भारत के महाशक्ति बनने की राह में कई हैं चुनौतियां
आगामी बजट मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों और विकास-संबंधी प्राथमिकताओं की वास्तविक प्रस्तुति होगा. पिछले वर्ष जुलाई में वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा प्रस्तुत पहला बजट बुनियादी रूप से पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम के अंतरिम बजट का ही प्रतिरूप था. अब आगामी बजट में अर्थव्यवस्था और बाजार को गति देनेवाले सुधारों तथा सामाजिक क्षेत्र […]
आगामी बजट मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों और विकास-संबंधी प्राथमिकताओं की वास्तविक प्रस्तुति होगा. पिछले वर्ष जुलाई में वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा प्रस्तुत पहला बजट बुनियादी रूप से पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम के अंतरिम बजट का ही प्रतिरूप था. अब आगामी बजट में अर्थव्यवस्था और बाजार को गति देनेवाले सुधारों तथा सामाजिक क्षेत्र की महत्वाकांक्षी योजनाओं के बीच संतुलन एक बड़ी चुनौती होगी. ऐसे में बजट से उम्मीदों पर एक बहस आज के विशेष में ..
बॉब मॉरिट्ज
चेयरमैन, पीडब्ल्यूसी
दीपक कपूर
चेयरमैन, पीडब्ल्यूसी इंडिया
अगर भारत में अमेरिकी कंपनियों और निवेशकों को आकर्षित करना है, तो अपने घरेलू चुनौतियों से हर हाल में निपटना होगा. नौ फीसदी के विकास दर को हासिल करने के लिए सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश को हाल के दिनों में किये गये विकास कार्यो को बढ़ाना होगा. अगर ऐसा होता है, तो भारतीय उद्योगों, उद्यमियों और निवेशकों के लिए बहुत अधिक अवसर होंगे.
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के तीन दिवसीय दौरे का उद्देश्य था, अगले दो सालों में संभावित तौर पर विश्व की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक-भारत को नजदीक से देखना. तमाम बड़ी चुनौतियों के बावजूद भारत के 1.25 अरब लोगों के पास दुनिया की बड़ी आर्थिक शक्ति बनने का अभूतपूर्व अवसर है, लेकिन संभावनाओं को सच करने के लिए भारत सरकार एवं उद्योग समुदाय को एक साथ काम करते हुए कुछ चुनौतियों से निबटना होगा. साथ ही आर्थिक वृद्धि की संभावनाओं को समझना होगा.
भारत और इसके नागरिकों के आर्थिक भविष्य को सुदृढ़ करने और 10 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने के लिए अगले 20 सालों तक सकल घरेलू उत्पादन की दर को नौ फीसदी बनाये रखना होगा.
चूंकि इससे कम जीडीपी के साथ भारत अपने आर्थिक और सामाजिक भविष्य को सुरक्षित करने में सक्षम नहीं हो पायेगा. वास्तव में तेजी से बढ़ती जनसंख्या के साथ इस विकास दर को बनाये रखने के लिए भारत को अगले बीस सालों तक प्रतिवर्ष 10-12 लाख नौकरियों के अवसर पैदा करने की जरूरत है.
भारत के निजी क्षेत्र के पास नयी नौकरियों के अवसर पैदा करने और आर्थिक विकास का मौका है. पीडब्लूसी 2015 सीइओ सव्रेक्षण के अनुसार, 73 फीसदी सीइओ यह मानते हैं कि अगले 12 महीनों में नौकरियों में इजाफा होगा. यह संख्या दुनिया के अन्य किसी भी देश से बड़ी है. वहीं, 62 प्रतिशत भारतीय सीइओ इस बात को लेकर आश्वस्त दिखे कि अगले एक साल में उनके व्यवसाय में बढ़ोत्तरी होगी. यह संख्या भी वैश्विक औसत 39 प्रतिशत से बहुत ज्यादा है.
