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ओसामा के कत्ल की सनसनीखेज कहानी

अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टिग के लिए पुलित्जर पुरस्कार से सम्मानित वरिष्ठ अमेरिकी खोजी पत्रकार सेमोर हर्ष ने दुनिया के सबसे खतरनाक आतंकी संगठन अलकायदा के सरगना रहे दुर्दात आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को मार गिराने के अमेरिकी अभियान के संबंध में ओबामा प्रशासन के दावों को गलत ठहराया है. अमेरिका ने मई 2011 में दावा किया था […]

अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टिग के लिए पुलित्जर पुरस्कार से सम्मानित वरिष्ठ अमेरिकी खोजी पत्रकार सेमोर हर्ष ने दुनिया के सबसे खतरनाक आतंकी संगठन अलकायदा के सरगना रहे दुर्दात आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को मार गिराने के अमेरिकी अभियान के संबंध में ओबामा प्रशासन के दावों को गलत ठहराया है.
अमेरिका ने मई 2011 में दावा किया था उसके नेवी सील्स सैनिकों के एक बेहद गुप्त अभियान में लादेन पाकिस्तान के एबटाबाद में अपने घर में गोलीबारी में मारा गया था. तब इसे पूरी तरह से अमेरिकी अभियान बताया गया था. पाकिस्तान सरकार ने भी माना था कि उसे इस अभियान की जानकारी नहीं थी.
लेकिन, एबोटाबाद में अमेरिकी कमांडो की छापामारी के चार साल पूरे होने के मौके पर ‘लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स’ के लिए लिखे 10,356 शब्दों के एक लंबे लेख में सेमोर हर्ष ने दावा किया है कि न केवल पाकिस्तान के तत्कालीन सैन्य प्रमुख जनरल कियानी और गुप्तचर प्रमुख जनरल शुजा पाशा को अमेरिका के इस अभियान की जानकारी थी, बल्कि पाकिस्तानी अधिकारियों ने अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआइए की मदद भी की थी.
हर्ष के मुताबिक पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आइएसआइ ने लादेन को 2006 से एबोटाबाद में कैद रख रखा था. इसके बाद एक पाकिस्तानी खुफिया अधिकारी ने 25 मिलियन डॉलर यानी करीब 159 करोड़ रुपये के बदले लादेन को अमेरिका के हवाले किया था. कियानी और पाशा को खबर थी कि अमेरिकी सील कमांडो लादेन के निवास पर रेड करनेवाले हैं. दोनों ने यह सुनिश्चित किया था कि अमेरिकी हेलीकॉप्टरों की भनक पाक सेना को न लग पाये.
हालांकि हर्ष के सनसनीखेज लेख पर प्रतिक्रिया देते हुए व्हाइट हाउस ने कहा है कि हर्ष के दावे में ‘कई सारी गलतियां हैं और ये बेबुनियाद हैं.’ लेकिन सेमोर हर्ष ने अमेरिकी मीडिया को दिये बयानों में कहा है कि उन्होंने ठोस जांच-पड़ताल और इसके परिणामों की पूरी समझने के बाद यह जानकारी सामने रखी है.
इस लेख के जरिये पहली बार दुनिया के मोस्ट वांटेड आतंकी सरगना को मार गिराने की पूरी कहानी विस्तार से दुनिया के सामने आयी है, जो पाठकों को कई नये तथ्यों के बीच ले जाती है. उल्लेखनीय है कि 2 मई, 2011 की रात पाकिस्तान मिलिट्री अकादमी के नजदीक एबोटाबाद स्थित लादेन के घर पर अमेरिकी कमांडों ने छापामारी की थी. लादेन को मारकर कमांडो अपने साथ ले गये थे और समुद्र में अज्ञात स्थान पर दफना दिया था.
अब इस ऑपरेशन के संबंध में हुए खुलासों के कई तथ्यों पर अमेरिका और पाकिस्तान में गरमागरम बहस चल रही है. सेमोर हर्ष के इस लंबे लेख का हिंदी अनुवाद हम अपने पाठकों के लिए आज से किस्तों में प्रस्तुत कर रहे हैं. पढ़िए पहली कड़ी..
