अर्थव्यवस्था को नया रूप दे रहे भारतीय स्टार्टअप्स
भारत में इस समय करीब 3,100 स्टार्टअप हैं, जिनमें से 800 ऐसे हैं, जो 2014 में शुरू हुए हैं. एक अध्ययन के अनुसार, इनका कुल जमा उत्पाद 60 हजार करोड़ रुपये का है और ये सीधे तौर पर दो लाख से ज्यादा लोगों को नौकरियां प्रदान करते हैं. ये कुछ परंपरागत उद्योगों को भी बड़े […]
भारत में इस समय करीब 3,100 स्टार्टअप हैं, जिनमें से 800 ऐसे हैं, जो 2014 में शुरू हुए हैं. एक अध्ययन के अनुसार, इनका कुल जमा उत्पाद 60 हजार करोड़ रुपये का है और ये सीधे तौर पर दो लाख से ज्यादा लोगों को नौकरियां प्रदान करते हैं. ये कुछ परंपरागत उद्योगों को भी बड़े पैमाने पर बढ़ावा दे रहे हैं.
इस प्रकार ये स्टार्टअप्स अर्थव्यवस्था को एक नया रूप दे रहे हैं. इसी के मद्देनजर 2015-16 के बजट में केंद्र सरकार ने स्टार्टअप्स को बढ़ावा देने के लिए अलग से फंड की व्यवस्था की है. भारत में स्टार्टअप्स की कामयाबी की राह और उसमें पेश आनेवाली चुनौतियों पर नजर डालने के साथ-साथ हिंदी के प्रकाशकों, लेखकों और पाठकों को नया मंच प्रदान कर रही एक वेबसाइट की कहानी पेश कर रहा है आज का नॉलेज.
दिव्येंदु शेखर
बिजनेस कंसल्टेंट
वर्ष 2015-16 का बजट कुछ मामलों में काफी अलग है. इसका मुख्य कारण सरकार का कुछ ऐसे उद्योगों एवं कारोबारियों की तरफ ध्यान देना है, जो पिछले कुछ वर्षो में भारत में तीव्र गति से बने और बढ़े हैं. हालांकि, 2015 के बजट में वित्त मंत्री ने इस वर्ग के लिए 1,000 करोड़ रुपये की ‘सेतु निधि’ के अलावा कुछ और नहीं दिया है, लेकिन यह देखना लाजमी है कि सरकार ने इस वर्ग को अंतत: मान्यता एवं प्रोत्साहन तो प्रदान किया है.
स्टार्टअप्स (यानी किसी नये कारोबारी विचार या व्यवसाय की जमीनी शुरुआत) नये तथा युवा कारोबारियों की वह पहल है, जिसने भारतीय समाज तथा उद्योग को एक नयी दिशा प्रदान की है. खास बात यह है कि इसमें ज्यादातर युवा मध्यम वर्ग से आते हैं और जिनका कोई कारोबारी परिवेश या बैकग्राउंड नहीं रहा है. इससे पहले कि हम इन कारोबारियों की जरूरतों तथा बजट में उनके लिए किये गये प्रावधानों को समङों, यह जानते हैं कि ये स्टार्टअप्स भारत की अर्थव्यवस्था को कैसे बदल रहे हैं.
भारत में इस समय करीब 3,100 स्टार्टअप हैं, जिनमें से 800 ऐसे हैं, जो 2014 में शुरू हुए हैं. एक अध्ययन के अनुसार, इनका कुल जमा उत्पाद 60 हजार करोड़ रुपये का है और ये सीधे तौर पर दो लाख से ज्यादा लोगों को नौकरियां प्रदान करते हैं. इसके अलावा, ये कुछ परंपरागत उद्योगों को भी बड़े पैमाने पर बढ़ावा दे रहे हैं.
