हम चीन के साथ सीमा विवाद सुलझाने की जल्दबाजी न करें : अरुण शौरी

अरुण शौरी प्रख्यात पत्रकार, अर्थशास्त्री और राजनेता है. लेखन के लिए रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित शौरी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में विनिवेश, संचार और सूचना तकनीक मंत्रालयों की जिम्मेवारी संभाल चुके हैं. वे राज्यसभा में दो बार भारतीय जनता पार्टी का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं. उत्कृष्ट मेधा वाले शौरी अपनी बेबाक-बेलाग टिप्पणियों के […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 6, 2015 3:09 AM

अरुण शौरी प्रख्यात पत्रकार, अर्थशास्त्री और राजनेता है. लेखन के लिए रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित शौरी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में विनिवेश, संचार और सूचना तकनीक मंत्रालयों की जिम्मेवारी संभाल चुके हैं.

वे राज्यसभा में दो बार भारतीय जनता पार्टी का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं. उत्कृष्ट मेधा वाले शौरी अपनी बेबाक-बेलाग टिप्पणियों के लिए भी जाने जाते हैं. पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन के अलावा विभिन्न समकालीन विषयों पर उनकी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आगामी चीन यात्रा से पूर्व उन्होंने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के राष्ट्रीय समाचार संपादक राकेश सिन्हा के साथ भारत-चीन संबंधों के महत्वपूर्ण आयामों पर अपने विचार साझा किये और ऐसी अनेक जानकारियां व तथ्य देश के सामने प्रस्तुत किया है, जो शायद पहली बार सार्वजनिक चर्चा में आयी हैं. स्पष्ट और तार्किक विश्लेषण से परिपूर्ण यह साक्षात्कार इन दो एशियाई महाशक्तियों की परस्पर राजनीति को समझने का नया आधार प्रदान करता है..

क् प्रधानमंत्री की आगामी चीन यात्रा को आप किस नजरिये से देखते हैं?

यह कहा जा सकता है कि श्री नरेंद्र मोदी की अब तक की सबसे अहम उपलब्धि वह ऊर्जा और स्पष्ट दृष्टि है, जो उन्होंने भारत की विदेश नीति के साथ जोड़ा है. हाल ही में एक जानेमाने विशेषज्ञ बता रहे थे कि प्रधानमंत्री की हर एक विदेश यात्रा की पृष्ठभूमि में चीन रहा है : चाहे वह जापान की यात्रा हो अथवा फिजी, ऑस्ट्रेलिया से लेकर दो प्रशांत महासागरीय शक्तियों-अमेरिका तथा कनाडा की हो; या फिर यह तथ्य कि चीनी राष्ट्रपति की भारत यात्रा के ठीक पहले हमारे राष्ट्रपति की वियतनाम यात्रा और फिर प्रधानमंत्री की हिंद महासागरीय देशों की यात्राएं. इन सभी यात्राओं में जो एक तत्व समान रूप से मौजूद रहा है, वह चीन है. इसलिए मैंने स्पष्ट दृष्टि की बात कही.

क् क्या इससे यह संकेत मिलता है कि वे चीन को भारत की मुख्य समस्या के रूप में देखते हैं?

मैं निश्चित रूप से यह नहीं बता सकता कि वे चीन को किस रूप में देखते हैं. मगर तथ्य यह है कि जहां पाकिस्तान हमारी तात्कालिक समस्या है, चीन हमारे लिए एक दीर्घकालिक चुनौती है- और फिर कुछ हद तक पाकिस्तान तो चीन के चलते भी एक समस्या है. शक्ति और उसके प्रतीकों का चालबाजी भरे इस्तेमाल के कौशल में चीन को महारत हासिल है. विश्व में अपनी स्थिति के संबंध में उसकी एक निश्चित दृष्टि है : आज उसे हर हाल में एशिया की प्रबल शक्ति और कल विश्व की प्रमुख ताकत होना है.