संपूर्णता में देखा जाये, तो 84 फीसदी सीइओ का मानना है कि तीन साल पूर्व की तुलना में अभी विकास की संभावनाएं अधिक हैं. यह आंकड़ा भी दुनिया भर में सर्वाधिक है. तेजी से बढ़ रहे 60 करोड़ मध्यवर्गीय लोगों और तत्कालिक तौर पर नरेंद्र मोदी को स्पष्ट बहुमत मिलने से लंबी अवधि के विकास की संभावनाओं के भाव उत्पन्न हो रहे हैं.
रोजगार के अवसर पैदा करने व अर्थव्यवस्था के विकास के लक्ष्य को केवल निजी क्षेत्र के बल पर नहीं हासिल किया जा सकता है. मोदी के नेतृत्ववाली केंद्र सरकार को उद्योगपतियों के साथ मिल कर देश के आर्थिक वृद्धि और विकास को बढ़ावा देने के लिए जरूरी सुधार के कार्यो को बल देना होगा.
इससे जुड़ी तीन चुनौतियां हैं-
वर्तमान स्थिति में भारत की शिक्षा व्यवस्था पहली चुनौती है. विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के उत्कृष्ट संस्थानों से हर साल प्रतिभासंपन्न छात्र निकलते हैं, लेकिन देश के विभिन्न संस्थानों से निकलनेवाले बहुसंख्यक ग्रेजुएट कम कुशल हैं. हाल के एक सव्रे में यह कहा गया है कि स्कूलों में शिक्षा के स्तर को नजरअंदाज किये जाने की प्रवृत्ति नये पदों को भरने के लिए भारत के शिक्षित और कुशल मजदूर उत्पन्न करने की दिशा में अच्छे संकेत नहीं हैं.
अगले दो दशक तक कुशल मजदूरों की आवश्यकता को पूरा करने के लिए 70 लाख बच्चों को बहुत अच्छी तरह से औपचारिक शिक्षा मुहैया कराना होगा. पारंपरिक शिक्षा नीतियों के साथ ऐसा करना आसान नहीं होगा. विश्व भर में कुल जीडीपी के औसतन छह फीसदी की तुलना में भारत में महज तीन फीसदी राशि ही शिक्षा पर खर्च की जाती है.
भारत की शिक्षा व्यवस्था में बदलाव लाना सरकार के लिए एक अहम काम है. उद्योग जगत को भी सरकार के साथ मिल कर शिक्षित और कुशल प्रतिभा को तैयार करने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए. नेशनल स्किल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन के माध्यम से कौशल विकास करना कुशल वर्कफोर्स तैयार करने की दिशा में एक प्रयास भर है.
दूसरा, पारंपरिक व सीधे रास्ते से भारत की अर्थव्यवस्था जरूरी वृद्धि दर हासिल नहीं कर सकती है. राष्ट्रपति बराक ओबामा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुलाकात में द्विपक्षीय व्यापार और निवेश को बढ़ाना एजेंडे में प्रमुख रहा. उन्होंने काफी समय से लंबित परमाणु करार से जुड़े मुद्दों को हल कर लिया है. इसमें अड़चन की वजह से अमेरिकी परमाणु कंपनियां कई वर्षो से भारत में व्यापार नहीं कर पा रही थीं.
हालांकि अब भी बहुत कुछ किये जाने की आवश्यकता है. सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के उद्योग और निवेश को निश्चित तौर पर उत्पादकता और नवाचार पर बल देना चाहिए. इसके लिए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आवश्यक होगा, जो तकनीकी विकास और लगातार नवाचार को बढ़ावा देगा.
पीडब्लूसी की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक भारत नवाचार व रिसर्च एंड डेवलपमेंट को मजबूती से आगे बढ़ाये बिना नौ फीसदी जीडीपी दर को हासिल नहीं कर पायेगा. इसके लिए अगले दो दशक तक शोध एवं विकास में कुल जीडीपी के वर्तमान में खर्च हो रहे 0.8 फीसदी के मुकाबले 2.4 फीसदी राशि खर्च करने की जरूरत होगी.
