इस अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर संयुक्त राष्ट्र ने सारी दुनिया से यह आह्वान किया है कि इस दिन को इस रूप में पेश किया जाना चाहिए, जिससे सबको यह संदेश मिले कि महिला सशक्तीकरण का अर्थ है मानवता का सशक्तीकरण. संयुक्त राष्ट्र ने दुनिया के सामने यह लक्ष्य रखा है कि साल 2030 तक स्त्री-पुरुष अनुपात को बराबरी के स्तर तक लाकर लैंगिक समानता के लक्ष्य को हासिल किया जाना चाहिए.
लेकिन, यह काम तब तक संभव नहीं है, जब तक हम अपने समाज को स्त्री-विरोधी सभी रूढ़िवादी विचारों से मुक्त करके स्त्री-पुरुष समानता के आधार पर एक स्वस्थ समाज का निर्माण नहीं करते. आज का दिन इसी की शपथ लेने का दिन है..
स्त्रियों को खुद आगे आना होगा
मैं सदा कहता आया हूं कि जब तक सार्वजनिक जीवन में भारत की स्त्रियां भाग नहीं लेती, तब तक हिंदुस्तान का उद्धार नहीं हो सकता. सार्वजनिक जीवन में वही भाग ले सकेंगी, जो तन और मन से पवित्र है. जिनके तन और मन एक ही दिशा में-पवित्र दिशा में चलते जा रहे हों. जब तक ऐसी स्त्रियां हिंदुस्तान के सार्वजनिक जीवन को पवित्र न कर दें, तब तक राम राज्य संभव नहीं है. जब स्त्री जाति हम पुरुषों के जाल से मुक्त होकर अपनी आवाज बुलंद करेगी और जब वह अपने लिए बनाये पुरुष कृत विधि विधानों के खिलाफ बगावत का झंडा खड़ा करेंगी, तब उसका वह बलवा- शांतिमय होने पर भी- किसी तरह कम कारगर न होगा.
पुरुषों ने स्त्रियों की जो उपेक्षा की है, उनका जो दुरुपयोग किया है, उसके लिए उन्हें पर्याप्त प्रायश्चित करना ही है. मगर सुधार का रचनात्मक कार्य तो उन्हीं बहनों को करना पड़ेगा, जो अंधविश्वास को छोड़ चुकी हैं और जिन्हें इस बुराई का ख्याल हो आया है. यह सही है कि हिंदुस्तान की स्त्रियों में किसी भी कुप्रथा के विरुद्ध युद्ध करने की शक्ति शेष नहीं रह गयी है. इसमें शक नहीं कि समाज की ऐसी स्थिति के लिए मुख्यत: पुरुष जिम्मेवार हैं. लेकिन, क्या स्त्रियां सारा दोष पुरुषों के माथे मढ़ कर अपनी आत्मा को हल्का रख सकती हंै?
सरला माहेश्वरी
पूर्व सांसद एवं लेखिका
भारत में समाज-सुधार के गौरवशाली इतिहास के बावजूद आज भी सच्चाई यही है कि हमारा समाज पुरातन स्त्री-विरोधी रूढ़िवादी विचारों से मुक्त नहीं हुआ है. इसी के चलते उस मानसिकता का जन्म होता है, जो निर्भया के बलात्कारी की मानसिकता है..
जर्मनी की विश्व प्रसिद्ध मार्क्सवादी सिद्धांतकार और महिलाओं के हितों की लड़ाई की एक अथक योद्धा रही हैं क्लारा जेटकिन. सन् 1911 में उन्होंने ही आठ मार्च के दिन पहले अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का पालन किया था. 8 मार्च, 1908 को न्यूयॉर्क की पंद्रह हजार से भी ज्यादा महिलाओं ने काम की दयनीय परिस्थितियों तथा पुरुषों की तुलना में कम वेतन के खिलाफ और मताधिकार की मांग को लेकर एक हड़ताल का पालन किया था.
