है और वो आज सबसे ज्यादा जानलेवा बन गयी हैं. यह हमारी प्रगति की निशानी है. पर भारत सहित कई देशों में अर्थव्यवस्था और बुनियादी सुविधाएं ऐसी नहीं बन पायी हैं कि उम्रदराज लोगों को भरोसेमंद देखभाल उपलब्ध हो सके. शिशु जन्म से जुड़े खतरे अब भी बने हुए हैं और आज भी बड़ी संख्या में जन्म के दौरान ही शिशुओं की मृत्यु हो रही है.

जब पिछली सदी में मानव स्वास्थ्य में आये बदलाव के बारे में सोचते हैं तो हम खोजों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करने लगते हैं कि कौन सी नयी दवाइयां आयी हैं और कौन सी नयी विधियां इजाद हुई हैं. हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के डीन जूलियो फ्रेंक का मानना है कि पिछली सदी में और भी बहुत अहम बातें सामने आयीं- लोगों तक इन खोजों को पहुंचाने के लिए जटिल और विशिष्ट संस्थानों जैसे अस्पतालों, क्लीनिकों का सामने आना और उनको चलाने के लिए पेशेवर कर्मचारियों की फौज तैयार होना.

स्वास्थ्य सेवा का आकार बढ़ कर विश्व की अर्थव्यवस्था का 10 फीसदी हो गया है और आगे ही बढ़ रहा है. इसने दुनियाभर में लाखों लोगों को रोजगार दिया है जिसमें आठ लाख डॉक्टर भी शामिल हैं और इनमें मैं और मेरे मां-बाप भी हैं. मानवीय तंदुरु स्ती के लिए यह जरूरी है कि हमें इस तरह के संस्थानों की स्थापना और उनको ऊंचे स्तर पर प्रभावी बनाए रखने की समझ होनी चाहिए.

ज्ञान की प्रारंभिक अवस्था

आज भी हमारा यह ज्ञान प्रारिम्भक अवस्था में ही है. हालांकि, हम कुछ बातें जानते हैं. दीर्घ और स्वस्थ जीवन के लिए कुछ जरूरी संरचनाओं का होना आवश्यक है. सबसे पहले जरूरी है कि जहां हम रहते हैं वहां प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधा हो ताकि मुश्किल स्थितियों- आंख से लेकर पैर तक में होने वाली तकलीफों का इलाज हो सके. यह जरूरी है कि डाइबिटीज और डिप्रेशन जैसी बीमारी का प्राथमिक इलाज हो सके और इनकी रोकथाम जैसे जरूरी टीकाकारण और अन्य समुचित देखभाल हो सके.

अच्छी प्राथमिक देखभाल के लिए चार बातें जरूरी हैं जिसे हम ‘चार सी’ के नाम से भी जानते हैं : आपका संपर्क बिंदु (कांटैक्ट पॉइंट); समय बीतने के साथ सेवाओं का जारी रहना (कॉटीन्यूटी टू फॉलो यू ओवर टाइम); सेवा की व्यापकता (कम्प्रिहेंसिवनेस ऑफ द सर्विसेज); और उपलब्ध विशेषज्ञताओं जैसे लैब टेस्टिंग, इमेजिंग और शिशुओं के जन्म के लिए उपयुक्त स्थान के साथ संयोजन (कोऑर्डिनेशन विद अदर एक्सपर्टीज). अब अगर इन ‘चार सी’ की बात करें तो हम देखते हैं की सर्वाधिक अमीर देशों में भी इन सभी सुविधाओं का आम तौर पर अभाव है. उदाहरण के लिए, अमेरिका और इंग्लैंड में आधे लोगों की यह शिकायत होती है कि जब वे बीमार होते हैं या उन्हें मदद की जरूरत होती है तो एक दिन के भीतर डॉक्टर या नर्स तक वे नहीं पहुंच पाते. और जब कोई डॉक्टर या नर्स उपलब्ध होता है तो आधे लोगों को अधूरी या गलत चिकित्सा दी जाती है. कम आमदनी वाले देशों में तो यह स्थिति और भी खराब होती है और इसे समझा भी जा सकता है. डॉक्टरों की कमी है और जब आप किसी के पास जाते हैं तो इलाज का स्तर आश्चर्यजनक रूप से घटिया होता है.