और उस सफलता को न भूलें, जो उसे इन लक्ष्यों की दिशा में अब तक हासिल हो चुकी है. आज चीन अंतरराष्ट्रीय गणनाओं का सबसे प्रमुख तत्व है : उसकी अर्थव्यवस्था भारत से पांच गुनी बड़ी और इसका विदेशी मुद्रा भंडार हमसे दस गुना अधिक है; इसका प्रतिरक्षा व्यय जापान का साढ़े तीन गुना है. एशिया और उसके काफी आगे तक के देश चीन की संभावित प्रतिक्रिया का आकलन किये बगैर कोई फैसला नहीं लेते. यहां तक कि अमेरिका के मित्र राष्ट्र भी उसकी प्रतिक्रिया की परवाह किये बिना चीन के दरवाजे पर दस्तक देने को लालायित हैं. जरा देखिये कि किस तरह अब तक 42 देश उस इंफ्रास्ट्रक्चर बैंक से जुड़े हैं, जिसकी अगुवाई चीन द्वारा की जानी है.

क् पर क्या चीन की अर्थव्यवस्था आज गहरी समस्याओं का शिकार नहीं है?

बिल्कुल है : जमीन-जायदाद तथा शेयर बाजार की कीमतें बुलबुलों की तरह फैल गयी हैं. स्थानीय सरकारें ‘छाया बैंकिंग’ (शैडो बैंकिंग) की मार्फत निर्माण की मुहिम में लगी हैं. और इसी तरह कई अन्य समस्याएं हैं. मगर चीन की मुसीबतें हमारी मुसीबतें हल करने नहीं जा रहीं; उनसे हमें बस यही फायदा हो सकता है कि शायद हमें थोड़ा और वक्त मिल जाये. इससे भी ज्यादा अहम, यह किसी को भी नहीं मालूम कि यदि चीन सचमुच गंभीर समस्याओं से घिर जाये, तो वह कैसी प्रतिक्रिया व्यक्त करेगा : क्या वह अपनी जनता का ध्यान बंटाने बाहरी आक्रमण को कूद पड़ेगा?

और कृपया याद रखें, केवल इतना ही नहीं है कि चीनियों ने क्षमता अर्जित कर ली है, उन्होंने जरूरी शोहरत भी हासिल कर ली है : यह कि वे अपने हितों और दावों को लागू करने के लिए अपनी ताकत का इस्तेमाल करने में पूरी तरह सक्षम हैं; यह कि ‘यूएस के ठीक विपरीत’ जिन देशों को चीन अपना प्रतिद्वंद्वी समझता है, वह उनके साथ अपनी भूभागीय दावेदारी से नहीं डिगेगा, चाहे वह जापान हो अथवा वे ‘अवैधानिक घुसपैठिये’, जिस रूप में वह स्प्रैत्ली द्वीपों पर अपनी-अपनी दावेदारियां करनेवाले विभिन्न छोटे देशों को देखता है.

क् इस वैश्विक नजरिये में भारत कहां स्थित है?

चीन के रणनीतिक सिद्धांत का एक बुनियादी मकसद ‘बाहरी सीमाओं का प्रबंधन’ है- इसका मौलिक मतलब चीन की वैसे सीमाएं हुआ करता था, जहां से चीन पर उसकी विरोधी शक्तियां आक्रमण कर उसे पराजित कर सकती थीं. किंतु सामान्य अर्थो में इसका तात्पर्य उन सभी क्षेत्रों से है, जहां से चीनी हितों को हानि पहुंच सकती है. मसलन, आज तकनीकों के विकास की वजह से यूएस चीन के हितों पर असर डाल सकता है, अत: उसका भी निश्चित रूप से प्रबंधन किया जाना चाहिए. और हम तो खैर, अक्षरश: उसकी सीमा पर ही बसे हैं.

क् चीन के साथ हमारा वाणिज्य बढ़ कर 70 अरब डॉलर तक पहुंच गया है. क्या यह भारत तथा चीन के हितों को इतना संबद्ध नहीं कर देगा कि चीन को भारत के साथ अपनी साझीदारी को अहमियत देनी पड़े?