प्रथम विश्वयुद्ध की पूर्व संध्या पर 1910 में डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में समाजवादी महिलाओं के द्वितीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में युद्ध और सैन्यवाद, भूख और गरीबी के खिलाफ कई प्रस्ताव पारित किये गये थे. उसी सम्मेलन के मंच से क्लारा जेटकिन ने ट्रेड यूनियन आंदोलन की दूसरी महिलाओं के साथ मिल कर यह आह्वान किया था कि महिलाओं के खिलाफ जुल्मों के प्रतिरोध के लिए सारी दुनिया में उसी प्रकार अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का पालन किया जाना चाहिए, जिस प्रकार 1 मई के दिन अंतरराष्ट्रीय श्रम दिवस का पालन किया जाता है. उस सम्मेलन ने जेटकिन के प्रस्ताव को सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया था, लेकिन तब भी कोई दिन निश्चित नहीं किया गया था.
इसके बाद क्लारा जेटकिन ने ही अपनी पहल पर न्यूयॉर्क की महिलाओं के 8 मार्च के दिन के संघर्ष को याद करते हुए 8 मार्च, 1911 को जर्मनी में पहले अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का पालन किया और तभी से दुनिया की सबसे अधिक प्रताड़ित आधी आबादी को न्याय और सम्मान दिलाने के लिए संघर्ष के दिन के तौर पर इसे विश्व भर में मनाया जाता है.
सन् 1908 के बाद से अब तक 107 साल पूरे हो चुके हैं. 1908 में न्यूयॉर्क की महिलाओं ने जिन मांगों के लिए हड़ताल का पालन किया था, उनमें समान वेतन की मांग के साथ ही एक प्रमुख मांग थी- काम की परिस्थितियों में सुधार की मांग. इन 107 वर्षो में गंगा में बहुत सारा पानी बह चुका है. पहले विश्वयुद्ध और दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से अब तक दुनिया वह नहीं रही है, जो तब हुआ करती थी. दुनिया में सामाजिक गैर-बराबरी के बारे में हाल में आये थामस पिकेटी के ऐतिहासिक अध्ययन से भी पता चलता है कि तमाम प्रतिकूलताओं के बीच भी अन्य गैर-बराबरियों की तरह ही लैंगिक गैर-बराबरी का ग्राफ भी हमेशा एक-सा नहीं रहा है.
दुनिया की राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार इसमें उतार-चढ़ाव दिखाई देता है. जिस दौर में भी दुनिया व्यापक राजनीतिक उथल-पुथल के बीच से गुजरी है, सामाजिक गैर-बराबरी में कमी आयी है और जब भी पूंजी का प्रभुत्व बिना किसी बाधा के बढ़ता चला गया है, सामाजिक गैर-बराबरी भी उसी अनुपात में बढ़ती चली गयी है. दोनों विश्वयुद्धों और समाजवादी शिविर के उदय और यहां तक कि शीत युद्ध के काल में भी गैर-बराबरी का ग्राफ अबाध रूप से बढ़ा नहीं, बल्कि उसमें कुछ कमी या ठहराव आया था. लेकिन, इन्हीं अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि 1990 के बाद के एकध्रुवीय विश्व की इस चौथाई सदी में आधुनिकता की सारी लंबी-चौड़ी बातों के बावजूद, आज एक बार फिर सामाजिक गैर-बराबरी में तेजी से वृद्धि के खतरनाक संकेत मिलने लगे हैं. जाहिर है कि इसमें लैंगिक गैर-बराबरी के भी तेजी से बढ़ने का खतरा शामिल है.
आज जब हम अपने देश को देखते हैं, तो 107 साल पहले काम की परिस्थितियों की जिस समस्या को न्यूयॉर्क की महिलाओं ने उठाया था, वह हमारे देश की कामकाजी महिलाओं के लिए आज भी एक सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है. काम का ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है, जिसमें महिलाओं के साथ र्दुव्यवहार आम बात न हो. यहां तक कि न्यायपालिका से लेकर पत्रकारिता की तरह के अपेक्षाकृत जागरूक और पवित्र माने जानेवाले क्षेत्रों में भी महिला कर्मचारियों के साथ बदसलूकी की खबरें अखबारों में अकसर आती रहती है. कॉरपोरेट क्षेत्र की तो यह एक सामान्य बीमारी है.
