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नाजियों के बाद सबसे बड़ी चुनौती बन रहा आइएसआइएस

नोबेल पुरस्कार से सम्मानित एवं अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त लेखक वी एस नायपॉल ने आइएसआइएस (इसलामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया) से मिल रही चुनौती को ‘समकालीन प्रलय’ बताते हुए इस ओर सतर्क किया है. त्रिनिदाद में पैदा हुए और ब्रिटेन में पले-बढ़े 82 वर्षीय नायपॉल ने लिखा है कि नाजियों की तरह इसलामिक स्टेट कट्टरपंथियों का […]

नोबेल पुरस्कार से सम्मानित एवं अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त लेखक वी एस नायपॉल ने आइएसआइएस (इसलामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया) से मिल रही चुनौती को ‘समकालीन प्रलय’ बताते हुए इस ओर सतर्क किया है. त्रिनिदाद में पैदा हुए और ब्रिटेन में पले-बढ़े 82 वर्षीय नायपॉल ने लिखा है कि नाजियों की तरह इसलामिक स्टेट कट्टरपंथियों का भी मानना है कि वे सर्वश्रेष्ठ नस्ल के हैं और सभी इलाकों व शहरों में इससे इतर नागरिक आबादी का ‘सफाया’ करना है.
इराक और सीरिया के साथ-साथ उसके आसपास के कई देशों में आइएसआइएस की मौजूदगी ने नाजियों की ही तरह हिंसा और दुष्प्रचार को बढ़ावा दिया है. इसे निश्चित रूप से ‘थर्ड रीख’ (हिटलर के शासन) के बाद दुनियाभर में सबसे बड़ी चुनौती के रूप में समझा जाना चाहिए. नायपॉल ने पश्चिमी देशों से अनुरोध किया है कि वे इस बर्बरता को रोकने के लिए आगे आएं और अपने प्रयासों को विस्तृत करते हुए इन्हें पराजित करें.
साथ ही उन्होंने दुनिया की ‘वैचारिक और भौतिक स्वतंत्रता’ को अक्षुण्ण बनाये रखने पर जोर दिया है. दुष्प्रचार के प्रति एक विकृत प्रेम, अकथनीय बर्बरता, यहूदियों से नफरत और दुनिया पर दबदबा कायम करने की भूख के साथ आइएसआइएस अब ‘चौथा रीख’ कैसे बन गया है, विस्तार से बता रहे हैं साहित्य जगत की विराट हस्ती वीएस नायपॉल.
उस दर्शक समूह के विजयोल्लसित उपहास की कल्पना कीजिए, जो इसे देखने जुटी है. अपनी भंगिमा में एक गर्वभरा संकल्प लिये एक 12 वर्षीय बालक की भी कल्पना कीजिए, जो पीठ पीछे बंधे हाथों के साथ घुटनों के बल बैठे एक व्यक्ति के निकट तसवीरें उतरवा रहा है. और तब अपमानजनक वर्दी में, बंधे हाथों और पैरों के साथ, घुटनों पर झुके और काले लिबास में लिपटे अपने जल्लादों- जिन्होंने अपने हाथों में उनकी गरदनें रेतने को छुरे थाम रखे हैं, जैसे वे बलि के मेमने हों- की ओर पीठ किये, एक के बाद दूसरे सौ सिर कलम किये जाते हुए पीड़ितों के दृश्य को अपने मानसपटल पर उकेरिये.
असहाय महिलाओं और पुरुषों की उन कतारों की मानसिक छवि भी गढ़िये, जो अपने उत्साहित जल्लादों द्वारा ले जाये जा रहे हैं और जिन्हें लकड़ी के क्रूसों पर कीलों से ठोक कर, पीड़ा से चिल्लाते और लहूलुहान मरते हुए छोड़ दिया जाता है और भीड़ तमाशा देखती है. फिर, नकाबपोश, सशस्त्र पहरेदारों द्वारा यौनकर्म के लिए दासियों के रूप में ले जायी जातीं उन हजारों लड़कियों और महिलाओं की कल्पना कीजिए, जिनके हाथ पीछे की ओर बंधे हुए हैं. और जैसे इतना मंजर काफी न हो, सीधी खड़ी ऊंचाइयों से नीचे मौत के मुंह में सिर्फ इसलिए धकेल दिये जा रहे पुरुषों की कल्पना कीजिए कि वे समलैंगिकता के आरोपी हैं.
