मंत्रालयों में जासूसी!

पेट्रोलियम मंत्रालय से गोपनीय दस्तावेज की चोरी होना न केवल अत्यंत गंभीर मसला है, बल्कि हमारी व्यवस्था के शीर्ष तक लगे खतरनाक घुन की ओर भी संकेत करता है. एक तो जहां कुछ लोग बड़ी आसानी से अति गोपनीय सरकारी दस्तावेज महत्वपूर्ण कार्यालयों से गायब कर सकते हैं, वहीं सरकार और जांच एजेंसियों के लिए […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 25, 2015 6:23 AM
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पेट्रोलियम मंत्रालय से गोपनीय दस्तावेज की चोरी होना न केवल अत्यंत गंभीर मसला है, बल्कि हमारी व्यवस्था के शीर्ष तक लगे खतरनाक घुन की ओर भी संकेत करता है. एक तो जहां कुछ लोग बड़ी आसानी से अति गोपनीय सरकारी दस्तावेज महत्वपूर्ण कार्यालयों से गायब कर सकते हैं, वहीं सरकार और जांच एजेंसियों के लिए मामले की तह तक पहुंच पाना असंभव जैसा दिखता है.

ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि इस भयावह गड़बड़ी को कौन और कैसे दुरुस्त करेगा. ऐसी वारदात पहले भी हुई हैं, लेकिन जांच किसी ठोस नतीजे तक नहीं पहुंची. प्यादे तो अकसर पकड़ में आ जाते हैं, लेकिन उनके पीछे खड़ी ताकतों तक कभी पहुंचा नहीं जाता है. इस संदर्भ में तात्कालिक खुलासों के उलङो सिरों को समझने की एक कोशिश आज के विशेष में..

राजधानी में वर्षों से जारी है जासूसी

पेट्रोलियम मंत्रालय से जुड़े अहम दस्तावेज लीक होने का मामला अपने तरह की पहली घटना नहीं है. केंद्र सरकार के अहम मंत्रालयों की जासूसी की खबरें पहले भी सुर्खियां बटोरती रही हैं. आइए, नजर डालते हैं भारत की राजधानी के केंद्र में पसरे जासूसों के जाल से जुड़े कुछ बहुचर्चित मामलों पर-

केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी के घर में जासूसी के उपकरण

केंद्र सरकार में महत्वपूर्ण ओहदा रखने वाले सड़क परिवहन व राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी के घर में हाइ पावर लॉयजनिंग डिवाइस लगाये जाने की खबर पिछले साल चर्चा में थी. यह मामला जुलाई, 2014 का है, जब गडकरी के पास ग्रामीण विकास मंत्रालय जैसा अहम विभाग भी था. पूर्व भाजपा अध्यक्ष के घर में वैसे उपकरणों के पाये जाने से सनसनी फैल गयी थी क्योंकि इस तरह के डिवाइस का उपयोग अमेरिका की खुफिया एजेंसी करती है. नवगठित मोदी सरकार इस वजह से विवादों में फंस गयी थी.

कोयला ब्लॉक आवंटन घोटाले की फाइल हुई थी गायब

कोयला ब्लॉक आवंटन से जुड़े अहम दस्तावेजों के लीक और गायब होने की खबर से 2013 में केंद्र की तत्कालीन यूपीए सरकार विवादों के घेरे में आ गयी थी. इस मसले पर विपक्षी दलों ने सरकार को आड़े हाथों लिया था. मामला इतना बढ़ गया था कि प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह को स्पष्टीकरण देना पड़ा.

अरुण जेटली की फोन टेपिंग की चर्चा बनीं सुर्खियां

भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता अरूण जेटली के फोन टेपिंग का मामला जनवरी, 2013 में चर्चा में था. जेटली उस समय राज्यसभा में विपक्ष के नेता थे. भाजपा के बड़े कद के नेता के फोन टेप करने के आरोप में करीब दस लोगों को गिरफ्तार भी किया गया था. तब भाजपा ने तत्कालीन केंद्र सरकार पर ऐसा करवाने का आरोप लगाया था.

एके एंटनी के कार्यालय में भी जासूसी की खबरें आयी थीं

16 फरवरी, 2012 को तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटनी के कार्यालय में जासूसी की खबरें आई थी. साउथ ब्लॉक के कमरा नंबर 104 स्थित एंटनी के कार्यालय में बीप की आवाज आने के बाद रक्षा मंत्रालय में हड़कंप मच गया. बीप की आवाज उस समय आने लगी थी, जब सैन्य गुप्तचर शाखा के सदस्य एंटनी के कार्यालय की जांच कर रहे थे. तत्काल इस मसले की जांच की जिम्मेदारी गृह मंत्रालय को सौंप दी गयी. साउथ ब्लॉक के रक्षा मंत्रालय जैसे संवेदनशील स्थान पर ऐसी घटना होने से कई सवाल खड़े हो गये थे.

