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स्कूल-कॉलेजों की सुरक्षा का प्रश्न हाशिये पर क्यों?

पाकिस्तान में पेशावर के एक स्कूल पर आतंकवादी हमले ने पूरी दुनिया को स्तब्ध कर दिया. बच्चों का कत्ले आम! ऐसी वीभत्सता! यह हर उस मां-बाप के जेहन में डर बिठाने के लिए काफी था जिसके बच्चे स्कूल जाते हैं. क्योंकि आतंकवाद की कोई सरहद नहीं है. जैसा हमला पेशावर में हुआ, वह दुनिया में […]

पाकिस्तान में पेशावर के एक स्कूल पर आतंकवादी हमले ने पूरी दुनिया को स्तब्ध कर दिया. बच्चों का कत्ले आम! ऐसी वीभत्सता! यह हर उस मां-बाप के जेहन में डर बिठाने के लिए काफी था जिसके बच्चे स्कूल जाते हैं. क्योंकि आतंकवाद की कोई सरहद नहीं है. जैसा हमला पेशावर में हुआ, वह दुनिया में कहीं भी दोहराया जा सकता है. और यह बात गलत भी साबित नहीं हुई.

इसी महीने अफ्रीकी देश, केन्या के एक विश्वविद्यालय पर आतंकियों ने हमला कर लगभग 150 छात्रों को मौत के घाट उतार दिया. इसके अलावा, अमेरिका से स्कूलों में छात्रों द्वारा अपने साथियों या शिक्षकों पर गोलीबारी की खबरें भी आती रहती हैं.

ऐसे में, अपने देश भारत में भी यह बहस चलती रहती है कि हमारे स्कूल, हमारे सार्वजनिक स्थल कितने महफूज हैं? क्या सुरक्षा के नाम पर स्कूल-कॉलेजों को बख्तरबंद कर दिया जाये? या फिर इसके लिए कुछ और किये जाने की जरूरत है? इसी बहस को आगे बढ़ाने की कोशिश आज के ‘विशेष’ में.

श्रीश चौधरी

16 दिसंबर, 2014 की सुबह आर्मी पब्लिक स्कूल, पेशावर में जो घटना हुई, ईश्वर करे कि वह अंतिम हो. जैसा कि घायल एवं भागते हुए अन्य बच्चों को स्कूल के पास मदद कर रही एक मां ने बीबीसी के रिपोर्टर को कहा, ‘‘जिन्हें मैं नहीं बचा सकी वह भी मेरे ही बच्चे थे, जो शिक्षक एवं अन्य कर्मचारी मारे गये वे भी मेरे ही अपने थे.’’ फिर ऐसा नहीं हो, कहीं भी नहीं हो.

किसी भी रूप में नहीं हो. ना ही आकाश में उड़ते हुए निरपराध यात्री सैकड़ों की तादाद में मार गिराये जायें, ना ही जहाज के साथ सैकड़ों बच्चे समुद्र में डूब जायें, ना ही स्कूल के रसोईघर से आग फैल कर सवा सौ से अधिक बच्चों को भागने का भी अवसर एवं रास्ता नहीं दे और उन्हें जला कर मार दे. ईश्वर करे ऐसा कुछ भी नहीं हो. हम अपने घरों, मंदिरों मसजिदों, चर्चो एवं गुरुद्वारों में प्रार्थना करें. इसके अतिरिक्त हम बहुत कुछ कर भी नहीं सकते हैं. परंतु जो थोड़ा बहुत कर सकते हैं, वह अवश्य करें.

हम क्या कर सकते हैं?

हम सुरक्षा एजेंसियों से, सरकार से, फौज से अनुरोध करें कि वे हमारी स्वतंत्रता और सुरक्षा पर आक्रमण के नये रूपों को पहचानें. पिछले 42 वर्षो में, कम से कम दक्षिण एशिया के देशों में, विदेश से, बाहर से आक्रमणकारी नहीं आये हैं. राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा उसी श्रेणी के दूसरे नेता दक्षिण एशिया के हर देश में मारे गये हैं.