हां, मध्ययुग के दौरान ये सारे दृश्य कई महादेशों में घटित हो सकते थे, लेकिन आज तो ये तसवीरें कैमरे में कैद कर किसी भी ऐसे व्यक्ति के लिए प्रसारित हैं, जिसकी इंटरनेट तक पहुंच है. ये दृश्य हमारी ही दुनिया के कल, आज और कल की हैं.
‘कट्टरतावाद’ के नये अर्थ
मैं हमेशा ही अमूर्त पर अविश्वास कर ऐसे लेखन की ओर उन्मुख हुआ हूं, जिसका मैं खुद अन्वेषण तथा अनावरण कर सकूं. इसलिए मुङो यह स्वीकार करने से शुरुआत करनी चाहिए कि मैंने बर्बरता से ग्रस्त मध्यपूर्व, अफ्रीका का उत्तर-पश्चिमी हिस्सा, पाकिस्तान के कुछ भाग अथवा दक्षिण पूर्वी एशिया के इसलामी देश जैसे इन इलाकों का हालिया भ्रमण नहीं किया है.
मगर, 1980 के दशक और 1990 के प्रारंभिक वर्षो में मैंने इसलाम के उस ‘पुनर्जागरण’ की परीक्षा की, जो ईरान की क्रांति तथा कुछ दूसरे देशों में धर्म के प्रति फिर से एक नये समर्पण के माध्यम से घटित हो रहा था. मैंने इस नये ‘कट्टरतावाद’ के पीछे के विचारों तथा आस्थाओं की खोज की कोशिश करते हुए ईरान, पाकिस्तान, मलयेशिया और इंडोनेशिया में व्यापक भ्रमण किया. मेरी पहली पुस्तक का नाम ‘एमंग दि बिलीवर्स’ और दूसरी का नाम, शायद भविष्यवाणी स्वरूप ‘बियोंड बिलीफ’ रखा गया था.
जब ये किताबें लिखी गयीं, तब से इस ‘कट्टरतावाद’ शब्द ने नये अर्थ ग्रहण कर लिये हैं. जैसा यह शब्द बताता है, इसका अर्थ मूलभूत शिक्षाओं की ओर, बुनियाद की ओर, और शायद प्राथमिक सिद्धांतों की ओर लौटना है. इसका प्रयोग कुरान, हदीथ- जो पैगंबर मोहम्मद के जीवन कार्यो के संकलन हैं- के अवतरणों की व्याख्या तथा शरिया कानूनों की व्याख्याओं के लिए किया जाता रहा है.
किंतु ‘इसलामवादी’ समूहों, जिन्होंने खुद को दहशत पैदा करने के लिए समर्पित कर दिया है- जैसे अलकायदा, बोको हरम और अब इसलामी खिलाफत, आइएसआइएस अथवा इसलामिक स्टेट (आइएस), जो इसके सबसे क्रूर, बर्बर और खतरनाक रूप में उभरा है, उनकी यह खास रुढ़िवादी विचारधारा छठी सदी में पैगंबर मोहम्मद के जन्म से इस बुनियाद और शुरुआत की व्याख्या करती है. यह कट्टरतावाद उन सभ्यताओं के मूल्यों और यहां तक कि उनके वजूद से भी इनकार करता है, जो कुरान के खुलासों से पहले मौजूद थे.
यह छठी और सातवीं सदी की अरब आस्थाओं का एक हिस्सा था कि उसके पहले की हर चीज गलत और अधार्मिक थी. इसमें इसलाम-पूर्व के अतीत के लिए कोई जगह न थी. सो, इतिहास की एक ऐसी व्याख्या का जन्म हुआ, जो बुनियादी तौर पर इतिहास की उस व्याख्या से अलग थी, जिसे शेष दुनिया ने विकसित किया था. इसके बाद की सदियों में दुनिया और आगे बढ़ी. सभ्यता, विभिन्न दूसरी आस्थाओं, कला, कानून के शासन, विज्ञान तथा आविष्कार के विचार पैदा हुए और पनपे.