यह पूरी तरह एक भ्रम है- एक भ्रम कि वाणिज्य, और यहां तक कि व्यापक आर्थिक हित चीन को उसके केंद्रीय उद्देश्य, शक्ति तथा दबदबा हासिल करने से विचलित कर देंगे. जापानी नेतृत्व ने बीस वर्षो पूर्व इसी तरह की दलीलों पर यकीन कर लिया था. और देखिए कि आज वह चीन के हाथों क्या कुछ ङोल रहा है. दूसरा, हमें चीन के साथ अपने वाणिज्य की प्रकृति पर भी गौर करना चाहिए; हम लौह अयस्क, बॉक्साइट जैसे कच्चे माल का निर्यात करते और तैयार माल आयात करते हैं. मसलन, इलेक्ट्रॉनिक सामानों का कारोबार करनेवाली हमारी कितनी सारी कंपनियां बस चीनी माल के व्यापारी बन कर रह गयी हैं.

क्या यह कुछ उसी तरह का कारोबार नहीं है, जिसके विरुद्ध दादाभाई नौरोजी से शुरुआत कर कई भारतीय राष्ट्रवादी नेताओं ने विरोध प्रकट किया? और फिर 70 अरब डॉलर का जश्न मनाने के पहले यह भी याद रखना चाहिए कि यह इस वाणिज्य की कुल कीमत है, जिसमें भारत से चीन को 15 अरब डॉलर का निर्यात तथा चीन से भारत को 5 अरब डॉलर का आयात शामिल है!

क् चीनी निवेश आमंत्रित करने के विषय में क्या खयाल है, खासकर बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में, जो इस सरकार की मुख्य प्राथमिकता है?

दो बिंदु हैं. पहला, मान लें कि एक चीनी फर्म को रेल लाइनें बिछाने का ठेका दिया जाता है. क्या उसमें भूमि अधिग्रहण जैसी वही मुश्किलें पैदा नहीं होंगी, जिनका सामना एक भारतीय फर्म को भी करना पड़ेगा? और यदि आप एक चीनी फर्म के लिए रास्ता साफ करने को तैयार हैं, तो फिर एक भारतीय फर्म के लिए क्यों नहीं?

दूसरा, कई किस्म की परियोजनाओं तथा बुनियादी ढांचों के साथ सुरक्षा की समस्याएं जुड़ी होती हैं, जैसे ऊर्जा, और निश्चित रूप से दूरसंचार. फिर नेटवर्क, खासकर कंप्यूटर नेटवर्क, के भेदन में चीन के रिकॉर्ड बार-बार दर्ज किये जा चुके हैं.

इसके लिए आपको बस मंक सेंटर की रिपोर्ट अथवा उसके भी पहले यूएस कांग्रेस को सौंपी गयी कॉक्स कमिटी रिपोर्ट को पढ़ना होगा कि किस तरह चीन ने भारत सहित सौ से ज्यादा देशों के कंप्यूटर नेटवर्क का भेदन कर वहां से अहम डाटा लेकर तत्काल अपने चीनी अड्डों को भेज दिया. इन रिपोर्टो के पन्ने पलट कर आप यह देख सकते हैं कि यदि हमने चीनियों को अपने बुनियादी ढांचे तथा दूरसंचार जैसे क्षेत्रों में प्रवेश करने दिया, तो फिर हम खुद को किन खतरों के लिए खोल देंगे. इसलिए मेरी तो राय होगी कि इसमें अत्यंत सावधानी बरती जाये.

क् आपके कहने का तात्पर्य यह है कि भारत चीन की चुनौती अथवा खतरे से निपटने में अपने बलबूते समर्थ नहीं है. तो फिर इसे क्या करना चाहिए?

पहली बात तो यह है कि चूंकि हम चीन के द्वारा अपना प्रभाव बढ़ाने की बराबरी नहीं कर सकते, तो निश्चित रूप से हमें उन सभी देशों के साथ सामान्य सहमति बनानी चाहिए, जो आज चीन के प्रति सशंकित हैं, ताकि खुफिया जानकारियां तथा आकलन साझा किये जायें. अंतरराष्ट्रीय संगठनों में अपने नजरिये तथा बातचीत साझा करें, तकनीक हासिल करें, इत्यादि.