सेमोर एम हर्ष
उस घटना के चार वर्ष बीत गये, जब अमेरिकी नेवी सील्स के एक दल ने रात के अंधेरे में पाकिस्तान के एबटाबाद शहर स्थित ऊंची चहारदीवारी से घिरे एक अहाते पर हमला कर ओसामा बिन लादेन की हत्या कर दी थी. यह घटना ओबामा के प्रथम कार्यकाल का चरम बिंदु थी, जिसकी भूमिका उनकी दोबारा जीत हासिल करने में अहम रही.
व्हाइट हाउस अब भी अपनी उस बात पर कायम है कि यह मुहिम पूरी तरह अमेरिका द्वारा ही संचालित थी और पाकिस्तानी सेना अथवा पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आइएसआइ के वरिष्ठ जनरलों को इस बारे में पहले से कुछ भी नहीं बताया गया था. मगर इस घटना की तफसील के विषय में ओबामा प्रशासन द्वारा बतायी गयी कई अन्य बातों की तरह यह दावा भी झूठा था
कहानी पर संदेह की वजह
दरअसल, इस सारी कहानी में किसी जासूसी उपन्यास जैसा रोमांच भरा गया था. क्या जिस ओसामा की खोज पूरे विश्व में की जा रही थी, उसे इसलामाबाद से सिर्फ 40 किमी दूर स्थित एक पर्यटन स्थल ही सबसे सुरक्षित जगह महसूस होगी? यह तो किसी मैदान में सिर छिपाने जैसी बात हुई. और अमेरिका ने पूरी दुनिया को यही यकीन दिलाने की कोशिश की.
सबसे बड़ा झूठ तो यह था कि पाकिस्तान के दो शीर्ष जनरलों- थल सेना प्रमुख जनरल अशफाक परवेज कयानी और आइएसआइ प्रमुख जनरल अहमद शूजा पाशा- को इस अभियान की सूचना नहीं दी गयी थी. आज भी व्हाइट हाउस अपने उसी बयान पर कायम है, जबकि कई अहम स्नेतों से उस पर सवाल खड़े किये गये, जिनमें कालोर्टा गॉल द्वारा ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ मैगजीन के 19 मार्च, 2014 के अंक में प्रकाशित रिपोर्ट भी शामिल है.
दरअसल, गॉल ने अफगानिस्तान में ‘टाइम्स’ के संवाददाता के रूप में 12 साल बिताये थे. उनके अनुसार, एक पाकिस्तानी अधिकारी ने उन्हें यह बताया कि पाशा को इस घटना के पहले से ही यह मालूम था कि बिन लादेन एबटाबाद में रह रहा था.
इसलामाबाद के एक थिंक टैंक, सेंटर फॉर रिसर्च एंड सिक्योरिटी स्टडीज के प्रमुख इम्तियाज गुल ने अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान: बिफोर एंड आफ्टर ओसामा’ (2012) में लिखा कि उन्होंने पाकिस्तान के चार खुफिया अधिकारियों से इस संबंध में बातें कीं, जिन्होंने जोर देकर यह कहा कि पाकिस्तानी सेना को इस अभियान की जानकारी जरूर रही होगी.
1990 के शुरुआती वर्षो में आइएसआइ के प्रमुख रह चुके पाकिस्तान के सेवानिवृत्त जनरल असद दुर्रानी ने ‘अल जजीरा’ को एक इंटरव्यू में यह बताया कि यह ‘संभव’ हो सकता है कि आइएसआइ के वरीय पदाधिकारियों को ओसामा के छिपने की जगह न मालूम हो. मगर इसकी संभावना ‘अधिक’ थी कि उन्हें यह सब मालूम था और उनकी योजना यह थी कि सही वक्त आने पर यह राज खोल दिया जायेगा. और यह लाजिमी था कि यह सही वक्त केवल वह था, जब उसके बदले में पाने के लिए कोई बड़ा फायदा मौजूद हो- यदि किसी के पास ओसामा बिन लादेन था, तो वह उसे यों ही तो अमेरिका को नहीं सौंप देता.
