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डायबिटीज के कारक जीन्स का पता चला
मौजूदा समय में डायबिटीज एक आम बीमारी बन चुकी है. विशेषज्ञ मानते रहे हैं कि इस बीमारी के लिए विभिन्न जीन्स जिम्मेवार हैं. अब इस दिशा में वैज्ञानिकों को एक नयी सफलता मिली है. वैज्ञानिकों ने इंसान के शरीर में डायबिटीज का जोखिम पैदा करनेवाले जीन्स का पता लगाते हुए उनकी संख्या को सीमित करने […]
मौजूदा समय में डायबिटीज एक आम बीमारी बन चुकी है. विशेषज्ञ मानते रहे हैं कि इस बीमारी के लिए विभिन्न जीन्स जिम्मेवार हैं. अब इस दिशा में वैज्ञानिकों को एक नयी सफलता मिली है. वैज्ञानिकों ने इंसान के शरीर में डायबिटीज का जोखिम पैदा करनेवाले जीन्स का पता लगाते हुए उनकी संख्या को सीमित करने में कुछ हद तक कामयाबी हासिल की है. हालिया शोध का एक बड़ा फायदा यह हुआ है कि अब यह जाना जा सकेगा कि किसके शरीर में ‘टाइप-1 डायबिटीज’ की आशंका है और उसे किस प्रकार रोका जा सकता है.
स्वास्थ्य और मेडिसिन क्षेत्र की वेबसाइट ‘फ्यूचर डॉट नेट’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, नये अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 27,000 व्यक्तियों (जिनमें कुछ पूर्व में टाइप-1 डायबिटीज से पीड़ित भी रह चुके थे) से जरूरी जेनेटिक आंकड़े जुटाये गये. इसके बाद टाइप-1 डायबिटीज का जोखिम पैदा करनेवाले विविध किस्म के डीएनए की जांच की गयी. इसके लिए जीनोम में संभावित लोकेशंस का पता लगाने के लिए जिस तकनीक का इस्तेमाल किया, उसे ‘फाइन मैपिंग टू पिनप्वॉइंट डीएनए सीक्सेंस’ के नाम से जाना जाता है. दरअसल, डायबिटीज के लिए इसी कारक को जिम्मेवार माना जाता है.
यूनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा जेनेटिक्स इंस्टीट्यूट के निदेशक पैट्रिक कॉनकेनॉन के हवाले से इस रिपोर्ट में बताया गया है कि टाइप-1 डायबिटीज के लिए इसे गेम-चेंजर के तौर पर माना जाता है. जेनेटिक विविधताओं के कारण टाइप-1 डायबिटीज का खतरा बढ़ने की जिस तरह से आशंका जतायी जाती है, इस नतीजे से उसे ज्यादा विस्तृत रूप से समझने में मदद मिलेगी.
इससे भविष्य में डायबिटीज से जुड़े शोधकार्य ज्यादा प्रभावी तरीके से हो पायेंगे. साथ ही ऑर्थराइटिस जैसी अन्य ऑटोइम्यून बीमारियों की जांच के लिए भी इसे प्रभावी माना जा रहा है. रिपोर्ट में उम्मीद जतायी गयी है कि टाइप-1 डायबिटीज समेत इस प्रकार की अन्य बीमारियों के जोखिम को बढ़ाने के लिए कौन से जीन्स जिम्मेवार हैं, उनके बारे में भी जानकारी हासिल की जा सकता है.
साथ ही जेनेटिक बदलावों से इम्यून सेल एक्टिविटी में किस तरह का बदलाव आता है और उनका उपचार कैसे किया जा सकता है, इस बारे में भी जाना जा सकता है. विशेषज्ञों का मानना है कि इस नये शोध से डायबिटीज की बीमारी की रोकथाम की दिशा में नयी उपलब्धियां हासिल की जा सकती हैं.
समस्या और समाधान
डायबिटीज की समस्या पूरी दुनिया में तेजी से बढ़ रही है. खासकर विकसित देशों में इसका जोखिम दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है. हालांकि, इसके अनेक जटिल कारण हैं, लेकिन मोटापा और भौतिक रूप से शारीरिक गतिविधियों में कमी आने को इसका सबसे बड़ा कारण माना जाता है.