पूर्व वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के कार्यालय में जासूसी

साउथ ब्लॉक स्थित रक्षा मंत्री के कार्यालय में जासूसी के लगभग छह महीने पहले ऐसा ही मामला तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के नार्थ ब्लॉक स्थित कार्यालय में भी हुआ था. कथित रूप से वित्त मंत्री के दफ्तर में ‘स्नूपिंग डिवाइस’ पाये जाने की चर्चा थी. प्रणब मुखर्जी के कार्यालय में करीब 16 स्थानों पर चिपकाने वाली चीजें पायी गयी थी.

राजीव गांधी के कार्यकाल में भी पीएमओ में जासूसी

भारत में इस तरह की जासूसी का पहला चर्चित मामला 1985 में प्रकाश में आया. यह हाइ प्रोफाइल मामला प्रधानमंत्री कार्यालय से जुड़ा था. इस अति संवेदनशील मामले में प्रधानमंत्री राजीव गांधी के दफ्तर में जासूसी की खबर आयी थी. इसके बाद पूरे देश में जमकर हंगामा हुआ. कई तरह के सवाल खड़े किये गये. प्राथमिक तौर पर 10 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार तो किया गया, लेकिन बाद में इस मामले का क्या हुआ, इसके बारे में किसी को कोई सूचना नहीं है.

मेनका गांधी के घर में जासूसी

सीबीआइ के एक दिवंगत वरिष्ठ अधिकारी एमके धर ने यह माना था कि इंदिरा गांधी के कहने पर उन्होंने मेनका गांधी की जासूसी की थी. इंदिरा गांधी द्वारा अपनी बहू के घर में जासूसी करवाने की खबर पर तब बड़ी चर्चा हुई थी.

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार डोभाल के इशारे पर जाल बिछाया गया था!

रिपोटरें की मानें तो पेट्रोलियम मंत्रालय से महत्वपूर्ण दस्तावेजों की चोरी के मामले में धर-पकड़ राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की सक्रियता के कारण संभव हो सकी है. भारत सरकार ने दिसंबर के महीने में ही यह इरादा कर लिया था कि आधिकारिक गोपनीयता कानून का उल्लंघन अब बर्दाश्त नहीं किया जायेगा. पिछले वर्ष अक्तूबर की 13 तारीख को डोभाल ने एक टेलीविजन चैनल पर इस कानून के विरुद्ध आचरण का आरोप लगाते हुए कैबिनेट सचिव को कठोर पत्र भी लिखा था.

हालिया घटना में भी सरकार और पुलिस ने कहा है कि जांच आगे बढ़ने के साथ गोपनीयता कानून के अंतर्गत मामला दर्ज किया जा सकता है. कार्यभार संभालने के समय से ही डोभाल की ओर से यह संकेत दिये जा रहे हैं कि ‘गोपनीय’ श्रेणी के दस्तावेजों को प्रकाशित करना सही नहीं है तथा यह मीडिया की जिम्मेवारी है कि वह ऐसे दस्तावेजों को सार्वजनिक न करे. निश्चित रूप से सरकार के लिए यह मसला एक अवसर है, जहां कड़ा रवैया अपना कर वह एक गंभीर संकेत दे सकती है कि ऐसे मामलों में कोई नरमी नहीं बरती जायेगी. अक्तूबर के अपने पत्र में डोभाल ने उक्त चैनल द्वारा भारत के परमाणु पनडुब्बी आइएनएस अरिहंत से जुड़े गोपनीय दस्तावेजों को सार्वजनिक करने का आरोप लगाया था. उस पत्र में उन्होंने लिखा था कि पिछले कुछ वर्षों से मीडिया में गोपनीय दस्तावेजों को लापरवाह ढंग से प्रकाशित-प्रसारित करने का आम चलन बन गया है तथा राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मसलों में ऐसी कारगुजारियों पर कठोर कार्रवाई करने की आवश्यकता है. सरकारी सूत्रों के हवाले से खबरों में कहा गया है कि गोपनीयता कानून के उल्लंघन के पूर्ववर्ती मामलों का ठीक से निपटारा नहीं हुआ है, इससे इन गतिविधियों में शामिल लोगों में डर कम हो गया है, लेकिन अब सरकार किसी भी तरह की नरमी बरतने के लिए तैयार नहीं है. पेट्रोलियम मंत्रालय के मामले में ताबड़तोड़ गिरफ्तारियां इसी सक्रियता की ओर इशारा करती हैं.