एक मरीज को मिलते हैं तीन मिनट

विश्व बैंक ने दुनिया भर में लाखों लोगों का अध्ययन किया है जिन्होंने डॉक्टरों की सेवाएं ली हैं. और इस अध्ययन से जो बातें सामने आयीं वो बहुत ही खौफनाक थीं. उदाहरण के लिए, यहीं दिल्ली में, छाती में गंभीर दर्द की शिकायत लेकर किसी डॉक्टर के पास जाने पर आम डॉक्टर के साथ बिताया गया समय महज तीन मिनट लंबा पाया गया. इसमें तीन या उससे भी कम सवाल पूछे गये और अमूमन कोई जांच नहीं हुई. डॉक्टर के पास रक्तचाप मापने, नाड़ी देखने और शरीर का ताप लेने के उपकरण हमेशा ही रहते हैं पर इन महत्वपूर्ण लक्षणों की जांच उन्होंने एक फीसदी से भी कम मौकों पर की. इन डॉक्टरों ने उन मरीजों को कोई डाइग्नोसिस नहीं सुझायी. इसके बावजूद उन्होंने औसतन तीन दवाइयां दीं. लेकिन मरीज की स्थिति को देखते हुए इनमें से अधिकांश गलत पायी गयीं. कई देशों में और कई बार एक ही देश के भीतर अन्य हिस्सों में प्राथमिक स्वास्थ्य की स्थिति इससे कुछ ही बेहतर या कुछ बदतर हो सकती है. लेकिन बात यह है कि लगभग हर जगह पर हमें ऐसा इलाज नहीं मिल सकता जिस पर आप भरोसा कर सकें.

सुरक्षित अस्पताल की जरूरत

अब प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा के अलावा, हमें सुरक्षित अस्पताल व्यवस्था की भी जरूरत है जो जीवन के कठिन मौकों पर हमेशा हमारी मदद के लिए तैयार रहे. उदाहरण के लिए किसी शिशु के जन्म के समय. शिशु का जन्म काफी खतरनाक होता है. दस फीसदी शिशु ऐसे होते हैं जो जन्म के समय सांस नहीं ले रहे होते हैं. दूसरा, 10-15 फीसदी महिलाओं को प्रसव के दौरान कई मुश्किलें पैदा हो जाती हैं और ज्यादा खून निकलने के कारण उनकी जान को खतरा हो जाता है. शिशुओं का जन्म सुरिक्षत हो इसके लिए ऐसे अस्पतालों की जरूरत है जहां इस तरह की स्थितियों से निपटने के लिए सभी तरह के उपकरण और तकनीक हों.

पश्चिमी देशों में 20वीं सदी में जब शिशु जन्म के लिए लोग अस्पतालों में जाने लगे तो क्या हुआ? क्या शिशु मृत्यु-दर में अचानक गिरावट आयी? नहीं. इस स्थिति में सुधार नहीं हुआ. क्यों? अमेरिका और यूरोप में एक सदी पहले की गयी जांच में कहा गया कि इसका कारण है सेवा का बहुत ही खराब होना. उदाहरण के लिए, संक्र मण नियंत्रण का तरीका बहुत ही बेकार था. और आज भारत जैसी तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था वाले देशों में उसी तरह का परिवर्तन आ रहा है. हमें वही सब कुछ देखने को मिल रहा है.

अब भारी संख्या में लोग शिशु जन्म के लिए अस्पतालों का रुख कर रहे हैं, यह सोचते हुए कि अस्पताल में बेहतर सुविधाएं और जानकारियां उपलब्ध हैं. पर सत्य यह है कि अभी तक यह कोई बड़ा अंतर पैदा नहीं कर पाया है.

सामुदायिक केंद्रों का मूल्यांकन

मैं स्वास्थ्य प्रणाली पर एक शोध प्रयोगशाला का प्रमुख हूं. हम अपने शोध में यहां सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में हो रहे कार्यो को उसी तरह मापते हैं जैसे मेरे पिताजी के गांव में किसी के शिशु के जन्म के समय जो जरूरत और अपेक्षाएं हो सकती हैं. इन स्थानों पर हमने पाया कि यहां जानकारियों, उपकरणों, प्रबंधन और काम के प्रति लगाव की खासी कमी है. मसलन, हमने पाया कि पांच फीसदी से भी कम स्वास्थ्य कर्मी प्रसव से पहले योनि की जांच के लिए उचित तरीके से हाथ धोते हैं. पांच फीसदी से कम मामलों में शिशु जन्म से पहले उन उपकरणों को तैयार रखा जाता है ताकि शिशु के सांस नहीं लेने की स्थिति में इनका प्रयोग हो सके. पांच फीसदी से भी कम मामलों में अस्पतालों में सही दवा दी जाती है जो प्रसव के समय मां के शरीर में रक्त स्राव को रोक सके.