यह भारत के सीइओ के लिए कोई खबर नहीं है. देश के औद्योगिक नेतृत्व को नवाचार, शोध एवं विकास और विदेशी निवेश में रुकावट बननेवाली विभिन्न चुनौतियों की चिंता है. इन मुद्दों में घूस लेना, भ्रष्टाचार और कुशल लोगों की अनुपलब्धता शामिल हैं. पीडब्लूसी की सव्रे में 82 फीसदी सीइओ ने कहा कि सरकार की प्राथमिकता जरूरी बुनियादी ढांचे को सुनिश्चित करना होना चाहिए, जबकि 68 प्रतिशत सीइओ का मानना है कि उनकी सरकार ऐसा कर पाने में असफल रही है.
विदेशी निवेशकों को आकर्षित करना मौजूदा समय में बहुत चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि अंतराष्ट्रीय उद्योग जगत भारत के नियम-कानूनों, भ्रष्टाचार और बुनियादी विकास से जुड़े मुद्दों को लेकर एहतियात बरत रहा है, इन क्षेत्रों में अधिक जोर देने की जरूरत है. निवेशकों का विश्वास जीतने के लिए मोदी ने अन्य देशों की सरकारों और निवेशकों को कूटनीतिक प्रयास के तहत आमंत्रित किया है. पांच सालों के उनके कार्यकाल की समाप्ति से एक वर्ष पहले ही प्रधानमंत्री अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, चीन और जापान के नेताओं की मेजबानी कर चुके होंगे. हालांकि अगर भारत में अमेरिकी कंपनियों और निवेशकों को आकर्षित करना है, तो अपने घरेलू चुनौतियों से हर हाल में निपटना होगा.
नौ फीसदी की विकास दर को हासिल करने के लिए सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश को हाल के दिनों में किये गये विकास कार्यो को बढ़ाना होगा. अगर ऐसा होता है, तो भारतीय उद्योगों, उद्यमियों और निवेशकों के लिए बहुत अधिक अवसर होंगे.
(फॉच्यरून डॉट कॉम से साभार)
बजट सरकार की एक साल की अनुमानित आमदनी और खर्च का लेखा-जोखा होता है. केंद्र सरकार के सबसे महत्वपूर्ण कार्यो में इसकी गिनती होती है. हमारे देश का वित्त वर्ष एक अप्रैल से अगले साल 31 मार्च तक होता है और आम तौर पर बजट फरवरी के आखिरी दिन केंद्रीय वित्त मंत्री द्वारा संसद में पेश किया जाता है.
विशेष परिस्थितियों में सरकारी खर्च की व्यवस्था के लिये लेखानुदान मांग अथवा अंतरिम बजट भी पारित कराया जाता है. संविधान के अनुच्छेद 112 में हर साल बजट पेश करने का प्रावधान किया गया है. सरकार को अपने हर तरह के खर्च के लिए संसद से मंजूरी लेनी होती है. बजट जितना आसान शब्द है, इसके निर्माण की प्रक्रिया उतनी ही जटिल है. संसद में इस पर अधिकतम 26 दिन विचार-विमर्श होता है.
– बजट भाषण : इसके दो भाग होते हैं. एक भाग में सामान्य आर्थिक परिदृश्य तथा दूसरे भाग में टैक्स तथा सरकार की आर्थिक नीतियों का विवरण होता है.
– प्राप्तियां : इसमें घरेलू तथा विदेशी ऋण के साथ-साथ अगले वित्त वर्ष में सरकार को प्राप्त होने वाले राजस्व और पूंजी प्राप्तियों का विवरण शामिल होता है.
