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अफ्स्पा को खत्म कर त्रिपुरा ने जगायी उम्मीद

विवादास्पद अफ्स्पा कानून को हटाने का त्रिपुरा सरकार का निर्णय हिंसा पर शांति तथा उग्रवाद पर राजनीतिक प्रक्रिया की जीत का सकारात्मक संकेत है. त्रिपुरा ने उग्रवादी हिंसा को अफ्स्पा के कारण नहीं, बल्कि जनता तक सरकार की पहुंच के द्वारा काबू किया है. यह निर्णय त्रिपुरा के आत्मविश्वास का प्रमाण भी है. प्रश्न सिर्फ […]

विवादास्पद अफ्स्पा कानून को हटाने का त्रिपुरा सरकार का निर्णय हिंसा पर शांति तथा उग्रवाद पर राजनीतिक प्रक्रिया की जीत का सकारात्मक संकेत है. त्रिपुरा ने उग्रवादी हिंसा को अफ्स्पा के कारण नहीं, बल्कि जनता तक सरकार की पहुंच के द्वारा काबू किया है. यह निर्णय त्रिपुरा के आत्मविश्वास का प्रमाण भी है.
प्रश्न सिर्फ इस कानून के औचित्य का नहीं है, बल्कि हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों के महत्व और राजनीतिक इच्छाशक्ति की क्षमता का है.
जम्मू-कश्मीर और पूवरेत्तर के अन्य राज्यों, जहां अफ्स्पा भी लागू है तथा चुनी हुई सरकारें भी सत्तासीन हैं, के लिए त्रिपुरा एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत है. सरकारें अपनी नीतियों और काम-काज से जन-असंतोष और हिंसा के वातावरण को शांति और विकास की दिशा की ओर उन्मुख कर सकती हैं. प्रस्तुत है अफ्सपा से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर विश्लेषण आज के समय में..
अफ्स्पा : क्या और क्यों
आम्र्ड फोर्सेज (स्पेशल पॉवर्स) एक्ट (अफ्स्पा) भारतीय संसद द्वारा पारित एक कानून है जिसके तहत ‘अशांत क्षेत्रों’ (इस कानून में दी गयी परिभाषा के मुताबिक) में कार्यरत सैन्य बलों को कुछ विशेष अधिकार दिये गये हैं. इस विवादास्पद कानून को संसद ने 11 सितंबर, 1958 को पारित किया था.
पृष्ठभूमि
– वर्ष 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दमन के लिए ब्रिटिश शासन ने 15 अगस्त, 1942 को एक अध्यादेश जारी किया था, जिसमें सैन्य बलों को आंदोलनकारियों के विरुद्ध कार्रवाई के लिए विशेषाधिकार दिये गये थे. वर्ष 1947 में विभाजन के कारण उत्पन्न स्थितियों से निपटने के लिए इसी अध्यादेश के प्रावधानों के अनुरूप चार अलग-अलग अध्यादेश बंगाल, असम, पूर्वी बंगाल और संयुक्त प्रांत में लाये गये थे.
अफ्स्पा कानून, 1958
– भारत की स्वतंत्रता के तीन वर्ष बाद 1951 में नागा नेशनल कौंसिल ने यह घोषणा की कि ‘निष्पक्ष व स्वतंत्र जनमत संग्रह’ में करीब 99 फीसदी नागाओं अलग राष्ट्र के पक्ष में अपनी राय दी है.
नागा क्षेत्रों में पहले 1952 के आम चुनाव का तथा फिर सरकारी कार्यालयों और स्कूलों का बहिष्कार हुआ. स्थिति से निपटने के लिए असम सरकार ने नागा हिल्स के स्वायत्त जिले में कानून-व्यवस्था की बहाली के लिए एक कानून लागूकर विद्रोहियों के खिलाफ पुलिसिया कार्रवाई तेज कर दी, पर स्थिति नियंत्रण में न आ सकी. वर्ष 1955 में असम अशांत क्षेत्र कानून लाकर अर्ध-सैनिक बल असम राइफल्स की तैनाती हुई.
