केंद्र की पिछली सरकारों के मुकाबले ज्यादा सुरक्षित हैं अल्पसंख्यक

विविधता में एकता भारतीय समाज की विशेषता रही है. दूसरी ओर देश की प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी भाजपा पर वोट के लिए बहुसंख्यकों के ध्रुवीकरण की राजनीति करने के आरोप लगते रहे हैं.लेकिन, पिछले साल के लोकसभा चुनाव में भाजपा नेता नरेंद्र मोदी ने जब ‘सबका साथ-सबका विकास’ का नारा दिया था, तो लोगों में उम्मीद […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 23, 2015 6:58 AM
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विविधता में एकता भारतीय समाज की विशेषता रही है. दूसरी ओर देश की प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी भाजपा पर वोट के लिए बहुसंख्यकों के ध्रुवीकरण की राजनीति करने के आरोप लगते रहे हैं.लेकिन, पिछले साल के लोकसभा चुनाव में भाजपा नेता नरेंद्र मोदी ने जब ‘सबका साथ-सबका विकास’ का नारा दिया था, तो लोगों में उम्मीद बंधी की उनकी सरकार किसी तरह के भेदभाव से परे रह कर सभी देशवासियों के कल्याण के लिए समान रूप से काम करेगी. भाजपा को मिले बहुमत में इस नारे से बने माहौल की बड़ी भूमिका थी.

ऐसे में मोदी सरकार का एक साल पूरे होने के मौके पर यह देखना समीचीन होगा कि इस दौरान भाजपा और संघ परिवार ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के आधार पर चुनावी वोट बैंक को मजबूत करने की जद्दोजहद छोड़ दी है या वे अब भी अपने पुराने एजेंडे पर ही कायम है. इस विषय पर पढ़ें विशेषज्ञों का नजरिया.

केंद्र की पिछली सरकारों के मुकाबले ज्यादा सुरक्षित हैं मोदी सरकार में अल्पसंख्यक

।।मुजफ्फर हुसैन।।
उपाध्यक्ष, उर्दू अकादमी, दिल्ली

पिछले एक साल में मुझे ऐसी कोई बात नजर नहीं आयी, जिससे लगे कि सरकार सांप्रदायिकता को बढ़ावा दे रही है. न ही कोई बड़ा सांप्रदायिक दंगा हुआ, जैसा कि दूसरी सरकारों के दौरान हो चुके हैं.

जो लोग सरकार पर सांप्रदायिकता और हिंदुत्ववादी कट्टरता का आरोप लगा रहे हैं, उनके पास क्या कोई ठोस उदाहरण है कि किसी मंत्री या सांसद ने कोई दंगा फैलाया हो या सौहार्द बिगाड़ने का काम किया हो, जिससे कि देश की सामाजिक स्थिति पर असर पड़ा हो.

आजादी के बाद से ही राजनीतिक स्तर पर एक परंपरा रही है कि जब कोई नयी सरकार बनती है, तो विपक्ष में बैठे दलों को उस सरकार की सारी नीतियां गलत लगती हैं और वे गाहे-ब-गाहे किसी न किसी तरह से सरकार की आलोचना करना शुरू कर देते हैं.

दरअसल, सत्ता में बैठे लोगों पर नजर रखना और आरोप-प्रत्यारोप करना विपक्ष के रूप में उसकी जवाबदारी भी बनती है. यही वजह है कि विपक्षी पार्टियां मोदी सरकार को बारंबार घेरने की कोशिश करती रहती हैं और कहती रहती हैं कि देश में अल्पसंख्यक डर-डर कर जी रहे हैं.

लेकिन, सच्चई यह है कि पिछले एक साल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुत कुछ किया है- न किसी एक धर्म पर आधारित, न किसी एक समाज पर आधारित, न सिर्फ शासन पर आधारित, बल्कि पूरे देश के संपूर्ण विकास पर आधारित है मोदी की सोच.

उनका तो नारा ही है- ‘सबका साथ सबका विकास’. एक प्रधानमंत्री के रूप में देश को आगे बढ़ाने का जो नजरिया चाहिए होता है, नरेंद्र मोदी के पास है. मोदी सरकार देश के अल्पसंख्यकों को साथ लेकर चल रही है और देश में सांप्रदायिकता बढ़ने जैसी कोई बात नहीं है. पिछले एक साल में जब भी किसी धार्मिक संगठन ने कुछ गलतियां कीं, तो विपक्षी पार्टियां उसे सीधे मोदी से जोड़ कर देखने लगीं. ऐसा बिल्कुल नहीं होना चाहिए, क्योंकि यह परिपक्व राजनीति का तरीका नहीं है.