– बजट व्यय : प्रस्तावित वित्त वर्ष में अलग-अलग मंत्रलयों और विभागों द्वारा आयोजनागत तथा गैर- आयोजनागत मदों में खर्च की जाने वाली राशि और सरकारी खर्च का विवरण बजट व्यय कहलाता है.
– अनुदान मांगें : इसमें हर तरह की अनुदान मांगों को रखा जाता है. मंत्रलयों की निजी की मांगें भी इसी में आती हैं.
– बजट का सार : राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से प्राप्त होने वाली तथा उन्हें दी जाने वाली राशि के विवरण के साथ यह आंकड़ों और ग्राफ सहित बजट का पूरा सार होता है.
– वित्त विधेयक : इसमें सरकार के कर प्रस्तावों का विवरण होता है.
नजरिया विशेषज्ञों का
वित्तीय उद्देश्यों में उचित संतुलन बनाये रखने की आवश्यकता है. वित्तीय घाटे के अल्पकालिक बढ़त के रुझान भी संभव हैं ताकि करों और सकल घरेलू उत्पादन के अनुपात की कमी को बढ़ाया जा सके, राज्यों को अधिक मदद दी जा सके, लाभ को सीधे खाते में दिया जा सके और सरकार इंफ्रास्ट्रक्चर पर खर्च कर सके. अगर विभिन्न मदों में आवंटन विकास में योगदान दे रहे हों, तो वित्तीय घाटे के लक्ष्य में कुछ उतार-चढ़ाव को भी सहा जा सकता है.
– एमबिट कैपिटल की रिपोर्ट
बजट महज वित्तीय लेखा-जोखा का हिसाब भर नहीं होता, बल्कि यह नीतिगत प्राथमिकताओं को भी इंगित करता है. नीतियों के कार्यान्यवयन तथा सहयोग और प्रतिद्वंद्विता के लिहाज से इस प्रक्रिया में राज्यों को भी शामिल करना महत्वपूर्ण है. अगर राज्यों के बीच विदेशी निवेश को लेकर स्वस्थ प्रतिद्वंद्विता हो, तो इससे व्यापारिक माहौल बेहतर हो सकता है. हमें मौजूदा व्यय के पूंजी व्यय में परिवर्तित होने की उम्मीद है. वृद्धि पर सरकारी खर्च का असर सकारात्मक होगा. वृद्धि पर पूंजी व्यय का गुणक प्रभाव बहुत अधिक होता है.
– प्रांजुल भंडारी, मुख्य अर्थशास्त्री (भारत), एचएसबीसी सेक्यूरिटीज एंड कैपिटल मार्केट्स
विकास दर बढ़ाने में निहित ‘कुविकास’
कमल नयन काबरा प्रसिद्ध अर्थशास्त्री
त्रसदी यह है कि न बजट पूर्व चर्चा में, न बजट में और न बजट के बाद के विमर्श तथा राजनीतिक चेतना और संघर्षो में जनपक्षीय सोच को कोई जगह मिलती नजर आ रही है. समावेशन तथा गरीब हितैषी मुखौटे को ओढ़ कर ‘व्यवसाय हितैषी’ का चलन, दायरा और दबदबा पिछले कुछ महीनों में बढ़ रहा है.
केंद्रीय सरकार के सालाना बजट का महत्व अनेक कारणों से लगातार बढ़ता देखा जा रहा है. विडंबना यह है कि वर्ष 1990 के बाद देश में राज्य को उसकी प्रमुख भूमिका से हटा दिया गया था. उसका स्थान देश की बड़ी निजी कंपनियों और सारे संसार में कार्यरत बहुदेशीय कंपनियों को बड़ी घोषणाओं और भारी उम्मीदों के साथ दिया गया था.