अतीत को मिटाने का संकल्प
अतीत को मिटा देने पर आमादा यह इसलामी वैचारिक जोर जीवित मगर स्थगित-सा रहा, जिसे उस ऑटोमन साम्राज्य में भी, जिसने खुद को पूरे इसलाम का खलीफा घोषित किया, बस नाम की ही मान्यता मिली. किंतु अब यह प्रेत बोतल से निकल बाहर आ चुका है. यह विचार कि आस्था इतिहास का उन्मूलन कर देती है, इसलामवादियों व आइएसआइएस की केंद्रीय आस्था के रूप में फिर से जगाया गया है.
अतीत से इनकार करने, उसे खत्म करने और मिटा देने का उनका संकल्प प्राचीन महान ईरानी, असीरियाई तथा रोमन साम्राज्यों की कला, कलाकृतियों तथा पुरातात्विक स्थलों को नष्ट करने में प्रकट होता है, जो मेसोपोटामिया एवं सीरिया के इतिहास का अंग हैं. उन्होंने दर शरुक्किन के प्राचीन शहर के ऐतिहासिक स्थल बुलडोजरों से ढाह दिये तथा मोसुल संग्रहालय में असीरियाई मूर्तियां तोड़ डालीं. निनवे की किलेबंदियों के बाहर स्थित पंखयुक्त सांढ़ की मूर्ति उनके उसी संवेग को शांत करता है, जो अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा बामियान बुद्ध की मूर्तियां नष्ट करने में झलकता है.
संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने कला, कलाकृतियों, शिलालेखों और उन्हें सुरक्षित रखने के संग्रहालयों के विध्वंस को न केवल सभ्यता की स्मृतियों की हत्या, बल्कि उसे एक युद्ध अपराध भी ठहराया है.
‘चौथा रीख’ बन सकता है
आइएसआइएस एक समकालीन विध्वंस के लिए समर्पित है. इसने स्वयं को शियाओं, यहूदियों, ईसाइयों, मिस्र के आदि ईसाइयों तथा यजदियों के साथ प्रत्येक वैसे लोगों की हत्या का संकल्प किया है, जिस पर चाहे जितने मनमौजी तरीके से खुफिया होने का आरोप चस्पा कर दिया जाये. इसने पूरे के पूरे इलाकों तथा शहरों की नागरिक आबादी मिटा दी है. आइएसआइएस अब बहुत विश्वसनीय रूप में खुद से खिलाफत की चिप्पी हटा कर (हिटलर के तीसरे रीख के बाद) स्वयं को चौथे रीख (जर्मन राज्य) का नाम दे सकता है.
नाजियों की ही तरह आइएसआइएस के कट्टरपंथी भी यहूदी-विरोधी हैं और खुद की नस्ली वरीयता में यकीन करते हैं. वे लोकतंत्र विरोधी हैं. इसलामिक स्टेट एक सर्वसत्तावादी राज्य है, जो अपने अधिकारों में स्वेछाचारी है. यहां तक कि उनके प्रतीकों, प्रस्तुतियों तथा प्रचारों में भी वही स्वहित प्रेम झलकता है.
फिल्मों और वीडियो के द्वारा करोड़ों लोगों तक वही दहशत फैलायी जा रही है, जिन्हें ऐसे पेशेवर मापदंडों पर तैयार किया जाता है, जिसने गोएबल्स को भी गर्वित किया होता. ठीक जैसा कि पूर्व में ‘तीसरे रीख’ ने किया, आइएसआइएस ने भी अपने दुश्मनों को कत्ल करने के लिए खास-खास तरीकों में बांट रखा है. इनमें सिर कलम कर देने से लेकर क्रूस पर चढ़ाना और जला कर मार डालना शामिल है.
नाजियों ने कलाकृतियां चुरा कर उन्हें संरक्षित कर व अपना मनोरंजन करने के लिए यहूदी संगीतकारों को जीवित रख कर सभ्यता का अभिभावक बनने का एक दिखावा भी किया, लेकिन आइएसआइएस सुंदरता के प्रति मानवीय संवेगों द्वारा निर्मित सभी चीजें नष्ट कर देने में यकीन रखता है. ऐसी बर्बरता इतिहास के लिए नयी नहीं है और सभी राष्ट्रों ने अतीत में कत्लेआम और बर्बर क्रूरता के जुल्म सहे हैं.
