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विचारधारा से नहीं, भय से नक्सलवाद से जुड़े थे लोग

ग्लैडसन डुंगडुंग सारंडा में माओवादियों के आने की कहानी भी काफी दिलचस्प है. 1967 में नक्सलबाड़ी आंदोलन के समय इस इलाके में छोटी-मोटी नक्सली घटनाएं जरूर हुई थी, लेकिन यहां नक्सल आंदोलन खड़ा नहीं हो सका. क्योंकि यहां के आदिवासी अपने बलबूते जल, जंगल और जमीन की रक्षा के लिए आंदोलन चला रहे थे. झारखंड […]

ग्लैडसन डुंगडुंग

सारंडा में माओवादियों के आने की कहानी भी काफी दिलचस्प है. 1967 में नक्सलबाड़ी आंदोलन के समय इस इलाके में छोटी-मोटी नक्सली घटनाएं जरूर हुई थी, लेकिन यहां नक्सल आंदोलन खड़ा नहीं हो सका. क्योंकि यहां के आदिवासी अपने बलबूते जल, जंगल और जमीन की रक्षा के लिए आंदोलन चला रहे थे.

झारखंड आंदोलन भी साथ-साथ चल रहा था. 1980 के दशक में सारंडा और पोड़ाहाट के इलाके में बड़े पैमाने पर जंगल आंदोलन हुआ. यहां के आदिवासियों ने वन विभाग के खिलाफ आंदोलन छेड़ते हुए जंगलों पर अपना पारंपरिक अधिकार का दावा कर दिया. फलस्वरूप, उनके ऊपर बड़े पैमाने पर पुलिस अत्याचार हुआ. पुलिस फायरिंग की 19 घटनाएं हुई, जिसमें 36 लोग मारे गये और 4100 लोगों को जेल जाना पड़ा.

इसी बीच 15 नवंबर, 2000 को झारखंड राज्य का गठन हुआ और देवेंद्र मांझी जैसे चमत्कारिक नेतृत्व के अभाव में जंगल आंदोलन भी कमजोर पड़ गया. अब जंगल आंदोलन के नेतृत्वकर्ताओं को लगा कि नयी सरकार आदिवासियों को जंगल से बेदखल कर देगी, तो उन्होंने माओवादियों को सारंडा बुला लिया.

वर्ष 2000 के अंत में सात सदस्य एमसीसी का एक दस्ता सारंडा जंगल में प्रवेश किया. 27 नवंबर-2001 को एमसीसीआइ के एरिया कमांडर ईश्वर महतो को पुलिस ने बिटकिलसोय गांव में मार गिराया था, जो यहां की पहली घटना थी. इसके जवाब में एमसीसीआइ ने अपनी ताकत दिखाते हुए 20 दिसंबर, 2002 को इसी गांव के पास पुलिस वाहन को विस्फोट से उड़ा दिया था, जिसमें दो आम जनता सहित 20 पुलिसकर्मी मारे गये थे.

इसी बीच 21 सितंबर, 2004 में एमसीसीआइ और पीडब्यूजी का विलय होकर नया संगठन सीपीआइ (माओवादी) का जन्म हुआ. देखते ही देखते सारंडा जंगल माओवादी संगठन के पूर्वी जोन का मुख्यालय बन गया. सारंडा जंगल में मौजूद देश का 25 प्रतिशत लौह-अयस्क ने भी माओवादी आंदोलन को मजबूती प्रदान किया. माओवादी खनन कंपनियों से लेवी, विस्फोटक और जरूरत का समान लेकर उन्हें सुरक्षा प्रदान करते रहे. कई बार ऐसा भी देखा गया जब वे स्वयं अवैध उत्खनन में शामिल रहे.

इस तरह से माओवादियों ने सारंडा जंगल से बड़े पैमाने पर पैसा कमाया, जबकि वहां के आदिवासियों को अपनी आजीविका के लिए संसाधनों से हाथ धोना पड़ा. साथ ही पुलिस अत्याचार और नक्सलियों का प्रताड़ना ङोलना पड़ा. और यही वजह है, जिसके कारण आदिवासियों ने नक्सल आंदोलन से मुंह मोड़ कर सीआरपीएफ का शरण लिया है. माओवादियों का गढ़ थोलकोबाद, तिरिलपोशी, बालिबा, कोदलीबाद इत्यादि गांवों का चबूतरा सुनसान पड़ा है. ग्रामीण बताते हैं: गांव के चबूतरा पर ही माओवादियों की बैठक होती थी और दिन में भी वे बंदूक के साथ गांव में मौजूद रहते थे.