वर्ष 1956 की 23 मार्च को नागा विद्रोहियों ने एक समांतर नागालैंड सरकार की स्थापना की घोषणा कर दी. सरकार के सामने नागा इलाकों में अब सेना की तैनाती के अलावा कोई विकल्प न था. इसलिए तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने 22 मई, 1958 को आम्र्ड फोर्सेस (असम एंड मणिपुर) स्पेशल पॉवर्स अध्यादेश जारी किया. यही अध्यादेश 11 सितंबर, 1958 को संसद में अफ्स्पा कानून (असम एवं मणिपुर) के रूप में पारित किया गया. बाद में इस कानून की परिधि में इन दो राज्यों के अलावा पूवरेत्तर के अन्य राज्यों- मेघालय, नागालैंड, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम- को भी जोड़ा गया तथा मूल कानून से दो राज्यों का उल्लेख हटा दिया गया.
अफ्स्पा कानून (पंजाब एवं चंडीगढ़), 1983
– पंजाब में बढ़ते अलगाववादी हिंसक आंदोलन से निपटने के लिए सेना की तैनाती का रास्ता साफ करते हुए 1983 में केंद्र सरकार द्वारा अफ्स्पा (पंजाब एंड चंडीगढ़) अध्यादेश लाया गया जो छह अक्तूबर को कानून बन गया. इस कानून को 15 अक्तूबर, 1983 को पूरे पंजाब और चंडीगढ़ में लागू कर दिया गया.इस कानून को लगभग 14 वर्षो तक लागू रहने के बाद 1997 में वापस ले लिया गया.
अफ्स्पा कानून (जम्मू-कश्मीर), 1990
– जम्मू-कश्मीर में हिंसक अलगाववाद का सामना करने के लिए सेना को विशेष अधिकार देने की प्रक्रिया में यह कानून लाया गया, जिसे पांच जुलाई, 1990 को पूरे राज्य में लागू कर दिया गया. इस कानून के पारित होने से पहले भी उसी वर्ष एक अध्यादेश जारी किया गया था.
वर्ष 1990 में ही राज्यपाल के शासन के दौरान उनके आदेश से एक अन्य कानून जम्मू-कश्मीर अशांत क्षेत्र कानून लाया गया था, जो 1992 में कानून बन गया. इस कानून को ‘मुद्दे की आपात तात्कालिता के कारण’ जम्मू-कश्मीर कानून से संबंधित संसद की सलाहकार समिति को नहीं भेजा गया था. इस कानून के कथित दुरुपयोग के कारण पैदा हुए व्यापक असंतोष के कारण 1998 में इसका नवीनीकरण नहीं हुआ और यह कानून हट गया.
अशांत क्षेत्र का निर्धारण
– अफ्स्पा कानून का उपबंध तीन किसी राज्य के राज्यपाल या केंद्रशासित प्रदेश के उप-राज्यपाल के यह अधिकार देता है कि वे भारत के गजट में यह घोषणा कर सकते हैं जिसके बाद केंद्र सरकार को यह अधिकार है कि वह नागरिकों की सहायता के लिए सेना भेजे. यह स्पष्ट नहीं है कि राज्यपाल केंद्र को इसके लिए कहना पड़ता है या केंद्र स्वयं ही सेना भेजने का निर्णय लेता है.
अशांत क्षेत्र (विशेष न्यायालय) कानून, 1976 के अनुसार, एक बार अशांत घोषित हो जाने के बाद उक्त क्षेत्र में कम-से-कम तीन महीने तक यथास्थिति बरकरार रखनी होती है. राज्य सरकार की भूमिका इस संदर्भ में यह है कि वह अफ्स्पा लगाने या हटाने के बारे में केंद्र को सुझाव दे सकता है. लेकिन अफ्स्पा कानून के प्रावधानों के अनुसार उस सुझाव को मानने या खारिज करने का अधिकार राज्यपाल या केंद्र सरकार को है.
क्या हैं इसके प्रमुख प्रावधान
– कानून-व्यवस्था बनाये रखने के लिए सेना को गोली चलाने, बिना वारंट गिरफ्तार करने, वाहनों, घरों व ठिकानों की तलाशी लेने का अधिकार
– बिना केंद्र सरकार के अनुमति के इस कानून के तहत काम कर रही टुकड़ी या सैनिक के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई नहीं
– किसी क्षेत्र के अशांत घोषित करने के निर्णय को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है.
