राजनीति का नन्हा कदम

योगेंद्र यादव,जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक एवं आप के वरिष्ठ नेता ‘आप’ की लंबी छलांग, लेकिनइस विजय से भाजपा का विजय-रथ रुका हो या नहीं, कम-से-कम एक चीज जरूर हुई है. राजनीति में आशा का दीया फिर जगमगा उठा है.चांद पर पहला कदम रखते वक्त नील आर्मस्ट्रांग ने कहा था, ‘एक मानव के लिए यह एक छोटा […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 11, 2015 6:28 AM

योगेंद्र यादव,जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक एवं आप के वरिष्ठ नेता

‘आप’ की लंबी छलांग, लेकिनइस विजय से भाजपा का विजय-रथ रुका हो या नहीं, कम-से-कम एक चीज जरूर हुई है. राजनीति में आशा का दीया फिर जगमगा उठा है.चांद पर पहला कदम रखते वक्त नील आर्मस्ट्रांग ने कहा था, ‘एक मानव के लिए यह एक छोटा कदम है, लेकिन मानवता के लिए लंबी छलांग है.’ टीवी पर दिल्ली के चुनाव परिणाम देखते हुए बार-बार यह बात याद आ रही थी.

बस इस बात को तनिक बदल कर कहने की जरूरत है. दिल्ली का चुनाव परिणाम आम आदमी पार्टी जैसे शिशु के लिए एक लंबी छलांग है, लेकिन देश की राजनीति बदलने के हमारे सपने की दिशा में एक नन्हा-सा कदम भर है.

पिछले तीन-चार हफ्तों से यह एहसास गहरा रहा था कि दिल्ली की चुनावी फिजां में हवा नहीं, आंधी चल रही है. जब मैं यह कहता था तो लोग इसे चुनावी प्रचार समझते थे.

हमने बाकायदा सर्वे करवाया और उसके परिणाम प्रेस कॉन्फ्रेंस करके सार्वजनिक भी किये. मैंने कहा था कि आम आदमी पार्टी को 51 सीटें आने की संभावना है और यह आंकड़ा 57 तक जा सकता है.

सबने सोचा कि मैं अपनी पुरानी कमाई को राजनीतिक प्रचार के लिए खर्च कर रहा हूं. दरअसल, हमें लगता ही नहीं कि कोई नेता सच भी बोल सकता है. खैर, नतीजे तो उससे भी पार निकल गये. अपनी भविष्यवाणी गलत निकलने की इतनी खुशी शायद कभी नहीं हुई.

यह एक ऐतिहासिक जीत है. सिर्फ जीत के अंतर की वजह से नहीं, क्योंकि तमिलनाडु में शायद एक-दो बार ऐसी जीत हुई थी, जब विपक्ष लगभग खत्म हो गया था. अबतक के रुझानों से आम आदमी पार्टी को भाजपा पर 22} से ज्यादा की बढ़त हासिल हुई है.

जाहिर है, ऐसी जीत सिर्फ एक वर्ग या समुदाय के समर्थन से नहीं मिलती. शुरू-शुरू में आम आदमी पार्टी को गरीब, मेहनतकश, झुग्गी-झोपड़ी के लोगों में ज्यादा समर्थन मिला, लेकिन चुनाव का दिन आते-आते मध्यम वर्ग और संपन्न तबका भी आम आदमी पार्टी की ओर झुका. जो वोट नहीं भी दे पाया, उसने भी दुआ दी.

आमतौर पर चुनावी विश्‍लेषण में ‘जनादेश’ शब्द का दुरूपयोग होता है, लेकिन अगर चुनाव ने कभी जनादेश देखा है, तो वह इस चुनाव में देखा है. यह जीत इसलिए भी ऐतिहासिक है कि महज 10 महीने पहले लोकसभा की सारी सीटें हारने और 14} फीसदी वोट से पिछड़ने के बाद शायद ही कोई पार्टी इस तरह से कभी सत्ता में वापस आयी है. कर्नाटक में 1985 में रामकृष्ण हेगड़े ने यह कमाल किया था, लेकिन आज की मिसाल के सामने वह जीत भी फीकी है.