पिछले कुछ वर्षो में स्टार्टअप्स ने कोरियर, गोदाम, पैकेजिंग तथा फैशन जैसे उद्योगों को भारी पैमाने पर बड़ा बनने में सहायता की है. भारत के सबसे बड़े स्टार्टअप्स ‘फ्लिपकार्ट’ ने अकेले वर्ष 2015 के दौरान 10,000 करोड़पति बनाने का लक्ष्य रखा है. ये वे छोटे व्यवसायी होंगे, जो फ्लिपकार्ट के माध्यम से अपना माल पूरे भारत में बेच पायेंगे. इसी प्रकार से ‘मेकमाइट्रिप’ ने भी घरेलू महिलाओं और छोटे दुकानदारों को अपने साथ जोड़ कर भारी तादाद में रोजगार पैदा करने का लक्ष्य रखा है. भारत आज दुनियाभर में फ्लिपकार्ट, स्नैपडील, मेकमाइट्रिप, इनमोबी जैसे स्टार्टअप्स के लिए भी जाना जाता है.
अब देखते हैं कि इन स्टार्टअप्स को मूलभूत रूप से किस तरीके की समस्यायों से जूझना पड़ता है. ये समस्याएं बड़ी इसलिए भी हैं, क्योंकि ये सरकार के द्वारा सिर्फ बजट आवंटन से नहीं, बल्कि बड़े पैमाने पर नीतिगत बदलावों से ही आयेंगी.
नीतिगत और नियामक मुद्दे
ज्यादातर स्टार्टअप्स छोटे-मोटे तथा मध्यमवर्गीय युवाओं द्वारा चलाये जाते हैं. कंपनी के निर्माण से लेकर उसकी रोजाना की जरूरतों के लिए रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज और कॉरपोरेट मामलों के मंत्रलय के पास भागदौड़ करना काफी खर्चीला एवं समय बरबाद करने का काम है.
मोटे तौर पर यदि कहा जाये तो एक छोटी कंपनी बनाने में 50 हजार से लेकर एक लाख रुपये तक का खर्च होता है. यह रुपया इस युवा की जेब से जाता है. सरकार इस खर्च को साल के अंत में या फिर किसी और समय पर ले कर स्टार्टअप्स की मदद कर सकती है. इसके लिए सरकार को नीति बनानी होगी एवं नियामक को भी अपने नियमो में थोड़ी ढील देनी होगी.
पूंजी की समस्या
ज्यादातर स्टार्टअप्स के प्रमोटर कॉलेज से निकले या एक से दो साल नौकरी करनेवाले मध्यमवर्गीय युवा होते हैं. लाजमी है कि इनके पास बड़ी पूंजी नहीं होती. कुछ के पास तो जमीन जायदाद भी नहीं होती, जिसे गिरवी रख कर ये बैंक लोन ले सकें. बैंकों से पूंजी जुटाना इस कारण से असंभव हो जाता है. साथ ही अपनी जमा पूंजी से 2-3 महीने से ज्यादा ये कारोबार नहीं चला पाते. यही एक कारण है कि 100 में से करीब 98 स्टार्टअप्स तीन महीने से ज्यादा नहीं टिक पाते हैं.
पूंजी जमा करने का दूसरा रास्ता स्टॉक मार्केट हैं. लेकिन, यहां भी सेबी जैसे नियामक काफी पुराने नियमों का हवाला देते हैं, जिसके अनुसार कंपनी को मुनाफा कमानेवाला होना चाहिए. हालांकि, पुराने अनुभवों को देखते हुए कुछ हद तक ये नियम भी ठीक हैं, लेकिन स्टार्टअप्स को एक अलग श्रेणी में रखकर नया प्रयोग किया जा सकता है. खासकर वे स्टार्टअप्स, जो इंटरनेट एवं मोबाइल तकनीक के आसपास काम करते हैं.
इन नियमों के मामले में अमेरिका का भी उदाहरण लिया जा सकता है. ‘अमेजन डॉट कॉम’ आज दुनिया का सबसे बड़ा ऑनलाइन रिटेलर है. वर्ष 1994 से आज तक कंपनी कभी भी मुनाफा नहीं बना पायी है, लेकिन तब भी यह कंपनी अमेरिकी स्टॉक मार्के ट से पैसा उठाने में सक्षम है. आज इसे अमेरिका के सबसे महंगे स्टॉक में गिना जाता है. दुर्भाग्य की बात यह है कि भारतीय मार्केट में ऐसी पहल करने के लिए इस बजट में ऐसा कुछ नहीं है. इसके कारण पहले भी ‘मेकमाइट्रिप’ को ‘एनवाइएसइ’ में लिस्ट होना पड़ा था और फ्लिपकार्ट भी सिंगापुर में लिस्ट हो सकती है.