अभी निर्भया कांड और उसके फांसी की सजा पाये एक अपराधी के जिस साक्षात्कार को लेकर संसद और पूरे देश में हंगामा हो रहा है, उसमें भी एक बात खुल कर सामने आ रही है कि उस अपराधी ने जो जघन्य बातें कही हैं, वे कोई नयी बातें नहीं हैं. राजनीति से लेकर समाज के दूसरे सभी क्षेत्रों के प्रभावशाली लोग तक स्त्रियों के प्रति उन्हीं प्रकार की बातों को दोहराते हुए पाये जाते हैं. मसलन, स्त्रियों को एक समय के बाद घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए, उन्हें अपनी पोशाक के मामले में सावधानी बरतनी चाहिए, क्योंकि इन सबसे पुरुषों को बलात्कार करने की उत्तेजना मिलती है आदि, आदि.
और, इस प्रकार, प्रकारांतर से स्त्रियों को ही उनके बलात्कार के लिए दोषी बताने की दलीलें संसद के अंदर और बाहर, लगभग हर जगह और हमेशा सुनाई देती रही हैं. तमाम प्रकार के धार्मिक संगठनों के नेता तो इस मामले में सबसे अधिक आगे दिखाई देते हैं.
दुनिया के धर्मशास्त्रों में भी ऐसी अनेक बातें पायी जाती हैं, जो स्त्रियों की स्वतंत्र मानवीय अस्मिता के विपरीत नजर आती हैं. भारत की प्राचीन संहिताओं में तो ऐसे असंख्य उदाहरण भरे हुए हैं. इसीलिए सारी दुनिया में जनतंत्र के विकास के स्तर के एक मानदंड के रूप में स्त्रियों के विकास को भी माना जाता है.
तदनुरूप दुनिया में स्त्रियों की समानता के अधिकारों को लेकर आधुनिक कानूनी प्राविधानों का भी अपना एक पूरा इतिहास है. उस इतिहास के पूरे ब्योरे में जाने के बजाय, यहां हम सिर्फ यही कहना चाहेंगे कि भारत में भी, स्त्रियों की समानता की कानूनी व्यवस्थाओं का समान रूप से एक लंबा इतिहास रहा है, जिसमें भारतीय नवजागरण के अग्रदूत राजा राममोहन राय से लेकर ईश्वरचंद विद्यासागर और नवजागरण के दूसरे सभी पुरोधाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. यही वजह थी कि भारत स्त्रियों को समान मताधिकार देनेवाले दुनिया के देशों की अग्रिम कतार में शामिल नजर आता है. गांधीजी ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को स्त्रियों के मानवाधिकार के आंदोलन से अभिन्न रूप में जोड़ दिया था.
भारत की स्वतंत्रता और समाज-सुधार के इस गौरवशाली इतिहास के बावजूद आज भी सच्चाई यही है कि हमारा समाज पुरातन स्त्री-विरोधी रूढ़िवादी विचारों से मुक्त नहीं हुआ है. इसी के चलते उस मानसिकता का जन्म होता है, जो निर्भया के बलात्कारी की मानसिकता है. अभी बीबीसी के लिए लेसली उडविन की फिल्म ‘भारत की बेटी’ (इंडियाट’ज डॉटर) के संदर्भ में भारत सरकार का जो हड़बड़ीपूर्ण रवैया देखने को मिला, वह भी हमारे समाज पर चरम रूढ़िवादी शक्तियों की जकड़ का ही उदाहरण है.