निदरेष, असहाय नागरिकों के समूह भी इसी तरह से मंदिरों, मसजिदों, चर्चो, सिनेमाघरों, बाजारों, होटलों आदि में देश के अंदर ही संगठित आतंकवादी समूहों द्वारा ही मारे गये हैं. संकट अब अपनी सीमाओं के अंदर से अधिक है. निरंतर युद्ध या युद्ध-सी स्थिति अब अपनी सीमाओं के अंदर है.

इसलिए यह युद्ध भी अब अपने देश की सीमाओं के अंदर भी या अंदर ही लड़ना होगा. प्रतिरक्षा के मद में दिये गये हजारों करोड़ रुपये के बजट का एक अच्छा अंश अब आंतरिक सुरक्षा में जाना चाहिए. अन्यथा अभी हमारे संतरी वैसे दरवाजों पर खड़े हैं, जहां से आक्रमण की संभावना अपेक्षाकृत कम हैं. वैसे भी वे दिन लद गये, जब चीन या जापान चाहें तो ताइवान या वियतनाम जैसे देश पर भी चढ़ जायें और अपना शासन स्थापित कर लें. काश! सद्दाम हुसैन कुवैत नहीं गये होते.

व्यापार एवं व्यापारिक कंपनियों द्वारा चलायी जा रही आज की दुनिया में इतना कुछ दावं पर लगा हुआ है कि कोई भी देश विश्वशांति एवं इसकी व्यापारिक व्यवस्था को क्षति पहुंचाने की कीमत बर्दाश्त नहीं कर पायेगा. वरना चीन को ताइवान में घुसने में कितना समय लगेगा?

या भारत में ही घुसने में उसे कितना समय लगेगा? बीजिंग से सीधी रेलगाड़ी ल्हासा तक चली जाती हैं. अच्छी गति में काफी यात्रियों को लेकर. और हम तो अभी भी बस से ही लद्दाख जा रहे हैं. ये जितनी भी मिसाइलें बंगाल की खाड़ी में दागी जा रही हैं, वे चीन की सामरिक शक्ति के आगे खिलौनों जैसी हैं और दुश्मनों से अधिक स्वयं को धोखा देने जैसी हैं.

फिर चीन में अनुशासन है, वहां प्रजातंत्र नहीं है. चीन का भारत के साथ व्यापार है और इस व्यापार में बहुत अधिक दावं पर लगा हुआ है. दोनों ही देश इसे तोड़ कर घाटे में रहेंगे. इसलिए एक सीमा से अधिक प्रतिरक्षा पर व्यय और पुराने प्रकार की प्रतिरक्षा पर व्यय अनावश्यक प्रतीत होता है.

देश के भीतर से असल खतरा

संघ एवं राज्यों की सरकारों द्वारा हो रहे सुरक्षा प्रयास एवं व्यय का एक अच्छा अंश देश के विरुद्ध देश के ही अंदर हो रहे षड्यंत्र की पहचान एवं उसकी रोकथाम में लगना चाहिए. आज वह तकनीक एवं वैसी व्यवस्था उपलब्ध है. ध्यान देने की बात है कि नौ सौ कर्मियों से भी कम लोगों का पुलिस-बल लंदन जैसे बड़े शहर को सुरक्षित रखता है, जबकि 74 हजार पुलिसकर्मी दिल्ली को सुरक्षित नहीं रख पाते हैं. ऐसा नहीं है कि दिल्ली के हमारे मित्र अक्षम हैं, या अयोग्य हैं.