बुनियादी ढांचे की जरूरत
स्टार्टअप्स को एक बड़ी मदद तब मिलेगी, जब सरकार उनके लिए बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचा तैयार करेगी. इसमें बड़ी भूमिका उन राज्यों की भी होगी, जहां पर ये स्टार्टअप्स काम करेंगे. इस मामले में केरल सरकार ने पहल करते हुए ‘स्टार्टअप पार्क’ बनाया है. ऐसी पहल छत्तीसगढ़ भी कर रहा है.
इसमें दो राय नहीं है कि सरकारें इस तरफ कदम बढ़ा रही है, लेकिन जिस हिसाब से यह सेगमेंट बड़ा हो रहा है, उसी हिसाब से सरकार को भी तेजी से काम करना पड़ेगा. कॉमन ऑफिस, टेक्नोलॉजी सेंटर तथा रिसोर्स पूल बना कर सरकार इनको काफी सहायता मुहैया करा सकती है. ‘एनएसआइसी’ का राजधानी दिल्ली में ओखला स्थित इन्क्यूबेशन सेंटर इसका एक अच्छा उदाहरण है, जहां छोटे उद्योगों को बढ़ावा दिया जाता है.
टैक्स ढांचे पर पुनर्विचार
सर्विस टैक्स, इनकम टैक्स तथा कई अन्य तरह के टैक्स इन स्टार्टअप्स के विकास में बाधा पहुचाते हैं. अगर हम देखें तो 100 रुपये की बिक्री में तकरीबन 35-40 रुपये का टैक्स और खरीद में तकरीबन 20 रुपये का टैक्स देने के बाद अपने व्यवसाय का विकास करने के लिए छोटे व्यापारियों के पास कुछ नहीं बचता. शुरुआती तीन-चार साल के लिए इन व्यापारियों को टैक्स की छूट देकर सरकार व्यापार के विकास को कई गुना बढ़ा सकती है.
जरूरी है सेतु निधि का बेहतर इस्तेमाल
आम बजट 2015 में वित्त मंत्री ने 1,000 करोड़ की सेतु निधि की घोषणा की. जानते हैं कि सरकार को भविष्य में इस निधि का इस्तेमाल कैसे करना चाहिए व स्टार्टअप्स इसका फायदा कैसे उठा सकते हैं.
मूलभूत ढांचे में निवेश
इस कोष का एक हिस्सा तीन-चार शहरों में शेयर्ड सर्विस सेंटर बनाने में खर्च किया जा सकता है. इस बीच ये स्टार्टअप्स भारत सरकार की एनएसआइसी जैसी एजेंसी के पास खुद को रजिस्टर करवा कर थोड़ा-बहुत लाभ उठाना चालू कर सकते हैं.
लोन के माध्यम से मदद
सरकार इस कोष का थोड़ी रकम ‘सिडबी’ जैसी एजेंसी के द्वारा नयी तकनीक बनाने वाले स्टार्टअप्स को दे कर सहायता प्रदान कर सकती है. स्टार्टअप्स भी सिडबी के पास खुद जा कर पूंजी जुटाने का प्रयास कर सकते हैं.
यूटीआइ से मदद
केंद्र सरकार इस 1,000 करोड़ के साथ यूटीआइ जैसी एजेंसी को स्टॉक मार्केट से पैसा ला कर स्टार्टअप्स में निवेश करवा सकती है. इस तरीके से बिना नीतियां बदले काफी हद तक निवेश लाया जा सकता है. कुल मिलकर यह कहा जा सकता है कि यह बजट एक शुरुआत है. यह देखना होगा कि आने वाले महीनों में सरकार और स्टार्टअप्स दोनों इस शुरुआत को क्या दिशा और दशा देते हैं. ‘सबका साथ, सबका विकास’ तभी सफल होगा, जब यह व्यापार पर भी लागू हो तथा बड़े एवं पुराने पूंजीपतियों के साथ इस नयी पीढ़ी को भी साथ ले कर चले.