दुर्रानी द्वारा पुष्टि
कुछ दिनों पहले मैंने दुर्रानी से संपर्क कर उनसे यह कहा कि मुङो विश्वस्त अमेरिकी स्नेतों से यह पता चला है कि ओसामा 2006 से ही एबटाबाद परिसर में आइएसआइ का कैदी था औरकयानी तथा पाशा को पहले से इस हमले की जानकारी थी, उन्होंने ही यह सुनिश्चित किया था कि अमेरिकी सील्स को ले जा रहे दो हेलीकॉप्टर बिना किसी विरोध के पाकिस्तानी वायुक्षेत्र में दाखिल हो जाएं.
मैंने उनसे यह भी कहा कि मेरी जानकारी के मुताबिक सीआइए को ओसामा का भेद उसके एक कोरियर का पीछा करने से नहीं, बल्कि पाकिस्तान के एक भूतपूर्व वरिष्ठ खुफिया अधिकारी से मिला था, जिसने अमेरिका द्वारा ओसामा का पता बताने को घोषित पुरस्कार, ढाई करोड़ डॉलर की राशि के एक बड़े हिस्से के एवज में उसे यह जानकारी मुहैया करायी और यह भी कि ओबामा ने ही इस हमले की स्वीकृति दी तथा नेवी सील्स ने इसे कार्यान्वित किया, मगर अमेरिकी प्रशासन द्वारा बतायी गयी इसकी कई अन्य तफसील झूठी थी.
दुर्रानी ने इसके जवाब में मुझसे कहा, ‘यदि आप अपना यह पक्ष प्रकाशित करने का फैसला करते हैं, तो पाकिस्तानी अवाम बहुत शुक्रगुजार होगी. एक लंबे वक्त से लोगों ने ओसामा के बारे में आधिकारिक रूप से कही जा रही बातों पर यकीन करना छोड़ दिया है. आपके पक्ष पर कुछ नकारात्मक टिप्पणियां हो सकती हैं और कुछ गुस्सा भी प्रकट किया जा सकता है, मगर अवाम यह चाहती है कि उसे सच्चाई का पता चले और आपने अभी मुझसे जो कुछ भी कहा है, वह मेरे कुछ वैसे पूर्व सहकर्मियों के मुंह से मेरे द्वारा सुनी बातें ही हैं, जो इस घटना के बाद से ही इन बातों की सच्चाई जानने की कोशिश में लगे हैं.’
उन्होंने मुङो यह भी बताया कि आइएसआइ के पूर्व प्रमुख की हैसियत से उन्हें इस घटना के तुरंत बाद ‘जानकार सूत्रों’ ने यह बताया कि अमेरिका को एक भेदिये ने एबटाबाद में बिन लादेन की मौजूदगी की जानकारी दी और बिन लादेन की हत्या के बाद अमेरिका द्वारा अपने वचन से मुकर जाने की वजह से कयानी और पाशा का भेद खुल गया.
पूर्व अमेरिकी खुफिया अधिकारी ने खोले राज
आगे दिये गये घटनाक्रम के लिए प्रमुख अमेरिकी स्नेत एक सेवानिवृत्त वरिष्ठ खुफिया अधिकारी है, जिसे एबटाबाद में बिन लादेन की मौजूदगी की शुरुआती खुफिया सूचना की जानकारी थी.
उसे इस अभियान के लिए सील्स को दिये जा रहे प्रशिक्षण और अभियान के बाद प्रकाश में लायी जा रही विभिन्न रिपोर्टो के राज भी पता थे. दो अन्य अमेरिकी स्नेत वे हैं, जिनके पास इन सूचनाओं की पुष्टि करने वाली जानकारियां थीं, और वे लंबे समय से विशिष्ट आपरेशन्स कमांड के परामर्शी थे.
ओबामा द्वारा बिन लादेन के खात्मे की सूचना तुरंत सार्वजनिक करने के निर्णय से पाकिस्तान के वरिष्ठ आइएसआइ और सैन्य नेतृत्व के बीच छायी निराशा की सूचना भी मुङो मिली-जिसकी पुष्टि दुर्रानी ने भी की. इन सारी सूचनाओं पर टिप्पणी के लिए व्हाइट हाउस से किये गये मेरे अनुरोध पर उसका कोई उत्तर मुङो नहीं मिला.