जाहिर है, ऐसी बड़ी सफलता से बड़े निष्कर्ष निकाले जायेंगे. मोदी लहर के खत्म होने और देश की राजनीति के पलटने की बातें शुरू हो गयी हैं. लेकिन, विजय की इस घड़ी में बड़ी-बड़ी बातों से बचना चाहिए. इसमें कोई शक नहीं कि पिछले साल भर से देश में भाजपा के चुनावी अश्वमेध यज्ञ के दौड़ते घोड़े को एक छोकरे ने रोक लिया है. अपराजेय मोदी का तिलिस्म टूटा है.

प्रधानमंत्री ने नाहक ही इस चुनाव को अपनी नाक का सवाल बना लिया था, जाहिर है उनकी प्रतिष्ठा पर छींटे तो पड़ेंगे हीं. फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि मोदी-युग समाप्त हो गया है. प्रधानमंत्री पहले एक-दो साल लोकप्रिय रहते हैं. अभी देश की जनता ने प्रधामंत्री नरेंद्र मोदी को खारिज नहीं किया है. रथ थमा तो है, लेकिन पूरी तरह से रुका नहीं है. बिहार और उत्तर-प्रदेश में आम आदमी पार्टी जैसा विकल्प पेश किये बिना भाजपा की हार की भविष्यवाणी करना बहुत नासमझी होगी.

इस विजय से भाजपा का विजय-रथ रुका हो या नहीं, कम-से-कम एक चीज जरूर हुई है. राजनीति में आशा का दीया फिर जगमगा उठा है. आज से तीन साल पहले इस देश के लोगों ने एक आशा बांधी थी. नेताओं को राजा और अपने-आप को बेबस प्रजा माननेवाली जनता ने अपने-आप में भरोसा करना सीखा था.

इस भरोसे का प्रतीक बनी थी आम आदमी पार्टी. उम्मीद बड़ी थी और पार्टी छोटी. संभावना बड़ी थी और हमारी क्षमताएं छोटी. दिल्ली के पिछले चुनाव में यह संभावना अचानक बड़ी हो गयी. और फिर लोकसभा चुनाव में लगा कि यह दीया बुझ गया. दीया दरअसल बुझा नहीं था, लेकिन राजनीति से पहली बार उम्मीद बांधनेवाले लोगों को लगा, मानो आशा ही खत्म हो गयी.

आज यह आशा का दीया दोबारा जगमगा उठा है. जीत के जोश में यह सोचना भूल होगी कि वह आशा सच हो गयी है. आम आदमी पार्टी जिस आंदोलन से पैदा हुई है, उसका ध्येय सिर्फ दिल्ली का चुनाव जीतना नहीं था. यह सिर्फ कांग्रेस-विरोध या भाजपा-विरोध, या फिर कांग्रेस-भाजपा विरोध की अभिव्यक्ति नहीं है.

यह आंदोलन देश के सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ आम आदमी की आवाज है, लोकतंत्र में तंत्र से दबे लोक की पुकार है. चुनाव जीत कर राजनीतिक विकल्प देना इसका एकमात्र ध्येय नहीं हो सकता. इस आंदोलन की आकांक्षा देशभर में वैकल्पिक राजनीति स्थापित करने से कम नहीं हो सकती. यह काम आसाम नहीं है.

देश के कोने-कोने में आखिरी इंसान तक पहुंचना रातों-रात नहीं हो सकता. देश बदलने का काम जादू की छड़ी से नहीं हो सकता. इसके लिए लाखों युवजन को राजनीति के युगधर्म से जुड़ना होगा. हर गांव, हर मोहल्ले में आदर्शवाद की शक्ति जोड़नी होगी. इस काम में हड़बड़ी या बड़बोलापन घातक हो सकता है.

सुनते हैं, चांद पर गुरुत्वाकर्षण कम होने के कारण कदम हलके पड़ते हैं और अंतरिक्षयात्री भारी सूट-बूट पहन कर अपने कदम टिकाये रहते हैं. आज इस विजय में ऐसा ही हल्कापन महसूस हो सकता है. लेकिन, जन-आकांक्षाओं के बोझ से भारी इस दुनिया में कोई वजन नहीं है.

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