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क्या इस बजट में भी उपेक्षित रहेंगे खेती और गांव!
देविंदर शर्मा कृषि अर्थशास्त्री अर्थव्यवस्था में कृषि और ग्रामीण क्षेत्र के महती योगदान के बावजूद किसान अपने को बेसहारा समझता है क्योंकि संसाधनों और बाजार तक उसकी पहुंच अब तक सुगम नहीं हो सकी है. समुचित रूप से ¬ण और उपज का मूल्य न मिल पाने के कारण बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या तक करने […]
देविंदर शर्मा
कृषि अर्थशास्त्री
अर्थव्यवस्था में कृषि और ग्रामीण क्षेत्र के महती योगदान के बावजूद किसान अपने को बेसहारा समझता है क्योंकि संसाधनों और बाजार तक उसकी पहुंच अब तक सुगम नहीं हो सकी है. समुचित रूप से ¬ण और उपज का मूल्य न मिल पाने के कारण बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या तक करने के लिए विवश हो रहे हैं. पिछले वर्ष एक अध्ययन में पाया गया था कि 76 फीसदी किसान खेती का काम छोड़ना चाहते हैं. क्या बजट उनकी उम्मीदों पर खरा उतरेगा, इस पर एक बहस आज के विशेष में ..
संभव है कि अनाज भंडारण, हरित क्रांति के विस्तार, बागवानी को लेकर कुछ प्रावधानों तथा योजनाओं की घोषणा हो. संभावना है कि यूरिया उर्वरक पर से नियंत्रण हटा लिया जाएगा. विशेष तौर पर कृषि को लेकर यह बजट किसी ड्रीम बजट की झलक पेश करेगा, इसके कोई संकेत नहीं मुङो नहीं दिखाई दे रहे हैं. मुङो भय है कि एक बार फिर किसान अपने हाल पर छोड़ दिये जाएंगे. यदि मैं गलत साबित हुआ, तो मुङो बहुत खुशी होगी.
कई वर्ष पूर्व, अटल बिहारी वाजपेयी के पहली बार प्रधानमंत्री बनने के ठीक पहले, नयी सरकार की संभावित आर्थिक नीतियों पर विचार करने के लिए कुछ अर्थशास्त्री आमंत्रित थे. विचार—विमर्श के दौरान, जो वित्तीय घाटे को कम करने की आवश्यकता तक सिमटा हुआ था, कृषि के लिए 60 प्रतिशत बजट व्यय आवंटित करने का मेरा सुझाव था, जो सीधे 60 प्रतिशत आबादी को रोजगार देता. मेरी दलील थी कि यदि खेती करने वाली आबादी को सीधे तौर 60 प्रतिशत बजट जाता है तो सरकार को कभी भी शासन—विरोधी लहर का सामना नहीं करना पड़ेगा.
यदि 60 करोड़ किसान आर्थिक नीतियों से लाभांवित होते हैं, तो फिर कोई कारण नहीं है कि वे एक लम्बी अवधि तक सत्तारूढ़ दल का समर्थन नहीं करेंगे. याद करें, उस सरकार ने बजट का 60 प्रतिशत कृषि को देने की घोषणा की थी, लेकिन यथार्थ में कृषि प्रावधानों तथा ग्रामीण विकास को मिलाकर भी कृषि को बजट व्यय का 6 प्रतिशत भी हासिल नहीं हुआ. कृषि के लिए लगातार कम बजट प्रावधानों से चली आ रही उदासीनता ही स्पष्ट होती है. 2013 में कृषि को सालाना बजट कोष से 19,307 करोड़ प्राप्त हुआ था, जो कुल बजट व्यय के दो प्रतिशत से भी कम है. क्या 60 प्रतिशत आबादी के लिए संपूर्ण बजट का दो प्रतिशत पूरी तरह अनुचित नहीं है?
2014—15 के लिए वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा लाये गये अंतरिम बजट में कृषि तथा सहकारिता को 22,652 करोड़ मिला था, जो कि मनरेगा को 2014—15 में आवंटित 36,000 करोड़ की राशि से बहुत कम है. लगातार अनदेखी तथा कमजोर मानसून के बावजूद 2014 का साल रिकार्ड उत्पादन का साल था. लेकिन उत्पादन में यह वृद्धि किसानों की आय में कोई इजाफा करने में नाकाम रही थी. यह किसानों के लिए हताशा का साल था.