घटनाक्रम की शुरुआत
इस सारे घटनाक्रम की शुरुआत इसलामाबाद स्थित अमेरिकी दूतावास में एकाएक आये एक आगंतुक से हुई. अगस्त, 2010 में एक भूतपूर्व वरिष्ठ पाकिस्तानी खुफिया अधिकारी ने जोनाथन बैंक से मुलाकात की, जो इसलामाबाद के अमेरिकी दूतावास में सीआइए से संबद्ध मामलों के प्रभारी थे. उस अधिकारी ने सीआइए द्वारा ओसामा के बारे में सूचना देने के एवज में घोषित पुरस्कार राशि के बदले उसके ठिकाने की सूचना देने की पेशकश की. इस तरह खुद आकर कोई पेशकश करनेवाले व्यक्ति को सीआइए द्वारा सामान्य तौर पर अविश्वसनीय माना जाता है.
अत: सीआइए के मुख्यालय ने इसलामाबाद स्थित अपने उस अधिकारी से यह सूचना मिलने पर उस व्यक्ति के कथन की सच्चाई जांचने के लिए अपनी एक पॉलीग्राफ टीम ही भेज दी. वह भेदिया उस पॉलीग्राफ जांच में उत्तीर्ण हो गया.
उस पूर्व अमेरिकी खुफिया अधिकारी ने मुङो बताया,‘इस तरह सीआइए को यह प्रारंभिक जानकारी मिल गयी कि बिन लादेन के एबटाबाद के एक अहाते में छिपे रहने की संभावना थी. मगर अब उसकी अगली चिंता यह थी कि इसकी पुष्टि कैसे की जाये.’
अमेरिका ने प्रारंभ में यह जानकारी पाकिस्तान से साझा नहीं की. उसे यह भय था कि यदि उन्हें यह पता चल गया, तो वे स्वयं ही ओसामा को किसी दूसरे ठिकाने पर भेज देंगे. सीआइए का पहला लक्ष्य भेदिये द्वारा दी गयी सूचना की गुणवत्ता परखना था. उस अहाते को उपग्रह की निगरानी में रख दिया गया. अन्य जरूरी अवलोकन के लिए सीआइए ने एबटाबाद में एक उपयुक्त स्थल पर एक मकान किराये पर लेकर उसमें अपने लोग नियुक्त कर दिये, जिनमें उसके पाकिस्तानी कर्मी तथा अन्य विदेशी नागरिक शामिल थे.
इस केंद्र को बाद में आइएसआइ से संपर्क बिंदु के रूप में अपनी सेवा देनी थी. इसमें किसी को कोई संदेह होने की संभावना नहीं थी, क्योंकि छुट्टियां मनाने की एक जगह के रूप में मशहूर होने की वजह से एबटाबाद में ऐसे घरों की भरमार है, जिन्हें छोटी अवधियों के लिए किराये पर देने की परंपरा रही है. भेदिये को उसके परिवार सहित चुपचाप पाकिस्तान से हटाकर वाशिंगटन के आसपास रहने के लिए ले जाया गया.
संभावित सैन्य विकल्पों पर विचार
‘अक्तूबर तक अमेरिकी सैन्य तथा खुफिया समुदाय संभावित सैन्य विकल्पों पर विचार करने में लग गया. क्या उस परिसर पर गहराई तक मार करनेवाले बमों का प्रयोग किया जाए अथवा उसे एक ड्रोन हमले का निशाना बनाया जाए? अथवा किसी अकेले व्यक्ति को ही ओसामा का काम तमाम करने वहां भेजा जाये?
लेकिन तब हमारे पास इस बात का क्या सबूत होगा कि वह व्यक्ति कौन था?’ उस पूर्व अधिकारी ने मुझसे कहा,‘हमने रात में एक व्यक्ति को वहां टहलते हुए देखा तो है, पर उस अहाते से ऐसा कोई भी संदेश या सिगनल बाहर नहीं निकलता, जिसे बीच में ही रोक कर उसकी जांच की जा सके.’
अक्तूबर में ओबामा को इस सूचना के विषय में बताया गया. उनकी प्रतिक्रिया सावधानी से भरी थी. ‘इस पर यकीन करना मुश्किल है कि ओसामा बिन लादेन एबटाबाद में रह रहा है. यह तो उसके लिए बेवकूफी की बात होगी. आगे जब आपको इसके पुख्ता प्रमाण हासिल हो जाएं, तभी मुझसे इस संबंध में बातें करें,’ उन्होंने जोर देकर कहा.