हालांकि, मुङो विश्वास है कि इस तरह के अंतर को पाटने की गुंजाइश है. लेकिन, हम अभी केवल सीख रहे हैं, सिर्फ सीख रहे हैं कि यहां क्या हो सकता है.

रोडमैप कितना कारगर?

इससे पहले के लेक्चर में मैंने इस बात की चर्चा की थी कि चेकलिस्ट जैसा मामूली सिस्टम स्वास्थ्य सेवाएं देनेवालों को अपने काम अच्छे तरीके से करने में मदद कर सकता है. इसलिए, हमने सर्जरी के लिए जो किया, डब्ल्यूएचओ के साथ मिल कर, वही शिशु जन्म के संबंध में किया. हमने किसी महिला के प्रसव के लिए अस्पताल में आने से लेकर उसके शिशु के साथ अपने घर जाने तक जीवन को बचानेवाली प्रमुख प्रैक्टिसेज की चेकलिस्ट बनायी. यह कई तरीके से मदद कर सकती है. यह प्रसव में मदद करनेवालों को जागरूक बना सकती है और यह सिखाती है कि कब क्या करना चाहिए. यह अस्पताल को चलाने वालों को भी स्पष्ट रूप से बताती है कि उनके अस्पताल में किस चीज की आपूर्ति की जरूरत है और यह उनको अपने अस्पतालों में गुणवत्ता पर ध्यान देने में भी मदद करती है.

लेकिन ऐसा नहीं है कि आपके पास रोडमैप है तो लोग उसका पालन करेंगे. मामूली से मामूली कदम उठाने के लिए भी रास्ते में आने वाली रुकावटें दूर करने की जरूरत होती है और ये हर जगह एक जैसी नहीं होतीं. एक, हो सकता है कि स्वास्थ्य केंद्र में स्टाफ हाथ इसलिए नहीं धोता कि वह इसे जरूरी नहीं समझता. दूसरा, हाथ इसलिए नहीं धोते कि हाथ धोने के लिए सिंक नहीं है या फिर डिलीवरी रूम में नल से पानी आता ही नहीं है. किसी अन्य जगह पर हो सकता है कि ऐसा करना उनकी आदत में ही नहीं है. और, कोई इसकी परवाह ही नहीं करता. इसमें अंतिम बात महत्वपूर्ण है : कोई परवाह नहीं करता. यदि कोई सही तरीके से चीजों को करने की कोशिश करता है, लेकिन कोई अन्य परवाह नहीं करता, तो चीजें नहीं बदलतीं.

अच्छे काम की पूछ नहीं

दुनिया भर में स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में अग्रिम पंक्ति में खड़े लोगों को यह लगता है कि अच्छा काम किसी को नहीं दिखता और कोई इसकी परवाह नहीं करता है. यह बहुत हतोत्साहित करने वाली बात है. इन स्थितियों को बदलने के लिए हमारा शोध ग्रुप उत्तर प्रदेश में अपनी सहयोगी संस्थाओं के साथ मिल कर एक प्रोजेक्ट बना रहा है जिसका नाम है बेटरबर्थ. हमने टीम बनायी है जिसके सदस्य प्रसव में मदद कर रहे अटेंडेंट और अस्पतालों के कर्ताधर्ता लोगों से सीधे मिलते हैं और उनके साथ एक रिश्ता बनाते हैं. उनसे बार-बार मिलते हैं, चेकलिस्ट का इस्तेमाल समझाते हैं ताकि वे स्वास्थ्य सेवा में कमियों को ख़त्म कर सकें.

यह ऐसा कार्यक्र म नहीं है जिसमें हम कोई क्लास चलाते हैं और उन्हें पढ़ाते हैं. इस प्रोग्राम में चिकित्सक स्टाफ से मिल कर पूछते हैं कि समस्या कहां है? आप हाथ क्यों नहीं धोते? और कई बार वो जो समाधान खोजते हैं वो चौंकाऊ होते हैं.