अतीत की तरह ही आज भी किसान उम्मीद पर जी रहे हैं. इस उम्मीद के साथ कि किसी दिन कोई वित्त मंत्री उनकी दुर्दशा की वजहों को समङोगा और उनका जायज हक उन्हें मुहैया करायेगा.
कृषि वर्ष 2013—2014 के दौरान रिकार्ड 2640.4 लाख टन अनाज पैदा हुआ है. तिलहन उत्पादन ने 4.8 प्रतिशत की उछाल के साथ 340.5 लाख टन की रिकार्ड ऊंचाई दर्ज की. मक्के और ज्वार का उत्पादन 8.52 फीसदी के उछाल के साथ 240.2 लाख टन तक पहुंच गया था. दालों का उत्पादन पिछले वर्ष से 7.10 फीसदी की वृद्धि के साथ 190.6 लाख टन की अब तक की सर्वोच्च ऊंचाई तक जा पहुंचा. कपास और खरीफ में भी भरपूर पैदावार हासिल की.
पिरामिड के सबसे निचली सतह पर होने के बावजूद भारतीय किसानों ने देश को निराश नहीं किया. संभवत: इसे समझते हुए ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनावों के समय स्वामीनाथन समिति की संस्तुतियों को लागू कर किसानों को अधिक आमदनी मुहैया कराने का वादा किया था. उन्हें उत्पादन लागत पर 50 फीसदी लाभ मुहैया कराने का अपना वादा भाजपा बार-बार दोहराती भी रही है. लेकिन वास्तविकता में, किसानों को धान और गेहूं के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर 50 रुपये प्रति क्विंटल की मामूली वृद्धि दी गयी, जिससे किसानों की आय में 3.6 फीसदी की अतिरिक्त आय हुई, जो कि उस समय की मुद्रास्फीति दर की अतिरिक्त बोझ की भरपाई के लिए भी पर्याप्त नहीं थी.
इसके अतिरिक्त, बासमती तथा कपास अपनी कीमतों में गिरावट के साक्षी भी बने. जबकि पंजाब और हरियाणा में बासमती का उत्पादन दोगुना हो गया था, कीमतों में गिरावट देखी गयी. हताश किसानों ने 1600 से लेकर 2400 रुपये की प्रति क्ंिवटल की दर से बासमती बेचा. जबकि पिछले वर्ष उन्होंने 3,261 से लेकर 6,085 रुपये प्रति क्ंिवटल की कीमतें पायी थीं. कपास की कीमतें भी पिछले साल की औसत कीमत 4,400 से 5,200 रुपये प्रति क्विंटल से गिरकर इस साल लगभग 3,000 रुपये पर आ गयी, जिसने सरकार को, भारतीय कपास निगम को 3,750 रुपए प्रति क्विंटल के प्रबंध मूल्य पर खरीदने का, निर्देश देने को प्रेरित किया.
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उत्पादन के लिए किसानों ने ट्यूबवेलों के संचालन में डीजल का अतिरिक्त भार वहन किया था. पंजाब तथा हरियाणा में 50 प्रतिशत कम बरसात हुई थी. इतना ही नहीं, खाद्य मंत्रालय ने राज्यों को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बोनस नहीं देने का एक निर्देश जारी कर दिया जिसमें कहा गया था कि बोनस देने पर मंत्रालय खरीद अभियान वापस ले लेगा. अधिक भंडारण होने के मद्देनजर खरीद घटाने की सलाह भी सरकारों की दी गयी थी. वस्तुत: किसान बाजार के उतार-चढ़ाव ङोलने के लिए छोड़ दिये जा रहे हैं.