भारतीय भाषाओं के लेखकों, प्रकाशकों और पाठकों को मुहैया कराया ऑनलाइन मंच
नॉटनल डॉट कॉम ने दिखायी नयी राह
विदेश में उच्च शिक्षा के बाद विदेश में ही एक अच्छी नौकरी. ज्यादातर युवाओं का एक सफल कैरियर का सपना यहीं खत्म हो जाता है. लेकिन, विदेश में मैनेजमेंट की पढ़ाई पूरी कर नौकरी शुरू करने के बाद भी नीलाभ श्रीवास्तव के मन में कुछ नया करने की टीस बाकी रह गयी. उन्होंने अपनी भाषा को बढ़ावा देने का एक नया कारोबार शुरू करने का फैसला किया और वापस अपने शहर लखनऊ आ गये. यहां उन्होंने पत्नी गरिमा सिन्हा के साथ ‘नॉटनल डॉट कॉम’ की शुरुआत की. आज उनकी यह वेबसाइट न केवल हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होनेवाली ढेर सारी पत्रिकाओं, किताबों एवं अन्य रचनाओं को डिजिटल फॉरमेट में, कम कीमत में दुनियाभर के पाठकों को उपलब्ध करा रही है, बल्कि अब लेखकों को अपनी रचनाओं के डिजिटल प्रकाशन के लिए एक नया मंच भी मिल रहा है. प्रकाशकों, लेखकों और पाठकों के बीच एक नयी कड़ी के रूप में उभरी इस वेबसाइट को हाल में दिल्ली में संपन्न विश्व पुस्तक मेले में अच्छी सराहना मिली. एक स्टार्टअप के उनके सफर के बारे में नीलाभ श्रीवास्तव से कन्हैया झा की बातचीत के मुख्य अंश :
नॉटनल डॉट कॉम शुरू करने का आइडिया कब और कैसे आया?
नॉटनल डॉट कॉम की शुरुआत करने का आइडिया मेरे दिमाग में 2012 में उस वक्त आया जब मैं विदेश में जॉब कर रहा था. दरअसल, अपनी मित्रमंडली के बीच बातचीत के क्रम में मैंने यह पाया कि बहुत कम लोग ऐसे थे, जिन्हें हिंदी की पत्रिकाओं के बारे में जानकारी थी. खासकर जो लोग नियमित रूप से हिंदी के पाठक नहीं थे, उनमें से ज्यादातर को तो ‘हंस’ जैसी साहित्यिक पत्रिका के बारे में भी जानकारी नहीं थी. फिर हमलोगों ने गूगल पर हिंदी की पत्रिकाओं और अन्य रचनाओं को तलाशा, लेकिन जो कुछ मिला, ऐसा नहीं लगा कि वे पूरी तरह से विश्वसनीय हैं.
तब हमने पाया कि कोई ऐसी वेबसाइट नहीं थी, जहां हिंदी की स्तरीय पत्रिकाएं एवं किताबें ऑनलाइन मिल सकें. गूगल से यह भी स्पष्ट जानकारी नहीं मिल पा रही थी कि कौन सी पत्रिका कहां मिलेगी. कह सकते हैं कि वहीं से मेरे मन में यह विचार आया कि इस तरह का कार्य शुरू करना चाहिए. हमने तय किया कि केवल हिंदी ही नहीं, बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं की उल्लेखनीय सामग्रियों को दुनियाभर के पाठकों के लिए ऑनलाइन मुहैया कराया जाये. फिलहाल हमारी वेबसाइट पर 35-40 पत्रिकाएं पाठकों को मुहैया करायी जा रही हैं. हमने कन्नड़ साहित्य को भी जोड़ा है और अब पंजाबी व तेलुगु साहित्य को भी इससे जोड़ा जा रहा है. इसे और विस्तार देते हुए अब कॉलेज के पाठ्यक्रमों की किताबों को भी इससे जोड़ा जायेगा. फिलहाल कुछ कॉलेजों के स्टडी मैटेरियल को अपलोड किया जा रहा है.