अब जरूरत नहीं थी
हम राज्य के अशांत क्षेत्रों की स्थिति की समीक्षा हर छह महीने में करते आये हैं तथा इस मुद्दे पर राज्य पुलिस और राज्य में कार्यरत अन्य सुरक्षा बलों से भी बातचीत होती रही है.
राज्य में उग्रवाद लगभग समाप्त हो गया है. इस कानून (अफ्स्पा) को हटाने की मांग कई स्तरों पर की जाती है. लेकिन पहले हम कोई अंतिम निर्णय नहीं ले सके थे क्योंकि सुरक्षा बलों से हमें सहमति नहीं मिल सकी थी. जब यह कानून लागू हुआ था (16 फरवरी, 1997), तब कुल 42 पुलिस स्टेशन ही थे. अभी इनकी संख्या 74 है जिनमें से 26 स्टेशन पूरी तरह से तथा चार पुलिस स्टेशन आंशिक रूप से इस कानून के तहत थे.
– माणिक सरकार, मुख्यमंत्री, त्रिपुरा
सेना वहीं जायेगी, जहां अफ्स्पा लागू होगा
जम्मू-कश्मीर या किसी अन्य राज्य में आंतरिक सुरक्षा के लिए यदि सेना को तैनात रखना है तो सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून (अफ्स्पा) अनिवार्य है. अफ्स्पा के बारे में फैसला करने का काम मेरे मंत्रलय का नहीं है.
यह बहुत सामान्य बात है कि यदि कानून किसी खास इलाके में लागू है तो सेना वहां सक्रिय रहेगी. ऐसा नहीं है तो सेना अपनी गतिविधियां जारी नहीं रख सकती है. इस संबंध में फैसला गृह मंत्रलय को करना है और हमें बताना है कि हम काम करें या नहीं. यदि उन्हें लगता है कि हमारी जरूरत नहीं है, तो वे वह कर सकते हैं जो वे करना चाहते हैं. लेकिन यदि कानून वहां नहीं रहता है, तो मैं काम करने में सक्षम नहीं रहूंगा.
– मनोहर पर्रिकर, रक्षा मंत्री, भारत सरकार
विवेक और मानवता के लिए जीत
अफ्स्पा हटाने की मेरी गुहार त्रिपुरा में सुनी गयी. अफ्स्पा हटाया गया. यह विवेक और मानवता के लिए एक जीत है. जम्मू-कश्मीर और अन्य राज्यों को त्रिपुरा के निर्णय का अनुसरण करना चाहिए.
– पी चिदंबरम, पूर्व गृहमंत्री, भारत सरकार
लोकतांत्रिक अधिकारों के विरुद्ध कानून
वर्षो से इस कानून के उपयोग और दुरुपयोग से लोकतांत्रिक तथा मानवाधिकारों का हनन हुआ है और स्थानीय लोगों में असंतोष बढ़ा है. स्थिति की मांग के अनुसार केंद्र सरकार को इसकी समीक्षा करनी चाहिए और कानून को हटाया जाना चाहिए. त्रिपुरा ने एकदम उचित कदम उठाया है.
– डी राजा, वरिष्ठ नेता, सीपीआइ
कश्मीरी सत्ताधारियों के लिए बड़ी सीख
त्रिपुरा से अफ्स्पा का हटाया जाना जम्मू-कश्मीर के सत्ताधारी वर्ग के लिए आंख खोलनेवाली परिघटना है, जो राज्य से इस आतातायी कानून को हटाने के बारे में बड़े-बड़े दावे तो जरूर करते हैं, पर वास्तविकता में न तो उनकी कोई दिलचस्पी है और न ही कोई इरादा.
– मीरवाइज उमर फारूक, अलगाववादी हुर्रियत नेता, कश्मीर
व्यावहारिक फैसला
त्रिपुरा सरकार का फैसला व्यावहारिक है, क्योंकि इस उत्तर-पूर्वी राज्य में कुछ समय से शांति बनी हुई है.