वैसे डायबिटीज के कई मामलों में यह भी देखा गया है कि स्वास्थ्यप्रद भोजन, नियमित शारीरिक गतिविधियों और संतुलित खानपान के जरिये शरीर का वजन नियंत्रित रखने तथा तंबाकू आदि के सेवन से दूर रहने की दशा में इसका इलाज भी मुमकिन हो पाया है.
इंसुलिन इंजेक्शन की जरूरत नहीं!
अभी दुनियाभर में 34.7 करोड़ से ज्यादा लोग किसी न किसी रूप से डायबिटीज से प्रभावित हैं. डॉक्टरों के हालिया शोधकार्य से यह उम्मीद जगी है कि न केवल मधुमेह का उपचार आसान हो जायेगा, बल्कि इंसुलिन इंजेक्शन के युग का भी अंत हो सकता है. इससे डायबिटीज की वजह से होनेवाले स्ट्रोक, हार्ट अटैक, दृष्टिहीनता और किडनी फेल हो जाने जैसी समस्याओं के हल निकाले जाने की संभावनाओं की तलाश की जा सकेगी.
वर्तमान में डायबिटीज रोगियों को ब्लड शुगर का स्तर नियंत्रित करने के लिए इंसुलिन का इंजेक्शन लेना होता है. साथ ही कुछ सतर्कता और देखभाल बेहद जरूरी होती है. ब्लड शुगर का स्तर लगातार बढ़ने पर आंखों की रोशनी चले जाने या हार्ट अटैक का खतरा बना रहता है.
नैनो-टेक्नोलॉजी
नैनो-टेक्नोलॉजी निश्चित तौर पर भविष्य की बेमिसाल तकनीक साबित होगी. मेडिकल साइंस की तकनीकों में माइक्रोस्कोपिक, नैनो-टेक्नोलॉजिकल स्पेक्ट्रम की महत्वपूर्ण भूमिका होगी. खास कर ब्लड ग्लूकोज के स्तर को मापने के लिए नैनो-टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल संभावित है. यही वजह है कि कई वैज्ञानिक डायबिटीज जैसी समस्याओं का हल निकालने के लिए नैनो-टेक्नोलॉजी का सहारा ले रहे हैं.
‘द गार्जियन’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, वेस्टर्न न्यू इंगलैंड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक नैनो-टेक्नोलॉजी आधारित ऐसी मॉनीटरिंग डिवाइस विकसित करने में लगे हैं, जिसके माध्यम से इंसान की सांस में एसीटोन का पता लगाया जा सकेगा. इसकी मदद से ब्लड ग्लूकोज के स्तर की भी जानकारी प्राप्त की जा सकेगी.
वैज्ञानिकों ने इंसान के शरीर में डायबिटीज का जोखिम पैदा करनेवाले जीन्स का पता लगाने की दिशा में नयी कामयाबी हासिल की है. इससे अब यह जाना जा सकेगा कि किसके शरीर में ‘टाइप-1 डायबिटीज’ का जोखिम पैदा हो सकता है और इसके कारक जीन्स की संख्या को सीमित कर इसके खतरों को नियंत्रित किया जा सकता है. क्या कहती है इस हालिया शोध की रिपोर्ट और डायबिटीज के इलाज में भविष्य में इससे कैसे मिल सकती है मदद जैसे पहलुओं पर नजर डाल रहा है नॉलेज..
टाइप-1 डायबिटीज के लिए पर्यावरण भी जिम्मेवार
डॉ अजय कुमार अजमानी निदेशक, इंडोक्राइनोलोजी,
बीएलके सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल, दिल्ली
भारत में डायबिटीज रोगियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. जानकार इसकी वजह आधुनिक जीवनशैली, खानपान और आनुवांशिक मानते रहे हैं. ‘टाइप-1 डायबिटीज’ चूंकि बच्चों और किशोरों को होती है, इसलिए इसे आनुवांशिक ही माना जाता रहा है, पर सच्चाई यह नहीं है.