भारतीय खाद्य निगम को खरीद से हटाने की तैयारी हो रही है. छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और पंजाब में खरीद में जानबूझ कर देर की जा रही है. छत्तीसगढ़, जिसने किसानों द्वारा उत्पादित चावल के हर दाने को खरीदने का वादा किया था, ने प्रति किसान से अधिकतम 10 क्विंटल तक की खरीद की सीमा तय कर दी है. किसानों के विरोध के बाद सरकार अब 15 क्विंटल प्रति किसान खरीदने को राजी हुई है. पंजाब में किसानों को मौके पर भुगतान में अनियमित विलंब को इस सूक्ष्म संकेत देने के रूप में देखा जा रहा है कि वे अधिक चावल न पैदा करें.
ऐसे समय में, जब खेती पहले से ही एक कम आमदनी और बढ़ते कर्ज की मार ङोल रही है, कृषि को सहारा देने में नाकामी सिर्फ खेतों से कृषि को दूर करने में ही मददगार बनेगी. भूमि अधिग्रहण आसान हो जाने तथा बहुफसलीय क्षेत्रों तक इसके विस्तार से कृषि आर्थिक वृद्धि के रास्ते की बलि का बकरा बन गयी है. आर्थिक सुधारों की सभी बातें दूर तक केवल उद्योग तक सीमित हो गयी हैं. आने वाले वर्षों में देश की खाद्य सुरक्षा पर पड़ने वाले इसके प्रभावों को बेपरवाही से नजरअंदाज किया जा रहा है.
इस बजट में भी कृषि के लिए कुछ उल्लेखनीय होने की अपेक्षा मुङो नहीं है. गर्व के साथ यह बताते हुए कि रिकार्ड पैदावार के जरिए कृषि हमारी अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार बनी हुई है, कृषि क्रेडिट सीमा 8 लाख करोड़ से बढ़कर 9 लाख करोड़ किये जाने की वित्त मंत्री द्वारा घोषणा की मुङो अपेक्षा है.
अगले दिन के समाचारपत्र इस घोषणा का स्वागत करेंगे, बिना यह जाने कि घोषित क्रेडिट का 94 प्रतिशत, 4 प्रतिशत की ब्याज दर पर कृषि व्यवसाय उघोग को जाता है. वस्तुत: सांस्थानिक क्रेडिट कृषि व्यवसाय कंपनियों को जाती है, न कि किसानों को. लगभग 60,000 करोड़ रुपए ही अंतत: किसान प्राप्त करते हैं. संभव है कि अनाज भंडारण, हरित क्रांति के विस्तार, बागवानी को लेकर कुछ प्रावधानों तथा योजनाओं की घोषणा हो.
संभावना है कि यूरिया उर्वरक पर से नियंत्रण हटा लिया जाएगा. विशेष तौर पर कृषि को लेकर यह बजट किसी ड्रीम बजट की झलक पेश करेगा, इसके कोई संकेत नहीं मुङो नहीं दिखाई दे रहे हैं. मुङो भय है कि एक बार फिर किसान अपने हाल पर छोड़ दिये जाएंगे. यदि मैं गलत साबित हुआ, तो मुङो बहुत खुशी होगी.
(अनुवाद : कुमार विजय)
क्या है आर्थिक सर्वेक्षण
प्रत्येक वर्ष वार्षिक आम बजट से पहले वित्त मंत्रालय संसद में देश के आर्थिक विकास का लेखा-जोखा पेश करता है. आर्थिक सर्वेक्षण में पिछले 12 महीने के दौरान अर्थव्यवस्था के अलग-अलग मोरचों पर किये गये कार्यो का अवलोकन किया जाता है. संसद के दोनों सदनों के समक्ष पेश किये जाने वाले इस दस्तावेज में सरकार की प्रमुख विकास योजनाओं की उपलब्धियों, आर्थिक नीतियों और अर्थव्यवस्था की संभावनाओं के विभिन्न पहलुओं का जिक्र किया गया है. इस रिपोर्ट में आंकड़े और विश्लेषण शामिल होते हैं.