इन नीतियों पर चलते हुए करीब चौथाई शताब्दी पूरी होने जा रही है. राज्य को अर्थव्यवस्था की प्रमुख संचालक भूमिका से हटाने के साथ ही यह भी कहा गया कि राज्य की निदेशक-निर्धारक, कार्यकारी भूमिका की जगह अब उसे निजी एजेंसियों यानी निजी कर्ताधर्ताओं की समर्थकारी ‘एनेबलिंग’ भूमिका दी गयी है. नतीजन देसी कंपनियों और विदेशी पूंजी तथा उद्यमिता की बढ़ती भूमिका, शक्ति, धन-संपदा और बहुआयामी शक्ति तथा प्रभाव आदि में इस दौरान अभूतपूर्व इजाफा हुआ है.
इसकी एक झलक देखिये. स्विट्जरलैंड की एक बड़ी, कुशल तथा प्रभावशाली बैंक ने आकलन किया है कि भारत में एक प्रतिशत लोगों के हाथ में देश की 49 प्रतिशत यानी करीबन आधी संपत्ति केंद्रित हो गयी है. दूसरी ओर देश की आधी आबादी के पास महज नाम मात्र पांच प्रतिशत संपत्ति है. यह स्थिति अपनेआप में दुखद और अन्यायपूर्ण है. परंतु इससे भी ज्यादा गंभीर और आम जन विरोधी है इन कंपनियों के लिए सरकार द्वारा विभिन्न समर्थकारी कार्यक्रमों और नीतियों का संचालन. केवल एक मद में, टैक्स से छूट तथा रियायत के रूप में, बड़ी कंपनियों को हर साल राष्ट्रीय आय का करीब 4-5 प्रतिशत और बजट का लगभग 40 से 45 प्रतिशत बड़ी उम्मीदों से भेंट किया जाता है.
वर्ष 1990 के पहले बजट तथा अन्य नीतियों, कार्यक्रमों में राज्य द्वारा प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप ने भी देश के चंद, चुनिंदा तबकों की शक्ति और क्षमता बढ़ायी. उन्हीं की बदौलत विदेशी ताकतों के साथ मिल कर राज्य को हाशिये पर डाल कर उसे समर्थकारी रोल देकर कॉरपोरेट ताकतों ने देश का सबसे महत्वपूर्ण मुकाम हथिया लिया है. क्या आश्चर्य की बात नहीं है कि देश के 99 प्रतिशत लोग अपनी बदतर होती जा रही स्थिति में सुधार के लिए अब भी राज्य का मुंह जोहते रहने को मजबूर हैं.
इस स्थिति के पीछे विकास सोच का एक बहुत गंभीर, बहुत ‘मान्य’ तथा पूरी तरह गलत ‘सिद्धांत’ या ‘समझदारी’ है. सरकारी आंकड़ों में ही इस स्थिति का अकाट्य प्रमाण मौजूद है. वर्ष 1950-51 से लेकर 2012-13 तक चालू यानी आज की (2004-05 की सरकार द्वारा चुनी गयी) कीमतों पर भारत का सकल राष्ट्रीय उत्पाद का सूचकांक 1950-51 के आधार वर्ष पर करीब 943 गुणा बढ़ा. इस दौरान बाजार भाव भी बढ़ते रहे.
अत: यदि हम वर्ष 1950-51 की कीमतों पर इस पूरे लंबे दौर की कीमतों को स्थिर मान कर राष्ट्रीय उत्पाद या आय की वृद्धि का जायजा लें तो यह विशाल प्रतीत होनेवाली बढ़त सिमट कर मात्र 20 गुणा के करीब रह जायेगी. यानी ठोस वस्तुओं और सेवाओं को भौतिक और उपयोगनीय मात्र केवल 20 गुणा के करीब बढ़ी. करीब सात दशकों के दौरान हमारी जनसंख्या 35.9 करोड़ से बढ़ कर 121.7 करोड़ हो गयी. अर्थात् लगभग साढ़े तीन गुणा. तो फिर 20 गुणो और 943 गुणो का अंतर साफ है :
यह कीमतों में बेतहासा, करीब 50 गुणा से कुछ कम, बढ़त की बदौलत आयी. वास्तविक उत्पादन बढ़त नाम मात्र. यह वृद्धि सबसे ज्यादा सेवाओं के रूप में, फिर दूसरे नंबर पर कल-कारखानों के उत्पादन में और सबसे कम महज 5.5 गुणा खेतीबाड़ी के खाद्यान्नों और दूसरी फसलों के रूप में देखी गयी.