इसके पहले भी देश में जो सरकारें सत्ता में आयी हैं, उनके द्वारा हमारी आजादी, विकास और देश के भविष्य के लिए जो मापदंड तय किये जाते रहे हैं, उनमें कहीं-न-कहीं हमारे सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्तर पर ही उन सरकारों का चिंतन रहा है. इस आधार पर अगर किसी ने मोदी पर आरोप लगाया हो कि वह तो हिंदुत्व के पैरोकार हैं, तो यह सही नहीं है.

किसी संगठन के किसी काम के लिए मोदी को कुसुरवार नहीं ठहराया जा सकता है. इसलिए जो लोग ऐसा कह रहे हैं कि पिछले एक साल में देश में कट्टरता या सांप्रदायिकता बढ़ी है, तो मैं समझता हूं कि वे लोग गलत सोचते हैं या फिर विपक्षी पार्टियों द्वारा फैलाये जा रहे भ्रम पर भरोसा कर रहे हैं.

मैं मानता हूं कि पिछले एक साल में भारतीय जनता पार्टी के कुछ सांसदों ने भी कुछ गलतबयानियां की हैं, लेकिन वह उनकी अपनी राय है. हर आदमी अपनी कोई न कोई धार्मिक राय रखता ही है.

हर आदमी किसी धार्मिक विचारधारा, किसी मत-संप्रदाय आदि से जुड़ा हुआ होता है. सांसद भी उनमें से एक हैं. इसलिए अगर किसी सांसद ने अपनी वह राय व्यक्त कर दी, तो मैं समझता हूं कि इसमें सरकार को या मोदी को दोष देना उचित नहीं है. दूसरी बात यह कहना चाहूंगा कि अगर ऐसी गतिविधियों से किसी सरकार पर असर पड़ता हो, और सरकार काम नहीं करती हो, तब आरोप लगाना बनता है.

आप देख लीजिए पिछले एक साल में मोदी सरकार ने किस तरह से काम किया है और वह लगातार काम करती ही जा रही है. उसके काम को लेकर कहीं कोई सांप्रदायिकता या कट्टरता जैसी बात नहीं है, तो फिर यह कहना बिल्कुल गलत है कि मोदी सरकार में सांप्रदायिकता बढ़ी है. मैं इस बात से कतई सहमत नहीं हूं. मैं समझता हूं कि इससे कहीं बहुत ज्यादा सांप्रदायिकता और कट्टरता के मसले पिछली कई सरकारों के दौरान आये थे.

हम एक लोकतांत्रिक देश हैं. यहां कट्टरता और सांप्रदायिकता की नहीं चलनेवाली. वैसे जरा सोचिये, ये कट्टरता है क्या? कांग्रेस की सरकार आ जाती है, तो हम मुसलिम तुष्टिकरण की बात करने लगते हैं और जब भाजपा की सरकार आ जाती है, तो हिंदुत्व की बात करने लगते हैं.

ये दोनों विचार हिंदुस्तान में हमेशा रहे हैं. हमें समझना यह है कि इन्हें बढ़ावा न देकर हम विकास के रास्ते को चुनें और देश को आगे बढ़ाने की बात करें. लेकिन हम खुद ही फालतू मसलों में उलझे रहते हैं.

जो लोग यह कह रहे हैं कि मोदी सरकार के आने के बाद से देश में अल्पसंख्यक समुदायों में डर सा होने लगा है, उनसे मैं पूछना चाहता हूं कि वे यह बतायें कि कांग्रेस की सरकार के समय अल्पसंख्यकों के खिलाफ कितने मामले आये उन सबका आंकड़ा दें.

हमारा देश बहुत बड़ा है, इसलिए छोटी-मोटी घटनाएं घटनी अवश्यंभावी हैं, लेकिन यह कहना कि सरकार इन घटनाओं में संलिप्त है या इनके पीछे सरकार है, यह सरासर गलत है.

