पूंजीपतियों के लिए बदला जा रहा भूमि कानून

वामपंथी दल सजग विपक्ष की भूमिका निभाने के लिए जाने जाते हैं. आर्थिक उदारीकरण के बाद, जिस तरह देश की नीतियों का झुकाव लोक से ज्यादा उद्योग और व्यापार के पक्ष में हुआ है, उसमें वाम दल एक संतुलनकारी भूमिका निभाते हैं. जब सारी चर्चा जीडीपी पर सिमट गयी है, तब वह बार-बार याद दिलाते […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 1, 2015 9:00 AM
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वामपंथी दल सजग विपक्ष की भूमिका निभाने के लिए जाने जाते हैं. आर्थिक उदारीकरण के बाद, जिस तरह देश की नीतियों का झुकाव लोक से ज्यादा उद्योग और व्यापार के पक्ष में हुआ है, उसमें वाम दल एक संतुलनकारी भूमिका निभाते हैं. जब सारी चर्चा जीडीपी पर सिमट गयी है, तब वह बार-बार याद दिलाते रहते हैं कि मजदूरों और किसानों के लिए सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है. वाम दल सांप्रदायिक शक्तियों को रोकने के नाम पर समय-समय पर कांग्रेस के साथ खड़े हुए हैं, पर तीसरे मोरचे की कोशिश उन्होंने छोड़ी नहीं है.
अब मोदी सरकार ने एक साल पूरा कर लिया है. भाकपा महासचिव सुधाकर रेड्डी से प्रभात खबर संवाददाता विनय तिवारी ने बातचीत करके इस सरकार के बारे में राय व वामपंथी दलों की आगे की रणनीति जानने-समझने की कोशिश की.मोदी सरकार ने एक साल पूरा किया है. उसका एक साल का कामकाज कैसा रहा है?
मोदी सरकार को लेकर पहले से ही हम लोगों को कुछ आशंकाएं थीं. भाजपा का सिद्धांत, विचार और राजनीति दक्षिणपंथी रही है. मोदी सरकार के एक साल के कार्यकाल पर निगाह डालें तो उसका प्रदर्शन हर मोरचे पर निराशाजनक रहा है. हमारी उम्मीद से भी ज्यादा, यह सरकार कॉरपोरेट को लाभ पहुंचाने के लिए काम कर रही है. मोदी सरकार सार्वजनिक उपक्रमों को कमजोर करने की कोशिश कर रही है. सार्वजनिक उपक्रम लोगों की ओर से सरकार चलाती है. देश के विकास में निजी क्षेत्र और कॉरपोरेट की भी अपनी भूमिका है.
बजट में मोदी सरकार ने कॉरपोरेट टैक्स कम कर इन्हें 6 लाख करोड़ रुपये का फायदा पहुंचाया है. इसके अलावा आयकर के सबसे ऊंचे स्तर में 5 फीसदी कमी कर दी. इससे निश्चित तौर पर देश के अमीर लोगों को फायदा होगा. यही नहीं अमीरों को लाभ पहुंचाने के लिए मोदी सरकार ने वेल्थ टैक्स को खत्म कर दिया. भारत में 73 फीसदी संपत्ति सिर्फ 10 फीसदी लोगों के हाथों में सीमित है और 42 फीसदी सिर्फ एक फीसदी के हाथ में हैं.
आम करदाताओं को लाभ पहुंचाने के लिए आयकर के निचले स्तर में कोई कमी नहीं की गयी. सरकार सार्वजनिक उपक्रमों में 25 हजार करोड़ रुपये का विनिवेश कर रही है. इसके अलावा कंपनियों के लिए श्रम सुधार और भूमि अधिग्रहण कानून को बदलने पर उतारू है.