उनके पास बस अत्याधुनिक अनुसंधान एवं अन्य यंत्र नहीं हैं. शायद उनके पास अब भी एक ऐसा हेलिकॉप्टर नहीं है, जो दिन-रात उनकी सेवा में हो, जो दिन-रात दिल्ली एवं आसपास के सार्वजनिक स्थानों पर नजर रख सकता हो. प्राय: अब भी अनेक सारे चौरस्ते, सारी सड़कें एवं अन्य जंक्शन उनके कैमरे की नजर में नहीं हैं,

शायद अब भी उनके पास ऐसे लोग नहीं हैं, जो कैमरों से आ रही ऐसी सूचना को एक विश्वसनीय पहचान देकर अपने सहयोगियों को कारगर सलाह दे सकें.ऐसी ही तकनीक की सहायता से ब्रिटेन की पुलिस ने वर्ष 2007 में ग्लासगो हवाई अड्डे पर बारूद से भरी जीप में बैठे आतंकियों को घुसने से रोका था.

आज विश्व का हर विकसित देश ऐसी सुरक्षा व्यवस्था के कवच में शांति से रह रहा है. हम भी ऐसा कर सकते हैं. सिर्फ हमें अपनी प्राथमिकताओं की फिर से समीक्षा करनी है. हम अपने नेताओं के इर्द-गिर्द दर्जनों कारबाइन रख कर उन्हें सुरक्षित रख सकते हैं, या जिन पैसों से ये कारबाइन खरीदे जा रहे हैं उन्हें आतंकियों के संगठन एवं प्रवेश को रोकने में लगा कर अधिक सुरक्षित रख सकते हैं? उत्तर स्पष्ट है. फिर भी हम ऐसा नहीं कर रहे हैं और जब दिल्ली की ऐसी स्थिति है, तो राज्य पुलिस संगठनों की तो चर्चा भी निर्थक है. वहां तो अभी भी, देहाती थानों तक कंप्यूटर नहीं पहुंचे हैं.

प्राय: उनके पास मात्र उन्हीं के उपयोग के लिए हेलिकॉप्टर एवं ऐसे अन्य थल एवं वायु वाहन नहीं हैं. और यदि नेपाल-उत्तर बिहार सीमा असुरक्षित है, तो दिल्ली या मुंबई सुरक्षित नहीं हो सकते हैं. यह स्थिति शीघ्र-अतिशीघ्र बदलनी चाहिए. सरकार यदि लोगों के जान-माल की भी रक्षा नहीं कर सकती है, तो सरकार के होने का कोई कारण नहीं रह जाता है.

संगठित अपराध रोके जा सकते हैं

असंगठित हिंसा, अचानक उबले हुए क्रोध एवं ऐसे क्रोध के परिणाम को प्राय: नहीं रोका जा सकता है. कोई मां या बाप क्रोध में यदि अपने बच्चों की हत्या कर दे, तो इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना को प्राय: नहीं रोका जा सकता है. बाद में भले ही हम उसे जो चाहें दंड दे लें.

परंतु संगठित समूहों द्वारा योजनाबद्ध आक्रमण को रोका जा सकता है. यह सम्राट अशोक एवं अकबर के जमाने में भी संभव था, आज भी संभव है. आज उसमें आधुनिक यंत्र भी जुड़ गये हैं. जासूसी के लिए कुछ गुप्तचरों की जरूरत है. अंगरेजों के शासन काल में पुलिस प्रशासन में गुप्तचरों का बड़ा योगदान था. 1947 में दिल्ली में, और दिल्ली में तब भी बीस लाख से अधिक लोग रहते थे, मात्र एक हजार के लगभग पुलिसकर्मी थे. और इतने ही लोग सारी दिल्ली को सुरक्षित रखते थे.