ऐसी बातें गंदी राजनीति से प्रेरित होकर ही जनमानस के बीच पहुंचती हैं और लोगों में डर पैदा करती हैं. मुझे समझ में नहीं आता कि ऐसी बातें फैला कर लोगों को क्या मिलता है, जबकि पिछले एक साल में मुझे ऐसी कोई बात नजर नहीं आयी, और न ही कोई बड़ा सांप्रदायिक दंगा ही हुआ, जैसा कि दूसरी सरकारों के दौरान हो चुके हैं.

जो लोग सरकार पर सांप्रदायिकता और हिंदुत्ववादी कट्टरता का आरोप लगा रहे हैं, उनके पास क्या कोई ठोस उदाहरण है कि मोदी सरकार के किसी मंत्री या सांसद ने कोई दंगा फैलाया हो या ऐसा कोई काम किया हो, जिससे कि देश की सामाजिक स्थिति पर असर पड़ा हो. मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि उनके पास ऐसा कोई उदाहरण नहीं होगा, लेकिन फिर भी वे मोदी-विरोधी सुर में बात कर रहे हैं.

उन्हें यह जान लेना चाहिए कि ऐसा करके वे मोदी सरकार का कुछ नहीं बिगाड़ सकते, बल्कि आलोचनाओं से गुजर कर ही मोदी सरकार देश को और सभी धर्म-संप्रदायों को एक साथ लेकर आगे बढ़ रही है.

देश में अल्पसंख्यक समुदायों के लिए बहुत अच्छे-अच्छे काम हो रहे हैं. मैं एक व्यक्तिगत बात कहना चाहता हूं. हाल ही में मुझे मानव संसाधन मंत्रलय के तहत आनेवाले उर्दू काउंसिल का वाइस चेयरमैन बनाया गया है. मैं देख रहा हूं कि सरकार ने न तो उर्दू काउंसिल से आनेवाली किसी किताब को छपने से रोका है और न ही उर्दू के प्रचार-प्रसार में कोई कमी की है.

साथ ही मौलाना अबुल कलाम आजाद का इस साल नवंबर में आनेवाले जन्मदिन पर शताब्दी समारोह का आयोजन भी होने जा रहा है. मुझे इसके लिए कहा गया है कि एक अनोखे कार्यक्रम का आयोजन होना चाहिए, जिससे कि मौलाना आजाद के बारे में लोगों को ज्यादा से ज्यादा जानकारी मिल सके. अब आप ही बताइये अगर सरकार मुसलिम विरोधी होती, तो क्या यह सब करती?

दरअसल, बात कहने और करने की है. मोदी सरकार करना जानती है, जबकि बाकी की सरकारें सिर्फ कहना जानती रही हैं. आप ही बताइये, इस बार के लोकसभा चुनाव में मुसलमानों ने भाजपा को क्यों वोट दिया? हमारा मानना है कि हमारा देश हिंदुस्तान वैचारिक रूप से बहुत समृद्ध देश है.

पूरी दुनिया में काले और गोरों की राजनीति में काला गोरे का समर्थन नहीं करता और गोरा काले का समर्थन नहीं करता. लेकिन भारत एक ऐसा देश है, जहां रंगभेद से इतर सभी लोग एक साथ मिल कर रहते हैं. लेकिन हां, इसी देश में कुछ लोग हैं, जो कट्टरता और सांप्रदायिकता को हवा देते रहते हैं, लेकिन मोदी सरकार में अब यह संभव नहीं है. मोदी सरकार में अल्पसंख्यक सबसे ज्यादा सुरक्षित हैं.

(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

मेरा, मेरी पार्टी और मेरी सरकार का एक ही सिद्धांत है- सबका साथ, सबका विकास. जब भी अल्पसंख्यक समुदाय के लिए किसी ने नकारात्मक विचार पेश किया, हमने तत्काल उसकी निंदा की.

सरकार के लिए सिर्फ एक ही धर्मग्रंथ है, भारत का संविधान. सभी धर्मो और समुदायों को यहां समान अधिकार है. मेरी सरकार जाति, धर्म या संप्रदाय के आधार पर भेदभाव बर्दाश्त नहीं करेगी.