जानकारों के अनुसार, गुप्तचर संस्थाओं से लंबे समय से जुड़े होने के कारण डोभाल मंत्रालयों में हो रही जासूसी, कॉरपोरेट सेक्टर की हरकतों और मीडिया के तौर-तरीकों से भली-भांति परिचित हैं. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार होने के कारण अब उनकी जिम्मेवारी भी काफी बड़ी है. ऐसे में उनके पास समझ के साथ संसाधन और सामर्थ्य भी हैं. देखना यह है कि इस मामले का हश्र भी पिछली घटनाओं की ही तरह बिना किसी नतीजे के होता है या फिर जांच उन लोगों की हद तक पहुंचती है, जिनके इशारों पर यह खेल खेला जाता रहा है.

जासूसी के आरोप में पकड़े लोग

शांतनु सैकिया : पत्रकार एवं एनर्जी कंसल्टेंट शांतनु सैकिया पेट्रो डॉट कॉम व इंडियन फर्टीलाइजर डॉट कॉम नामक वेबसाइटें भी चलाता है.

प्रयास जैन : ऑस्ट्रेलिया की एक कंपनी मेडिट का मुखिया प्रयास जैन भी एनर्जी कंसल्टेंट है.

ललिता प्रसाद : ललिता प्रसाद केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्रालय में ही अस्थायी कर्मचारी के तौर पर काम करता था.

राकेश कुमार : गिरफ्तार ललिता प्रसाद का सगा भाई राकेश कुमार भी मंत्रालय में कर्मचारी था.

आशाराम : यह भी पेट्रोलियम मंत्रालय में कार्यरत है. आशाराम पर आरोप है कि वह अपने दो सहयोगियों के साथ ललिता प्रसाद व राकेश कुमार को अहम दस्तावेज मुहैया कराता था.

ईश्वर सिंह : मंत्रालय में ही कार्यरत ईश्वर सिंह सीधे तौर पर राकेश व ललिता प्रसाद से जुड़ा हुआ था.

वीरेंद्र : रक्षा मंत्रालय के ऑडिट विभाग में कार्यरत अस्थायी कर्मचारी वीरेंद्र पर ललिता प्रसाद और राजकुमार चौबे को फर्जी पहचान पत्र उपलब्ध कराने का आरोप है.

राजकुमार चौबे : इसे कथित रूप से पेट्रोलियम मंत्रालय से दस्तावेज चोरी करते हुए गिरफ्तार किया गया था.

शैलेश सक्सेना : सक्सेना रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड में कॉरपोरेट मामलों का प्रबंधक है.

विनय कुमार : एस्सार के उप-महाप्रबंधक विनय कुमार को भी कंपनी के हित में सरकारी दस्तावेजों के गलत तरीके से चोरी करने व प्रयोग करने के आरोप में हिरासत में लिया गया है.

केके नायक : यह केयर्न्‍स इंडिया में महाप्रबंधक है.

सुभाष चंद्रा : जुबीलैंट एनर्जी में कॉरपोरेट एग्जीक्यूटिव के पद पर कार्यरत चंद्रा कभी पेट्रोलियम मंत्रालय में टाइपिस्ट था. इसकी गिरफ्तारी को इस मामले में काफी अहम माना जा रहा है.

¬षि आनंद : रिलायंस एडीएजी में उप-महाप्रबंधक के पद पर कार्यरत ¬षि आनंद से भी पूछताछ की जा रही है.

लोकेश शर्मा : एक एनर्जी कंसल्टेंसी फर्म के कर्मचारी लोकेश शर्मा के पास पेट्रोलियम मंत्रालय से जुड़े कई अहम दस्तावेज बरामद हुए हैं. पुलिस इसकी जांच कर रही है.

मोहन गुरुस्वामी

वित्त मंत्रालय के पूर्व सलाहकार

सत्ता के गलियारों में जासूसी का यह खेल पुराना है

मैंने उनसे पूछा कि उन्हें इस नोट की जानकारी कैसे मिली, तो उन्होंने बताया कि एक महत्वपूर्ण और कुछ हद तक कुख्यात पत्रकार ने उन्हें यह जानकारी दी है जो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का पूर्व कार्यकर्ता था तथा तत्कालीन प्रधानमंत्री के कार्यालय और उनके ‘दत्तक दामाद’ का करीबी था. खैर, उस नोट ने इस सौदे को नहीं होने दिया.