मैं सुरक्षा विषयों का विशेषज्ञ नहीं हूं, परंतु एक सामान्य नागरिक के सामान्य ज्ञान से मेरी प्रबल धारणा है कि इस दिशा में जितने प्रयास करने चाहिए, हम उतना नहीं कर रहे हैं. यदि ऐसी धारणा सही है, तो यह स्थिति बदलनी चाहिए. अविलंब. अन्यथा सुरक्षा सलाहकारों एवं एजेंसियों की जिम्मेदारी बनती है कि वे देश को बतायें कि आंतरिक सुरक्षा को पक्का करने के लिए वे क्या कर रहे हैं. कम से कम अगले आक्रमण के बाद एक नया बयान, एक नयी प्रेस विज्ञप्ति तो होनी ही चाहिए.

यह ‘चहारदीवारी युग’ है

हमें अपने स्कूल प्रशासन को भी पूछना चाहिए कि वे आतंकी एवं अन्य आक्रमणों को रोकने के लिए, अनाधिकृत प्रवेश रोकने के लिए क्या कर रहे हैं. हम आज ‘गेटेड कम्युनिटी’ (फाटकबंद समुदाय) के युग में रह रहे हैं, जहां ऐसे मुहल्ले, रिहाइशी उपनगर, कॉलोनी आदि बनाये जा रहे हैं, जिनमें बिना अनुमति के फेरीवाले तथा कुत्ते तक नहीं घुस सकते हैं. फिर हम ऐसे स्कूल क्यों नहीं बना सकते हैं?

कोई कारण नहीं है कि स्कूल के चारों ओर दीवार ना हो या टूटी दीवार हो, फाटक नहीं हो, सुरक्षा गार्ड नहीं हो, और जहां अनचाहे व्यक्तियों का प्रवेश संभव हो? जहां ऐसे कमरे, खिड़कियों तथा दरवाजे नहीं हों, जो अनचाही वस्तुओं-व्यक्तियों का प्रवेश रोक सकें?

क्या आप हर स्कूल को एक किला बना देना चाहते हैं, मेरे मित्र यह सवाल अक्सर पूछते हैं. नहीं, मैं अभी भी चाहता हूं कि बच्चे तथा उनके शिक्षक निर्भय स्कूल जायें, वहां रहें, खेलें, काम करें और घर वापस आयें. साथ ही वे सुरक्षित रहें. क्या सुरक्षित एवं मुक्त जीवन आज एक साथ संभव नहीं रह गया है? यह एक नयी चुनौती है, जिसका उत्तर हमें ढूंढ़ना होगा.

सुरक्षा पर खर्च का सवाल

प्रश्न सुरक्षा पर खर्चे एवं पैसों का भी उठता है. क्या हमारे पास इतने पैसे हैं? इतना धन है? मेरी राय में सरकार तथा गैर-सरकारी संगठनों के पास, कम से कम जहां तक बच्चों व नागरिकों की सुरक्षा का प्रश्न है, धन की कमी नहीं होनी चाहिए. सरकारी स्कूलों में साइकिल, कपड़े, सबको भोजन, सबके लिए पुस्तकें आदि आवश्यक एवं अनावश्यक मदों में काफी धन खर्चा जा रहा है, उसी धन का एक अंश इधर भी लगाया जा सकता है.

‘चंद्रायन’ एवं ‘अंतरिक्ष अनुसंधान’ के लक्ष्यों में भी आंतरिक सुरक्षा के अन्वेषण जैसे मुद्दे जोड़े जा सकते हैं या फिर अतिरिक्त अनुदान के प्रयास किये जा सकते हैं. जहां संभव है वहां अभिभावकों की भी सहायता ली जा सकती है. यदि 500 अभिभावक भी 500 रुपये प्रतिवर्ष स्कूल को सुरक्षा बढ़ाने के लिए दे देते हैं, तो स्कूल के पास ढाई लाख रुपये की अतिरिक्त राशि इस काम के लिए उपलब्ध होगी.

पैसों से भी अधिक इस दिशा में संगठन एवं चेतना की आवश्यकता है. हमें अपने आप से यह पूछना चाहिए कि क्या हम अपने शिक्षण संस्थानों, अस्पतालों, अन्य सार्वजनिक स्थानों की सुरक्षा के लिए जो कर सकते हैं वह कर रहे हैं?