– नरेंद्र मोदी (भारत की धार्मिक विविधता पर. टाइम मैगजीन में)

ईसाई संस्थानों पर हमलों की घटनाओं और ‘घर वापसी’ और ‘लव जेहाद’ जैसे अभियानों के मद्देनजर सामाजिक मोरचे पर अल्पसंख्यकों के बीच अत्यंत चिंता की स्थिति है. जब सानिया मिर्जा चैंपियनशिप जीतती हैं, तो आप ट्वीट करते हैं या जन्मदिन पर किसी को बधाई देते हैं, लेकिन नैतिक सवालों से जुड़े मसलों पर आप यह नहीं करते. लोगों को संदेह होता है कि वे चुप क्यों हैं.

– अरुण शौरी, पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं पत्रकार (हेडलाइंस टुडे में)

लोकसभा चुनाव प्रचार में मोदी का सबसे महत्वपूर्ण नारा ‘सबका साथ, सबका विकास’ था, जो यह इंगित करता था कि विकास और शासन का उनका मॉडल समावेशी प्रवृत्ति का होगा. इससे बहुत से संशयी लोगों को उम्मीद बंधी कि नरेंद्र मोदी ने अपनी 2002 की छवि को बिल्कुल बदल ली है और एक अलग छवि बना रहे हैं.

लेकिन उनका यह मुखौटा बहुत जल्दी उतर भी गया. पिछले महीनों में दिल्ली में चर्चो पर कई हमले हुए. पिछले एक साल में योगी आदित्यनाथ से लेकर साक्षी महाराज तक तथा साध्वी ज्योति से सुब्रमण्यम स्वामी तक ने बड़ी संख्या में सांप्रदायिक बयान दिये, परंतु इनमें से किसी के भी विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की गयी. भाजपा की सहयोगी पार्टी शिवसेना के नेता संजय राउत ने तो मुसलिम समुदाय से मताधिकार तक छीन लेने की मांग की, फिर भी हर बात पर ट्वीट करते रहनेवाले प्रधानमंत्री का मौन नहीं टूटा. यहां तक कि गंभीर रूप से सांप्रदायिक और इसलाम-विरोधी ट्वीट करनेवाले तथागत राय को त्रिपुरा का राज्यपाल तक बना दिया गया.

इस तरह ‘सबका साथ, सबका विकास’ का वादा टूट गया.

– शहजाद पूनावाला, कांग्रेस (ब्लॉग लेख का अंश)

सरकार की जनविरोधी नीतियों का हिस्सा है सांप्रदायिकता

।।शम्सुल इस्लाम।।
राजनीतिक विश्लेषक

देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार इस बात को बोल चुके हैं कि ‘मैं हिंदू राष्ट्रवादी हूं.’ आरएसएस के हिंदू राष्ट्र की परिभाषा में साफ कहा गया है कि इसमें मुसलमानों और ईसाइयों के लिए जगह नहीं है. आरएसएस के एक नेता पिछले दिनों यह बयान भी दे चुके हैं कि 2025 तक देश से मुसलमानों और ईसाइयों का सफाया कर दिया जायेगा.

पिछले एक साल में देश में सांप्रदायिकता और कट्टरता के मद्देनजर, हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बहुचर्चित नारे ‘सबका साथ सबका विकास’ के हवाले से दो बातें बड़ी महत्वपूर्ण हैं.

हालांकि, सबका विकास आर्थिक दृष्टि से दिया गया नारा है, लेकिन ‘सबका साथ’ और ‘सबका विकास’ इन दोनों को एक-साथ जोड़ कर देखे बगैर हम सांप्रदायिकता और कट्टरता के मसले को नहीं समझ सकते. दो तसवीरें हैं. एक तसवीर है कि हिंदुस्तान में हर 45 मिनट पर किसान आत्महत्या कर रहे हैं. बेरोजगारी और महंगाई बेइंतहा बढ़ी है.

काले धन को वे वापस नहीं ला पाये हैं. किसानों के लिए उनके पास पैसा नहीं है, लेकिन स्मार्ट सिटी बनाने के लिए एक लाख करोड़ रुपये हैं. बेमतलब की चीजों के लिए उनके पास बहुत पैसा है. दूसरी तसवीर है कि अगर आप यह सोच रहे हैं कि सांप्रदायिकता फैलाने जैसी चीजें अचानक कुछ पागल संगठन करने लगे हैं, तो आप गलत हैं, ऐसा बिल्कुल नहीं है.