वामपंथी दलों का आरोप है कि मोदी सरकार किसानों के लिए कुछ नहीं कर रही है, जबकि सरकार का कहना है कि कृषि की मौजूदा समस्या पुरानी है और किसानों को राहत पहुंचाने के लिए केंद्र सरकार ने फसलों की बर्बादी के लिए मानकों में बदलाव किया है और 33 फीसदी फसल बर्बाद होने पर भी किसानों को सरकार मुआवजा देगी. आखिर कृषि क्षेत्र की मौजूदा समस्या से निबटने का उपाय क्या है?
देश में 31 करोड़ हेक्टेयेर कृषि योग्य भूमि में से 25 लाख हेक्टेयर एयरपोर्ट, सड़क, रेलवे लाइन, उद्योग और अन्य कामों के लिए चली गयी. कृषि योग्य भूमि कम होने से देश की खाद्य सुरक्षा पर भी सवाल खड़ा हो गया है.
ऊपर से बेमौसम बारिश के कारण फसलों को काफी नुकसान हुआ और सरकार ने कोई मदद नहीं की. मोदी सरकार ने चुनाव के दौरान कहा था कि वह स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश को लागू करेगी. कृषि योग्य भूमि में कमी और बुनियादी सुविधाओं जैसे सिंचाई, खाद, बीज की उपलब्धता में देरी के कारण खेती करना मुश्किल होता जा रहा है. डीजल और खाद की बढ़ती कीमतों से कृषि करना फायदेमंद नहीं रह गया है. साथ ही मौसम की मार किसानों की कमर तोड़ रही है और वे आत्महत्या जैसे कदम उठा रहे हैं.
भूमि अधिग्रहण करने के बजाय सरकार को सिंचाई सुविधा का विस्तार करना चाहिए. खेती को लाभप्रद बनाने के लिए आधुनिक तकनीक का प्रयोग किया जाना चाहिए. वर्षा जल के संचयन की भी व्यवस्था की जानी चाहिए. सरकार को हर किसान के लिए एक पंप और मुफ्त बिजली की सुविधा देने की कोशिश करनी चाहिए. आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु जैसे राज्यों में ऐसी व्यवस्था है. छोटे और सीमांत किसानों के लिए मुफ्त बिजली की व्यवस्था काफी जरूरी है. महंगाई के लिहाज से फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया जाना चाहिए और साथ ही खाद, बीज की अबाध आपूर्ति की व्यवस्था की जानी चाहिए.
फसलों की बर्बादी होने पर किसानों को सरकारी मदद तत्काल मिले, ऐसी व्यवस्था हो. हमारी मांग है कि आत्महत्या करने वाले किसान परिवारों को सरकार 5 लाख रुपये की मुआवजा राशि मुहैया कराये. देखा जाता है कि आलू का अधिक उत्पादन होने पर उसकी कीमत कम हो जाती है और किसान को लागत मूल्य भी नहीं मिल पाता है.
इसके लिए कोल्ड स्टोरेज की व्यवस्था की जानी चाहिए. लेकिन सरकार दीर्घकालिक नीति बनाने की बजाय तात्कालिक कदम उठा रही है. मोदी सरकार द्वारा फसलों की खरीद के मानक में बदलाव से आम किसानों को लाभ नहीं मिला है, क्योंकि उनकी पहुंच मंडियों तक नहीं है. मुआवजे की रकम भी किसानों को नहीं मिल पा रही है.
कृषि की बजाय मोदी सरकार का ध्यान उद्योग पर अधिक है. बिना कृषि के विकास के देश के विकास की कल्पना नहीं की जा सकती है.
सरकार का कहना है कि कृषि और ग्रामीण विकास को बढ़ावा देने के लिए ही भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव किया जा रहा है. बिना जमीन के सिंचाई सुविधा और ग्रामीण इंफ्रास्ट्रर का विकास संभव नहीं है. ऐसे में भूमि अधिग्रहण कानून का विरोध कितना जायज है?
