सदाचार के लोक-प्रतीक राम

आज राम नवमी यानी भगवान श्रीराम का जन्म-पर्व है. वह आदर्श चरित्र के प्रतीक हैं. मर्यादा पुरुषोत्तम हैं. उन्होंने धर्म, आचरण, शील और मर्यादा की पुनस्र्थापना की. भले भारी कीमत चुकानी पड़ी हो. बात अतीत की हो या वर्तमान की, जनमानस ने राम के आदर्शो को खूब समझा-परखा है, लेकिन उनसे मुंह मोड़ने की कोशिश […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 28, 2015 6:35 AM
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आज राम नवमी यानी भगवान श्रीराम का जन्म-पर्व है. वह आदर्श चरित्र के प्रतीक हैं. मर्यादा पुरुषोत्तम हैं. उन्होंने धर्म, आचरण, शील और मर्यादा की पुनस्र्थापना की. भले भारी कीमत चुकानी पड़ी हो. बात अतीत की हो या वर्तमान की, जनमानस ने राम के आदर्शो को खूब समझा-परखा है, लेकिन उनसे मुंह मोड़ने की कोशिश भी चलती रही है. आज एक तरफ हमारे निजी चरित्र, रिश्ते-नाते, व्यवहार से लेकर समाज और राजनीति तक, सभी जगह मर्यादाएं तार-तार हो रही हैं, तो दूसरी तरफ रामनवमी मनाये जाने में तामझाम भी उसी अनुपात में बढ़ता जा रहा है. राम की सच्ची पूजा झांकी-जुलूस में नहीं, बल्कि उनके आचरण से सीखने में निहित है.

गिरीन्द्र नाथ झा

सदाचार के लोक-प्रतीक राम 2

हमारा देश पर्वो को ‘जीवन-उत्सव’ की तरह जीता है. धर्म से ऊपर उठ कर हर समुदाय के लोग पर्व के उल्लास में डूब जाते हैं. सूफी कवियों को पढ़ते हुए आप उस अहसास को जी सकते हैं. रामनवमी को लेकर मेरी स्मृति के खेत हमेशा से हरे ही रहे हैं. चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को प्रतिवर्ष नये विक्र म संवत्सर का प्रारंभ होता है और उसके आठ दिन बाद ही चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी को एक पर्व राम जन्मोत्सव का जिसे रामनवमी के नाम से जाना जाता है, पूरे देश में मनाया जाता है.

हमारे यहां राम और कृष्ण दो ऐसे प्रतीक रहे हैं जिनका अमिट प्रभाव हर किसी के मानस पर पड़ता ही रहा है. बचपन की यादों की डायरी को यदि आप पलटियेगा, तो हर एक पन्ने में इन दो धार्मिक महत्व के चरित्रों के बारे में आपको पढ़ने को मिलेगा. रामनवमी, भगवान राम की स्मृति को समर्पित है. राम सदाचार के प्रतीक हैं, और इन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है. रामनवमी को राम के जन्मदिन की स्मृति में मनाया जाता है. राम को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है, जो रावण से युद्ध लड़ने के लिए आये थे. ‘रामराज’ शांति व समृद्धि की अवधि का पर्यायवाची बन गया है. रामनवमी के दिन, श्रद्धालु बड़ी संख्या में उनके जन्मोत्सव को मनाने के लिए राम जी की मूर्तियों को पालने में झुलाते हैं.

लेकिन हमारी स्मृति में रामनवमी गांव की कहानियों से भरी हुई है. गांव में रामनवमी से पहले बाजार का सारा हिसाब किताब चुकता किया जाता था. दुकानदार वो चाहे हिंदू हो या मुस्लिम, वे नया बही खाता तैयार करते थे और पुराने का सारा हिसाब-किताब बराबर करने की कोशिश करते थे. आज हम भले ही कंप्यूटर बिलिंग के दौर में जी रहे हैं, लेकिन गांव-घरों में आज भी छोटे- बड़े दुकानदार लाल रंग का बही खाता रखते हैं और रामनवमी के दिन पुराने रजिस्टर को एक तरफ रख कर नये रजिस्टर में हिसाब-किताब शुरू कर देते हैं. बचपन की यादों में डुबकी लगाने पर मेरे सामने कुतुबुद्दीन चाचा का चेहरा दौड़ने लगता है.