कोई कारण नहीं है कि हमारे सुरक्षा गार्ड वैसे क्यों नहीं हों, जिनको स्वयं सुरक्षा की आवश्यकता नहीं हो, जो प्रशिक्षित हों, जिनके पास यूनीफॉर्म के अलावा गार्ड होने के लिए कुछ और भी हो, जो अनाधिकृत, अनामंत्रित किसी भी छोटे-बड़े प्राणी को अंदर नहीं आने देंगे.

परंतु ऐसे गार्ड अच्छे वेतन की अपेक्षा रखेंगे. एक सुरक्षा विशेषज्ञ का कहना है कि मूंगफली के लिए तो केवल बंदर ही आयेंगे. शेर चाहिए, तो कुछ और देना होगा. हम अपने सार्वजनिक स्थानों की सुरक्षा की अनदेखी अब और नहीं कर सकते हैं. अब इस मुद्दे पर अविलंब सार्वजनिक चर्चा एवं विश्वसनीय व्यवस्था होनी चाहिए.

आतंकवाद ही अकेला खतरा नहीं

सार्वजनिक स्थानों पर संकट सिर्फ आतंकियों से नहीं है. कुछ वर्षो पहले तमिलनाडु के कुंभकोणम शहर के एक स्कूल में ऐसी आग लगी कि वहां पढ़ रहे लगभग 100 बच्चे जल कर मर गये. स्कूल का भवन दोमंजिला था, वहां बस एक ही सीढ़ी थी और उसी सीढ़ी के पास स्कूल का रसोईघर था.

ऊपरवाली मंजिल पर प्राय: नारियल के पत्ताें का छाजन था. रसोईघर में गैस सिलिंडर से निकल कर आग ऐसी फैली कि बच्चे भाग ही नहीं पाये. स्कूल में यदि भवन हो, तो हवादार हो, वहां धूप आती हो, पानी, आग तथा भूकंप से सुरक्षा एवं उस भवन से निकलने की व्यवस्था हो, जितना आवश्यक यह है कि अवांछित व्यक्ति अंदर ना आयें, उतना ही आवश्यक यह भी है कि हम संकट में शीघ्र बाहर आ सकें. ऐसी व्यवस्था व्यय नहीं, मात्र विचार एवं तत्परता मांगती है. एवं इसकी जिम्मेदारी अभिभावकों की भी उतनी ही है, जितनी प्रशासकों की.

अभी कुछ दिनों पहले दक्षिण कोरिया से 450 के करीब स्कूली बच्चे छुट्टी मनाने एक जहाज से किसी अन्य टापू पर जा रहे थे. कम पैसेवाले टिकट से चलने के कारण उन्हें जहाज के निचले तल्ले (बंक क्लास) में रखा गया था. जहाज को मुख्य भूमि से दूसरे टापू तक रात में जाना था. जहाज के मालवाही कार्गो वाले तल्ले में कारें भी लादी गयी थी. परंतु कहते हैं कि उन्हें जैसे बेल्ट से बांध कर अपनी जगह पर स्थिर रखने की व्यवस्था की जानी चाहिए थी वैसी नहीं की गयी.

परिणामस्वरूप कुछ दूर समुद्र में चलने के बाद जब जहाज एक दिशा में मुड़ने के लिए झुका तो सारी कारें उसी किनारे सरक गयीं, उधर भार बढ़ गया और जहाज फिर सीधा नहीं हो पाया. शीघ्र ही उसमें पानी भर गया और अन्य सभी यात्रियों के साथ वे बच्चे भी डूब गये. उन्होंने जीवन रक्षक जैकेट पहन रखे थे. लेकिन उनके बंक केबिन का दरवाजा बंद होने से वे निकल ही नहीं पाये. रक्षा-जैकेट पहने हुए ही वे डूब कर मर गये.