भारत का अनुभव यह है कि पंजाब, हरियाणा की तरह के जो प्रदेश प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से आगे हैं, उन्हीं प्रदेशों में स्त्री-पुरुष अनुपात का सबसे बुरा है. हाल में ‘वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम’ द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, 2014 की स्त्री-पुरुष अंतर सूचकांक में भारत का स्थान दुनिया के 142 देशों में 114वां है, जबकि बांग्लादेश का स्थान 65वां है. सिर्फ एक दशक पहले तक 2006 में भारत का स्थान 96वां था, जो 2010 में गिर कर 112 पर पहुंच गया. वही गिरावट आज तक जारी है.
इकोनॉमिक फोरम की इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘आम लोग और उनकी योग्यताएं ही दीर्घकालीन टिकाऊ विकास के प्रमुख चालक होते हैं. यदि उनकी प्रतिभाओं का आधा हिस्सा अविकसित रह जाता है या उसे पूरा काम में नहीं लगाया जाता है, तो अर्थव्यवस्था कभी भी वांछित रूप में विकसित नहीं हो सकती है.’
इस बार आठ मार्च के अवसर पर संयुक्त राष्ट्र ने सारी दुनिया से यह आह्वान किया है कि इस दिन को इस रूप में पेश किया जाना चाहिए, जिससे सबको यह संदेश मिले कि महिला सशक्तीकरण का अर्थ है मानवता का सशक्तीकरण. इस वर्ष के अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर संयुक्त राष्ट्र का यही मुख्य नारा भी है. गौर करने की बात यह है कि जिस समय इस बात का आह्वान किया जा रहा है कि महिला सशक्तीकरण को मानव सशक्तीकरण का पर्याय बताते हुए उसे सबके सामने प्रदर्शित किया जाये, उसी समय हमारे देश में एक ऐसी फिल्म पर सरकार ने पाबंदी लगा दी है, जिसमें एक महिला पर बलात्कार और उसकी हत्या के बाद उसके प्रतिवाद में गूंज उठी भारत की सड़कों का एक जीवंत चित्र पेश किया गया है.
संयुक्त राष्ट्र की महिला कार्यकारी निदेशक फ्लुमजिलो मिलाम्बो नूको ने दुनिया के सामने यह लक्ष्य रखा है कि साल 2030 तक स्त्री-पुरुष अनुपात को बराबरी के स्तर तक लाकर लैंगिक समानता के लक्ष्य को हासिल किया जाना चाहिए. यह काम तब तक संभव नहीं है, जब तक हम अपने समाज को स्त्री-विरोधी सभी रूढ़िवादी विचारों से मुक्त करके स्त्री-पुरुष समानता के आधार पर एक स्वस्थ समाज का निर्माण नहीं करते. आज का दिन इसी की शपथ लेने का दिन है.
भारत में महिला सशक्तीकरण : सरकारी आकलन
नारीशक्ति को बेड़ियों से मुक्त करना होगा
महिलाओं महिलाओं की स्थिति और उनके साथ किये जानेवाले व्यवहार में सुधार लाना विकास की प्रमुख चुनौती है. थोड़े समय के लिए परिवार नियोजन लक्ष्यों और प्रोत्साहनों के प्रावधान, महिला नसबंदी पर अनपेक्षित ध्यान केंद्रित करते हैं. माननीय प्रधनमंत्री जी ने 22 जनवरी, 2015 को हरियाणा के पानीपत से बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ अभियान की शुरुआत की थी. इस अभियान का उद्देश्य भारतीय समाज द्वारा लड़कियों को कमतर आंकने की सोच में सकारात्मक बदलाव लाना है.
भारतीय समाज में लड़कियों के साथ भेदभाव करने की परस्पर विरोधी सोच विद्यमान है. एक तरफ तो भारत में महिला राष्ट्रपति और महिला प्रधानमंत्री के रूप में जानीमानी महिलाएं हुई हैं तथा राष्ट्रीय और राज्य स्तरों पर बड़े राजनीतिक दलों की प्रमुख भी महिलाएं हैं. इसके अलावा कई महिलाएं कैबिनेट रैंक के मंत्रीपद तक पहुंची हैं तथा कई महिलाएं उद्योग प्रमुख, विशेषकर बैंकिंग क्षेत्र में, हुई हैं.