गांव में उनकी छोटी सी परचून दुकान थी, जिसमें जरूरत के सभी सामान मिलते थे. साल भर गांव वाले उनसे सामान लेते थे. कोई नकद, तो कोई उधार. उधार लेनेवालों का नाम लाल रंग के एक रजिस्टर में चाचा दर्ज कर लेते थे. मुङो याद है कि वे रामनवमी से पहले उधार लेनेवाले घरों में पहुंचने लगते थे और विनम्रता से कहते थे कि रामनवमी से पहले कर्ज चुकता कर दें, ताकि नये रजिस्टर में उनका नाम दर्ज न हो.

कुतुबुद्दीन चाचा की बातों को याद करते हुए लगता है कि रामनवमी के बारे में हम कितना कुछ लोगों को सुना सकते हैं. खास कर उन लोगों को जो धर्म को चश्मे की नजर से हमें दिखलाने की कोशिश करते हैं. धार्मिक सौहार्द का इससे बढ़ कर और क्या उदाहरण हो सकता है. जहां तक मुङो याद है कि व्यापारी वर्ग लाल रंग का एक कार्ड भी घरों तक पहुंचाया करते थे, जिसमें जहां रामनवमी की शुभकामना से संबंधित बातें लिखी होती थी वहीं बही-खाते के निबटारे की बात उसी शालीनता से लिखी रहती थी. यह कार्ड मुस्लिम दुकानदार भी छपवाते थे.

गांव-घर की स्मृति सबसे हरी होती है. दूब की तरह. जिस पर हर सुबह ओस की बूंद अपनी जगह बनाये रखती है. रामनवमी की स्मृति दूब की तरह ही निर्मल है. वहीं रामनवमी की शोभायात्रा का आनंद भी मन में कुलांचे मार रहा है. गांव से शहर की दूरी हम जल्दी से पाटना चाहते थे, ताकि शहर की शोभायात्रा का आनंद उठा सकें. राम के प्रति आस्था के साथ शोभायात्रा के प्रति एक अलग तरह की ललक रही है. दरअसल, राम की छवि हमारे मानस में एक ऐसे चरित्र की है, जो सबकुछ कर सकता है.

राम कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने राम रूप में असुरों का संहार करने के लिए पृथ्वी पर अवतार लिया और जीवन में मर्यादा का पालन करते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाये. जीवन की आपाधापी में हम वैसे तो सारी सुविधाओं को हासिल करने के लिए कुछ भी करने पर उतारू रहते हैं, लेकिन मर्यादा बनाये रखने या उसे हासिल करने की बात भी करने से हिचक रहे हैं. भले ही समय के साथ रामनवमी की शोभायात्रा हाइटेक हो गयी हो, लेकिन यह भी सच है कि हम नयी पीढ़ी को राम की कहानियों से दूर करते जा रहे हैं.

हम सब नयी पीढ़ी को उस मर्यादा पुरुषोत्तम की बात सुनाना या पढ़ाना नहीं चाहते हैं, जो विषम परिस्थितियों में भी नीतिसम्मत रहे. जिन्होंने वेदों और मर्यादा का पालन करते हुए सुखी राज्य की स्थापना की. स्वयं की भावना व सुखों से समझौता कर न्याय और सत्य का साथ दिया. फिर चाहे राज्य त्यागने, बाली का वध करने, रावण का संहार करने या सीता को वन भेजने की बात ही क्यों न हो. राम ने दया कर सभी को अपनी छत्रछाया में लिया.