सरकार कृषि और ग्रामीण विकास की आड़ लेकर भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव कर बड़े उद्योगपतियों को जमीन देना चाहती है. देश में किसानों के पास औसत जमीन की उपलब्धता देखें तो यह 2.5 एकड़ है. भूमि अधिग्रहण से गरीब और छोटे किसानों को नुकसान होगा.
1991 में आर्थिक उदारीकरण के बाद कृषि संकट बढ़ा है. देश में लगभग 3 करोड़ एकड़ जमीन बेकार पड़ी है. ऐसे में सरकार को कृषि योग्य भूमि की बजाय इसका प्रयोग करना चाहिए.
यही नहीं लगभग एक करोड़ एकड़ जमीन सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के पास है. अगर सरकार को उद्योग लगाने हैं तो इन जमीनों का प्रयोग किया जा सकता है. लेकिन बेकार पड़ी जमीनों की बजाय सरकार किसानों की जमीन बिल्डरों और उद्योगपतियों को देने के लिए भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव करने पर अड़ी हुई है. किसान से लेकर वामपंथी दल तक इसे लेकर विरोध कर रहे हैं. किसी भी देश में निजी क्षेत्र के लिए सरकारें जमीन अधिग्रहण नहीं करती हैं, फिर भारत में इसकी क्या जरूरत है?
कृषि योग्य जमीन के अधिग्रहण से एक पूरे परिवार की आजीविका पर असर पड़ता है. मुआवजे की राशि बढ़ाने से किसानों को लाभ नहीं मिलेगा. आखिर क्या वजह है कि जब सर्वसम्मति से 2013 में भूमि अधिग्रहण कानून को पारित किया गया, तो इतनी जल्दी बदलाव करने की कोशिश की जा रही है? सामाजिक असर के आकलन से सरकार को क्या परेशानी है?
सरकारी उपक्रमों के विकास के लिए जमीन अधिग्रहण से किसी को ऐतराज नहीं है, लेकिन निजी क्षेत्र के लिए सरकार को जमीन अधिग्रहण नहीं करना चाहिए. देखा गया है कि निजी क्षेत्र जरूरत से अधिक जमीन पर कब्जा कर लेते हैं और बाद में उसे कई गुना अधिक कीमत पर बेच देते हैं. इस व्यवस्था में बदलाव बहुत आवश्यक है. वामपंथी दल सरकार की इस जनविरोधी नीति का सड़क से लेकर संसद तक विरोध करते रहेंगे.
प्रधानमंत्री मोदी ‘सबका साथ, सबका विकास’ की बात करते रहे हैं. कई मंचों से उन्होंने देश के सभी धर्मो के अधिकारों की रक्षा की बात भी दोहरायी है. ऐसे में सांप्रदायिक राजनीति को बढ़ावा देने का आरोप कितना सही है?
प्रधानमंत्री भले ‘सबका साथ, सबका विकास’ की बात करें. लेकिन भाजपा सांसद और संघ से जुड़े संतों और साध्वियों के बयान देश में सांप्रदायिक माहौल खराब कर रहे हैं. इन तत्वों पर कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है.
हिंदुत्ववादी ताकतें महात्मा गांधी की छवि खराब कर नाथूराम गोडसे को महिमामंडित करने की कोशिश कर रही हैं. भड़काऊ बयानों से अल्पसंख्यकों के मन में भय पैदा किया जा रहा है. भारत में सभी धर्मो के लोगों को अपने धर्म का पालन करने की आजादी संविधान देता है. लेकिन सरकार लोगों के खान-पान की आदतों को भी बदलने की कोशिश कर रही है. इतिहास को बदलने के लिए प्रयास किया जा रहा है.
हिंदुत्ववादी संगठन देश में लव जिहाद, चर्च पर हमले कर अल्पसंख्यकों के मन में भय पैदा कर सांप्रदायिक राजनीति को बढ़ाने के एजेंडे पर काम कर रहे हैं. सरकार के मंत्री कहते हैं कि जिन्हें गोमांस खाना है वे पाकिस्तान चले जायें. ऐसे बयानों के संदर्भ में सबका साथ, सबका विकास का वादा कितना खरा है, समझा जा सकता है.