– केपीएस गिल, पूर्व पुलिस प्रमुख, पंजाब
कश्मीर से हटे अफ्स्पा
त्रिपुरा और जम्मू-कश्मीर इसी देश के दो राज्य हैं. जम्मू-कश्मीर में हिंसा की घटनाओं में भारी कमी आयी है और इसका रिकॉर्ड त्रिपुरा से बेहतर है. सभ्य समाज में इस कानून की कोई जगह नहीं है और हम इस कानून के हटाये जाने की मांग करते हैं
– जुनैद अजीम मट्टू, प्रवक्ता, नेशनल कॉन्फ्रेंस, जम्मू-कश्मीर
अफ्स्पा हटाना सकारात्मक कदम होगा
जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा की स्थिति में बेहतरी को देखते हुए सकारात्मक कदम उठाये जाने चाहिए. इनमें अफ्स्पा का हटाया जाना भी शामिल है.
– महबूब बेग, मुख्य प्रवक्ता, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, जम्मू-कश्मीर
संविधानसम्मत है यह कानून
अजय साहनी
आंतरिक सुरक्षा मामलों के जानकार
अफ्स्पा के तहत अगर सेना किसी को गिरफ्तार करती है, तो उसे तत्काल स्थानीय पुलिस को सौंप देती है. सेना को सिर्फ कुछ मिनट ही उससे पूछताछ का वक्त मिलता है. इस कानून का विरोध करनेवाले बतायें कि इसका कौन सा प्रावधान गलत है. किसी कानून के दुरुपयोग का यह मतलब नहीं है कि उसे खत्म कर दिया जाये.
हमें ध्यान रखना चाहिए कि सेना विशेष हालात और कानून व्यवस्था के धवस्त होने पर तैनात की जाती है. ऐसे हालात में सेना को विशेष कानूनी अधिकार मिलना चाहिए और अफ्स्पा उग्रवाद ग्रस्त इलाकों में सेना को ऐसा अधिकार प्रदान करता है. इस कानून का विरोध तर्कहीन और तथ्यों से परे है.
आम्र्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट (अफ्स्पा) को लेकर कई संगठन समय-समय पर विरोध दर्ज कराते रहे हैं. त्रिपुरा में इस कानून को हटाने के बाद कई अन्य उपद्रवग्रस्त राज्यों से भी इसे हटाने की मांग होने लगी है. पिछले कुछ समय से त्रिपुरा में हालात बेहतर हुए हैं. वहां मौजूद उग्रवादी संगठनों का प्रभाव कम हो गया है और कानून-व्यवस्था की बहाली पुलिस करने में सक्षम है.
अच्छा है कि हालात सामान्य होने के बाद वहां से इस कानून को हटा दिया गया है. लेकिन उत्तर-पूर्व के अन्य राज्यों और कश्मीर से इस कानून को हटाने का माहौल नहीं बन पाया है. इन राज्यों में अभी भी विदेशी मदद वाले आतंकी संगठन सक्रिय हैं.
इस कानून का विरोध इस आधार पर नहीं किया जा सकता है कि इससे मानवाधिकार का उल्लंघन होता है. ऐसे कई राज्य हैं, जहां यह कानून लागू नहीं है, लेकिन हिरासत में मौतें होती हैं. उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है, जहां सबसे अधिक हिरासत में मौतें होती हैं. इसका अफ्स्पा से कोई वास्ता नहीं है.
मानवाधिकार हनन की बात कर इस कानून को खत्म करने की मांग जायज नहीं है. अगर देश के किसी राज्य में आंतरिक हालात खराब होते हैं और इसके लिए फौज की सहायता लेने की जरूरत पड़ती है, तो अफ्स्पा कानून जरूरी है. फौज बिना विशेष अधिकार के काम नहीं कर सकती है.
मणिपुर में असम राइफल्स के जवानों द्वारा थंगजाम मनोरमा के कथित बलात्कार और फिर हिरासत में मौत के बाद हुए उग्र विरोध प्रदर्शन के मद्देनजर सरकार ने 2004 में जीवन रेड्डी के नेतृत्व में अफ्स्पा कानून की समीक्षा के लिए एक कमिटी का गठन किया था. कमिटी ने सरकार को 6 जून 2005 को अपनी रिपोर्ट सौंप दी, लेकिन अभी तक इसकी सिफारिशों को सार्वजनिक नहीं किया गया है.