पर अब वे दिखाई नहीं पड़ते हैं. यद्घपि सारंडा जंगल में सीआरपीएफ कैंप होने से वहां के आदिवासी खुद ज्यादा सुरक्षित जरूर महसूस कर रहे हैं. लेकिन उन्हें जमीन और जंगल खोने का डर भी सता रहा है. सरकार ने जिंदल, मित्तल, टाटा, रूंगटा, इलेक्ट्रो स्टील सहित कई कंपनियों को 22 नयी माइनिंग लीज पर दी है. यहां यह देखना दिलचस्प होगा कि नक्सली आंदोलन और आदिवासी लोग अब किस दिशा में जाते हैं.

इस क्षेत्र के आदिवासियों से बात करने से एक बात बहुत ही स्पष्ट है कि हकीकत में बहुसंख्यक लोग नक्सल आंदोलन में विचारधारा के बदले भय से जुड़े थे. लेकिन दुनिया में कई ऐसे उदाहरण हैं, जो बताता है कि भय के बल पर ज्यादा दिन तक शासन नहीं चलाया जा सकता है. नक्सल आंदोलन का परिणाम भी यही हो रहा है. आदिवासियों ने सरकारी बंदूक से संघर्ष करने के लिए नक्सलियों के बंदूक का सहारा लिया, लेकिन अब सरकार और नक्सली दोनों के बंदूक से बचने के लिए अपने पारंपरिक हथियारों का भी इस्तेमाल कर रहे हैं.

यह भी स्पष्ट हो रहा है कि अब बहुसंख्यक आदिवासी शांति से जीना चाहते हैं. उन्हें न ही पुलिस और न ही नक्सलियों का सहारा चाहिए. हकीकत यही है कि सरकार ने जिस तरह से आदिवासियों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा किया था, ठीक उसी तरह नक्सलियों ने भी आज आदिवासियों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया है और अंतत: अधिकार और न्याय की आस में बंदूक का साथ लेने वाला आदिवासी समुदाय सब कुछ गवां रहा है. इसलिए सरकार और नक्सल आंदोलन दोनों को अपनी रणनीति पर पुर्नविचार करना चाहिए.

आदिवासियों को भी यह समझना होगा कि उन्हें बंदूक से कभी न्याय नहीं मिल सकता है, क्योंकि वह दौर समाप्त हो चुका है, जब उन्होंने तीर-धनुष के बल पर अपनी जमीन, जंगल, पहाड़, नदी और खनिज संपदाओं को सुरक्षित किया था. बंदूक से अधिकार और न्याय की आस लगाने की वजह से झारखंड राज्य के गठन से अब तक यहां के लगभग 6000 आदिवासी विभिन्न जेलों में बंद हैं, 3000 आदिवासियों की हत्या हो चुकी है. कई महिलाओं के साथ बलात्कार की घटना घटी.

हजारों आदिवासी यातनाओं के शिकार हुए और सरकार के लिए लोकतांत्रिक आंदोलनों को भी नक्सल आंदोलन बता कर कुचलने के लिए आसान हो गया. यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी की नक्सल आंदोलन ने आदिवासी समाज को गर्त में धकेल दिया.

ऐसे समय में आदिवासियों को अपने संवैधानिक, कानून और पारंपरिक अधिकारों का उपयोग करते हुए न्याय हासिल करना चाहिए. यह बात स्पष्ट हो चुका है कि नक्सल आंदोलन आदिवासियों को कभी न्याय नहीं दे सकता है. क्योंकि अब यह वर्चस्व की लड़ाई में तब्दील हो चुकी है, इसलिए अब आदिवासियों को अधिकार और न्याय हासिल करने के लिए लोकतंत्रिक तरीके से ही संघर्ष को आंजाम देना होगा. निश्चित तौर पर आदिवासियों द्वारा जॉनसन की हत्या नक्सल आंदोलन के समाप्ति की ओर इशारा है.

(लेखक मानवाधिकार कार्यकर्ता, लेखक और चिंतक हैं.)

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