सन् 1990 के बाद इन आम जनों, खास कर खेतीबाड़ी व उससे संबंधित रोजगारों में लगे लोगों (जो अब घटते हुए भी देश की श्रमिक शक्ति के आधे लोगों को जीविका देती है) का अनुपात आधा (करीब 49 फीसदी) है. इस तरह साफ है कि कीमतों में लगातार (केवल एक-दो सालों को छोड़ कर) बढ़त तथा खेती के राष्ट्रीय उत्पादन में हिस्से का घट कर महज 14 प्रतिशत रहना कुछ गंभीर, लगभग आपराधिक सोच और नीतियों का नतीजा है. हमारे तथाकथित विकास को जीडीपी के रूप में देखने, मानने तथा प्रचारित और प्रोत्साहित करने व बड़ी-बड़ी कंपनियों को विकास रथ की बागडोर सौंपने तथा मौजमस्ती का दुष्परिणाम है. इस सोच और नीति के चलते खेती, छोटे उद्योग-धंधों, ग्रामीण कारीगरी तथा हुनरमंद लोगों की उपेक्षा करके, एक छोटे से परोपजीवी तबके को विभिन्न तरह से तरजीह देकर ‘विकास’ के नाम पर विषमता, बेरोजगारी तथा गरीबी के संयुक्त रूप (यानी जनता की न्यायविहीन शिरकत, जिसे समावेशी विकास नाम का नकली चेहरा दिया गया है) को बेइंतहा बढ़ाया गया है. त्रसदी यह है कि न बजट पूर्व चर्चा में, न बजट में और न बजट के बाद के विमर्श तथा राजनीतिक चेतना और संघर्षो में इस जनपक्षीय सोच को कोई जगह मिलती नजर आ रही है.
इस तरह समावेशन तथा गरीब हितैषी मुखौटे को ओढ़ कर ‘व्यवसाय हितैषी’ का चलन, दायरा और दबदबा पिछले कुछ महीनों में बढ़ रहा है. बजट घाटे को सीमित करने यानी मुद्रा तथा कर्ज बाजार में कॉरपोरेट और धनीमानी तबकों के लिए सस्ते कर्ज की प्रचुरता यानी अपनी शानो-शौकत की फिजुलखर्ची के साथ बढ़ते निवेश को, डूबते खाते के कजरे की अनदेखी करते हुए बनाये रखना बिजनसमैन पक्षीय नीतियों का एक पहलू है.
इसका दूसरा पहलू है विषमता के तांडव की पूर्ण उपेक्षा. बढ़ती विषमता के साथ गरीबी, बेरोजगारी तथा महंगाई घट सकना तकनीकी रूप से भी संभव नहीं है. इनके साथ मनरेगा, स्वास्थ्य सेवाओं, खाद्य सुरक्षा तथा सार्वजनिक वितरण के खर्च तथा अनुदान में कटौती, गरीबों, किसानों की जमीन का बड़ी कंपनियों के नफे के लिए जबरी अधिग्रहण, जबकि एसइजेड (स्पेशल इकॉनोमिक जोन) की जमीन को छोड़ गैर-कानूनी दुरुपयोग के बारे में सीएजी ने उजागर किया है. यह स्पष्ट दिखाता है कि ‘प्रो-बिजनेस’ सरकार का मतलब एक ओर धन्ना सेठों की लबालब तिजारियों में और धन ठूंसना है, तो जीडीपी वृद्धि-नुमा ‘कुविकास’ को और ज्यादा गहराना है.