अफ्स्पा को लेकर होनेवाली बहसें एकपक्षीय होती हैं. देश के कानून के तहत सुरक्षा बलों को भी मानवाधिकार हनन की इजाजत नहीं है. इसलिए अफ्स्पा के होने या न होने का मानवाधिकार हनन से कोई रिश्ता नहीं है. अफ्स्पा सेना को आंतरिक हालात को बेहतर करने के सीमित अधिकार ही प्रदान करती है. बिना अफ्स्पा के सेना मौजूदा कानूनों के तहत सर्च, गिरफ्तारी जैसे काम नहीं कर सकती है.
कश्मीर में सरकार को तय करना है कि फौज को हटाने का समय है या नहीं. अगर फौज रहेगी तो अफ्स्पा को भी रखना होगा. क्या अगर किसी राज्य में पुलिस कोई गलत काम करती है, तो पूरे पुलिस को हटा देना चाहिए? सवाल कानून के दोष का नहीं है, बल्कि इसका क्रियान्वयन कैसे होता है, यह महत्वपूर्ण है.
राज्यों की पुलिस अफ्स्पा के अंदर नहीं है, लेकिन मानवाधिकार के हनन की बात सामने आती रहती है. जहां फौज की आवश्कता होगी, वहां अफ्स्पा की भी जरूरत होगी. अफ्स्पा कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने इसके सभी प्रावधानों की समीक्षा की है और सही माना है. नागा पीपुल्स मूवमेंट की याचिका पर सुनवाई करते हुए 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को संविधानसम्मत करार दिया था.
आलोचकों का कहना है कि अफ्स्पा की धारा-4 के तहत सेना को बिना वारंट के अधिकार मानवाधिकार के खिलाफ है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि यह अधिकार पुलिस को सीआरपीसी की धारा-41 के तहत मिले अधिकारों जैसा ही है. जबकि अफ्स्पा की धारा-5 में इस अधिकार पर अंकुश भी लगाया गया है और प्रावधान है कि अगर इस कानून के तहत किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है, तो उसे कम से कम समय के भीतर नजदीकी पुलिस स्टेशन के अधिकारी को सौंपना होगा. समय से अधिक हिरासत में रखना, अत्याचार करना इस कानून के दायरे में नहीं आता है.
हालांकि, कुछ लोग दावा करते हैं कि अफ्स्पा की धारा-6 ऐसी कार्रवाई से छूट प्रदान करती है. सुप्रीम कोर्ट ने इसे भी खारिज कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सेना के जवानों पर मुकदमा चलाने के लिए केंद्र की अनुमति वैसी ही है, जैसे सीआरपीसी की धारा-197 के तहत सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति लेनी पड़ती है.
अगर किसी उपद्रवग्रस्त इलाके में सेना की छोटी बटालियन तैनात है और वह जंगल में सर्च ऑपरेशन के लिए जाये और वहां मुठभेड़ की स्थिति पैदा हो जाये, तो क्या वह किसी से अनुमति लेने के बाद गोली चलायेगी?
अफ्स्पा के तहत अगर सेना किसी को गिरफ्तार करती है, तो उसे तत्काल स्थानीय पुलिस को सौंप देती है, यानी सेना को सिर्फ कुछ मिनट ही उससे पूछताछ का वक्त मिलता है. इस कानून का विरोध करनेवाले बतायें कि इसका कौन सा प्रावधान गलत है. किसी कानून के दुरुपयोग का यह मतलब नहीं है कि उसे खत्म ही कर दिया जाये.
किसी गलत हरकत को कानून से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए. हमें ध्यान रखना चाहिए कि सेना विशेष हालात और कानून व्यवस्था के धवस्त होने पर तैनात की जाती है. ऐसे हालात में सेना को विशेष कानूनी अधिकार मिलना चाहिए और अफ्स्पा उग्रवाद ग्रस्त इलाकों में सेना को ऐसा अधिकार प्रदान करता है. इस कानून का विरोध तर्कहीन और तथ्यों से परे है.