यह तो मोदी सरकार की ही चाहत है कि वह जो जनविरोधी काम कर रही है, विकास यानी जो कुछ कॉरपोरेट घरानों का विकास होगा, उससे ध्यान हटाने के लिए सरकार देश की जनता को ऐसे मामलों में उलझाये रखना चाहती है, जिससे असली समस्या आर्थिक संकट, महंगाई, भ्रष्टाचार आदि की ओर किसी का ध्यान न जाये. इन बड़ी तसवीरों को जब तक हम नहीं समझेंगे, तब तक सांप्रदायिकता और कट्टरता आदि को नहीं समझ पायेंगे. मोदी सरकार की जनविरोधी आर्थिक नीतियों का एक हिस्सा है सांप्रदायिकता फैलाना, ताकि जनविरोधी नीतियों से लोगों का ध्यान हटा रहे, वे आपस में बंटे रहें.

एक दूसरी बात देखिए. नरेंद्र मोदी बार-बार कहते हैं कि मैं आरएसएस का आदमी हूं. हमारे गृह मंत्री भी कहते हैं कि मैं आरएसएस का आदमी हूं. एनडीए के और भी कई मंत्री कहते हैं कि वे आरएसएस के आदमी हैं. अब यहां गौर करें- आरएसएस का तो मकसद ही यही है और उनके दस्तावेजों में लिखा है कि हम धर्मनिरपेक्ष और प्रजातांत्रिक राष्ट्र को बदल कर एक हिंदू राष्ट्र बनायेंगे.

नरेंद्र मोदी कई बार इस बात को बोल चुके हैं कि ‘मैं हिंदू राष्ट्रवादी हूं.’ हिंदू राष्ट्र की परिभाषा में साफ कहा गया है कि इसमें मुसलमानों और ईसाइयों के लिए कोई जगह नहीं है. आरएसएस का एक नेता कह भी चुका है कि 2025 तक देश से मुसलमानों और ईसाइयों का सफाया कर दिया जायेगा.

पिछले दिनों दिल्ली में मुसलमान महापुरुषों के नाम पर जितनी भी सड़कें थीं, उन पर कालिख पोत दी गयी. एक और किसी ने कहा है कि ताजमहल का अंजाम भी बाबरी मसजिद जैसा होगा. यह भी कहा गया कि चर्चो पर हमले बहुत सही हैं और भारत सरकार को चर्चो पर हमले करनेवाले लोगों को पकड़ने के बजाय उनको सम्मान देना चाहिए. यह सब पिछले एक साल में हुआ. आजाद भारत के इतिहास में एक साल में ऐसा कभी नहीं हुआ.

पिछले एक साल में जितने भी सांप्रदायिक दंगे हुए, उनकी चपेट में सिर्फ मुसलिम ही नहीं, बल्कि ईसाई भी आये, यह भी देश में पहली बार हुआ. यह सब इसलिए हो रहा है, क्योंकि धार्मिक कट्टरता ही आरएसएस की मूल राजनीति है. इनके लिए यह सब करना इसलिए जरूरी है कि इनके खिलाफ आम हिंदू विरोधी लोग जो सख्त कदम उठा रहे हैं, उसकी तरफ से बाकी लोगों का ध्यान बंटे.

हो सकता है कि यह सब पढ़ कर लोग यह समझें कि देश में सांप्रदायिकता और कट्टरता को रोकने में सरकार विफल रही है. लेकिन मेरा मानना है कि यह सरकार की विफलता नहीं, बल्कि ऐसा लगता है कि यह सब इस सरकार की गहरी साजिश के तहत हो रहा है. अगर ऐसा नहीं होता तो प्रधानमंत्री इन मसलों पर चुप नहीं रहते. किसी गंभीर मसले पर चुप्पी एक खामोश सहमति है. इसे आप अच्छी तरह से समझने की कोशिश कीजिए.

एक महत्वपूर्ण बात समझ लें. जब मोदी जी कहते हैं कि ‘सबका साथ’, तो इसका अर्थ है कि देश के सब हिंदुओं का साथ. इस बात की तस्दीक मोदी जी की उस बात से होती है, जिसमें उन्होंने कहा था- मैं हिंदू राष्ट्रवादी हूं. राष्ट्रवाद का मोदी का यह पैमाना और उसके तहत सबका साथ वाली बात इसी ओर इशारा है कि वे सिर्फ हिंदू धर्म और उसके माननेवालों के हिमायती हैं. कुछ देर के लिए मान लीजिए- अगर मैं कहूं कि मैं शम्सुल इस्लाम एक मुसलिम राष्ट्रवादी हूं, तो इसका अर्थ क्या हुआ? यही न कि मेरे से अलग ईसाई राष्ट्रवादी है, मेरे से अलग हिंदू राष्ट्रवादी है.