यही वजह रही कि राम की सेना में पशु, मानव व दानव सभी थे और उन्होंने सभी को आगे बढ़ने का मौका दिया. केवट हो या सुग्रीव, निषादराज या विभीषण. हर जाति, हर वर्ग के मित्रों के साथ दिल से करीबी रिश्ता निभाया. वे न केवल कुशल प्रबंधक थे, बल्कि सभी को साथ लेकर चलने वाले थे. वे सभी को विकास का अवसर देते थे व उपलब्ध संसाधनों का बेहतर उपयोग करते थे.

उनके इसी गुण की वजह से लंका जाने के लिए उन्होंने व उनकी सेना ने पत्थरों का सेतु बना लिया था. दोस्तों के लिए भी उन्होंने स्वयं कई संकट ङोले. इतना ही नहीं शबरी के झूठे बेर खा कर प्रभु श्रीराम ने अपने भक्त से रिश्ते की एक मिसाल कायम की. आज भी राम जन्मोत्सव तो धूमधाम से मनाया जाता है, पर राम के आदर्शो को जीवन में नहीं उतारा जाता. अयोध्या के राजकुमार होते हुए भी भगवान राम अपने पिता के वचनों को पूरा करने के लिए संपूर्ण वैभव को त्याग 14 वर्ष के लिए वन चले गये और आज देखें तो वैभव की लालसा में हम माता-पिता से दूर होते जा रहे हैं.

रामकथाओं के दो अंत

हमारे पास वाल्मीकि द्वारा संस्कृत में कही गयी एक कथा ही नहीं है, दूसरों द्वारा कही गयी अनेकों राम कथाएं हैं जिनके बीच खासे बड़े अंतर मौजूद हैं. मिसाल के लिए, संस्कृत में और दूसरी भारतीय भाषाओं में कथा के दो तरह के समापन हैं. एक समापन वह है जहां राम और सीता अपनी राजधानी अयोध्या लौट आते हैं, जहां इस आदर्श राज्य के राजा और रानी के रूप में उनका राज्याभिषेक होता है.

दूसरा समापन, जिसे अक्सर वाल्मीकि और कम्बन रामायण में परवर्ती प्रक्षेप माना जाता है, वह है जहां सीता के बारे में राम मिथ्यापवाद सुनते हैं, और राजा के रूप में अपनी प्रतिष्ठा के नाम पर वे सीता को वन में निर्वासित कर देते हैं, जहां वे जुड़वां बच्चों को जन्म देती हैं. वे वाल्मीकि के आश्रम में पलते-बढ़ते हैं, रामायण के साथ-साथ उनसे युद्धकला भी सीखते हैं, राम की सेना से एक युद्ध जीतते हैं, और एक मार्मिक दृश्य में अपने पिता को, जो यह जानता भी नहीं कि ये कौन हैं, रामायण गाकर सुनाते हैं.

ये दोनों अलग-अलग समापन पूरी कृति को एक भिन्न रंगत दे देते हैं. पहला समापन राजसी निर्वासितों की वापसी का जश्न मनाता है और पुनर्मिलन, राज्याभिषेक तथा शांति-स्थापना के साथ कथा को समेट लेता है. दूसरे में, उनका सुख क्षणभंगुर है, और वे दुबारा जुदा हो जाते हैं, जिससे प्रिय का वियोग या विप्रलंभ पूरी कृति का केंद्रीय मनोभाव अंगी रस, बन जाता है. यहां तक कि इसे दुखांत भी कहा जा सकता है, क्योंकि सीता इसे और सहन नहीं कर पाती और धरती के एक विवर में समा जाती है, वही धरती जो उसकी माता है, जिसमें से वह निकली थी- जैसा कि हमने पहले देखा है, उसके नाम का अर्थ है हलरेखा, वही जगह जहां जनक ने उसे सबसे पहले पाया था.