मिसाल के तौर पर हमें मेकौंग के किनारे बसे देशों से साझी समझ बनाने की पूरी कोशिश करनी चाहिए, जो चीन के द्वारा पानी के प्रवाह को मोड़ने के कदम से उतने ही चिंतित हैं. मगर हमें हमेशा यह याद रखना चाहिए कि जिस तरह हम किसी दूसरे देश के हितों की रक्षा के लिए युद्ध नहीं करेंगे, उसी तरह कोई भी दूसरा देश सिर्फ इसलिए चीन के साथ जंग नहीं छेड़ेगा अथवा यहां तक कि अपने अहम हितों की बलि नहीं देगा कि उसने लद्दाख अथवा अरुणाचल में ज्यादा जमीन पर कब्जा कर लिया है या वह तिब्बती से निकलते पानी को पूर्वी या उत्तरी चीन की ओर मोड़ रहा है.

यूक्रेन के मामले को लेकर नाटो किस तरह पंगु बना है, इस पर गौर करें. इसलिए पहला बिंदु यह है कि दूसरे देशों के साथ निकट संबंध निश्चित रूप से विकसित किये जायें, पर जिसे चीनी समग्र राष्ट्रीय शक्ति का नाम देते हैं, उसका निर्माण करने के सिवा और कोई विकल्प नहीं है.

दूसरा बिंदु, यह सही है कि पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी एशिया से लेकर अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका तक के देशों में चीन की खुली आक्रामकता के विरुद्ध काफी प्रतिक्रिया है, किंतु उसका फायदा उठाने के लिए हमारा समर्थ तथा दक्ष होना जरूरी है. पहली जरूरत तो इसकी है कि प्रधानमंत्री की यात्राओं के फॉलोअप किये जायें, जिसकी चर्चा हमने पहले की है: हम उन परियोजनाओं को कार्यान्वित करें, जिनकी घोषणा की गयी है या जिन पर उन देशों के साथ सहमति बन गयी है. इस बात को लेकर हमारी बड़ी बदनामी भी है कि जब एक बार यात्रा समाप्त हो जाती है, तो हम सहमतियों व घोषणाओं को भूल जाया करते हैं.

अब हमलोग प्रधानमंत्री की चीन यात्रा को लें. आपकी राय में उन्हें किन बातों का खयाल रखना चाहिए?

सबसे पहले तो उन्हें यह ध्यान में रखना चाहिए कि चीनियों ने किस तरह पंडितजी (नेहरूजी) के विश्वनेता होने की तीव्र इच्छा का फायदा उठा कर उन्हें मोहित कर रखा था. बीसवीं सदी के सबसे निष्णात कूटनीतिज्ञों में से एक, चाऊ एन लाइ ने एक जिज्ञासु छात्र की भूमिका में उतर कर पंडितजी से हिंद-चीन और विभिन्न वैश्विक मामलों के विषय में उनके विचार पूछे. जल्दी ही पंडितजी ने उनसे यह पूछ लिया कि क्या वे इन विषयों के अलावा अरबों के बारे में, ऊ नू के विषय में और बौद्ध धर्म की दो धाराओं के बीच भिन्नताओं के विषय में जानना नहीं चाहेंगे? अगले दिन पंडितजी ने कृष्ण मेनन को लिखा कि उन्होंने चाऊ को विश्व मामलों के बारे में बहुत जानकार नहीं पाया, पर उन दोनों की बैठक के बाद उनकी समझ बेहतर हुई!

और किस तरह पंडितजी की चीन यात्रा के वक्त चीनियों ने भारी भीड़ जुटा कर और अन्य इंतजामों से उन्हें पूरी तरह सम्मोहित कर लिया. यहां तक कि दिनभर की थकाऊ गतिविधियों के बावजूद पंडितजी ने एडविना माउंटबेटन को एक लंबा खत लिखा कि मेरी यात्रा से चीन में आजादी की एक लहर छा गयी है.. कैसी विडंबना थी!

कम-से-कम अब तो हमें स्वयं को मूर्ख नहीं बनने देना चाहिए. वर्ष 2006 में जब राष्ट्रपति हू जिनताओ भारत आये, तो तत्कालीन विदेशमंत्री ने संसद को बताया कि हमारी बातचीत के फलस्वरूप चीन ने सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता के मुद्दे पर हमारा समर्थन किया है. लेकिन, संयुक्त घोषणापत्र में ऐसी किसी बात का उल्लेख नहीं था. सच्चाई तो यह थी कि चीन उस वक्त और उसके बाद भी सुरक्षा परिषद के विस्तार और सुधार के हर प्रयास को बाधित करता रहा.