यह तथ्य कि आइएसआइएस ने सुन्नियों और शियाओं व यहूदियों और ईसाइयों के बीच की धार्मिक रूढ़ियां और घातक स्पर्धाएं एक बार फिर से जिंदा कर दी हैं, अंधकार में एक बहुत बड़ी छलांग है. जो अरब भूभाग ऑटोमन साम्राज्य के तहत तुलनात्मक रूप में स्थिर था, उसे प्रथम विश्वयुद्ध के ब्रिटिश तथा फ्रांसीसी विजेताओं ने 1920 की काहिरा कॉन्फ्रेंस में सऊदी अरब, ईराक, सीरिया तथा जॉर्डन के राज्यों में विभाजित कर दिया. सीमाएं सरल रेखाओं में खींच दी गयीं तथा मक्का के मुफ्ती के बेटों को नवनिर्मित राज्यों के राजाओं के रूप में बिठा दिया गया.
सद्दाम ने रखा सदैव नियंत्रण
काहिरा कॉन्फ्रेंस के दौरान टीई लॉरेंस तथा गरटड्र बेल जैसे लोग विंस्टन चर्चिल के सलाहकार थे, जिन्हें यह मालूम होना चाहिए था कि न तो शिया जनता एक सुन्नी राजा को आसानी से स्वीकार करेगी और न ही सुन्नी जनता एक शिया राजा को.
कई उथल-पुथल, विद्रोहों और सैनिक तख्तापलटों के बाद ये इलाके 1950 और 1960 के दशकों में तानाशाहियों के नीचे कुछ स्थिर-से हुए. बाथ पार्टी, कुछ अर्थो में एक आधुनिक शक्ति थी और एक सुन्नी होते हुए भी सद्दाम हुसैन ने मुख्य रूप से एक शिया और अंशत: एक कुर्द इराकी राष्ट्र पर निर्ममता से शासन किया. जहां भी ईश्वर के नाम पर दो-तीन व्यक्ति इकट्ठा किये जाते, वहां वह अपनी पुलिस भेज दिया करते. हो सकता है कि वे एक नैतिक व्यक्ति न हों, पर उनकी सबसे अहम नीतियां सत्ता पर बने रहने तथा इराक का आधुनिकीकरण करने की थीं.
वे एक ऐसी शक्ति थे, जिसने कट्टरतावादी इसलामवाद के खतरे को दूर रखा.कुवैत, जो कि कृत्रिम राजतंत्र का एक दूसरा उदाहरण है और जिसमें ज्यादा भूभाग समाहित नहीं है, लेकिन तेल संपदा में समृद्ध है, ऐसे देश पर आक्रमण ने सद्दाम को अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया के केंद्र में ला दिया. बुश-ब्लेयर गंठबंधन ने इराक पर आक्रमण कर वहां एक कठपुतली सरकार बिठा दी, जिसने सद्दाम को मार डाला. सद्दाम जैसी एक शक्ति के न रहने पर दबे हुए खतरे ने बाहर आकर तबाही मचा दी.
और इस पूरे भूभाग में हर जगह यही चीज हुई. एक यूरोपीय गंठबंधन की मदद से लीबियाइयों ने गद्दाफी को उखाड़ फेंका. अब यह देश इसलामी उग्रवादियों की मर्जी पर है. उसी अरब ने मिस्र के तानाशाह के विरुद्ध लोकतांत्रिक विरोध देखा, जिसके नतीजे में कुछ वक्त के लिए चुनी हुई सरकार आयी और जो फिर इसलामवाद के दमन के सिद्धांत की ओर मुड़ चला. उसे एक सैनिक तख्तापलट द्वारा हटा दिया गया, जिसके नेता जनरल अल-सिसी ने मुल्लाओं व अल-अजहर के आधिकारिक इसलामी विश्वविद्यालय के विद्वानों की सभा में उनसे अनुरोध किया कि वे अंतरराष्ट्रीय शांति के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में आइएसआइएस की निंदा करें और उसके आदर्शो को धर्म-विरुद्ध घोषित करें.
जेहाद की प्रेरणा कहां से?