यही बात मोदी जी कह रहे हैं कि वे हिंदू राष्ट्रवादी हैं, जिसमें मुसलिम और ईसाई शामिल नहीं हैं. यानी ‘सबका साथ’ में ‘सब’ से उनका मतलब ‘हिंदू राष्ट्रवादियों’ से है, किसी और धर्म-समुदाय के लोगों से नहीं. अगर ऐसी बातें एक धर्मनिरपेक्ष देश का प्रधानमंत्री कहेगा, तो देश में किस तरह के लोगों और संगठनों को सह मिलेगी, यह समझना बहुत आसान है. यही वजह है कि पिछले एक साल में ‘घर वापसी’ से लेकर मुसलिम व ईसाई विरोधी जितने भी बयानात आये हैं, वे सब उनकी कट्टरता और सांप्रदायिक वैमनस्यता को परिभाषित करते हैं.

आखिर में मैं कहूंगा कि आजादी के 67 सालों बाद देश पाकिस्तान के रास्ते पर जाता दिखाई दे रहा है. पाकिस्तान का रास्ता धर्माध का रास्ता है. धार्मिक राष्ट्र बनाने के रास्ते पर चल कर पाकिस्तान खत्म होता जा रहा है, मोदी भी हमें उसी राह पर ले जाते हुए दिख रहे हैं.

हालांकि, पहले भी देश में सांप्रदायिकता रही है, जिस पर पार्टियों ने अपने-अपने तरीके से राजनीतिक रोटियां सेंकी हैं, लेकिन वह लुके-छिपे तौर पर हुआ करता था. लेकिन, पिछले एक साल से कुछ संगठन सांप्रदायिकता और कट्टरता पर खुलेआम बयानबाजी कर रहे हैं. आजादी के इतने बरसों में कभी किसी ने नहीं कहा कि मुसलमानों से मताधिकार छीन लेना चाहिए, लेकिन मोदी सरकार के एक साल में यह भी कह दिया गया और मोदी खामोश रहे.

पिछले एक साल में हमारी न्यायपालिका ने कम-से-कम 100 मुसलमान नौजवानों को रिहा किया है, जिन पर झूठे मुकदमे बनाये गये थे. जिस दिन मोदी सरकार ने शपथ ली थी, उसी दिन सुप्रीम कोर्ट ने अक्षरधाम के पांच मुजरिमों को, जिनमें से तीन को फांसी की सजा सुनायी गयी थी, रिहा कर दिया.

इसका अर्थ यह है कि पिछली सरकारों ने मुसलमानों के खिलाफ झूठे आरोप लगा कर उन्हें कई सालों से जेल में डाल रखा था, जिन्हें कोर्ट ने रिहा कर दिया. ध्यान रहे, इसे एक साल में मोदी की उपलब्धि समझने की भूल न की जाये, क्योंकि ये दस-पंद्रह साल पुराने मामलों में कोर्ट ने अपना फैसला दिया.

इसी तरह से मौजूदा सरकार भी मुसलमान नौजवानों को फंसाने की कोशिशें करती रहती है. अब सवाल है कि देश में इस तरह का माहौल बनाना क्या कट्टरता, आतंकवाद और सांप्रदायिकता नहीं है. चर्चो में जो हमले हुए, क्या वह कट्टरता नहीं है? क्या मुसलमान और ईसाइयों को देश से खत्म करने की बात कट्टरता नहीं है? क्या मुसलमानों से मताधिकार छीन लेने की बात कहना कट्टरता नहीं है?

देश में ऐसी कट्टरता और सांप्रदायिकता आजाद भारत में कभी नहीं देखी गयी, जितनी कि पिछले एक साल के मोदी सरकार के दौर में देखी गयी है. तो क्या यह समझने के लिए काफी नहीं है कि मोदी सरकार न सिर्फ देश से कट्टरता व सांप्रदायिकता को खत्म करने में विफल रही है, बल्कि उसने इसे और भी बढ़ाने का काम किया है!