मुङो इस बात से आश्चर्य है कि इस घटना से हम सभी इतने अचरज में क्यों दिख रहे हैं. इस तरह की कारगुजारियां नयी दिल्ली में एक बड़ा कारोबार हैं और ‘स्वतंत्र’ सलाहकारों, व्यक्तियों एवं संस्थाओं की बड़ी संख्या तथा जन-संपर्क एजेंसियों के शानदार कार्यालय और कारें इस कारोबार की सफलता और व्यापकता का प्रमाण हैं. जब भी इनमें से कोई पकड़ा जाता है, तो मीडिया शोर मचाता है, पर फिर स्थिति पहले की तरह ही हो जाती है. बहुत सारे संवाददाता असल में निजी क्षेत्र की कंपनियों के लिए जासूस का काम करते हैं. यह नहीं भूलना चाहिए कि घाटे में चलनेवाले अखबारों के संपादक कैसे दक्षिण दिल्ली के आलीशान मकानों और फार्म हाउस के मालिक बन बैठते हैं. वे सूचनाओं के लेन-देन का व्यापार करते हैं और ढेर सारी सूचनाएं पाठकों तक पहुंचने के बजाय उनके कॉपोरेट ग्राहकों और फाइनेंसरों के पास चली जाती हैं.

सभी सरकारी दस्तावेज बिक्री के लिए उपलब्ध हैं. बहुत समय नहीं हुआ है, जब देश के सबसे बड़े रक्षा ठेके से संबंधित नियमों और योग्यताओं के दस्तावेज बोइंग कंपनी के मुख्यालय तक पहुंच गये थे, जिन्हें कंपनी के प्रबंधन ने अमेरिकी कानूनों के डर से भारत सरकार को वापस कर दिया था और इस काम के लिए जिम्मेवार स्थानीय प्रबंधकों को बर्खास्त कर दिया था. लेकिन, मिराज 2000 के बारे में कूमर नारायण द्वारा निकाले गये दस्तावेजों को फ्रांसीसियों ने नहीं लौटाया था. फिर याद करें उन कंपनियों को जो नीरा राडिया, दीपक तलवार और दिल्ली के अन्य प्रमुख लोगों द्वारा संचालित की जाती थीं, जो नीतियों को प्रभावित करने का तंत्र का हिस्सा रहे हैं. कभी आपने सोचा है कि ये लोग कैसे काम को अंजाम देते हैं और किन लोगों के लिए इनका अस्तित्व है. जासूसी की इस ताजा वारदात में भी रिलायंस, टाटा, एस्सार आदि कंपनियों का ही नाम फिर से आ रहा है.

अब बात करते हैं शांतनु सैकिया के बारे में. इसने एक बार मारुति के विनिवेश संबंधी आधिकारिक नोट के हिस्सों को प्रकाशित किया था, जिसे मैंने लिखा था. मेरे लिखने के एक दिन बाद यह फाइनेंसियल एक्सप्रेस में छपा था. इसका अर्थ यह है कि सैकिया को ये दस्तावेज उसी दिन मिल गये थे, जिस दिन मैंने इन्हें लिखा था. मैंने एक इंटेलिजेंस एजेंसी में काम करनेवाले मित्र से जब यह बताया तो उसने मुङो सैकिया को वित्त मंत्रालय में प्रतिबंधित करने की सलाह दी, क्योंकि उसका मुख्य कारोबार आधिकारिक कागजों को बेचने का था, न कि उन्हें प्रकाशित करने का.