त्ननॉटनल डॉट कॉम का कॉन्सेप्ट कैसे अलग और खास है?
मुङो लगता है कि हिंदी और भारतीय भाषाओं की रचनाओं की मार्केटिंग को लेकर अब तक कोई बड़ी पहल नहीं हुई है. हिंदी के सुधि पाठकों के लिए कोई बड़ा ऑनलाइन प्लेटफॉर्म नहीं था. हिंदी की ज्यादातर लोकप्रिय पत्रिकाएं ऑनलाइन उपलब्ध नहीं हैं. इसलिए हमने इसे ऑनलाइन उपलब्ध कराया. पाठकों को लिखित सामग्री मुहैया कराने के लिए हमारे पास दो विकल्प थे- प्रकाशक या लेखक के पास पहुंचना. शुरू में हम प्रकाशकों के पास गये, लेकिन इसमें रॉयल्टी की ज्यादा मांग होने से कुछ दिक्कतें आती थीं. हमने इसमें कुछ बदलाव किया. अब हम सीधे लेखकों के पास जाते हैं और उनसे संपर्क करते हैं. लेखक यदि इ-बुक्स का संबंध अपने प्रकाशक से नहीं रख कर सीधे हमसे रखते हैं, तो हम उन्हें 60 फीसदी तक रॉयल्टी देते हैं. कई लेखक ऐसे हैं, जिनकी किताबें प्रकाशक छापते हैं और रॉयल्टी के लिए उनका उनसे संबंध है, लेकिन इ-बुक्स के मामले में हमसे संपर्क में है. इस मामले में एक दिलचस्प तथ्य यह है कि कई लेखकों ने बताया है कि उन्हें प्रकाशकों से ज्यादा रॉयल्टी हमारी ओर से मिल रही है.
हमारा स्टार्टअप्स एक नये तरीके का काम भी कर रहा है, जो शायद अब तक नहीं हुआ है, वह है रिस्टोरेशन यानी प्राचीन साहित्य के जीर्णोद्धार का कार्य. पुरानी और मृतप्राय हो चुकी पत्रिकाओं जैसे- दिनमान, धर्मयुग, रविवार, सरस्वती आदि को हमने डिजिटल फॉरमेट में पाठकों को मुहैया कराने का काम शुरू किया है. इसे ‘आर्काइविंग’ भी कहा जाता है. किसी जमाने में लोकप्रिय रही पत्रिकाओं को हम पाठकों को फिर से मुहैया कराना चाहते हैं. इसके तहत हम प्रेमचंद द्वारा संपादित पत्रिकाओं समेत अन्य दुर्लभ पत्रिकाओं को डिजिटल फॉम्रेट में लाना चाहते हैं.
– आइडिया को कहां तक साकार कर सके हैं और भविष्य की क्या योजनाएं हैं?
जहां तक अपने आइडिया को साकार करने की बात है, तो हम भारत में एक बड़े प्लेटफॉर्म के रूप में खड़े हैं. अब तक हमारे पास जितना कंटेंट आ चुका है, उस लिहाज से देखें तो इस क्षेत्र में नये होने के बावजूद हम बहुत आगे हैं. दिल्ली में हाल में संपन्न ‘वर्ल्ड बुक फेयर’ में हमने अपनी वेबसाइट से काफी किताबों को जोड़ा है. इस दौरान कई बड़े लेखकों की किताबों की लॉन्चिंग केवल ऑनलाइन फॉरमेट में की गयी है. आज 30 से 40 हजार पाठक हर माह हमारी वेबसाइट देखते हैं. इसमें अमेरिका और ब्रिटेन समेत करीब 20 देशों के पाठक शामिल हैं. भविष्य में रिस्टोरेशन का काम हम बड़े पैमाने पर करना चाहते हैं. इसके तहत हम भारतीय भाषाओं में उपलब्ध तमाम कंटेंट को डिजिटल फॉरमेट में लाते हुए पाठकों को मुहैया कराना चाहते हैं. साथ ही स्टडी मैटेरियल्स को भी ऑनलाइन मुहैया कराना चाहते हैं. कई विदेशी यूनिवर्सिटी अपनी लाइब्रेरी को अपने वेबपोर्टल से जोड़ देती हैं, हम भी ऐसा करना चाहते हैं.