टाइप-1 डायबिटीज पर्यावरण से भी प्रभावित होती है. आनुवांशिकता का प्रभाव इसमें 10 फीसदी तक ही होता है. पर्यावरण में भी टाइप-1 के कौन-कौन से कारक हैं, इसका पता अभी नहीं चल पाया है. डायबिटीज के कारक की पहचान की कड़ी में अब फ्लोरिडा विश्वविद्यालय के जेनेटिक्स विभाग के शोधकर्ताओं ने टाइप-1 डायबिटीज के लिए जिम्मेवार जीन्स का पता लगाने में सफलता हासिल करने का दावा किया है.
यूनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा के जेनेटिक्स इंस्टीट्यूट के निदेशक पैट्रिक कोंकैनन ने कहा है कि यह शोध टाइप-1 डायबिटीज के क्षेत्र में बड़ी कामयाबी है. हालांकि इस शोध में इस बात पर ज्यादा ध्यान दिया गया है कि किन बच्चों, किशोरों, युवाओं को टाइप-1 डायबिटीज होने की आशंका है और इससे कैसे बचा जा सकता है.
शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा अग्नाशय के अंदर इंसुलिन बनानेवाली कोशिकाओं के मरने के कारण लोगों को टाइप-1 डायबिटीज होता है. कुछ वर्षो से चल रहे शोधों में विशेषज्ञ इसके पीछे के असल कारण को नहीं जान पा रहे थे. माना जाता रहा था कि डायबिटीज भी अन्य बीमारियों की तरह आनुवांशिक होती हैं. कई विशेषज्ञ इसे लाइफस्टाइल जनित बीमारी मानते हैं. यदि परिवार में पीढ़ियों से डायबिटीज की बीमारी चली आ रही है, तो जीवनशैली नियंत्रित रखते हुए, नियमित व्यायाम, नियंत्रित खान-पान के साथ उसकी पाचन शक्ति दुरुस्त कर और चिंता व परेशानियों को दूर रखते हुए डायबिटीज से बचा जा सकता है.
टाइप-2 पर अनुवांशिकता का असर ज्यादा
विशेषज्ञों का मानना है कि डायबिटीज में अनुवांशिकता का असर टाइप वन पर कम, टाइप टू डायबिटीज पर अधिक होता है. डीएनए की संरचना और जीन की कार्यप्रणाली पर नजर डालें, तो यदि किसी परिवार में पीढ़ियों से टाइप टू मधुमेह की बीमारी रही है, उस परिवार में आने वाले सदस्यों को एक उम्र के बाद मधुमेह का खतरा रहता है. इसे ऐसे समझा जा सकता है कि यदि किसी परिवार में माता या पिता या किसी एक को मधुमेह है, तो उस परिवार के बच्चे को 30 से 40 फीसदी मधुमेह का खतरा रहता है.
यदि माता और पिता दोनों ही मधुमेह के मरीज हैं, तो उस परिवार में इसका 80 फीसदी खतरा अधिक होता है. टाइप-1 में ऐसा कोई शोध नहीं है और न ही आनुवांशिक होने का प्रमाण मिला है. यदि किसी परिवार में मधुमेह है, तो बचपन में महज छह से 10 फीसदी ही खतरा रहता है. टाइप-1 डायबिटीज का खतरा अधिकतर खान-पान, दिनचर्या, व्यायाम और पाचन प्रक्रिया आदि जैसे कई कारण हो सकते हैं.
नये शोध के बाद भी विशेषज्ञ मानते हैं कि मधुमेह टाइप-1 के मरीजों के लिए यह जीन की खोज महज पहला चरण मात्र है. बीमारियों को जीन से जोड़ कर और किस तरह से आनुवांशिक बीमारियों से बचा जाये, इसके शोध में वैज्ञानिक और डॉक्टर कई वर्षो से लगे हैं. इससे पहले भी वैज्ञानिकों ने टाइप-1 डायबिटीज को एडल्ट स्टेम सेल्स, कोर्ड ब्लड स्टेम सेल्स और बोन मैरो स्टेम सेल्स से ठीक करने की तरकीब निकाली है. कई प्रमुख अस्पतालों में स्टेम सेल्स से तरह-तरह की बीमारियां ठीक किये जाने की बात की जा रही है.