सीआइए नेतृत्व तथा संयुक्त विशिष्ट ऑपरेशंस कमांड का तात्कालिक उद्देश्य ओबामा का समर्थन हासिल करना था. उनका यह आकलन था कि यदि वे किसी तरह बिन लादेन की मौजूदगी का डीएनए सबूत हासिल कर सकें और ओबामा को यह यकीन दिला सकें कि उस अहाते पर रात में किये गये एक हमले में कोई जोखिम नहीं रहेगी, तो उन्हें उनका समर्थन हासिल हो जायेगा और जैसा उस पूर्व अधिकारी ने मुङो बताया कि ये दोनों ही मकसद हासिल कर पाने की एक ही सूरत थी कि ‘पाकिस्तानियों को अपने पक्ष में किया जाए.’
वर्ष 2010 के अंत तक भी अमेरिकियों ने पाकिस्तान को उन्हें हासिल इस सूचना से बेखबर रखा और कयानी तथा पाशा इस पर जोर देते रहे कि उन्हें ओसामा के ठिकाने के विषय में कोई जानकारी नहीं है.
‘अगला अहम सवाल यह था कि किस तरह कयानी और पाशा को यह जानकारी दी जाये कि हमारे पास उस अहाते में रह रहे एक अहम निशाने के बारे में खुफिया जानकारी है और उनसे यह पूछा जाये कि उनके पास उस व्यक्ति के बारे में क्या जानकारी है?’ उस पूर्व अधिकारी ने कहा,‘वह अहाता शस्त्रस्त्रों द्वारा सुरक्षित नहीं था, क्योंकि वास्तविक में वह आइएसआइ के नियंत्रण में था. उस भेदिये ने सीआइए को यह बताया था कि 2001 से लेकर 2006 तक अपनी कुछ पत्नियों तथा बच्चों के साथ बिन लादेन गुप्त ढंग से हिंदूकुश के पहाड़ों पर रहा था और आइएसआइ ने कुछ स्थानीय कबीलाई लोगों को धन देकर उसका ठिकाना मालूम कर उसे अपने कब्जे में कर लिया था.
(हमले के बाद की रिपोर्टो में उक्त अवधि के दौरान उसके किसी दूसरी जगह पर रहने की बात कही गयी) उस भेदिये ने बैंक को यह भी बताया कि बिन लादेन बहुत बीमार है और आइएसआइ ने मेजर अमीर अजीज नामक सेना के एक डॉक्टर को उस अहाते के निकट एक रिहाइश में रहने तथा ओसामा का इलाज करने का आदेश दिया था.
पूर्व अधिकारी ने मुझसे कहा, ‘सत्य तो यह है कि बिन लादेन एक पंगु व्यक्ति था, मगर हम इसे कह नहीं सकते थे, क्योंकि इसका मतलब यह होता कि हमने एक विकलांग व्यक्ति को मारा, तो फिर यह किस्सा कैसे बयान किया जाता कि मरने के पहले वह अपनी एके 47 लेने को झपटा था?’
पाकिस्तान का सहयोग सुनिश्चित
‘पाकिस्तानियों का सहयोग हासिल करने में हमें कोई ज्यादा वक्त नहीं लगा, क्योंकि पाकिस्तान को अमेरिका से सैनिक सहायता की लगातार जरूरत थी. इस सहायता का एक प्रमुख हिस्सा आतंकवादरोधी मदद के रूप में मिलती थी, जिससे आइएसआइ के वरिष्ठ नेतृत्व के लिए बुलेटप्रूफ लक्जरी कारें, सुरक्षाकर्मियों के दस्ते और सुरक्षित आवासों के खर्चो की भरपाई होती थी,’ उस पूर्व अधिकारी ने बताया. इसके अलावा पेंटागन की आकस्मिक निधि से भी कई लोगों को व्यक्तिगत ‘प्रोत्साहन राशियां’ दी गयीं.अमेरिकी खुफिया समुदाय को यह भलीभांति पता था कि पाकिस्तानी अधिकारियों को राजी करने के लिए किस चीज की दरकार थी.