ताजा वारदात में अनिल अंबानी की कंपनी एडीएजी पर चुराये गये दस्तावेजों के खरीद में शामिल होने का आरोप बहुत दिलचस्प है. जिन कंपनियों की चर्चा हो रही है, उनमें यही एकमात्र कंपनी है जिसका तेल के व्यापार से कोई लेना-देना नहीं है. पूछा जा सकता है कि वे इस तरह के तैलीय खेल में अपने बड़े भाई की कंपनी को नुकसान पहुंचाने के इरादे से हैं, जो कि एक बड़ी तेल कंपनी है? अनिल अंबानी के दिल्ली के सूत्रों ने ही ‘गैस वार्स’ किताब के लिए सामग्री उपलब्ध करायी थी, जिसमें भाई मुकेश अंबानी द्वारा कृष्णा-गोदावरी बेसिन में गलत तरीके अपना कर गैस-क्षेत्र लेने का ‘खुलासा’ किया गया है. अंगरेजी दैनिक ‘द हिंदू’ ने मेरे बारे में लिखा है कि मुङो वित्त मंत्रालय में सलाहकार पद से इसलिए हटा दिया गया था, क्योंकि मैंने अपनी ‘सीमा का अतिक्रमण’ किया था. मैं सचिव स्तर पर वित्त मंत्री का सलाहकार था और कोई भी फाइल मुझसे होकर मंत्री तक नहीं जाती थी. मेरा काम मांगने पर मंत्री को सलाह देना भर था. उक्त अखबार ने जिस घटना के आधार पर यह कहा है, वह यूटीआइ द्वारा आइटीसी के शेयरों को बीएटी, आइटीसी की ब्रिटेन-स्थित मूल कंपनी, को बेचने के प्रस्ताव से संबंधित है. यह सर्वविदित था कि बीएटी भारतीय शेयरधारकों, खास कर यूटीआइ, से आइटीसी के शेयर खरीदना चाहती थी, जिससे उसका कंपनी पर पूरा अधिकार हो जाता. जनवरी, 1999 में यूटीआइ के तत्कालीन अध्यक्ष पीएस सुब्रमणियम मेरे कार्यालय में आये. वित्त मंत्री की व्यस्तता के कारण उन्हें कुछ देर इंतजार करना था. वे शेयर बेचने के लिए वित्त मंत्री की मंजूरी लेने आये थे और चाहते थे कि मैं भी उन्हें तैयार करने की कोशिश करूं (बाद में मुङो पता चला कि मंत्री ने पहले ही अपना मन बना लिया था). मैंने सुब्रमणियम को कहा कि मैं शेयर बेचने के विरुद्ध नहीं हूं, पर कीमत सही मिलनी चाहिए. उन्होंने बताया कि शेयर बाजार दर पर बेचे जायेंगे. इस पर मैंने हिसाब लगाया कि कंट्रोलिंग इंटेरेस्ट प्रीमियम के रूप में 5,600 करोड़ रुपये यूटीआइ को अतिरिक्त मिलने चाहिए. मैंने एक नोट बना कर मंत्री के पास भेज दिया. बाद में जब मंत्री के बुलाने पर उनसे मिलने गया तो उन्होंने मुङो कहा कि ईमानदार होना ही महत्वपूर्ण नहीं है, इससे अधिक जरूरी यह है कि नाव को अस्थिर न किया जाये. मंत्री ने प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर संकेत करते हुए यह भी कहा कि वहां लोग मेरे नोट से नाखुश हैं. फिर मुङो प्रधानमंत्री कार्यालय के एक वरिष्ठ अधिकारी का फोन आया कि मैं अपना नोट वापस ले लूं. मैंने उन्हें बताया कि यह एक बड़ा घोटाला होगा, जो किसी भी दिन सबके सामने आ जायेगा. मैंने उस नोट को वापस लेने से सीधा मना कर दिया. मैंने उनसे पूछा कि उन्हें इस नोट की जानकारी कैसे मिली, तो उन्होंने बताया कि एक महत्वपूर्ण और कुछ हद तक कुख्यात पत्रकार ने उन्हें यह जानकारी दी है, जो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का पूर्व कार्यकर्ता था तथा तत्कालीन प्रधानमंत्री के कार्यालय और उनके ‘दत्तक दामाद’ का करीबी था. खैर, उस नोट ने इस सौदे को नहीं होने दिया. इतना ही नहीं, फिर आइटीसी के सूत्रों ने, जैसा कि मेरा संदेह है, इसे एक प्रमुख व्यापारिक पत्रिका में मंत्री की टिप्पणी के साथ प्रकाशित भी करवा दिया. आइटीसी में यथास्थिति बनी हुई है और योगी देवेश्वर उसके मुखिया बने हुए हैं.

एक बार 1998 में तत्कालीन वित्त मंत्री, जो मेरे बॉस थे, ने मुङो आदेश दिया कि मैं प्रभु चावला के फार्म हाउस पर आयोजित पार्टी में जाऊं क्योंकि चावला उस आयोजन में मंत्रालय का समुचित प्रतिनिधित्व चाहते थे. अनिच्छा के बावजूद मैं वहां गया. चावला तब इंडिया टुडे के प्रभावशाली प्रबंध संपादक हुआ करते थे. पार्टी में मैंने देखा कि मंत्रालय के कर और आबकारी विभागों के अधिकारी बड़ी संख्या में मौजूद थे. लोगों से मिलने-जुलने के क्रम में मैं इंडिया टुडे के मालिक अरुण पुरी से टकराया और उन्हें याद दिलाया कि 1984 में अमेरिका से लौटने के बाद नौकरी के सिलसिले में उनसे मिलने का समय लिया था, लेकिन मिला नहीं था. मैंने कहा कि शायद वह मेरी गलती थी. मैंने चावला के फार्म हाउस और कारों पर नजर दौड़ाते हुए कहा कि वे अपने लोगों का बड़ा ध्यान रखते हैं. पुरी ने अंदाज से मुस्कराते हुए कहा, ‘वे अच्छा वेतन देते हैं, लेकिन वह वेतन इतना भी अच्छा नहीं है. प्रभु चावला आखिरकार अपने बूते पर बने व्यक्ति हैं’.