सीरिया में बशर अल-असद की सरकार के विरोधी विभिन्न समूहों के संघर्ष ने खुद को सुन्नी इसलामी मिलिशिया के रूप में संगठित करने का संकल्प किया, जो काफी खून-खराबे के बाद, आइएसआइएस के रूप में विकसित हो गया. क्या आइएसआइएस और इसके समर्थक धर्म-विरुद्ध हैं?
यूरोप और अमेरिका के राजनेताओं, जिनमें डेविड कैमरून, बराक ओबामा और फ्रांकोइस होलांदे शामिल हैं, प्रत्येक इसलामवादी हिंसक घटना के बाद इस पर जोर देते हैं कि वे विक्षिप्तता की सीमा पर पहुंचे लोग हैं. उनका निरंतर राग यह है कि हत्याओं तथा दहशतगर्दी के इन अत्याचारियों का इसलाम से उतना ही संबंध है, जितना कू क्लक्स क्लान का ईसाइयत से अथवा ईसा मसीह के टेस्टामेंट से. पर क्या इस तरह के राजनीतिक आश्वासन से किसी किस्म की जांच-पड़ताल पैदा होती है?
सच तो यह है कि राजनीतिज्ञ, चर्चो के नेता तथा अन्य दूसरे लोग, जो यह कहते है कि ‘इन अत्याचारों का इसलाम से कोई संबंध नहीं है,’ वे कोई शोध किये गये अथवा धर्म या अध्यात्म पर आधारित सुविचारित बयान नहीं दे रहे. वे बस एक ऐसी दुनिया में नागरिक झगड़ों को रोकने की कोशिश कर रहे हैं, जिसमें यूरोप के ज्यादातर देशों और अमेरिका में बड़ी आप्रवासी मुसलिम आबादियां मौजूद हैं.
जब मैं पाकिस्तान गया, तो वहां मैंने वह पाया, जिसे एक वैचारिक पोषण के असर का नाम दिया है. पाकिस्तानी या बांग्लादेशी मुसलिमों को सिखाया जाता है कि भारत के इन हिस्सों को जीत कर उनके इसलामी धर्मातरण के पहले का उनका कोई इतिहास नहीं है.
विरोधाभासी जीवन मूल्य
समृद्धि की आशा का दबाव इस मुसलिम को ब्रिटेन ले आता है. वह या उसके परिवारजन अंगरेजी नहीं बोलते. वे अपने काम तक सीमित रहते और शहरों के आंतरिक हिस्सों- ब्रैडफोर्ड, टावर हैमलेट्स अथवा वृहत्तर मैनचेस्टर या बर्मिघम जैसी शुद्ध आप्रवासी बस्तियों में रहते हैं. उनके बच्चे मुसलिमों के रूप में बड़े होते हैं, जिनमें कुछ कठोर और कुछ नरम होते हैं.
उन्हें उन सामान्य शहरी स्कूलों में पढ़ने भेजा जाता है, जो जल्दी ही शुद्ध आप्रवासी चरित्र के हो जाते हैं. उनमें से कुछ यह पाते हैं कि जो मूल्य उन्हें पारंपरिक रूप से सिखाये गये हैं, वे उन जिंदगियों से विरोधाभासी हैं, जिन्हें वे अपने चारों ओर देखा करते हैं. यह उन मुसलिम युवा पुरुषों तथा महिलाओं के लिए भी सच है, जो ब्रिटेन के अधिकारवादी व्यवस्था के मार्फत डॉक्टर या कंप्यूटर प्रोग्रामर बनने के लिए शिक्षित किये जा रहे हैं.
इसलामवाद सरल है. इसके पालन के लिए नियम हैं. जिन सभ्यताओं को आप पचा नहीं सकते, उनके विरुद्ध लड़ने के लिए एक जिहाद है. जब आप शहादत देते हैं, तो जाने के लिए एक स्वर्ग है और अब दुनिया में एक वास्तविक लड़ाकू ताकत है, जिसमें आप अपना वजूद सरल करने और उसका समाधान पाने के लिए शामिल हो सकते हैं. अपनी खुद की जागरूकता जटिल बनाने को कोई इतिहास नहीं है, आपका ध्यान बांटने को कोई कलाकारी नहीं है.