आर्थिक मामलों से जुड़े विभागों से लेकर केंद्रीय सांख्यिकी संगठन तक कई सरकारी विभाग मिलकर इस रिपोर्ट को तैयार करते हैं. आर्थिक समीक्षा वित्त मंत्रालय, भारत सरकार का फ्लैगशिप वार्षिक दस्तावेज है, जो बीते 12 महीने में भारतीय अर्थव्यवस्था में घटनाक्रमों की समीक्षा करने के साथ प्रमुख विकास कार्यक्रमों के निष्पादन का सार प्रस्तुत करता है और सरकार की नीतिगत पहलों तथा अल्पावधि से मध्यावधि में अर्थव्यवस्था की संभावनाओं पर विधिवत प्रकाश डालता है.
इस दस्तावेज को बजट सत्र के दौरान संसद के दोनों सदनों में पेश किया जाता है. यह रिपोर्ट अर्थव्यवस्था के सभी पहलुओं को शामिल करते हुए विस्तृत आंकड़ों के साथ निम्न मामलों का विश्लेषण करती है :
– भारतीय अर्थव्यवस्था की दशा.
– चुनौतियां, नीतिपरक प्रतिक्रियाएं और मध्यावधि दृष्टिकोण.
– राजकोषीय नीति और मौद्रिक प्रबंधन.
– वित्तीय हस्तक्षेप और बाजारों की भूमिका.
– भुगतान संतुलन तथा व्यापार.
– कृषि, औद्योगिक विकास एवं सेवा क्षेत्र.
– ऊर्जा, अवसंरचना और संचार.
– मानव विकास, जलवायु परिवर्तन और सार्वजनिक कार्यक्रम.
– भारत और वैश्विक अर्थव्यवस्था.
नजरिया विशेषज्ञों का
बजट में कृषि पर अधिक ध्यान दिये जाने की उम्मीद है ताकि खाद्य सुरक्षा की मांग को पूरा किया जा सके. कृषि संबंधी तकनीकी ज्ञान और उच्चतर तौर-तरीकों की जानकारी का अभाव बड़ी चुनौती है. सरकार ने कई कदम, खासकर सीमांत किसानों के लिए, उठाये हैं, लेकिन किसानों की खराब स्थिति इन योजनाओं के प्रभावी कार्यान्यवयन में कभी को इंगित करती है.
कृषि क्षेत्र में मूलभूत परिवर्तन समय की मांग है. किसानों को फसलों के बचाव के लिए रसायनों के समुचित इस्तेमाल का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ताकि पैदावार बरबाद न हों और उत्पादकता बढ़ सके.
– एमके धानुका, प्रबंध निदेशक, धानुका एग्रीटेक लिमिटेड
बहुत लंबे समय से पैदावार को बचाने के लिए उत्कृष्ट प्रबंधन की जरूरत महसूस की जा रही है. आवश्यक है कि सब्सिडी दे कर उत्पादन के उचित भंडारण की व्यवस्था हो ताकि किसान और कृषि व्यापारी सशक्त हो सकें. अफसोस की बात है कि कृषि पर इतनी निर्भरता के बावजूद सकल घरेलू उत्पादन में इसकी हिस्सेदारी 16 फीसदी तक ही सीमित है. हमारे देश में खेती के महत्व को इस तथ्य से ही समझा जा सकता है कि देश की 58फीसदी से अधिक आबादी खेती से ही संबद्ध है.
– संदीप सभरवाल, प्रमुख, एसएलसीएम ग्रुप
मूलभूत बदलाव की है जरूरत
हर्ष सिंह
भारतीय अर्थसेवा और यूूएनडीपी से जुड़े रहे हैं
सरकार की ज्यादातर योजनाएं और बजटीय आवंटन इस बात को लेकर होते हैं कि वे गांव और किसानों को राहत दे रहे हैं. अब राहत से आगे बढ़ते हुए योजनाबद्ध तरीके से विकास की प्रक्रिया अपनायी जानी चाहिए. इसके लिए दूरगामी सोच व रणनीति की जरूरत है.
आम बजट किसी भी प्रक्षेत्र के लिए महत्वपूर्ण आर्थिक दस्तावेज है. इसके जरिए उस क्षेत्र की दशा-दिशा और सरकार तथा क्षेत्र से जुड़े लोगों की प्राथमिकताओं का पता चलता है. बजट के जरिए कई तरह की छूट मिलती है, और कई तरह की योजनाओं के लिए दशा-दिशा का निर्धारण होता है. भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि क्षेत्र के विकास पर निर्भर करती है, और इसकी उपादेयता में गांव का अहम योगदान है.