(विनय तिवारी से बातचीत पर आधारित)
अफ्स्पा के रहते कैसे होगा लुक ईस्ट!
डॉ संजॉय हजारिका
पूवरेत्तर मामलों के जानकार
एक तरफ सरकार ‘लुक ईस्ट’ और ‘एक्ट ईस्ट’ जैसी महत्वकांक्षी पॉलिसी की बात करती है, लेकिन दूसरी तरफ आप इन इलाकों में अफ्स्पा जैसे कानून को लागू रखते हैं. इससे साफ संकेत मिलता है कि ये इलाके उग्रवाद या आंतरिक विद्रोह से प्रभावित इलाके हैं.
ऐसे में यदि आप कोई भी पॉलिसी बनाते हैं, जिसके जरिये इन इलाकों का विकास करना है, लोगों को रोजगार देना है, पर्यटन को बढ़ावा देना है, विदेशी निवेश बढ़ाना है, तो कोई भी निवेशक या पर्यटक उन इलाकों में क्यों जाना चाहेगा, जिसमें अफ्स्पा जैसे कानून लागू हैं, और उग्रवाद प्रभावित इलाका है. इसलिए सरकार खुद ही विरोधाभासी संकेत दे रही है.
आम्र्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट (अफ्स्पा) को हटाने की मांग काफी पुरानी है. केवल राज्य सरकार ही नहीं, बल्कि कई मानवाधिकार संगठन भी लगातार इसको हटाने की मांग करते रहे हैं.
केंद्र सरकार ने सिर्फ त्रिपुरा से इस प्रावधान को हटाने का फैसला लिया है, जबकि बाकी के उत्तर पूर्व के राज्यों- असम, मणिपुर, नगालैंड आदि क्षेत्रों से भी इस प्रावधान को हटाया जाना चाहिए. हाल के दिनों में त्रिपुरा ट्राइबल ऑटोनोमस काउंसिल के तहत चुनाव सही तरीके से संचालित हो गया. इससे साफ जाहिर होता है कि त्रिपुरा अब डिस्टर्ब इलाका नहीं है.
ज्यादातर हथियार बंद समूह और उग्रवादियों के कैंप बंग्लादेश से संचालित होते थे. उन्हें वहां समर्थन नहीं मिल रहा है और न ही उन्हें आम जनता का समर्थन है, ऐसे में न तो अफ्स्पा की जरूरत है और न ही इस इलाके में आर्मी की.
सिर्फ त्रिपुरा में ही नहीं, बल्कि उत्तर-पूर्व के ज्यादातर इलाकों में यह एक्ट पिछले 50 साल से चल रहा है, जिसकी जरूरत अब नहीं है.
यदि कुछेक समस्या है भी, तो कानून व्यवस्था की है, जिसे पुलिस वाले आसानी से हैंडल कर सकते हैं. यह कानून उस दौर में लागू किया गया था, जब नागा मूवमेंट और अन्य दूसरे तरह के मूवमेंट, जिसे कथित तौर पर बाहर के देशों का समर्थन प्राप्त था, को देखते हुए लागू किया गया था. 50 साल में स्थिति काफी बदल गयी है. अफ्स्पा की जरूरत न के बराबर है. ज्यादातर उग्रवादी संगठन जनता के समर्थन नहीं है. लोग लोकतांत्रिक परंपराओं में भरोसा करने वाले हैं और चुनावी प्रक्रिया के जरिए मुख्य धारा में शामिल हैं. ऐसे में सरकार को आसाम, नागालैंड, मणिपुर आदि राज्यों में संवाद के जरिये समस्या हल करने की दिशा में बढ़ना चाहिए. न कि अफ्स्पा जैसे कानूनों के जरिये लोगों का दमन करे.
यह सवाल अक्सर उठता है कि आखिर अफ्स्पा का विरोध क्यों है, और इस कानून को लेकर मानवाधिकार संगठन सहित आम जनता का विरोध क्यों है. अफ्स्पा में दो क्लॉज ऐसे हैं, जिनका व्यापक विरोध है.