‘पश्चिमी’ सभ्यता द्वारा आपको पेश मिश्रित भावनाएं अथवा चयन के विकल्पों की भरमार नहीं है, शहादत के पुरस्कारों को लेकर कोई दुविधा नहीं है, उस देश के लिए कोई वफादारी नहीं है, जहां आप बड़े हुए या जिसने आपको मुफ्त शिक्षा दी और संभवत: कई कल्याणकारी फायदे पहुंचाये. एक बंदूक है, आधे-अधूरे रूप में समझी गयी एक प्रार्थना है और एक ऐसी सरलता, एकांतवादी पालन-पोषण द्वारा जिसकी लालसा की जा सकती है. यही वजह है कि वे उसमें शामिल होते हैं, खुद को मौत के मुंह में पेश करते हैं और मर जाते हैं.
देकार्ते, लीबनिज और न्यूटन से तीन-चार सदियां पहले तक इसलाम छठी सदी के जीवन से संबद्ध कुरान तथा हदीथ के खुलासों में संहिताबद्ध रहा. वैज्ञानिक शोधकार्यो का प्रसार यूरोपीय उपनिवेशों के सामुद्रिक फैलाव के साथ-साथ घटित हुआ अथवा संभवत: वे ही उसकी वजह बने.
एशिया और अफ्रीका में यूरोपीय उपनिवेशवादी शासन व्यवस्था के ही वक्त अनुभव या अवलोकन आधारित विज्ञान, उदारवादी धर्म की प्रगति तथा आधुनिक लोकतांत्रिक विचारों का अंकुरण जैसी चीजें भी घटित हुईं. 20वीं सदी में गैर-उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया से उस विचार का जन्म हुआ, जिसके तहत सभ्यता की प्रत्येक प्रगति की- चाहे वह वैज्ञानिक हो अथवा लोकतांत्रिक, उपनिवेशवादी कह कर निंदा की जाने लगी. इस तरह की कट्टरता का कोई सैद्धांतिक उत्तर संभव नहीं हो सकता.
उत्तरी अफ्रीका तक बढ़ता खतरा
इसलामिक जगत में ऐसी धाराएं मौजूद हैं, जो आइएसआइएस द्वारा कुरान, हदीथ तथा शरिया की दी गयी व्याख्या के विरुद्ध हैं. अभी उन्हें खुद के द्वारा घोषित किया जाना बाकी है. हालांकि, आइएसआइएस की अपील को इसलाम की दूसरी धाराओं द्वारा चुनौती दी जा सकती है, मगर इसकी कातिलाना मौजूदगी इराक और युद्ध-जर्जर सीरिया में बनी हुई है और इसके उत्तरी अफ्रीका तक फैलने के खतरे हैं.
इराक की पंगु सरकार ने आइएसआइएस के विरुद्ध अपनी लड़ने को अनिच्छुक सेनाएं उतार दी हैं. इराकी सेना तथा शिया मिलिशिया- जो इराकी सरकार से स्वतंत्र एक उल्लेखनीय ताकत है- और उनका समर्थन कर रहा ईरान, जो सुन्नी खिलाफत का विरोधी शिया राष्ट्र है, एक गंठबंधन बना कर आइएसआइएस से जमीनी लड़ाई लड़ रहे हैं और पश्चिमी वायुसैनिकों की मदद से वे आइएसआइएस को पीछे हटने पर मजबूर कर सकते हैं.
इस तरह के आक्रमण को, जिसका तात्कालिक मकसद इराकी भूभाग पर फिर से नियंत्रण कायम करना है, तुरंत विस्तार देने की जरूरत है. आइएसआइएस को दुनिया के लिए तीसरे रीख के बाद सबसे ताकतवर खतरे के रूप में देखे जाने की जरूरत है. एक सभ्यता-विरोधी ताकत के रूप में इसके सैन्य विनाश को आज उस दुनिया का मकसद बनाने की जरूरत है, जो अपनी वैचारिक तथा भौतिक स्वतंत्रता की इच्छा रखता है.