आज भी देश की अधिकांश आबादी कृषि कार्य में संलगA है, और यह संलगA आबादी निश्चित रूप से गांववासी भी है. इसलिए कोई भी सरकार हो, यदि अपने अर्थ-नीतियों के जरिए किसान का विकास करती है तो निश्चित रूप से इससे गांव का विकास होगा. क्योंकि बिना गांव विकसित हुए, न तो कृषि विकसित होगी और न ही गांव. लेकिन इसके लिए सिर्फ बजट के प्रावधानों से काम नहीं चलने वाला, और ही बजटीय आवंटन और उसके जरिए दिये जाने वाले विभिन्न तरह के छूटों से बात बनने वाली है.
इसके लिए पूरी अर्थव्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन की दिशा में कदम बढ़ाना होगा. छोटे-छोटे बदलाव या बजट के जरिए सीमित आवंटन से बात नहीं बनने वाली है. सरकार ने गांव के विकास के ररबन एजेंडा(रूरल-अरबन एजेंडा) को अपनाने की बात कही है. इसके साथ ही सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत गांवों को अडॉप्ट कर उसे ‘आदर्श ग्राम’ बनाने की भी घोषणा की गयी है.
इसके तहत विभिन्न राज्यों में विधायक भी बढ़-चढ़कर भाग ले रहे हैं.
इसके अलावा कई उद्योगपतियों व कॉरपोरेट कंपनियों ने भी इस दिशा में कदम बढ़ाया है. इन दोनों योजनाओं के तहत गांवों को सुविधाएं मिलेगी, स्कूल, कॉलेज, अस्पताल जैसे बुनियादी सुविधाओं का विकास होगा. लेकिन गांव की समस्या सिर्फ इतनी भर नहीं है. इससे बहुत आगे की है. हमारे गांव आज भी बहुत पिछड़े हुए हैं. वहां रहने वाले अधिकांश लोग भूमिहीन हैं.
अर्थव्यवस्था में संलग्नता के लिहाज से बिल्कुल ही अलग-थलग हैं. इतनी बड़ी आबादी को मुख्यधारा में लाने की जिम्मेवारी सरकार की है, और इसे सिर्फ बजटीय आवंटन के जरिए दिये जाने वाले लाभ से फायदा नहीं पहुंचाया जा सकता. सरकार ग्रामीण विकास और कृषि विकास की कई योजनाएं चलाती है.
बजटीय आवंटन के जरिए टुकड़े-टुकड़े में सभी मद में कुछ-न-कुछ देने का प्रयास सरकार करती है. सरकार को ररबन मॉडल के तहत कुछ इस तरह का प्रावधान करना चाहिए जिससे गरीब-से-गरीब आदमी के पास कुछ संसाधन प्राप्त हो. कुछ एसेट बने. सुविधाओं तक उसकी पहुंच हो. ग्रामीण इलाके पूरी तरह से शहरीकृत न बनें, लेकिन शहरों जैसी सुविधायें उनके पास हो. अगर हम इस तरह की संरचना बनायेंगे तो गांव के लोग जो आमतौर पर मजबूरन कृषि कार्य में लगे रहते हैं, वे इससे अलग भी अपने गांव में कुछ काम कर सकेंगे.
इसके जरिए कृषि पर दबाव कम होगा और गांव में रोजगार के अन्य साधन विकसित होंगे. सरकार किसी एक गांव को मॉडल बनाने के बजाय यदि प्रत्येक जिले में कुछेक बस्तियों को मॉडल के तौर पर विकसित करे, जहां खेती की भी सुविधा हो, और गांव से जुड़े उत्पादों के क्रय, विक्रय और विपणन की व्यवस्था हो तो इससे पलायन कम होगा, शहरों पर दबाव कम होगा और गावों का विकास भी होगा.