हलरेखा से सीता की उत्पत्ति और धरती में उसकी वापसी एक वनस्पति-चक्र को भी दिखलाती है : सीता बीज के समान हैं और अपने मेघ-श्यामल शरीर के साथ राम वर्षा के समान हैं; दक्षिण में स्थित रावण अंधकारपूर्ण प्रदेशों में ले जाने वाला अपहर्ता है (दक्षिण दिशा में मृत्यु का वास है); धरती में वापस लौटने से पहले सीता थोड़े समय के लिए शुचिता और गरिमा के साथ प्रकट होती हैं. ऐसे मिथक को किसी कठोर रूपक/प्रतीक कथा में सीधे-सीधे ढालने की कोशिश तो नहीं करनी चाहिए, पर वह कई ब्योरों के साथ कथा की छायाओं में अनुगूंजित होता है. उर्वरता और वर्षा के बहुतेरे हवाले, शिव जैसे योगी व्यक्ति का राम द्वारा प्रतिवाद (जिसे कम्बन ने अहिल्या की कथा में बहुत स्पष्ट कर दिया है), उनके पुरखे द्वारा अपने साम्राज्य की धरती पर गंगा नदी को उतार लाना, ताकि मृतक के भस्मों का तर्पण और पुनरु ज्जीवन किया जा सके- इन सब पर ग़ौर करें.

(ए के रामानुजन के निबंध ‘300 रामायणों’ से)

भारत के बाहर राम

रामकथा साहित्य के विदेश गमन की तिथि और दिशा निर्धारित करना अत्यधिक दु:साध्य कार्य है, फिर भी दक्षिण-पूर्व एशिया के शिलालेखों से तिथि की समस्या का निराकरण बहुत हद तक हो जाता है. इससे स्पष्ट होता है कि ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में ही रामायण वहां पहुंच गयी थी. अन्य साक्ष्यों से यह भी ज्ञात होता है कि रामकथा की प्रारंभिक धारा सर्वप्रथम दक्षिण-पूर्व एशिया की ओर प्रवाहित हुई.

दक्षिण-पूर्व एशिया की सबसे प्राचीन और सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृति प्राचीन जावानी भाषा में विरचित रामायण का काबीन है जिसकी तिथि नौवीं शताब्दी का पूर्वार्ध है. इसके रचनाकार महाकवि योगीश्वर है. पंद्रहवी शताब्दी में इंडोनेशिया के इस्लामीकरण बावजूद वहां जवानी भाषा में ‘सेरतराम’, ‘सेरत कांड’, ‘राम केलिंग’ आदि अनेक रामकथा काव्यों की रचना हुई जिनके आधार पर अनेक विद्वानों द्वारा वहां के राम साहित्य का विस्तृत अध्ययन किया गया है.

इंडोनेशिया के बाद हिंद-चीन भारतीय संस्कृति का गढ़ माना जाता है. इस क्षेत्र में पहली से पंद्रहवीं शताब्दी तक भारतीय संस्कृति का बोलबाला रहा. यह सर्वथा आश्चर्य का विषय है कि कंपूचिया के अनेक शिलालेखों में रामकथा की चर्चा हुई है, किंतु वहां उस पर आधारित मात्र एक कृति ‘रामकेर्ति’ उपलब्ध है, वह भी खंडित रूप में. उससे भी अधिक आश्चर्य का विषय यह हे कि चंपा (वर्तमान वियतनाम) के एक प्राचीन शिलालेख में वाल्मीकि के मंदिर का उल्लेख है, किंतु वहां रामकथा के नाम पर मात्र लोक कथाएं ही उपलब्ध हैं.

लाओस के निवासी स्वयं को भारतवंशी मानते हैं. उनका कहना है कि कलिंग युद्ध के बाद उनके पूर्वज इस क्षेत्र में आकर बस गये थे. लाओस की संस्कृति पर भारतीयता की गहरी छाप है. यहां रामकथा पर आधारित चार रचनाएं उपलब्ध हैं- फ्रलक फ्रलाम (रामजातक), ख्वाय थोरफी, ब्रह्मचक्र और लंका नोई.