प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं कि यह गरीबों को समर्पित सरकार है. गरीबों के लिए जन धन योजना सहित कई योजनाओं की शुरुआत सरकार ने की है. भ्रष्टाचार का एक भी मामला सामने नहीं आया है. ऐसे में इसे कॉरपोरेट समर्थक सरकार कहना कितना सही है?
प्रधानमंत्री अक्सर इसे गरीबों की सरकार कहते रहे हैं.
लेकिन पिछले एक साल में टाटा, अडाणी और इंफोसिस जैसी दस कंपनियों का टर्नओवर 10 लाख करोड़ रुपये बढ़ा है. प्रधानमंत्री ने चुनाव के दौरान 100 दिनों के अंदर काला धन लाने और हर नागरिक के खाते में 15 लाख रुपये जमा करने का वादा किया था. एक साल बीत जाने के बावजूद एक रुपया भी काला धन वापस नहीं आया है. लोगों के खाते में 15 लाख जमा करने की बात अब चुनावी जुमला बताया जा रही है. जहां तक भ्रष्टाचार की बात है, तो मोदी सरकार ने मुख्य सूचना आयुक्त, सीवीसी और लोकपाल की नियुक्ति अभी तक नहीं की है. मोदी एक केंद्रीकृत सरकार चला रहे हैं.
जब तक सूचनाओं का प्रवाह नहीं होगा, भ्रष्टाचार के मामले सामने कैसे आयेंगे? हाल के कई सर्वेक्षणों में अब भी मोदी की लोकप्रियता कायम बतायी गयी है, लेकिन 60 फीसदी लोगों का मानना है कि पहले के मुकाबले भ्रष्टाचार बढ़ा है.
प्रधानमंत्री ने कई देशों को दौरा किया है. उनकी विदेश यात्रओं से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के पक्ष में बने अनुकूल माहौल को खारिज नहीं किया जा सकता है. क्या मौजूदा विदेश नीति से भारत की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छवि में बदलाव आया है?
विदेश नीति के केंद्र बिंदु में अंतरराष्ट्रीय संबंधों में सुधार की कोशिश होनी चाहिए. दूसरा पड़ोसी देशों पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार जैसे देशों के साथ संबंध बेहतर करने का प्रयास किया जाना चाहिए.
तीसरा प्रमुख विषय होता है आयात-निर्यात व निवेश. मोदी के विदेश दौरों में राजनीतिक चर्चा कम और व्यापार पर चर्चा अधिक हुई है. वे विदेश जाकर सिर्फ व्यापार को बढ़ावा दे रहे हैं. नेहरू जब विदेश जाते थे तो राजनीतिक चर्चा करते थे. पंचशील जैसे राजनीतिक समझौते उन्होंने किये, जिससे भारत की वैश्विक स्तर पर एक अलग पहचान बनी. मोदी ने अब तक ऐसा एक भी समझौता नहीं किया है.
वे विदेश दौरे पर 53 दिन पिछले एक साल में बिता चुके हैं, लेकिन भारत के विभिन्न क्षेत्रों में उन्होंने सिर्फ 48 दिन ही गुजारे हैं. उनकी विदेश नीति का मकसद सिर्फ भारत में एफडीआइ लाना है और कॉरपोरेट को जमीन मुहैया कराना है. पाकिस्तान को लेकर मोदी सरकार की नीति अस्पष्ट है. पड़ोसी देशों को लेकर उनका नजरिया स्पष्ट नहीं है.