(अनुवाद : विजय नंदन)
(‘डेली मेल’ से साभार)
आइएसआइएस (अब आइएसआइएल)
द इसलामिक स्टेट ऑफ इराक एंड द लीवेंट (आइएसआइएल) नामक इसलामिक अतिवादी विद्रोही समूह ने इराक और सीरिया के बड़े इलाके में नियंत्रण कायम कर रखा है. साथ ही लेबनान, लीबिया, मिस्र के सिनाई इलाकों समेत मध्य पूर्व के अन्य क्षेत्रों और उत्तरी व पश्चिमी अफ्र ीका में इसकी गतिविधियां बढ़ रही हैं.
इसी समूह को ‘द इसलामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया’ (आइएसआइएस) या इसलामिक स्टेट (आइएस) के नाम से भी जाना जाता है. पिछले वर्ष जून में इस संगठन ने खुद को ‘वैश्विक खलीफा’ बताते हुए समूह के मुखिया अबू बकर अल-बगदादी को खलीफा घोषित किया. हालांकि, मुख्यधारा के प्रमुख मुसलिम समूहों और संयुक्त राष्ट्र समेत दुनियाभर के अनेक देशों ने इसे मानने से इनकार कर दिया. आम तौर पर यह माना जाता रहा है कि खलीफा मुसलिमों के धार्मिक, राजनीतिक और मिलिटरी मामलों का मुखिया होता है और दुनिया के अनेक इलाकों में यह मान्यता कायम है. हालांकि, कई इसलामिक और गैर-इसलामिक समुदायों में इसे इसलाम का प्रतिनिधि नहीं समझा जाता है.
एमनेस्टी इंटरनेशनल ने इस समूह की गतिविधियों को मानवाधिकारों के विरुद्ध बताते हुए इसकी भर्त्सना की है. संयुक्त राष्ट्र समेत यूरोपियन यूनियन, यूके, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, इंडोनेशिया, मलयेशिया, तुर्की, सऊदी अरब, यूनाइटेड अरब अमीरात, सीरिया, मिस्र, भारत और रूस समेत 60 से ज्यादा देशों ने इस समूह को आतंकवादी संगठन करार देते हुए इसके खिलाफ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से युद्ध छेड़ रखा है.
वीएस नायपॉल
त्रिनिदाद में जन्मे और ब्रिटिश लेखक के रूप में प्रख्यात वीएस नायपॉल की जड़ें भारत से भी जुड़ी हुई हैं. दरअसल, 1880 के आसपास ब्रिटिश शासन भारत से लाखों मजदूरों को गन्ने की खेती के लिए त्रिनिदाद और आसपास के देशों में ले गये थे.
नायपॉल के पूर्वज भी भारत से वहां ले जाये गये थे. वीएस नायपॉल के पिता श्रीप्रसाद नायपॉल अंगरेजी के पत्रकार रह चुके हैं. त्रिनिदाद की राजधानी पोर्ट ऑफ स्पेन के क्वीन्स रॉयल कॉलेज से शिक्षा हासिल करने के बाद इन्होंने ब्रिटेन के ऑक्सफोर्ड से उच्च शिक्षा की डिग्री ली.
हालांकि, इसलाम को वैश्विक चुनौती के रूप में देखनेवाले आलोचक के तौर पर नायपॉल को लंबे समय से जाना जाता है, लेकिन ‘बायोग्राफी डॉट कॉम’ के मुताबिक, विद्याधर सूरजप्रसाद नायपॉल के ज्यादातर उपन्यास विकासशील देशों की पृष्ठभूमि पर आधारित हैं.
इनके प्रमुख उपन्यासों में वर्ष 1961 में आयी ‘ए हाउस फॉर मिस्टर बिस्वास,’ 1979 में ‘ए बेंड इन द रिवर’ और 1994 में ‘ए वे इन द वर्ल्ड’ रह चुकी हैं. इनके चर्चित उपन्यास ‘हाफ ए लाइफ’ के लिए इन्हें वर्ष 2001 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है. दरअसल, यह उपन्यास इंगलैंड और अफ्रीका में भारतीय प्रवासियों की कहानी पर आधारित है.
इसके अलावा उनकी अन्य कृतियां इस प्रकार हैं : एन एरिया ऑफ डार्कनेस (1965), इंडिया : ए वुंडेड सिविलाइजेशन (1977), एमंग द बिलिवर्स : एन इसलामिक जर्नी (1981). उन्होंने कई लेख भी लिखे हैं, जो समय-समय पर प्रसिद्ध समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं.

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