बिहार के दरभंगा जिले के एक गांव में आयें. मैं इस कथा का चश्मदीद गवाह नहीं हूं. कुछ जोड़-घटा कर मुङो यह कहानी सुनायी गयी. संक्षेप में घटना प्राय: इस प्रकार है. इस गांव के कुछ लड़के वॉलीबाल मैच खेलने पास के किसी गांव में गये. इन्होंने एक मिनी बस ले ली. उस बस का हेडलाइट ठीक नहीं था, और बस मालिक ने मना भी किया.

परंतु बच्चों ने जिद मचायी और बस लेकर चले गये. वापस आते समय अंधेरा हो गया. ड्राइवर ने फिर मना किया. बच्चों ने फिर जिद मचायी. मोबाइल फोन की रोशनी में वे चल पड़े, कुछ दूर कुछ देर चलने के बाद सड़क किनारे रखे पत्थर के टुकड़ों के एक ढेर से बस टकरा गयी. बस उलट गयी. कुछ को चोटें आयीं और एक लड़का मारा भी गया. हम कह सकते हैं कि उस बच्चे की इतनी ही आयु लिखी थी. लेकिन, हम साथ ही गाड़ी में हेडलाइट भी लगवा सकते थे. किसी और दिन मैच खेल सकते थे. पैदल जा सकते थे. परंतु हमने ऐसा नहीं किया. हम रोज भीड़ से भरी बस, टेंपो, ट्रेन, नाव, जहाज पर बैठते हैं, इन वाहनों की आयु, इनका स्वास्थ्य कुछ भी नहीं देखते हैं. एक रुपये, एक मिनट बचाने के लिए हम कैसा भी जोखिम उठाते हैं. यह अब बंद होना चाहिए. (लेखक आइआइटी, मद्रास में प्राध्यापक रह चुके हैं)

– ध्यान देने की बात है कि नौ सौ कर्मियों से भी कम लोगों का पुलिस बल लंदन जैसे बड़े शहर को सुरक्षित रखता है, जबकि 74 हजार पुलिसकर्मी दिल्ली को सुरक्षित नहीं रख पाते हैं. ऐसा नहीं है कि दिल्ली के हमारे मित्र अक्षम हैं. उनके पास बस अत्याधुनिक अनुसंधान एवं अन्य यंत्र नहीं हैं. शायद उनके पास अब भी एक ऐसा हेलिकॉप्टर नहीं है, जो दिन-रात उनकी सेवा में हो. अब भी अनेक सारे चौरस्ते, सड़कें उनके कैमरे की नजर में नहीं हैं. शायद अब भी उनके पास ऐसे लोग नहीं हैं, जो कैमरों से आ रही ऐसी सूचना को एक विश्वसनीय पहचान देकर अपने सहयोगियों को कारगर सलाह दे सकें.

– हमें अपने आप से यह पूछना चाहिए कि क्या हम अपने शिक्षण संस्थानों, अस्पतालों, अन्य सार्वजनिक स्थानों की सुरक्षा के लिए जो कर सकते हैं वह कर रहे हैं? कोई कारण नहीं है कि हमारे सुरक्षा गार्ड वैसे क्यों नहीं हों, जिनको स्वयं सुरक्षा की आवश्यकता नहीं हो, जो प्रशिक्षित हों, जिनके पास यूनीफॉर्म के अलावा गार्ड होने के लिए कुछ और भी हो, जो अनाधिकृत, अनामंत्रित किसी भी छोटे-बड़े प्राणी को अंदर नहीं आने देंगे. परंतु ऐसे गार्ड अच्छे वेतन की अपेक्षा रखेंगे. एक सुरक्षा विशेषज्ञ का कहना है कि मूंगफली के लिए तो केवल बंदर ही आयेंगे.