साधारण समाधान

ये समाधान जटिल नहीं होते. एक जगह अस्पताल में नल का पानी उपलब्ध नहीं था. स्वास्थ्यकर्मियों ने सफाई कर्मचारियों से कहा कि वे डिलिवरी के बाद पानी लायें और साबुन से रूम को धोयें. एक अन्य जगह, स्वाथ्य केंद्र के इंचार्ज मेडिकल अफसर को यह बात समझ में आ गयी. उन्होंने हाथ की सफाई के लिए एल्कोहल वाला हैंड सैनीटाइजर मंगवाना शुरू किया. अब सवाल उठता है कि क्या इस तरह का रवैया वहां काम करेगा जहां जनसंख्या बहुत अधिक है? हम आपको अगले एक-दो वर्षो में ही यह बता पायेंगे जब हमारे कार्य के परिणाम सामने आयेंगे. हम 100 से अधिक बर्थ सेंटरों में काम कर रहे हैं, उन लोगों के साथ काम कर रहे हैं जो एक लाख से अधिक शिशुओं के जन्म का काम देखते हैं.

हम जानते हैं कि इन प्रयासों का फलीभूत होना बहुत बड़ी बात है. इससे भी बड़ी बात है इस काम को जारी रख पाना. इसमें समय लगता है. पर हमारे प्रारंभिक कार्यो वाली जगहों पर हमने जो असर देखे हैं वो स्थिति को बदल देने वाले हैं.

प्रगति के साथ मुश्किलें भी

हमने शिशु प्रजनन के स्तर में बहुत ही उल्लेखनीय सुधार देखे हैं. बुनियादी बातों में- हाथ धोने में, हमें जो दिखायी दिया है इसको आधार बना कर हम अपनी क्षमताओं को बढ़ा सकते हैं. इन्हें हम और लोगों तक पहुंचाना चाहेंगे- जैसे खून चढ़ाने की क्षमता और आपातकाल में सीजेरियन की सुविधा. स्वास्थ्य सुविधा देनेवाले संस्थानों से काम लेना मुश्किल हो सकता है, पर यह जरूरी है कि हम एक लंबा और स्वस्थ जीवन व्यतीत करें और ऐसा हो सकता है. जैसे-जैसे विभिन्न देश कारगर स्वास्थ्य प्रणाली की स्थापना की ओर बढ़ रहे हैं उन्हें अप्रत्याशित मुश्किलों का सामना भी करना पड़ रहा है. इन प्रणालियों का उचित तरीके से प्रयोग कैसे हो. हम इसे एक समस्या की तरह देख रहे हैं जो पूरी दुनिया में उठ रही हैं. उदाहरण के लिए शिशु जन्म को ही फिर लें, दुनिया में या तो बहुत ज्यादा सीजेरियन हो रहा है या बहुत कम. अमेरिका से इटली तक, मैक्सिको से ईरान तक, 33-50 फीसदीशिशु जन्म सी-सेक्शन से हो रहे हैं. प्राइवेट अस्पतालों में तो कुछ जगह 80 फीसदी तक शिशु जन्म सर्जरी से हो रहे हैं.

स्वास्थ्य सेवा की बढ़ती लागत

पूरी दुनिया में हम शिशु जन्म को नुकसानदेह होने की हद तक मेडिकलाइज करते जा रहे हैं. यहां तक कि भारत और चीन में भी यही हो रहा है. हमारे अपने ही शहरों में कई ऐसी जगहें हैं जहां सीजेरियन सेक्शन या नहीं है, या बहुत ही ज्यादा है और इसके बीच कहीं कुछ नहीं है. मुङो लगता है जब हमारे पास उच्च तकनीकी क्षमता होती है तो हमें उसे समझ-बूझ से इस्तेमाल करने में मुश्किल आती है.

दुनियाभर में एंटीबायोटिक के जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल से प्रतिरोधी संक्र मण की खतरनाक महामारी हम ङोल रहे हैं. इमेजिंग तकनीक के जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल ने स्वास्थ्य सेवा की लागत विस्फोटक बना दी है. हेल्थकेयर सिस्टम ही समाज और व्यक्तिगत तंदुरु स्ती के लिए खतरा बनते जा रहे हैं. 1940 के दशक के अंतिम दिनों में पश्चिम में अधिकतर लोग अपने घरों में ही मरते थे. 1980 के दशक के अंतिम दिनों तक आते-आते 80 फीसदी से ज्यादा लोग चिकित्सा संस्थानों में मरने लगे और इनमें से ज्यादातर लोग अकेले थे, जिन्हें अनजान हाथों में सौंप दिया गया था. और अब यही सब कुछ उभरती अर्थव्यवस्थाओं में भी हो रहा है.