अब मैं इसके आगे चलूंगा. जैसा के सुब्रrाण्यम व्याख्यान में श्याम शरण ने कहा, प्रधानमंत्री को यह जरूर याद रखना चाहिए कि चीनी नेता धोखाधड़ी और दोरंगी बातों को राजनय के न्यायोचित तत्व मानते हैं और यदि आपने उनके धोखे को उनके सामने रखा, तो वे न केवल चकित दिखेंगे, बल्कि बुरा भी मानेंगे. उन्होंने याद किया कि किस तरह अपनी चीन यात्रा के दौरान आरके नेहरू ने चाऊ एन लाइ से कहा कि कश्मीर पर चीन के वक्तव्य से ऐसा लगता है कि वह जम्मू-कश्मीर को भारत का अंग मानने की भारतीय नीति पर सवाल खड़े कर रहा हो.

चाऊ ने पूछा, ‘क्या चीन ने कभी यह कहा है कि जम्मू-कश्मीर पर भारत की नीति गलत है?’ चाऊ के इस कथन को हमने अपनी नीति के समर्थन के तौर पर लिया था. एक अन्य चीन यात्रा के दौरान आरके नेहरू ने चाऊ का ध्यान इस तथ्य की ओर आकृष्ट किया कि चीन के वक्तव्य पाकिस्तान की नीति के और ज्यादा करीब दिखते हैं. जब उन्होंने चाऊ को उनका कथन याद दिलाया- ‘क्या चीन ने कभी यह कहा है कि जम्मू-कश्मीर पर भारत की नीति गलत है?’- तो चाऊ ने पलट कर उनसे सवाल किया, ‘पर क्या कभी चीन ने यह कहा है कि कश्मीर पर भारत की नीति सही है?’

पंडितजी के साथ भी यही घटनाक्रम सीधे दोहराया गया. उन्होंने चाऊ से विरोध प्रकट किया कि किस तरह चीन के सरकारी नक्शों में एक बड़े भारतीय भूभाग को चीन के हिस्से के रूप में दिखाया जा रहा है. चाऊ ने कहा कि ये नक्शे ‘पुराने कुमिंतांग नक्शे’ हैं और चीन सरकार इनकी त्रुटियों को परखने का वक्त नहीं निकाल पायी है. पंडितजी ने चाऊ के इस कथन को सीमा-संबंधी भारतीय नजरिये के समर्थन के तौर पर लिया. जब कुछ वर्षो बाद पंडितजी ने चाऊ के साथ एक बार फिर चीनी नक्शों की चर्चा करते हुए उन्हें उनके कथन की याद दिलायी, तो चाऊ पलट गये और उन्होंने कहा, ‘ये वस्तुत: पुराने नक्शे ही हैं. हमने इनकी जांच की है और इन्हें सही पाया है.’

और अब सीमा विवाद सुलझाने के संबंध में 2005 की सहमति को लेकर भी फिर वही बातें होती जा रही हैं.

क् क्या इसका मतलब यह है कि भारत हमेशा संदेह की स्थिति में रहे और सीमा-विवाद सुलझाने के लिए कुछ नहीं करे?

बिल्कुल नहीं. हमें यह तो देखना ही चाहिए कि सीमा पर ऐसी घटनाएं रोकने के लिए क्या कदम उठाये जा सकते हैं. पर, पहली बात तो यह कि हमें विवाद ‘सुलझाने’ की हड़बड़ी में नहीं पड़ना चाहिए, खासकर तब, जब भारत और चीन के बीच की दूरी बहुत ज्यादा बढ़ गयी है; दूसरी, यह हमेशा याद रखना चाहिए कि किसी भी सहमति का केवल तभी कोई मूल्य होता है, जब आप दूसरे पक्ष के लिए उसका उल्लंघन करने को महंगा बना पाने की स्थिति में हों.