थोड़े भयादोहन का भी सहारा लिया गया. उन्हें स्पष्ट शब्दों में यह बता दिया गया कि हम यह जानकारी जाहिर कर देंगे कि आपने बिन लादेन को अपने पिछवाड़े छिपा रखा है. हम उनके दोस्त और दुश्मनों को जानते थे- यानी तालिबान और उसके अलावा पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान के अन्य जिहादी दल, जो इस जानकारी को पसंद नहीं करेंगे.
उक्त अधिकारी के मुताबिक, चिंता की एक दूसरी वजह सऊदी अरब थी, जो पाकिस्तानियों को बिन लादेन के कब्जे के बाद उस पर होनेवाले सारे खर्चे मुहैया कराता था.
उसे यह पसंद न था कि बिन लादेन की मौजूदगी की जानकारी हमें दी जाए. उसे भय था कि यदि हमें इस बारे में पता चल गया, तो हम पाकिस्तानियों पर दबाव देकर बिन लादेन से यह उगलवा लेने में कामयाब हो जायेंगे कि सऊदी अरब ने अल कायदा की मदद के लिए क्या कुछ किया.
इसलिए वह पाकिस्तान को यह राज गोपनीय रखने के वास्ते बहुत सारा धन देता था. दूसरी ओर पाकिस्तानियों को यह चिंता सताती रहती थी कि कहीं सऊदी अरब ही हमें यह राज न बता दे कि बिन लादेन पाकिस्तानियों के कब्जे में है, क्योंकि तब पाकिस्तान पर आफत आ जाती. किसी भेदिये से बिन लादेन की कैद के विषय में जानना उतना ज्यादा बुरा नहीं था.
अमेरिका और पाकिस्तान के बीच सहयोग की परंपरा
अमेरिकी और पाकिस्तानी सैन्य तथा खुफिया समुदाय के बीच होनेवाले सारे सार्वजनिक झगड़ों के बावजूद वे दोनों दशकों से दक्षिण एशिया में आतंकवाद के विरोध की दिशा में साथ-साथ काम करते आये थे. अपनी-अपनी दुखती रगें छिपाने के लिए उन दोनों को सार्वजनिक झगड़े बहुत रास आते थे, मगर ड्रोन आक्रमणों के लिए लगातार खुफिया जानकारियां साझा करने के अलावा अन्य तरह के कई गोपनीय कार्रवाइयों में एक दूसरे का साथ देने में उन्हें कभी कोई गुरेज न था.
इसके साथ ही वाशिंगटन की यह समझ भी थी कि आइएसआइ के कई तत्वों के विचार में अफगानिस्तान के अंदर तालिबानी नेतृत्व से एक किस्म का संबंध बनाये रखना पाकिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए जरूरी है. काबुल में भारत के प्रभाव को संतुलित रखना आइएसआइ के रणनीतिक लक्ष्य का एक हिस्सा रहा है. दूसरी ओर तालिबान उन्हें जिहादी समूहों का एक स्नेत भी नजर आता है, जो कश्मीर के लिए उनके संघर्ष में उनके लिए बहुत सहायक सिद्ध होंगे.
इन सारी चिंताओं को पाकिस्तानी परमाण्विक शस्त्रगार और भी ज्यादा बढ़ा रहा था. यह भय हमेशा बना रहता है कि इजराइल के साथ किसी संकटपूर्ण समय में पाकिस्तान के इस ‘इसलामी बम’ का प्रयोग करने हेतु इसे मध्यपूर्व के किसी संघर्षरत राष्ट्र को सौंपा जा सकता है.
जब 1970 के दशक में पाकिस्तान ने अपने परमाणु आयुधों का विकास आरंभ किया, तो अमेरिका ने जानबूझकर उसकी अनदेखी की. आज बड़े पैमाने पर यह यकीन किया जाता है कि उसके पास सौ से ऊपर परमाण्विक आयुध मौजूद हैं. ‘वाशिंगटन में ऐसा समझा जाता है कि अमेरिका की सुरक्षा पाकिस्तान से एक मजबूत सैनिक तथा खुफिया सहयोग बनाये रखने पर निर्भर है.
पाकिस्तान भी इस यकीन की पुष्टि करता है और वह यह जानता है कि अमेरिका से एक मजबूत संबंध भारत के आक्रमण के विरुद्ध उनकी सुरक्षा के लिए अमोघ अस्त्र है. इसलिए वे हमसे व्यक्तिगत संबंधों का कभी भी परित्याग नहीं करेंगे,’ उस अधिकारी ने बताया.