चिकित्सा के कारण आया बदलाव

मेरे दादाजी का बुढ़ापा जिस तरह का था उसके बारे में हमें ईष्र्या होती है. अपने लंबे जीवन के अंतिम 20 वर्ष उन्हें अपनी दुर्बलता के कारण बराबर देखभाल की जरूरत थी. पर यह कोई समस्या नहीं थी. वे हमारे चाचा के साथ रहते थे और बुढ़ापे में उनको बहुत आदर मिलता था. जब पूरे परिवार के लोग खाना खाते थे तो वो इसका नेतृत्व करते थे. किसी की शादी, भूमि विवाद या कोई व्यावसायिक निर्णय लेने से पहले उनसे राय ली जाती थी. अपने मृत्यु तक वह अपने परिवार के लिए प्रिय बने रहे. और हम सभी इसी तरह अपने अंतिम दिन देखना चाहते हैं, नहीं?

लेकिन इस तरह की पारंपरिक देखरेख तभी मिल सकती है जब शायद नई पीढ़ी को पुरानी पीढ़ी की जरूरतों और मांगों का गुलाम बना कर रखा जाये. आप अनुमान लगा सकते हैं कि मेरे चाचाओं के मन में क्या गुजर रही होगी जब वो बुढ़ापे की ओर बढ़ रहे होंगे और सोच रहे होंगे कि कब वे अपनी जमीन के उत्तराधिकारी बनेंगे. आर्थिक प्रगति, गरीबी से निजात, अंतत: युवाओं को मिलने वाली आजादी पर निर्भर करती है- जहां इच्छा हो वहां रहने की आजादी, जहां चाहें वहां काम करने की आजादी और जिससे चाहें उससे शादी करने की आजादी. लेकिन इसकी कीमत है पीढ़ियों से चली आ रही परिवार व्यवस्था का टूटना. नयी पीढ़ी अमूमन अवसरों का पीछा मन में अपराधबोध लिये करती है.

मेरे मां-बाप जब अपने-अपने परिवारों को पीछे छोड़ कर घर से निकले, तो वो भी अपराधबोध से ग्रस्त थे. हमारे पास घर पर पीछे छूटे बूढ़े होते मां-बाप की जरूरतों को पूरा करने की कोई योजना नहीं होती है और यही कारण है कि दुनिया भर में बुजुर्ग लोगों में अकेलापन बढ़ रहा है.

बुजुर्गो को पेंशन

जब देश इतना समृद्ध होता है, तो वह बुजुर्गो कों पेंशन देना शुरू करता है. बुजुर्ग आर्थिक स्वतंत्रता मिलने के बाद बाहर निकल जाते हैं. वे अपने बेट-बेटियों के अनुशासन के अधीन नहीं रहना चाहते और न बच्चे ही उनके अधीन रहना चाहते हैं. हम उनसे, समाजशास्त्रियों के अनुसार, एक अंतरंग दूरी बना कर रखना पसंद करते हैं. एक दूसरे के नजदीक, पर बहुत करीब नहीं. लेकिन तब क्या होता है जब हमारे मां-बाप की याददाश्त बिगड़ने लगती है या उनका स्वास्थ्य कमजोर होने लगता है या बहुत ही गंभीर बीमारी के कारण जब उनको हमारी मदद की जरूरत पड़ती है और हम दूर होते हैं?

जब मेरे पिताजी अमेरिका आये, तो उन्होंने अमेरिकी संस्कृति के लगभग सभी पक्षों को अंगीकार कर लिया. उन्होंने शाकाहार छोड़ दिया. टेनिस के फैन हो गये, स्थानीय रोटरी क्लब के प्रेसिडेंट बन गये. लेकिन जिस एक बात को वो कभी नहीं स्वीकार कर पाये- अमेरिका में जिस तरह बुजुर्गो और निर्बलों के साथ व्यवहार होता है. वो नर्सिग होम्स और अस्पतालों के बीच चक्कर लगाते रहते हैं और अपने जीवन के अंतिम दिन उनके बीच गुजारने को बाध्य होते हैं जिनको वो जानते नहीं हैं. मेरे पिता मानते थे कि भारत में बुजुर्गो के साथ इस तरह का व्यवहार कभी नहीं होता.