क् लेकिन उस स्थिति में क्या किया जाये, जब चीनी सेना का कोई स्थानीय कमांडर हाथ आजमाने की भावना के वशीभूत होकर ठीक उसी वक्त अपने कुछ हजार सैनिकों को लद्दाख में प्रवेश करा देता है, जब उनके राष्ट्रपति दिल्ली में हैं? क्या दो महान देशों के संबंध स्थानीय कमांडरों के हाथों गिरवी रख दिये जाने चाहिए?

यह यकीन कर लेना मूर्खता से भी बदतर होगा कि सीमा पर कोई भी घुसपैठ अथवा अरुणाचल पर अपने दावे को दोहराना किसी स्थानीय कमांडर या चीनी जनमुक्ति सेना के किसी जनरल की कारस्तानी होती है. चीनी सेना हमेशा ही चीन की साम्यवादी पार्टी के अधीन रही है. राष्ट्रपति शी सैन्य आयोग के भी अध्यक्ष हैं. और खासकर इन दिनों भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम की वजह से जनमुक्ति सेना का नेतृत्व अपने बचाव की मुद्रा में है- बड़ी संख्या में जनरल और अन्य वरीय पदाधिकारियों की जांच चल रही है.

इसलिए यह समझने की भूल न करें कि शीर्ष चीनी नेतृत्व के निर्देश के बगैर कोई घटना हो जाती है. और वे जो कहते हैं, उस पर गौर मत कीजिए; वे जो करते हैं, उसे देखिए. हमारे सबसे बुद्धिमान रणनीतिक चिंतकों में से एक जनरल वी राघवन बताते हैं कि किस तरह चीनी ‘सामरिक संघर्ष’ की स्थिति पैदा करते हुए भी ‘रणनीतिक आश्वासनों’ की बातें बना कर दूसरों को भ्रमित कर देते हैं.

और हमारे मामले में तो वे तेजी से न केवल सामरिक, बल्कि रणनीतिक गैरबराबरी के अंतर को बढ़ाते ही चले जा रहे हैं, जिनकी मिसाल हैं: अरुणाचल से लेकर बंदरगाहों के घेरे तक, पकिस्तान अधिकृत कश्मीर में कई परियोजनाओं के संचालन तक, काठमांडू तक रेल लाइनें बिछाने की योजना से लेकर तिब्बत के सैन्यीकरण तक, अरुणाचल में एक परियोजना के महज तकनीकी अध्ययन के लिए एशियाई विकास बैंक के ऋण को बाधित करने से लेकर सुरक्षा परिषद के स्वरूप में सुधार के प्रस्तावों में अड़ंगेबाजी तक. जबकि दक्षिणी चीन सागर और पूर्वी एशिया के हवाई सूचना क्षेत्र के मामलों में अंतरराष्ट्रीय नियमों में वे स्वयं बलपूर्वक रद्दोबदल कर रहे हैं.

क् तो फिर आपके विचार में सरकार को क्या करना चाहिए?

सबसे पहले तो हमें अपनी चिंताओं को लेकर चीनियों से साफ शब्दों में बातचीत करनी चाहिए: उनके इस दावे के संबंध में कि अरुणाचल ‘दक्षिणी तिब्बत’ का एक हिस्सा भर है; पाक अधिकृत कश्मीर में उनके द्वारा निर्मित की जा रही बुनियादी संरचनाओं की परियोजनाओं के संबंध में (पकिस्तान में हालिया घोषणाओं के पहले से वहां ऐसी 35 परियोजनाएं चल रही हैं), पाकिस्तान को हथियारों तथा परमाण्विक और मिसाइल तकनीक की आपूर्ति; सीमा पर होनेवाले अतिक्रमण, तिब्बत से निकलते जलस्नेतों का पथ परिवर्तन; तिब्बत में सैन्य अड्डे; भारत के चारों ओर नौसैनिक अड्डे.

क् क्या इन मुद्दों को उठाने से बातचीत की असफलता सुनिश्चित नहीं हो जायेगी?

जोश मलीहाबादी ने इसे बहुत अच्छी तरह कहा है: ‘बदी करता है दुश्मन और हम शरमाये जाते हैं!’

क् ये मुद्दे उठाने के अलावा सरकार को और क्या करना चाहिए?