सीआइए के सभी केंद्र-प्रमुखों की भांति बैंक भी गुप्त रूप से काम करता था, किंतु दिसंबर, 2010 के प्रारंभ में उसकी यह स्थिति तब समाप्त हो गयी, जब उसे सार्वजनिक रूप से हत्या का आरोपी बनाते हुए करीम खान नामक एक पाकिस्तानी पत्रकार ने इसलामाबाद में उस पर एक आपराधिक मुकदमा दायर कर दिया. करीम खान के पिता तथा भाई की मृत्यु एक अमेरिकी ड्रोन हमले में हो गयी थी.
बैंक के नाम के जिक्र की अनुमति देकर पाकिस्तानियों ने एक कूटनीतिक प्रोटोकॉल का उल्लंघन किया था, जिसकी वजह से उसका नाम अवांछित रूप से प्रचारित हो गया. बैंक को पाकिस्तान से चले आने का आदेश दिया गया, जिसके संबंध में बाद में यह बताया गया कि उसे उसकी सुरक्षा के मद्देनजर वहां से स्थानांतरित कर दिया गया है.
‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ में यह रिपोर्ट छपी कि इस बात का ‘गहरा संदेह’ था कि करीम खान को बैंक का नाम बताने में आइएसआइ का हाथ था, जो एक माह पहले न्यूयॉर्क में दायर एक मुकदमे का बदला था, जिसमें 2008 के मुंबई आतंकी हमले के लिए आइएसआइ प्रमुख को जिम्मेवार ठहराया गया था.
सच्चाई यह थी कि इस घटना में दोनों के अपने-अपने हित निहित थे. अमेरिकी बैंक को वापस अमेरिका भेज देना चाहते थे, जबकि पाकिस्तानियों को एक ऐसे उपयुक्त नजीर की दरकार थी कि लादेन से पीछा छुड़ाने में अमेरिकियों से सहयोग करने की बात यदि कभी जाहिर भी हो जाये, तो उससे मुकरने के लिए वे उसे सामने रख सकें. पाकिस्तानी यह कह सकते थे कि ‘इसमें हमारी संलिप्तता की बात कैसे कही जा सकती है? हमने तो उनके सीआइए प्रमुख को देश से निकालवा दिया.’
– शेष भाग पढ़ें कल के अंक में.
(लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स से साभार)
– अनुवाद : विजय नंदन
सेमोर एम हर्ष अमेरिका के सुप्रसिद्ध खोजी पत्रकार और लेखक हैं. हर्ष का जन्म 8 अप्रैल, 1937 को शिकागो में हुआ था. उन्होंने शिकागो विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त करने के बाद एक स्थानीय अखबार से पत्रकारिता की शुरुआत की थी.
अपने पेशेवर जीवन में हर्ष को उनकी रिपोटरें और लेखों के लिए अनेकों सम्मान मिल चुके हैं, जिनमें दो बार नेशनल मैगजीन अवार्डस, पांच बार पोक सम्मान और जॉर्ज ऑरवेल सम्मान के साथ 1970 में मिला पुलित्जर अवार्ड भी शामिल है. उन्होंने 1969 में उन्होंने वियतनाम के माइ लाइ हत्याकांड को दुनिया के सामने उजागर किया था, जिसमें अमेरिकी सेना ने बड़ी संख्या में निदरेष लोगों मार दिया था.
उन्होंने सूडान, इराक और अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना की अनुचित और अवैध गतिविधियों पर लगातार लिखा और बोला है. हर्ष ने 1983 में प्रकाशित अपनी किताब ‘द प्राइस ऑफ पॉवर’ में दावा किया था कि जॉनसन और निक्सन के कार्यकाल के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को अमेरिकी इंटेलिजेंस संस्था सीआइए नियमित धन देती थी.
इस पर देसाई द्वारा दायर मुकदमे का फैसला हर्ष के पक्ष में गया था. उन्होंने कुछ दिन पूर्व लंदन रिव्यू ऑव बुक्स में एक लंबे लेख में ओसामा बिन लादेन की हत्या के संदर्भ में अमेरिका और पाकिस्तान के झूठ पर से परदा उठाया है.

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