इसके बावजूद यूएनडीपी की अद्यतन मानव विकास रिपोर्ट-2014 के अनुसार, मानव विकास सूचकांक (एचडीआइ) में 187 देशों में भारत 135वें स्थान पर है और लिंग असमानता सूचकांक (जीआइआइ) में भारत का स्थान 152 देशों में 127वां है. जीआइआइ स्त्री और पुरुष के बीच उपलब्धियों में असमानता दर्शानेवाले समग्र उपायों को तीन प्रकार- प्रजनन स्वास्थ्य, अधिकारिता और श्रम बाजार के आधार पर देखता है. इसके अनुसार, भारत एचडीआइ पर सभी देशों से 25 प्रतिशत नीचे है और जीआइआइ में तो यह प्रतिशत और भी गिर कर 20 प्रतिशत ही रह जाता है.
इसके अलावा भारत में लड़कों की तुलना में लड़कियों की जन्मदर सापेक्षतया पूरी दुनिया में कम है और 2001 में जहां यह गिरावट एक हजार लड़कों की तुलना में 927 लड़कियां थीं, वहीं 2011 में एक हजार लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या 918 ही रह गयी. चीन उन कुछ देशों में ऐसा देश है, जहां लड़कों की तुलना में लड़कियों की जन्मदर और भी कम है.
बिलासपुर, छत्तीसगढ़ में नवंबर 2014 में हुई त्रसदी, जिसमें 13 युवा महिलाओं की मौत हो गयी थी, जिनके बहुत ही छोटे-छोटे बच्चे थे और 45 महिलाएं गंभीर रूप से बीमार हो गयी थीं, एक ऐसी विशिष्ट और गंभीर समस्या- महिला नसबंदी- की ओर इशारा करती है, जिस पर तत्काल ध्यान दिये जाने की जरूरत है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की तीसरे दौर की रिपोर्ट ‘एनएफएचएस-3, 2005-06’ में बताया गया है कि तमिलनाडु और महाराष्ट्र जैसे विकसित राज्यों में महिला नसबंदी 90 प्रतिशत है और सभी गर्भ निरोधकों की प्रतिशतता 76 है. तमिलनाडु और महाराष्ट्र दोनों राज्यों में महिला नसबंदी की औसत आयु 24.9 वर्ष सूचित की गयी है.
ऐसा लगता है कि बढ़ती जनसंख्या को नियंत्रित करने पर विशेषकर महिलाओं पर केंद्रित नये ढंग से ध्यान केंद्रित किया गया है और जिस साधन को अपनाया गया है, उसे अपनाने में अनुरोध और जबरदस्ती के बीच की रेखा धुंधली हो जाती है. अनुरोध नसबंदी और नसबंदी के लिए न केवल गरीब दंपत्तियों को प्रोत्साहन के रूप में किया जाता है, बल्कि स्थानीय निकायों के कार्य निस्पादन के लिए उन्हें पुरस्कार के रूप में प्रोत्साहित भी किया जाता है.
इसे संवर्धनपरक और प्रेरणादायी नारे के रूप में वर्णित किया गया है. परिणामस्वरूप महिला नसबंदी के लिए बड़े-बड़े कैंप लगाये जाते हैं. भारत की जनसंख्या नीति परिवार नियोजन उपायों, विशेषकर महिलाओं संबंधी गर्भ निरोधकों, उन्हें प्रजनन का मामूली विकल्प अथवा स्वायत्तता के साथ विस्तार करने पर ध्यान केंद्रित किया गया प्रतीत होता है.