कोई भी सैन्य अधिकारी किसी को मार सकता है. बिना कोई आपराधिक धारा लगाये वह किसी को उठा कर ले गया, लेकिन उस सैन्य अधिकारी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होगी. ऐसे अधिकारी के खिलाफ यदि कोई शिकायत आती है, और उस पर मुकद्दमा चलाना है, तो इसके लिए केंद्र सरकार की अनुमति लेनी होगी. लेकिन पिछले 50 साल में कोई ऐसा मामला नहीं सामने आया है, जिसमें केंद्र सरकार द्वारा अनुमति दी गयी है. इस तरह से देखें तो सैन्य अधिकारियों को एक तरह विशेषाधिकार दे दिया गया है ज्यादती करने का. मानवाधिकार उल्लंघन और आम जनता के साथ ज्यादती के अनगिनत मामले सामने आये हैं, कई आरोप लगे हैं, बावजूद इसके जब सरकार की तरफ से कोई कार्रवाई नहीं होती, तो लोगों का अपनी सरकार के प्रति अविश्वास पैदा होता है.
यह किसी से छिपा नहीं है और ऐसी खबरें पूरे उत्तर पूर्व क्षेत्र से लगातार आती रही हैं कि सेना ने गांव को जला दिया. महिलाओं के साथ छेड़छाड़, बलात्कार की खबरों, महिलाओं और बच्चों पर सैन्य अत्याचार की खबरों को कोई भी सभ्य समाज सही नहीं ठहरा सकता. इरोम शर्मिला पिछले 15 वर्षो से इस कानून को हटाने की मांग को लेकर भूख हड़ताल पर हैं.
सरकार ने वर्ष 2004 में जीवन रेड्डी के नेतृत्व में अफ्स्पा कानून की समीक्षा के लिए एक कमिटी का गठन किया था. इस कमिटी में सदस्य के रूप में मैं भी शामिल था. जस्टिस रेड्डी ने इस कानून के विषय में कहा है कि यह अपने ही लोगों के शोषण और पीड़ितों पर एक तरह का अत्याचार का कानून है. जस्टिस रेड्डी ने सरकार को 6 जून, 2005 को अपनी रिपोर्ट सौंप दी, लेकिन अभी तक इसकी सिफारिशों को सार्वजनिक नहीं किया गया है. आज पूर्व गृहमंत्री चिदंबरम कह रहे हैं कि वे भी इस कानून को वापस लेना चहते थे.
इसकी कोई जरूरत नहीं है, लेकिन ये सब लोग केवल पूर्वोत्तर की जनता को बरगला रहे हैं. न तो केंद्रीय गृह मंत्रलय इस कानून को वापस लेना चाहता है और न सेना. अभी सैन्य प्रमुख का बयान आया है कि इस कानून को हटाने से सेना के काम में बाधा होगी. जबकि सच्चाई यही है कि इन इलाकों में सेना को करने लायक कोई काम नहीं रह गया है. जो भी करना है वो स्थानीय पुलिस को करना है, जिस पर कानून एवं व्यवस्था को पुख्ता करने की जिम्मेवारी है. यदि कोई समस्या है भी तो इसे बातचीत के जरिये सुलझाएं, अफ्स्पा के जरिये लोगों के लोकतांत्रिक और मानवाधिकार का हनन न करें.
एक और गौर करनेवाली बात है, एक तरफ सरकार लुक ईस्ट और एक्ट ईस्ट जैसी महत्वकांक्षी पॉलिसी की बात करती है, लेकिन दूसरी तरफ आप इन इलाकों में अफ्स्पा जैसे कानून को लागू रखते हैं. इससे साफ संकेत मिलता है कि ये इलाके उग्रवाद या आंतरिक विद्रोह से प्रभावित इलाके हैं.
ऐसे में यदि आप कोई भी पॉलिसी बनाते हैं, जिसके जरिये इन इलाकों का विकास करना है, लोगों को रोजगार देना है, पर्यटन को बढ़ावा देना है, विदेशी निवेश बढ़ाना है, तो कोई भी निवेशक या पर्यटक उन इलाकों में क्यों जाना चाहेगा, जिसमें अफ्स्पा जैसे कानून लागू हैं, और उग्रवाद प्रभावित इलाका है. इसलिए सरकार खुद ही विरोधाभाषी संकेत दे रही है.
(संतोष कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)

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