गिरफ्तार पत्रकार शांतनु सैकिया ने लगाया 10,000 करोड़ रुपये के घोटाले का आरोप

सनसनीखेज पेट्रोगेट जासूसी प्रकरण में हिरासत में लिए गये पत्रकार शांतनु सैकिया ने दावा किया है कि वह कम-से-कम 10 हजार करोड़ के घोटाले का कवर-अप ऑपरेशन कर रहा था, लेकिन उसे साजिश के तहत इस मामले में फंसा दिया गया. पुलिस रिमांड के लिए ले जाये जाते समय पुलिस वैन से उतरते हुए उन्होंने पत्रकारों को यह बात चिल्ला कर बतायी. सैकिया ने वहां मौजूद मीडियाकर्मियों से उनके बयान को दिखाये जाने को कहा. पेट्रोलियम मंत्रालय से कई अहम दस्तावेज चुराये जाने के आरोप में गिरफ्तार लोगों में सैकिया भी शामिल है.

हालांकि इस मामले में पुलिस का कहना है कि इन लोगों से जब्त दस्तावेज राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित है. वहीं पेट्रोलियम मंत्री धर्मेद्र प्रधान ने अपने बयान में कहा है कि सैकिया अपने बचाव में ऐसी बातें कह रहा हैं. उन्होंने कहा, ‘उनके पास जो भी सूचना है, उन्हें बताने दीजिये. प्राथमिक आरोप यह है कि किसी ने मंत्रालय से कागजात चुराये. पुलिस मामले की जांच कर रही है. किसी को भी पुलिस को हर चीज बताने का हक है.’ पेट्रोलियम मंत्री ने कहा कि पुलिस स्वतंत्र जांच कर रही है और जांच के बाद सबकुछ स्पष्ट हो जायेगा. कानून अपना काम करेगा, चाहे जो कोई भी हो.

एन के सिंह

वरिष्ठ पत्रकार

फाइलगेट : जांच छुटभैयों तक ही क्यों!

एक ग्रीक कहावत है, ‘फिश रॉट्स फ्रॉम द हेड फस्र्ट.’ यानी मछली पहले सिर की ओर से सड़ना शुरू होती है. यह जासूसी प्रकरण संकेत कर रहा है कि भारत का तंत्र भी शीर्ष से सड़ रहा है. मुश्किल यह है कि हम इसमें पूंछ के पास सड़ांध को सूंघ रहे हैं.

फाइलगेट में पकड़े गये चंद आसाराम या ईश्वर सिंह और बिचौलिये लालता प्रसाद को देख कर अगर हमने यह समझ लिया कि भ्रष्टाचार रुक जायेगा तो यह हमारी भूल होगी. ये तो प्यादे हैं. पिछले 65 वर्षो में हमने इन्हीं को गाहे-ब-गाहे पकड़ कर समझा कि अबकी बार यह आखिरी है. लेकिन, भ्रष्टाचार की यह विषबेल बढ़ती रही, फैलती रही. आज देश की सुरक्षा, अर्थव्यवस्था, विकास सब कुछ इस विषबेल की लपेट में हैं. कॉरपोरेट के जकड़पाश में शासनतंत्र महज सांस ले रहा है. सांस भी इसलिए कि ये कॉरपोरेट घराने उसे महज जिंदा रखना चाहते हैं.

अबकी बार भी हम फिर वही गलती कर रहे हैं मात्र कुछ छुटभैयों को पकड़ कर. यह तो मंत्रालय से गोपनीय कागज ही चुराते थे, उन शीर्ष पदाधिकारियों, नेताओं का क्या जो खुद फैसले लेते हैं और शाम को उनका कोई रिश्तेदार या बड़ी गाड़ियों में घूमनेवाला दलालनुमा व्यापारी किसी पार्टी में धीरे से यह फैसला किसी बड़ी कंपनी के मालिक तक पहुंचा देते हैं.

कुछ साल पहले की बात है. भारत ने सूडान से सस्ता तेल खरीदने का ऑफर स्वीकारा. रातों-रात यह खबर देश के पेट्रोलियम क्षेत्र के कॉरपोरेट हाउस को पहुंची. उसने वह सारा तेल खरीद लिया और भारत सरकार को फिर ऊंचे दाम पर वही तेल लेना पड़ा. आज डर यह है कि भारत की अरबों रुपये की सैन्य खरीद पर विदेशी निर्माताओं की गिद्ध दृष्टि लगी है और कब हमारी जरूरत की गुप्त सूचनाएं कहां पहुंच जायें, इसका भरोसा नहीं.