थाईलैंड का रामकथा साहित्य बहुत समृद्ध है. रामकथा पर आधारित निम्नांकित प्रमुख रचनाएं वहां उपलब्ध हैं- तासकिन रामायण, सम्राट राम प्रथम की रामायण, सम्राट राम द्वितीय की रामायण, सम्राट राम चतुर्थ की रामायण (पद्यात्मक), सम्राट राम चतुर्थ की रामायण (संवादात्मक), सम्राट राम षष्ठ की रामायण (गीति-संवादात्मक). आधुनिक खोजों के अनुसार बर्मा (म्यांमार) में रामकथा साहित्य की 16 रचनाओं का पता चला है जिनमें ‘रामवत्थु’ प्राचीनतम कृति है.

मलयेशिया में रामकथा से संबद्ध चार रचनाएं उपलब्ध हैं- हिकायत सेरी राम, सेरी राम, पातानी रामकथा और हिकायत महाराज रावण. फिलिपींस की रचना महालादिया लावन का स्वरूप रामकथा से बहुत मिलता-जुलता है, किंतु इसका कथ्य बिल्कुल विकृत है.

चीन में रामकथा बौद्ध जातकों के माध्यम से पहुंची थी. वहां ‘अनामक जातक’ और ‘दशरथ कथानम’ का क्रमश: तीसरी और पांचवीं शताब्दी में अनुवाद किया गया था. दोनों रचनाओं के चीनी अनुवाद तो उपलब्ध हैं, किंतु जिन रचनाओं का चीनी अनुवाद किया गया था, वे अनुपलब्ध हैं. तिब्बती रामायण की छह पांडुलिपियां तुन-हुआन नामक स्थल से प्राप्त हुई हैं. इनके अतिरिक्त वहां राम कथा पर आधारित दमर-स्टोन तथा संघ श्री विरचित दो अन्य रचनाएं भी हैं.

एशिया की पश्चिमोत्तर सीमा पर स्थित तुर्किस्तान के पूर्वी भाग को खोतान कहा जाता है. इस क्षेत्र की भाषा खोतानी है. खोतानी रामायण की प्रति पेरिस पांडुलिपि संग्रहालय से प्राप्त हुई है. इस पर तिब्बत्ती रामायण का प्रभाव परिलक्षित होता है. चीन के उत्तर-पश्चिम में स्थित मंगोलिया में राम कथा पर आधारित ‘जीवक जातक’ नामक रचना है. इसके अतिरिक्त वहां तीन अन्य रचनाएं भी हैं जिनमें रामचिरत का विवरण मिलता है. जापान के एक लोकिप्रय कथा संग्रह ‘होबुत्सुशु’ में संक्षिप्त रामकथा संकलित है.

इसके अतिरिक्त वहां ‘अंधमुनिपुत्र वध’ की कथा भी है. श्री लंका में कुमार दास के द्वारा संस्कृत में ‘जानकी हरण’ की रचना हुई थी. वहां सिंहली भाषा में भी एक रचना है, ‘मलयराजकथाव’. नेपाल में रामकथा पर आधारित अनेकानेक रचनाएं जिनमें भानुभक्तकृत रामायण सर्वाधिक लोकिप्रय है. (इंदिरा गांधी कला केंद्र की वेबसाइट से)