किशोरों में बढ़ रहा टाइप-1
टाइप-1 डायबिटीज मधुमेह जिस तेजी से पूरे विश्व में बच्चों और किशोरों को अपना शिकार बना रहा है, उस क्षेत्र में उसी तेजी से शोध किये जाने की आवश्यकता है. बच्चों को तेजी से अपनी गिरफ्त में लेते टाइप-1 डायबिटीज का बहुत बड़ा कारण पर्यावरण से जुड़ा है. बच्चों का शारीरिक श्रम बिलकुल कम हो चुका है. बच्चों के भौतिक खेल-कूद की प्रक्रिया में बहुत कमी आ गयी है. बच्चे अपना पूरा समय वीडियो गेम्स, टीवी और कंप्यूटर के साथ बिताते हैं.
खान-पान में पौष्टिक पदार्थो की जगह पिज्जा, बर्गर, चिप्स, कोल्ड ड्रिंक्स ने ले ली है. ऐसे में न केवल डायबिटीज, बल्कि ब्लड प्रेशर, दिल की बीमारी आदि भी बच्चों को अपना शिकार बना रही है. टाइप-1 को ‘इंसुलिन डिपेंडेंट डायबिटीज’ भी कहा जाता है. डायबिटीज के 100 मरीजों में इन दिनों तीन से पांच टाइप-1 के मरीज बच्चे आ रहे हैं. इस बीमारी में पेन्क्रियाज में मौजूद बीटा सैल इंसुलिन का उत्पादन बंद कर देते हैं. इससे खून में शर्करा की मात्र बढ़ती है.
फ्लोरिडा में टाइप-1 मधुमेह की जीन के लिए किये गये इस शोध में 27,000 लोगों को शामिल किया गया था. इनमें से कुछ टाइप-1 डायबिटीज के मरीज थे और कुछ स्वस्थ लोग थे, लेकिन शोध में यह कहीं नहीं बताया गया है कि मधुमेह को कैसे बच्चों में रोका जा सकता है.
कौन से बच्चे हैं, जिन्हें डायबिटीज होने का खतरा अधिक होता है. इससे बचाव के लिए क्या कदम उठाने होंगे. क्या परिवार में किसी को डायबिटीज है, तो यह मान लेना चाहिए कि उस परिवार में आने वाले नन्हें मेहमान को भी इसका खतरा होगा. पर्यावरण इसके लिए कितना दोषी है, ऐसे कई सवाल हैं, जिसका शोध में कोई जवाब नहीं है. ऐसे में टाइप-1 डायबिटीज के कारक जीन की खोज फिलहाल मुङो समुद्र से एक बूंद पानी निकाले जाने जैसा ही लग रहा है.
टाइप-2 डायबिटीज ज्यादा
विश्व में 90 से 95 फीसदी मामले ‘टाइप-2 डायबिटीज’ के हैं. मेडिकल साइंस ने इसे अब लाइफस्टाइल डिजीज कहना शुरू कर दिया है. भारत में टाइप-2 डायबिटीज के बढ़ने के मामले में पर्यावरण भी बहुत हद तक दोषी है. खान-पान, पर्यावरण के साथ टाइप-2 डायबिटीज को आनुवांशिकता से भी जोड़ा जाता रहा है.
यदि पर्यावरण की बात करें तो व्यायाम न करना, चिंता, खान-पान का समय निश्चित न होना, कुछ भी खा लेना, फास्ट-फूड का बढ़ा प्रचलन, पाचन क्रिया का कमजोर होना आदि टाइप-2 डायबिटीज के प्रमुख कारण हैं. लोग घंटों ऑफिस में अपनी कुर्सी से चिपके बैठे रहते हैं. काम की इतनी टेंशन है कि अपने लिए जरा भी समय नहीं निकाल पाते हैं. जबकि पहले पूरा परिवार एक साथ बैठकर समय बिताया करता था. पिता अपने बच्चों के साथ बाग-बगीचे में सैर पर या घूमने जाया करते थे. मौजूदा लाइफस्टाइल में यह कम हो गया है.