बख्तरबंद स्कूल में बच्‍चा!

रवीश कुमार

वरिष्ठ टीवी पत्रकार

क्या आप ऐसे किसी स्कूल की कल्पना करना चाहेंगे, जहां आपके बच्चे को गेट पर मेटल डिटेक्टर से गुजरना पड़े, क्लास में जाने से पहले उसके बैग की सुरक्षा जांच हो, प्रार्थना के बाद आतंकवाद से बचने के लिए सुरक्षा ड्रिल हो, चारों तरफ सीसीटीवी कैमरे लगे हों, जिसके जरिये प्रिंसिपल और सिक्योरिटी अफसर बच्चों के एक-एक लम्हे पर निगाह रख रहे हों, स्कूल की दीवारें बहुत ऊंची और गेट में ग्रिल की जगह लोहे की मोटी चादर लगी हो. इस माहौल का बच्चे पर क्या असर पड़ेगा, क्या हमने इस पर सोचा है?

केंद्र सरकार ने 2010 में भी तमाम राज्यों को निर्देश भेजे थे कि स्कूलों में सुरक्षा के लिए क्या-क्या करना है. तब पता चला था कि मुंबई हमले के आरोपी डेविड कोलमन हेडली ने 2008 के मुंबई हमले से पहले दो बोर्डिग स्कूलों की भी वीडियो रिकार्डिग की थी. निर्देशिका में कहा गया है कि अगर कोई बंदूकधारी स्कूल पर हमला करे, तो छात्रों और शिक्षकों को अपने-अपने कमरे में ही रहना चाहिए. दरवाजा बंद कर लेना चाहिए और जमीन पर लेट जाना चाहिए. ऐसा करने से अंधाधुंध गोलीबारी से कई लोगों की जान बच सकती है. लेकिन तब क्या करेंगे, जब पेशावर के स्कूल की तरह बच्चों से नाम पूछ कर गोली मारी जाने लगे?

दुनिया में हर आतंकी हमले के बाद सरकारें सुरक्षा बजट बढ़ा देती हैं. सरकार से लेकर सार्वजनिक संस्थाएं तक अरबों रु पये इलेक्ट्रॉनिक उपकरण खरीदने में खर्च कर देती हैं. आज हजारों सीसीटीवी कैमरे लगाये जा रहे हैं. इतना पैसा अगर हम पुलिस सिस्टम बेहतर करने पर खर्च करते, तो कुछ ठोस नतीजा भी निकलता. थाने में पर्याप्त पुलिस नहीं है.

खुफिया तंत्र कमज़ोर पड़ा हुआ है. पुलिस न आधुनिक हो सकी है, न तकनीकी साजो-सामान से लैस. क्या अब इसका विश्लेषण नहीं होना चाहिए कि आतंकवाद को रोकने में मेटल डिटेक्टर और सीसीटीवी से कोई मदद मिली भी या नहीं. आये दिन हम टीवी पर देख रहे हैं कि नकाब पहन कर चोर सीसीटीवी कैमरे के नीचे से एटीएम मशीन तक उठा ले जा रहे हैं. हम सीसीटीवी से चोर तक नहीं पकड़ पा रहे हैं, आतंकवादी क्या पकड़ेंगे?

अब सीसीटीवी निगरानी की जगह डिजिटल निगरानी की तरफ दुनिया जा रही है. इस सिस्टम में आप अपने कंप्यूटर से दुनिया में कहीं से भी अपनी कंपनी या स्कूल की निगरानी कर सकते हैं. गार्ड की जरूरत नहीं होगी. लेकिन हमले के बाद सीसीटीवी देख कर कोई पुलिस को बता भी दे, तो क्या हम यह नहीं जानते कि हमारी पुलिस की क्या हालत है. डिजिटल निगरानी के नाम पर मुगालता मत पालिए. आप शहर-कस्बे में कहीं चले जाइए, स्कूलों में सीसीटीवी कैमरे लगे हैं.