वर्ष 2012-13 के दौरान किये गये कुल नसबंदी आपरेशनों में दूरबीन नसबंदी की संख्या 97.4 प्रतिशत रही, जबकि पुरुष नसबंदी आपरेशनों, कम जटिल जोखिम के बावजूद, की संख्या केवल 2.5 प्रतिशत रही. महिला नसबंदी के प्रति सरकारी व्यय की स्थिति भी सही नहीं है. वर्ष 2013-14 के दौरान परिवार नियोजन के लिए निर्धारित 397 करोड़ रुपये की बजट राशि में से 85 प्रतिशत (338 करोड़) राशि महिला नसबंदी पर ही खर्च कर दी गयी. तुलना करें, तो पायेंगे कि कुल बजट का 1.5 प्रतिशत स्पेसिंग तरीकों पर खर्च किया गया और 13 प्रतिशत बुनियादी ढांचे और संचार पर खर्च किया गया.
अधिकांशतया जन्मदर नियंत्रण पर ध्यान देनेवाली जनसंख्या नियंत्रण नीति को बढ़ावा देने में आनेवाली नकारात्मक बातों से शिशुलिंग अनुपात में गिरावट आयी है. यदि प्रत्येक परिवार में कम बच्चे हों, तो मन में यह भावना अधिक बलवती रहती है कि परिवार में कम से कम एक लड़का तो होना ही चाहिए.
ऐसे में सरकार के सामने क्या करें और कैसे करें की स्थिति आ जाती है. उदाहरण के लिए लक्ष्य निर्धारित किये बिना (इएलए अथवा उपलब्धि के अपेक्षित स्तर), महिला नलबंदी और नसबंदी अभियान शिविरों संबंधी प्रोत्साहनों को वापस लेना.
इसके अलावा सरकार निम्नलिखित कार्य कर सकती है:-
(1) भारत में परिवार नियोजन कार्यक्रम की समीक्षा करना, ताकि यह महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य अधिकारों और भारत की जनसंख्या संबंधी जरूरतों के बीच सामंजस्य बैठाया जा सके.
(2) गुणवत्तापूर्ण सेवाओं, स्टैटिक परिवार नियोजन क्लिनिकों और गुणवत्तापूर्ण मानीटरिंग और पर्यवेक्षण के लिए बजट बढ़ाना.
(3) युवाओं की जरूरतों को पूरा करना, यौन स्वास्थ्य के लिए अधिक परामर्शदाताओं को लेना, ऐसी सेवाएं प्रदान करना, जो युवाओं के लिए अधिक अनुकूल हो और स्पेसिंग मैथड की पर्याप्त आपूर्ति करना.
(वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा 27 फरवरी, 2015 को संसद में पेश आर्थिक समीक्षा, 2014-15 से)
मातृसत्तात्मक व्यवस्था बेहतर?
क्या मातृसत्तात्मक व्यवस्था में विवाह-संस्था अधिक सुदृढ़ और समर्थ होती? यदि ऐसा होता, तब हमारा समाज भ्रूण हत्या, दहेज हत्या एवं बलात्कार जैसे अपराधों से कितना मुक्त होता?
हां. मानव-संस्कृति की शुरुआत मातृ-सत्तात्मक व्यवस्था से हुई थी, क्योंकि स्त्री के पास ही गर्भ-धारण करने का और एक नये जीव को इस पृथ्वी पर लाने का अधिकार है. किंतु जैसे-जैसे समय व्यतीत होता गया, पुरुष ने गौर किया कि स्त्री शारीरिक संरचना में कमतर और कोमल है. उसको मासिक-धर्म, जन्म देते समय कष्ट सहने पड़ते हैं और तब वह कमजोर हो जाती है. शिकार करते समय और दुश्मनों के साथ लड़ाई में भी उसका काम नहीं होता, तो उसका वर्चस्व क्यों?