जो पकड़े गये हैं, उनमें एक पहले पेट्रोलियम मंत्री के पीए के सहायक के रूप में अस्थायी तौर पर मात्र 8,000 रुपये माहवार पर काम कर चुका है. लेकिन, बाद में एक कॉरपोरेट घराने को उसकी ‘प्रतिभा’ का अहसास हुआ और उसे डेढ़ लाख रुपये मासिक वेतन पर अपने यहां रख लिया. तब से आज तक यह व्यक्ति मंत्रालय की गुप्त फाइलें गायब करवाता रहा. अगर एक तृतीय श्रेणी के कर्मचारी में इस घराने को इतनी प्रतिभा दिखती है, तो फैसले अपने पक्ष में करने के लिए बड़े अफसरों या राजनेताओं में उसे कितनी ‘प्रतिभा’ दिखाई देगी, यह समझना मुश्किल नहीं.

अपराध न्यायशास्त्र में गवाह और साक्ष्य चाहिए. रिश्तेदार की पार्टी में किसी से कोई बात धीरे से इशारे में कहना कहां का अपराध है. यह अलग बात है कि रिटायरमेंट के बाद यह अफसर उसी कंपनी में मोटी तन्ख्वाह की नौकरी हासिल कर लेते हैं. पेट्रोलियम मंत्रालय के एक पूर्व सचिव तक इसी रास्ते को अपनाते हैं.

किस तरह सीबीआइ के तमाम निदेशकों से कानपुर के गोश्त व्यापारी और कॉरपोरेट घरानों का मिडिलमैन मोईनुद्दीन कुरैशी की ‘दांत काटी रोटी’ का रिश्ता रहा, यह तब पता लगा जब ब्रिटेन सरकार के राजस्व खुफिया विभाग ने भारत के आयकर विभाग को अलर्ट किया. यानी कॉरपोरेट शिकंजा महज यहां तक ही नहीं है कि उसे कैबिनेट के फैसले, पेट्रोलियम मंत्रालय, प्रतिरक्षा मंत्रालय या वित्त मंत्रालय के अहम फैसले से पता चल जाता है, बल्कि इनमें यह ताकत भी है कि अगर कोई आसाराम कभी फंसता भी है तो ये केस का अनुसंधान या (इनवेस्टीगेशन) या अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) भी कमजोर कर सकने की क्षमता भी रखते हैं.

एक ग्रीक कहावत है, ‘फिश रॉट्स फ्रॉम द हेड फस्र्ट.’ यानी मछली पहले सिर की ओर से सड़ना शुरू होती है. यह जासूसी प्रकरण संकेत कर रहा है कि भारत का तंत्र भी शीर्ष से सड़ रहा है. मुश्किल यह है कि हम इसमें पूंछ के पास सड़ांध को सूंघ रहे हैं.

प्रशासनिक सुधार आयोग ने ‘इथिक्स इन गवर्नेस’ शीर्षक रिपोर्ट संख्या चार में करप्शन के एक नये पहलू की तरफ ध्यान आकृष्ट किया है. आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, भ्रष्टाचार दो तरह के होते हैं. एक सत्ता का भय दिखाना (कोएरसिव) और दूसरा सहमति जनित (कोल्यूसिव) किस्म का. सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के जिस सर्वे का हमने जिक्र किया, उसमें लिये गये भ्रष्टाचार के मामले भयादोहन की श्रेणी में आते हैं, जिसमें गरीब तबके से सरकारी अमला काम ना करने, काम में ढिलाई करने, दबाव या बहाने बनाकर पैसे ऐंठता है.

इस तरह के भ्रष्टाचार से सबसे ज्यादा प्रभावित समाज का कमजोर तबका होता है. ऐसा माना जाता है कि प्रक्रियात्मक सुधार करके इस तरह के भ्रष्टाचार को काफी हद तक दूर किया जा सकता है. लेकिन दूसरे किस्म का भ्रष्टाचार, जिसमें घूस देने वाला और घूस लेने वाला एक समझौते पर होते हैं, कानून के शिकंजे से बच निकलता है.