रामायण का अर्थ है- राम का यात्रा पथ

रामायण का विश्लेषित रूप ‘राम का अयन’ है, जिसका अर्थ है ‘राम का यात्रा पथ’, क्योंकि अयन यात्रापथवाची है. इसकी अर्थवत्ता इस तथ्य में भी अंतर्निहित है कि यह मूलत: राम की दो विजय यात्राओं पर आधारित है जिसमें प्रथम यात्रा यदि प्रेम-संयोग, हास-परिहास तथा आनंद-उल्लास से परिपूर्ण है, तो दूसरी क्लेश, क्लांति, वियोग, व्याकुलता, विवशता और वेदना से आवृत्त. विश्व के अधिकतर विद्वान दूसरी यात्रा को ही रामकथा का मूल आधार मानते हैं. एक-श्लोकी रामायण में राम वन गमन से रावण वध तक की कथा ही रूपायित हुई है।

अदौ राम तपोवनादि गमनं हत्वा मृगं कांचनम्।

वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीव संभाषणम्।

वालि निग्रहणं समुद्र तरणं लंका पुरी दास्हम्।

पाश्चाद् रावण कुंभकर्ण हननं तिद्ध रामायणम्।

अपने-अपने राम

राम

लबरेज़ है शराबे-हक़ीक़त से जामे-हिन्द [1]

सब फ़ल्सफ़ी हैं खित्ता-ए-मग़रिब के रामे हिन्द [2]

ये हिन्दियों के फिक्रे-फ़लक [3] उसका है असर,

रिफ़अत [4] में आस्माँ से भी ऊँचा है बामे-हिन्द [5]

इस देश में हुए हैं हज़ारों मलक [6] सरिश्त [7] ,

मशहूर जिसके दम से है दुनिया में नामे-हिन्द

है राम के वजूद [8] पे हिन्दोस्ताँ को नाज़,

अहले-नज़र समझते हैं उसको इमामे-हिन्द

एजाज़ [9] इस चिराग़े-हिदायत [10] , का है यही

रोशन तिराज़ सहर [11] ज़माने में शामे-हिन्द

तलवार का धनी था, शुजाअत [12] में फ़र्द [13] था,

पाकीज़गी [14] में, जोशे-मुहब्बत में फ़र्द था

इकबाल

शब्दार्थ:

1. हिन्द का प्याला सत्य की मदिरा से छलक रहा है, 2. पूरब के महान चिंतक हिन्द के राम हैं, 3. महान चिंतन, 4. ऊंचाई 5. हिन्द का गौरव या ज्ञान, 6. देवता, 7. ऊंचे आसन पर, 8. अस्तित्व, 9. चमत्कार, 10. ज्ञान का दीपक, 11. भरपूर रोशनी वाला सवेरा, 12. वीरता, 13. एकमात्र, 14. पवित्रता

शबरी के जूठे बेरों में

राम नहीं मिलते ईंटों में गारा में

राम मिलें निर्धन की आँसू-धारा में

राम मिलें हैं वचन निभाती आयु को

राम मिले हैं घायल पड़े जटायु को

राम मिलेंगे अंगद वाले पाँव में

राम मिले हैं पंचवटी की छाँव में

राम मिलेंगे मर्यादा से जीने में

राम मिलेंगे बजरंगी के सीने में

राम मिले हैं वचनबद्ध वनवासों में

राम मिले हैं केवट के विश्वासों में

राम मिले अनुसुइया की मानवता को

राम मिले सीता जैसी पावनता को

राम मिले ममता की माँ कौशल्या को

राम मिले हैं पत्थर बनी अहिल्या को

राम नहीं मिलते मंदिर के फेरों में

राम मिले शबरी के जूठे बेरों में

हरिओम पंवार

राम कहां मिलेंगे

ना मंदिर में ना मस्जिद में

ना गिरजे के आसपास में

ना पर्वत पर ना नदियों में

ना घर बैठे ना प्रवास में

ना कुंजों में ना उपवन के

शांति-भवन या सुख-निवास में

ना गाने में ना बाने में

ना आशा में नहीं हास में

ना छंदों में ना प्रबंध में

अलंकार ना अनुप्रास में

खोज ले कोई राम मिलेंगे

दीन जनों की भूख प्यास में

राम नरेश त्रिपाठी

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