बेहद कम तनख्वाह पर रंगीन कपड़े में सिर्फ चाय पर बारह-बारह घंटे खड़े ये गार्ड तैनात कम, झूलते हुए ज्यादा लगते हैं. आप किसी भी रेलवे स्टेशन पर जाकर देखिए. मेटल डिटेक्टर का क्या हाल है? पूरा स्टेशन खुला हुआ है. जो खतरनाक इरादे से आयेगा उसके लिए स्टेशन में घुसने के हजारों रास्ते हैं. सार्वजनिक स्थलों पर आतंकी हमलों के बाद हवाई अड्डों ने ही खुद को बेहतर ढंग से सुरिक्षत किया है. भारत ही नहीं, शायद दुनिया भर में. ऐसा इसलिए कि हवाई अड्डों का व्यापक तरीके से आधुनिकीकरण हुआ है. पुराने को तोड़ कर नया बनाया गया है. लेकिन हमारे रेलवे स्टेशन सुरक्षा को ध्यान में रख कर बने ही नहीं हैं.

हैदराबाद पुलिस ने स्कूलों के लिए सुरक्षा उपकरणों की एक नुमाइश भी लगायी. उन्हें नकली धमाके से बताया कि क्या-क्या होता है और क्या-क्या करना है. कुछ कंपनियों के उपकरण भी वहां लगा दिये, जिनकी बिक्री बढ़ जायेगी. पुलिस और सरकार का यह एक भी एक बेहद कुलीन नजरिया है. स्कूलों में सुरक्षा के नाम पर हम चंद महानगरों के नामी प्राइवेट स्कूलों की ड्रिल से संतुष्ट नहीं हो सकते हैं. इन्हीं महानगरों में सरकारी स्कूल भी होते हैं और कई बेहद साधारण से निजी स्कूल. सरकारें अपने स्कूलों में शौचालय नहीं बनवा सकी हैं और वे निर्देश के नाम पर उपदेश दे रही हैं कि आप तीन-तीन गेट बनवाइए, सीसीटीवी कैमरे लगाइए, पब्लिक अनाउंसमेंट सिस्टम होना चाहिए, वगैरह-वगैरह. क्या सरकारी स्कूल के बच्चे इस देश के बच्चे नहीं हैं?

जाहिर है, इन आधे-अधूरे तरीकों से आतंकवाद से मुकाबला नहीं किया जा सकता है. जब सरकारें नहीं कर पा रही हैं, तो क्या सीसीटीवी कर लेंगे? इसलिए आतंकवाद के कारणों, उनकी राजनैतिक, धार्मिक पृष्ठभूमि से टकराना ही होगा. हमें उस माहौल से भी टकराना होगा, जो पब्लिक स्पेस में दिन-रात सांप्रदायिक और धार्मिक कट्टरता की भाषा के ठेलने से बन रहा है. हम धार्मिक कट्टरता और राष्ट्रवाद को शर्बत में चीनी की तरह घोल कर पीये जा रहे हैं बगैर यह समङो कि यही कट्टरता काम आ जाती है आतंकवाद को रचने में. तालिबान सिर्फधर्म की उपज नहीं है. यह कैसे हो सकता है कि सरकारें तालिबान को जन्म भी दें, उनको पाले-पोसें और आम नागरिक से कह दें कि आप सीसीटीवी लगा लीजिए.

जब तक हम इन कारणों के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय जनमत तैयार नहीं करेंगे, यह समस्या ऐसे ही हममें से किसी की भी जान लेती रहेगी. अगर यह बात नहीं समझ आती है, तो अपनी कमीज के कॉलर पर भी एक सीसीटीवी कैमरा लगा लीजिए. सबके हाथ में कैमरा तो है ही, क्या इससे आतंकवाद रु क जायेगा.

(एनडीटीवी के ब्लॉग से साभार)

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