चूंकि यह चोर-चोर मौसेरे भाई किस्म का भ्रष्टाचार समाज के लिए बेहद घातक है, लिहाजा आयोग ने भ्रष्टाचार निरोधक कानून में इसके लिए एक अलग श्रेणी बनाने की ही बात नहीं की, बल्कि यह भी कहा कि इस तरह के भ्रष्टाचार के आरोपियों को अन्य किस्म के भ्रष्टाचार के आरोपियों से अलग देखना चाहिए और इनकी सजा दूनी होनी चाहिए. टूजी स्पेक्ट्रम घोटाला, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला, आदर्श बिल्डिंग घोटाला इस श्रेणी के भ्रष्टाचार में आते हैं. यही वजह है कि जहां भयादोहन वाले भ्रष्टाचार में अदालत से मिलनेवाली सजा की दर ज्यादा है, वहीं दूसरे किस्म के भ्रष्टाचार में घूस देने वाला, घूस लेने वाला दोनों ही बच निकलते हैं. कहना न होगा कि भारत में सबसे ज्यादा खतरा इस दूसरे किस्म के भ्रष्टाचार से है, जिसमें पूरा समाज न कि एक व्यक्ति इसका शिकार होता है.

1980 के दशक में आठ बड़े घोटाले हुए. उदारीकरण शुरू होने के पहले छह सालों में उनकी संख्या 26 हो गयी और नवउदारवादी व्यवस्था में 2005 से 2008 के तीन सालों में 150 बड़े घोटाले हुए. 64 करोड़ रुपयों के बोफोर्स घोटाले ने सरकार पलट दी. उस समय जबरदस्त आक्रोश दिखाई दिया, लेकिन 1992 के हर्षद मेहता के तीन हजार करोड़ के घोटाले, जानकी रमन रिपोर्ट ने हमें बेचारगी का भाव लाने पर मजबूर किया.

1991 से 1999 तक शुरू के आठ सालों में ढाई हजार कंपनियां स्टॉक मार्केट में आयीं और जनता का हजारों करोड़ लूटकर चलती बनीं. सिस्टम निर्विकार भाव से देखता रहा. यूरिया घोटाला, यूटीआइ घोटाला, तेलगी घोटाला होता रहा और समाज का मध्यम वर्ग उपभोक्ता-संस्कृति के एक नये राह पर चल पड़ा. जहां सत्यम घोटाला (2009) 7,500 करोड़ रुपये का था, वहीं लगभग उसी काल में टूजी स्पेक्ट्रम और कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाले हजारों से लाखों करोड़ तक पहुंच गये. इस बीच आदर्श घोटाला होता है, मधु कोड़ा घोटाला होता है, सिटी बैंक फ्रॉड होता है.

दबी आवाजों में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों पर आरोप लगते रहे, हाइकोर्ट के दो जजों के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया का आगाज होने लगा, भविष्य निधि घोटाले में यूपी के हाइकोर्ट के कुछ न्यायाधीशों पर आरोप लगा. मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया का घोटाला, आइपीएल का घोटाला, सुखना जमीन घोटाला परवान चढ़े. राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में उत्तर प्रदेश में जनता के स्वास्थ्य के लिए भेजे गये 8,500 करोड़ रुपये में 6,000 करोड़ भ्रष्टाचार की बलि चढ़ गये.

दो सीएमओ और एक डिप्टी सीएमओ मारे गये. मनरेगा का पैसा मरे हुए आदमियों से काम करा कर अधिकारियों की जेब में जाता रहा. इन सबके बावजूद हमारी क्रांति की रगें निष्प्राण बनी रहीं और सत्ता में बैठे लोग ‘भारत महान’ की बांग देते रहे.

दरअसल, भ्रष्टाचार हमारे डीएनए में है. आज प्रश्न यह नहीं है कि कोई ए राजा है, कोई कलमाड़ी है, बल्कि प्रश्न यह है कि कौन कलमाड़ी और ए राजा नहीं है? ऐसा माना जा रहा है कि या तो वह पकड़ा नहीं गया है या फिर कुछ मानसिक दोष है, जिसके तहत वह अभी भी ईमानदार है. जो नैतिक है वह जरूर किसी मनोविकार से पीड़ित है और जो डीएनए को भी दगा दे रहा है.

एक लाख करोड़ का घोटाला होता है तब सरकार की तरफ से बयान आता है कि सीएजी (नियंत्रक-महालेखा परीक्षक) को मीडिया में जाने का अधिकार ही नहीं है. फिर कहा जाता है कि ये आंकड़े नोशनल (काल्पनिक) हैं. और फिर आता है पौने चार लाख करोड़ का खाद्य घोटाला. फिर सीएजी की रिपोर्ट पर सरकार प्रश्न उठाती है. देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि भ्रष्टाचार को लेकर सरकार में ‘शून्य सहिष्णुता’ (जीरो टॉलरेंस) होगी, लेकिन क्या फाइलगेट की जांच किसी आसाराम या लालता प्रसाद तक ही महदूद रहेगी या शीर्ष तक भी जायेगी. याद रहे मछली के सड़ने की पहचान सिर की बदबू से होती है न कि पूंछ सूंघ कर.

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