(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

क्या वादे नारे बन कर रह गये?

भारतीय जनता पार्टी ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में 2014 का लोकसभा चुनाव जिन मुद्दों पर लड़ा, उनमें महिला-सुरक्षा एक अहम मुद्दा था. पार्टी ने अपने मैनिफे स्टो में और प्रधानमंत्री ने अपने भाषणों में कई वायदे किये. एक साल के बाद उनका क्या हुआ, इसका आकलन किया महिला मुद्दों पर लिखनेवाली वरिष्ठ पत्रकार कल्पना शर्मा ने.

जो वादे अधूरे तौर पर पूरे हुए :

महिलाओं के खिलाफ हिंसा से जुड़े सभी कानूनों को सख्ती से लागू करना : नेशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक, अब बलात्कार के ज्यादा मामले दर्ज किये जा रहे हैं.

इससे यह समझा जा सकता है कि कड़े कानून ने महिलाओं को सामने आने और पुलिस में शिकायत करने का बल दिया है. साथ ही कानून का दायरा बढ़ा है और पुलिस के लिए बलात्कार की हर शिकायत में एफआइआर दर्ज करना अनिवार्य हो गया है. लेकिन यह भी मुमकिन है कि महिलाओं के खिलाफ अपराध की दर भी बढ़ी हो.

दिल्ली पुलिस में ज्यादा महिलाएं : कैबिनेट के एक फैसले के मुताबिक, दिल्ली और छह केंद्र-शासित क्षेत्रों में पुलिस बल में एक-तिहाई पोस्ट महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी, लेकिन यह निर्देश राज्यों के लिए नहीं है, क्योंकि पुलिस प्रशासन राज्य सरकार के कार्यक्षेत्र में आता है. महिलाओं की ज्यादा भर्ती के साथ ही जरूरी है कि पुरुषों को महिला पीड़ितों के साथ संवेदनशीलता से पेश आने की ट्रेनिंग दी जाये.

महिलाओं की सुरक्षा के लिए आइटी का इस्तेमाल : महिलाओं की मौजूदा फोन हेल्पलाइन के साथ ‘हिम्मत’ नाम का एप्प शुरू किया गया है. मकसद ये कि इस एप्प पर तस्वीरें और जानकारी भेजकर महिलाएं फौरन मदद मांग सकती हैं. सिर्फ दिल्ली में दो महीने पहले लाया गया यह एप्प कितना कारगर है, इस पर साफ जानकारी अभी उपलब्ध नहीं है. दिल्ली हाइकोर्ट ने हाल ही में इन दोनों पर टिप्पणी करते हुए उन्हें ‘निराशाजनक’ बताया.

जो वादे पूरे नहीं हुए : 660 से घटकर सिर्फ 36 ‘रेप क्राइसिस इंटरवेन्शन सेंटर’ : महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने बलात्कार पीड़ितों के लिए 660 ऐसे सेंटर बनाने का ऐलान किया था, पर पैसे की कमी के चलते अब सिर्फ 36 ऐसे सेंटर खोले जायेंगे. ये सेंटर पीड़ित महिला को मेडिकल मदद, कानूनी जानकारी, शेल्टर इत्यादि देने के लिए बनाये जाने थे.

निर्भया फंड के पैसों के इस्तेमाल की योजना नहीं : यूपीए सरकार ने दिसंबर, 2012 के सामूहिक बलात्कार की घटना के बाद 1,000 करोड़ रुपये की राशि का यह फंड बनाया था. भाजपा सरकार ने इस बजट में इस फंड में इतने ही और पैसे डाले हैं, पर इस्तेमाल की योजना अब भी तय नहीं की गयी है.

देश में असुरक्षा का माहौल : सरकार की ओर से आने वाले भड़काऊ बयानों से माहौल बिगड़ा है और इसका असर हमेशा महिलाओं पर ही पड़ता है. खास तौर पर अल्पसंख्यक समुदायों की महिलाएं इसका निशाना बनती हैं. साथ ही अगर बहुसंख्यक समुदाय की महिलाओं को ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए कहा जाये तो यह भी एक प्रकार की हिंसा ही है और बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ के सिद्धांत से उलट है.

(साभार : बीबीसी हिंदी)

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