आज मैं समझता हूं कि हम उनको गलत साबित कर रहे हैं. मैंने देखा है कि एशिया में भी उसी तरह का स्वरूप उभर रहा है. ये पैटर्न है रिटायर्ड लोगों के रहने के लिए महंगे आवासीय परिसर, धनी लोगों के इलाज के लिए कॉर्पोरेट अस्पताल, मध्यवर्ग के लिए छोटे निजी अस्पताल और डिकेंस की कल्पना वाले वृद्धाश्रमों एवं बूढ़े लोगों से भरे सरकारी अस्पताल.

साधन से बड़ी चीज समर्पण

मैं दिल्ली में एक धर्मार्थ संस्थान को देखने गया जो कि बेसहारा बुजुर्गो को शरण देता है जिन्हें पार्को या अस्पतालों में छोड़ दिया जाता है. गुरु विश्रम वृद्धाश्रम नामक यह संस्था दक्षिण दिल्ली की एक गंदी बस्ती में एक गोदाम में चल रही है. इस वृद्धाश्रम में सौ से ज्यादा विकलांग लोग चारपाई या जमीन पर एक दूसरे से डाक टिकटों की तरह चिपका कर रखे गये बिस्तरों पर सोते हैं. यहां पर जो सबसे कम उम्र का व्यक्ति था वह 60 साल का था. जो सबसे उम्रदराज था वह 100 साल से ऊपर का था. यहां मैं एक 82 साल की विधवा से मिला. वह अपनी चारपाई पर शाल ओढ़े बैठी थी और उसके सिर पर हरे रंग की बुनी हुई टोपी थी. उसके मुंह में एक ही दांत बचा था. कार्डबोर्ड के एक बक्से में उसके कुछ सामान रखे थे, कुछ मामूली जेवरात, फोटो और एक जोड़ी कपड़े.

वह भयंकर रूप से दिल की बीमारी से ग्रस्त थी और कई बार उसको सांस लेने में भी तकलीफ होती थी. उसने मुङो बताया कि उसका बेटा और उसकी बेटी युवावस्था में ही मर गये थे. अब जब उसका स्वास्थ्य बिगड़ा, उसका घर भी उसके हाथ से निकल गया. वह इतना नहीं कमा सकती थी कि अपना घर का किराया दे सके. इस तरह वह सड़क पर आ गयी. और यहीं से उठा कर जब उसे वृद्धाश्रम में लाया गया, वह अधमरी थी, उसकी टांगें सूजी हुई थीं और वह अल्सर से कराह रही थी. इस वृद्धाश्रम ने उसे शरण दी. यह वृद्धाश्रम दान से मिले धन पर चलता है और इनके पास स्टाफ़ और जरूरी चीजों की भारी कमी है. पर जो लोग थे वही उस बुजुर्ग महिला की देखभाल कर रहे थे. उन्हीं लोगों ने उसके घाव को धोया, उसे एंटीबायोटिक दिये, उसे नहलाया, खाना खिलाया. कहीं से आश्रम को उन दवाओं की आपूर्ति मिली जिससे उसकी दिल की बीमारी को थोड़ा काबू में रखा जा सके. यह सेवा पूर्णतया एक समर्पित और व्यविस्थत कार्य था. इस वजह से उस महिला की स्थिति में सुधार हो सका. उसने अपनी साड़ी को हटा कर मुङो वह जगह दिखायी जहां उसके घाव थे जो अब भर चुके थे. अब वह इतनी ठीक हो चुकी थी कि रसोई घर में पांच-छह अन्य आश्रमवासियों के साथ काम कर सके. उसने कहा, ‘‘इन लोगों ने मुङो बचा लिया.’’ उसको रसोई में मदद करने का मौका देकर और थोड़ी जिम्मेदारी सौंप कर, उन लोगों ने उसे बुढ़ापे में जीने का एक मकसद दे दिया. उसने मुङो कहा, ‘‘यह अब मेरा घर है.’’ संघर्ष बहुत है, पर ये ऐसी जगह है जहां वह रहना चाहती है. इस आश्रम में कोई डॉक्टर नहीं है और न ही कोई तकनीकी सुविधा. पर इसके बावजूद आश्रम के लोग तंदुरुस्ती का मर्म समझते हैं और यह भी कि कैसे इसे उपलब्ध कराया जाये. चिकित्सा के भविष्य में ये कितना जरूरी है, ये हम सबको इससे सीखना चाहिए.

(बीबीसी हिंदी डॉट कॉम से साभार)

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