पुरुष वर्चस्व का नशा इक्कीसवीं सदी तक ऐसा बढ़ गया है कि स्त्रियों का शिक्षित-सक्षम-आत्मनिर्भर होना, उनका बौद्धिक और आक्रामक होना, उनका दमन व अवमानना को नकारना पुरुष सत्ता को चुभने लगा है. ऐसी संस्थाएं येन-केन-प्रकारेण स्त्री को काबू करना चाहती है. और इसकी सबसे सटीक लाठी है स्त्री को अपमानित करना. बलात्कारी पुरुष प्रेमी, पति. सगा-संबंधी या अराजक तत्व भी हो सकता है, लेकिन निष्पात एक ही है- उसके निजत्व के सम्मान को चोट पहुंचाना. मातृ-सत्तात्मक समाज में ऐसे उदाहरण काफी कम मिलते हैं.
हमारे देश में ही केरल, पूर्वोत्तर के प्रदेश और कुछ कबीलाइ गुटों में यह व्यवस्था आज भी लागू है. चूंकि ऐसे समाज की स्त्रियां अपनी अस्मिता और आत्मनिर्भरता पर वर्चस्व करती है, इसलिए वे समाज की दूसरी स्त्रियों के प्रति अधिक संवेदनशील और उदार हैं. वे उनकी समस्याएं अधिक संवेदनशीलता से समझ सकती हैं और मददगार व उदार होती हैं. पुरुष अहमन्यता को नकारती वह स्त्री-भ्रूण-हत्या को तरजीह नहीं देकर स्त्री को अवसाद से बचा लेती हैं और ऐसा समाज एक बेहतर मानव-संस्कृति का उदाहरण पेश करता है, जो सराहनीय है. त्न शीला रोहेकर, यहूदी मूल की वरिष्ठ हिंदी रचनाकार.
नहीं. मातृसत्तात्मक व्यवस्था में भी पूंजी का नियंत्रण पुरुषों के ही हाथ में रहता है. बीना अग्रवाल की पुस्तक ‘ए फील्ड ऑफ ओन’ पढ़ लें. यह किताब दक्षिण एशिया के देशों में महिलाओं की आर्थिक स्थिति के बारे में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है. सामाजिक- आर्थिक-राजनीतिक सत्ता पर, वहां भी पुरुषों का ही कब्जा और कानून लागू है. संसद और विधानसभा में मर्दो का बहुमत है, सो वे ऐसा कोई कानून नहीं बनायेंगे, जो उनकी जड़ों में मट्ठा डालने का काम करे.
‘महिला आरक्षण विधेयक’- अभी नहीं, कभी नहीं. सारे कानून मर्दो के हितों और वर्चस्व को बनाये-बचाये रखनेवाले ही बने-बनाये गये हैं. हालांकि, ढिंढोरा पीटा जाता है कि ‘स्त्री सशक्तीकरण’ के लिए, संसद और विधानसभा ने ना जाने कौन-कौन से बिल पारित किये हैं. वास्तविकता यह है कि दांपत्य में यौन संबंधों के बारे में सदियों पुराने कानून, सामंती सोच और सीलन भरे संस्कारों में, कोई बदलाव नहीं हो पा रहा. मालूम नहीं इस सवाल पर सबने क्यों ‘मौनव्रत’ धारण कर लिया है.
मातृसत्तात्मक व्यवस्था वाले राज्यों में भी अपराधियों का राजनीतिकरण बढ़ा है. राजनीति में वहां भी, स्त्रियां परिधि पर हैं और निर्णायक स्थलों पर उनकी भूमिका गौण ही है. मेरे विचार से स्त्री के दमन, उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ कानून बनने-बनाने में बड़ी बाधा है- राजनीति व सत्ता में ‘मर्दवादी’ नेताओं की षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी और अपने अधिकारों के प्रति स्त्री आंदोलन का दिशाहीन भटकाव. 67 साल से दमित, शोषित आत्माओं की चीत्कार, न संसद को सुनाई देती है और न ही कोर्ट तक पहुंच पाती है. इसे (आधी दुनिया) का दुर्भाग्य कहूं या अपने ही पिता-पति और पुत्र का षड्यंत्र?
अरविंद जैन, स्त्री और यौन हिंसा पर महत्वपूर्ण काम.
(हिंदी पत्रिका ‘निकट’ से साभार)