यदि किसी परिवार में उसके माता या पिता के परिवार में किसी को मधुमेह है, तो डीएनए की संरचना के अनुसार उस परिवार के कम से कम एक सदस्य को डायबिटीज होने का खतरा रहेगा, ऐसा विज्ञान और जेनेटिक्स विभाग मानता रहा है. लेकिन, यदि शुरुआत से ही खान-पान और जीवनशैली को नियंत्रित रखा जाये, तो इससे बचा जा सकता है. विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि आज से करीब दो-तीन दशक पहले 40 से 50 की उम्र में मधुमेह हुआ करता था, पर अब बदले परिवेश में यह उम्र घट कर 25 से 30 वर्ष हो गयी है.
डायबिटीज के प्रकार
डायबिटीज मुख्य रूप से तीन प्रकार की होता है. पहला, टाइप-1 डायबिटीज, दूसरा टाइप-2 डायबिटीज और तीसरा गेस्टेशनल डायबिटीज, जो गर्भवती महिलाओं में होता है.
टाइप-1 डायबिटीज : आम तौर पर यह बीमारी बच्चों, किशोरों और युवाओं (10 से 25 साल की उम्र) में होती है. विशेषज्ञ बच्चों में बढ़ रहे मधुमेह का कारण खान-पान और जीवनशैली मानते हैं. विशेषज्ञों का मानना है कि पढ़ाई का बोझ, फास्ट-फूड, कोल्ड ड्रिंक्स टाइप-1 डायबिटीज के प्रमुख कारण हैं. बच्चों में घरों से बाहर खेल-कूद से जुड़ी गतिविधियों में कमी देखी गयी है.
अधिकतर समय बच्चे घर में वीडियो गेम्स, काटरून आदि देखते हैं और पूरे दिन चिप्स आदि का सेवन करते हैं. इससे पैन्क्रियाज की बीटा कोशिकाओं में संचरण नहीं होता और वह धीरे-धीरे काम करना बंद कर देती हैं. नतीजन वह पूरी तरह से नष्ट हो जाती हैं और इस कारण इंसुलिन की आवश्यक मात्र उत्पन्न नहीं कर पाती है. इंसुलिन की आवश्यकता को पूरा करने के लिए इंसुलिन लेना जरूरी हो जाता है. इसके मरीज बहुत पतले होते हैं. भारत में एक से दो प्रतिशत टाइप-1 डायबिटीज के रोगी पाये जाते हैं.
टाइप 2 डायबिटीज : विश्व में 90 से 95 फीसदी लोग टाइप-2 डायबिटीज रोग से पीड़ित हैं. इसकी एक वजह मोटापा भी है. पहले टाइप-2 डायबिटीज 40 वर्ष की उम्र के आसपास शुरू होता था, जो अब घट कर 25 से 30 हो गया है. इस तरह के लोग मोटे होते हैं. व्यायाम नहीं करने, खान-पान पर नियंत्रण न रखने की वजह से इन्हें कम उम्र में डायबिटीज हो जाती है. इनके परिवार में डायबिटीज का इतिहास होता है यानी परिवार में पूर्व में कोई न कोई व्यक्ति जरूर इस बीमारी से पीड़ित रहा होता है.
इस टाइप की डायबिटीज के मरीजों में शुरू में इंसुलिन का उत्पादन ठीक रहता है, लेकिन कुछ समय बाद इंसुलिन की कमी होने से मरीज डायबिटीज का रोगी बन जाता है. तब इन्हें शुगर नियंत्रित करने के लिए दवाएं लेनी पड़ती हैं. टाइप-2 डायबिटीज कभी खत्म न होने वाली बीमारी है.
जेस्टेशनल डायबिटीज : आम तौर पर महिलाओं में गर्भावस्था के दौरान रक्त शर्करा स्तर सामान्य से कुछ ज्यादा हो जाता है, जिससे जेस्टेशनल डायबिटीज हो जाती है.
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