– अपने देश में स्टार्टअप्स के लिए प्रमुख चुनौतियां क्या-क्या हैं?
स्टार्टअप्स की सबसे बड़ी चुनौती यह होती है कि लोग इनसे शुरुआत में जुड़ने से हिचकते हैं. हमारी मानसिकता है कि हम रनिंग कारोबार से ज्यादा जुड़ना चाहते हैं. ज्यादातर लोग बड़ी कंपनियों में काम करना चाहते हैं. मैं खुद अच्छी कंपनी में कार्यरत था, लेकिन हिंदी समेत भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने के लिए मैं भारत वापस आया.
– केंद्र सरकार ने 2015-16 के बजट में स्टार्टअप्स के लिए 1000 करोड़ रुपये का फंड रखा है. प्रधानमंत्री अपने भाषणों में अकसर स्टार्टअप्स को बढ़ावा देने की बातें करते हैं. इसे आप कैसे देखते हैं?
स्टार्टअप्स को धरातल पर कई तरह की दिक्कतें आती हैं. इसे दो रूपों में बांट कर देखना होगा. एक तो है लोकप्रिय चीजों से संबंधित स्टार्टअप्स और दूसरा है, जिनके बारे में लोगों को कम जानकारी है. जहां तक पहलेवाले का सवाल है, तो चूंकि ज्यादातर लोगों को उन चीजों की जानकारी होती है, लिहाजा उसमें मुश्किलें कम आती हैं. जिस कॉन्सेप्ट के बारे में लोगों को जानकारी कम है, उस स्टार्टअप्स में जरूर मुश्किलें आती हैं.
हमारे देश में हिंदी से जुड़ी चीजों को ज्यादा तवज्जो नहीं दी जाती. मेरा मानना है कि अमेरिका में यदि प्राचीन साहित्यों के रिस्टोरेशन का काम हो, तो शायद वहां काम करने में दिक्कत कम आती. अमेरिका में सभ्यता और संस्कृति को बचाये रखने पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है. उन्हें पता है कि एक समय के बात इसे बचाना बहुत मुश्किल हो जायेगा. देश में सरकार की तरफ से हमें अब तक कुछ खास मदद नहीं मिली है, हां इतना जरूर है कि सराहना मिली है. जहां तक वित्तीय मदद की बात है, तो उस दिशा में अब तक कुछ ठोस काम नहीं हुआ है, जबकि वह सबसे जरूरी चीज है.
हालांकि मेरा मानना है कि समय के साथ चीजें बदलेंगी. पिछले सालभर से कम समय में हमने बहुत सी चीजों को बदलते देखा है. हम देख रहे हैं कि छोटी-छोटी कंपनियां बहुत बड़ा बदलाव ला रही हैं. आज जिस तरीके से हमें लोगों से फीडबैक और सपोर्ट मिल रहा है, आनेवाला समय इस नजरिये से बेहद उज्जवल नजर आ रहा है. हिंदी समेत भारतीय भाषाओं को मृतप्राय समझ लेना शायद हमारी बड़ी भूल होगी. मैं नहीं मानता कि सिर्फ अंगरेजी पढ़ कर ही ग्रोथ होती है. मैंने खुद 12वीं तक हिंदी मीडियम से पढ़ाई की है. विदेश में उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद वहां भी मैंने अपने स्तर से काम शुरू किया था, लेकिन मुङो ऐसा महसूस हुआ कि अपनी मातृभाषा से जुड़े रहना हमारे लिए बहुत जरूरी है.