आज जिस तरह से आदर्श गांव की अवधारणा विकसित की गयी है, वह आईलैंड ऑफ द मॉडल विलेज होगा. यदि हम किसी एक गांव का विकास करते भी हैं तो जब तक योजना चल रही है, वह विकास करेगा. आगे चलकर फिर वह गांव उसी तरह का हो जायेगा. आदर्श गांव तभी बनेगा जब स्थानीय स्तर पर लीडरशिप विकसित हो.
जिस तरह से अन्ना हजारे ने अपने गांव रालेगन सिद्धि में किया. उपर से थोपकर आदर्श गांव विकसित नहीं किया जा सकता. इस तरह के गांवों के विकास में महिलाओं का अहम योगदान है. यदि हम पूरे ईलाके को विकसित करेंगे तो पूरा क्षेत्र विकसित होगा,और उससे जुड़े होने के कारण उस गांव का भी विकास होगा. बस्ती विकास के इस मॉडल को अपनाकर यदि ररबन योजना का विस्तार हो, गावों का आधुनीकरण किया जाये जिसमें गांव भी अपना स्वरूप बनाये रखें और पूरे ईलाके का विकास हो,और इस विकास में गरीब की भागीदारी हो तभी व्यापक स्तर पर गरीबी हटाई जा सकती है.
एमएस स्वामीनाथन कहते हैं कि ‘कृषि विकास की बात अक्सर की जाती है, लेकिन किसानों के विकास की बात कोई नहीं करता’. आज किसान बिल्कुल अलग-थलग पर गये हैं. सरकार को किसानों को तकनीक से जोड़ने, उनके कौशल विकास, और उन्हें बाजार मुहैया कराने, बुनियादी सुविधाएं देने की दिशा में कदम उठाना चाहिए. यदि ऐसा हो तो किसान अपनी चिंता खुद कर लेगा.
सरकार की ज्यादातर योजनाएं और बजटीय आवंटन इस बात को लेकर होते हैं कि वे गांव और किसानों को राहत दे रहे हैं. अब राहत से आगे बढ़ते हुए योजनाबद्ध तरीके से विकास की प्रक्रिया अपनायी जानी चाहिए. इसके लिए दूरगामी सोच व रणनीति की जरूरत है.
(संतोष कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)
समुचित शहरी-ग्रामीण नीति की अविलंब आवश्यकता
डॉ सनत कौल, पूर्व सचिव (भूमि), दिल्ली सरकार एवं प्रो डीबी गुप्ता, अर्थशास्त्री, एनसीएइआर
देश के शहरीकरण के लिए जमीन की दरकार है, लेकिन इस प्रक्रिया में यह ध्यान देना जरूरी है कि अच्छी कृषियोग्य भूमि को इस काम के लिए नहीं अधिग्रहित किया जाए. अगले एक दशक में हमें 60-70 फीसदी शहरी जनसंख्या के हिसाब से योजना बनाना होगा.
इससे जनसंख्या, रोजगार के निम्न स्तर, गैर-आर्थिक जमीन और गरीबी का बोझ ग्रामीण क्षेत्र से कम किया जा सकता है. शहरीकरण की प्रक्रिया पर बहस होनी चाहिए और हमारी आर्थिक नीति इसी बहस के निष्कर्षों पर आधारित होनी चाहिए. ऐसा नहीं करने से शहरीकरण की तेज गति जारी रहेगी. अतिविकसित देशों में कृषकों की जनसंख्या 5-10 फीसदी होती है.
इस लिहाज से हम एक बम पर बैठे हैं और अगर हम जगह को लेकर योजना नहीं बना पा रहे हैं, तो गांवों में बड़े पैमाने पर अशांति फैलेगी तथा शहरों में झुग्गियों की संख्या में तेज वृद्धि होगी. पूर्व योजना आयोग के पास ऐसी कोई नीति नहीं थी और उम्मीद है कि नया नीति आयोग इस संबंध में ठोस पहल करेगा जिसके अंतर्गत गांवों से उचित प्रवासन, कम-से-कम भूमि अधिग्रहण और ऊसर-बंजर भूमि का शहरीकरण में उपयोग जैसे कारक महत्वपूर्ण होंगे.
(डेली मेल ऑनलाइन से साभार)
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