हमें पूर्वोत्तर में तेज विकास के लिए हर संभव कोशिश करनी चाहिए- और इसका मतलब बस पैसे उड़ेलना कतई नहीं है; बल्कि यह कि क्षेत्र के निवासी भारत में हर जगह स्वागत तथा सम्मान महसूस करें. कुनमिंग की ओर अपनी सीमा खोलना खतरनाक है : इससे चीन के लिए पूर्वोत्तर के लोगों को चीनी ‘समृद्धि के प्रभावक्षेत्र’ में खींचने का रास्ता खुल जायेगा. दूसरे, हमें इस पर अवश्य गौर करना चाहिए कि तिब्बत पर चीन के अधिकार को मान लेने की हमें क्या कीमत चुकानी पड़ी है. हमारे हित और हमारी सुरक्षा तिब्बत के हित और उसकी सुरक्षा के साथ गहराई से जुड़े हैं. चीन द्वारा अरुणाचल पर अपने दावे के तर्क तलाशने और उस पर जोर देने की कई वजहें हैं.

मगर एक बहुत साफ वजह तो यह है कि वह दलाई लामा के बाद के वक्त की तैयारी में लगा है, जब किसी भी अगले लामा के तवांग में अवतार लेने की दावेदारी की कोई संभावना बाकी नहीं बचेगी, जैसा छठे दलाई लामा के संबंध में कहा जाता है. इन मामलों में थोड़ी भी ढिलाई के विनाशकारी नतीजे होंगे. चाहे चीनी कुछ भी कहते रहें, हमें इस विषय में किसी को भी रंचमात्र संदेह नहीं होने देना चाहिए कि हम दलाई लामा और उनके उत्तराधिकारी का समर्थन करते रहेंगे.

हमें इसके भी आगे जाकर चीन को बौद्ध सभ्यता से मिलती चुनौती के संदर्भ में भी सोचना चाहिए: चीन पर नजर रखनेवाले विेषकों का कहना है कि चीनियों की एक बड़ी संख्या फिर से धर्म की ओर उन्मुख हो रही है, जिनमें वर्तमान सरकार के उच्चपदस्थ लोगों के सगे-संबंधी भी शामिल हैं. किंतु वैसा कर पाने के लिए हमें बौद्ध धर्म के विषय में जानकारी बढ़ानी होगी. इसके अनुयायियों और खासकर भारत में रहनेवाले बौद्ध गुरुओं के प्रति श्रद्धा रखनी होगी.

यदि हम बौद्ध धर्म को केवल सैलानियों को आकृष्ट करने के साधन के रूप में इस्तेमाल करते हैं, तो सभी इसे भांप लेंगे. बोधगया के बौद्ध मंदिरों को बौद्ध लोगों से छीनने की कोशिश करते हुए हम किसी को भी यह यकीन नहीं दिला सकते कि यह बुद्ध की धरती है और हम बुद्ध की शिक्षाओं तथा उनकी स्मृतियों का अत्यंत आदर करते हैं.

क् यदि आपसे प्रधानमंत्री के लिए केवल एक अथवा दो चीजों की सलाह मांगी जाये, तो आप क्या कहेंगे?

चिंता न करें. मुझसे सलाह नहीं मांगी जायेगी. किंतु यदि ऐसा होता, तो मैं यही कहता : पहली बात, विदेश मंत्रलय की सांस्थानिक स्मृति को न भुलायें; दूसरी बात, इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है कि जनरल राघवन और श्याम शरण जैसे लोगों के साथ ज्यादा वक्त दें- जो वर्षो से चीन और उसके तौर-तरीकों का अध्ययन करते रहे हैं.

जब आप उनसे मिलें, तो आप अपनी सहज प्रकृति के विपरीत उनके नजरिये और आकलन पर गंभीरता से गौर करें : पंडितजी द्वारा अपनी विश्वदृष्टि के विपरीत जाते हर नजरिये को जिस दृढ़ता से कुचल दिया गया- चाहे वह ल्हासा में अपने महावाणिज्यदूत की सलाह हो अथवा गंगटोक में पदस्थापित अपने राजनीतिक पदाधिकारी की, उससे निकले नतीजों को याद करें. सरदार पटेल के पत्रों की तो बात ही क्या करनी!

(द इंडियन एक्सप्रेस से साभार)

(अनुवाद : विजय नंदन)

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