सभी देशों में एक स्वाभाविक लगाव है. मनमोहन सिंह की तरह मोदी भी परमाणु करार को बढ़ावा देने की कोशिश कर रहे हैं. द्विपक्षीय संबंधों को आगे बढ़ाने के लिए सेमिनार किया जाता है ताकि एक समझ विकसित हो सके. लेकिन मोदी विदेश दौरों से अपनी छवि को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चमकाने की कोशिश कर रहे हैं.
पिछले कुछ सालों से वामपंथी पार्टियां कमजोर हुई हैं. संसदीय चुनाव में भी उनका प्रदर्शन काफी निराशाजनक रहा. वामपंथी पार्टियों के कमजोर होने की क्या वजहें रही हैं?
इसके कई कारण है.
पहला प्रमुख कारण है देश में जातिगत और धार्मिक आधार वाली पार्टियों का उभार. जातिगत और धार्मिक पार्टियों के वादे लोगों को आकर्षित करते हैं. इससे वामपंथ कमजोर हुआ. कुछ हमारी भी कमियां रही हैं. अपनी कमियों की ओर हमने समय रहते ध्यान नहीं दिया. इसके अलावा मौजूदा चुनाव प्रणाली की भी खामियां हैं. भाजपा 31 फीसदी वोट पाकर 52 फीसदी सीटें हासिल कर केंद्र की सत्ता पर काबिज हो गयी. राज्यों में भी 28-30 फीसदी वोट पाने वाली पार्टी सत्ता में आ जाती है. इसके अलावा मौजूदा चुनाव प्रणाली काफी खर्चीली हो गयी है. धनबल का प्रयोग काफी बढ़ गया है.
वामपंथी पार्टियों के पास धनबल नहीं है. इसके अलावा वामपंथी पार्टियों ने जनहित को लेकर आंदोलन कम कर दिया है और संसदीय प्रणाली की ओर झुकाव अधिक हो गया. इसके लिए हमने लोगों को नये सिरे से जोड़ने का निर्णय लिया है और जमीनी स्तर पर पार्टी के विचार को ले जा रहे हैं.
आंदोलन की रूपरेखा तय की जा रही है. पार्टी का आधार बढ़ाने के लिए नये लोगों को जोड़ा जा रहा है. युवाओं को पार्टी से जोड़ने के प्रयास किये जा रहे हैं. हम एक बार फिर सक्रियता से जमीन से जुड़ कर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि गरीबों, मजदूरों, दलितों और आदिवासियों के हक की लड़ाई मजबूती से लड़ सकें.
भाजपा को रोकने के लिए जनता पार्टियों के विभिन्न धड़ों में एका की कोशिशें हो रही हैं. क्या वामपंथी पार्टियों के बीच विलय की कोई संभावना है? क्या देश में भाजपा और कांग्रेस से अलग एक तीसरे मोरचे को बनाने की कोशिश वामपंथी दल करेंगे?
अच्छी बात है कि भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति को रोकने के लिए एकता की कोशिश की जा रही है.
लेकिन वामपंथी दलों में विलय पर बात नहीं हो रही, बल्कि सभी वाम दलों के बीच एकता का प्रस्ताव है. इसमें समय लगेगा. हम सब मिलकर चुनाव लड़ते रहे हैं और आने वाले समय में भी भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति को रोकने के लिए वामपंथी दल एकजुट होकर लोकतांत्रिक पार्टियों के साथ मिल कर काम करने की कोशिश करेंगे.
वामपंथी दल धर्मनिरपेक्षता के लिए एक व्यापक प्लेटफार्म बना कर लड़ने के लिए तैयार हैं. भाजपा और कांग्रेस एक सिक्के के दो पहलू हैं. दोनों पार्टियों की आर्थिक नीतियों में कोई फर्क नहीं है. लेकिन कांग्रेस के मुकाबले भाजपा सांप्रदायिक पार्टी है. हमारी कोशिश है कि समान विचारवाले दल एक मंच पर आयें. लेकिन अभी तीसरे मोरचे की कोई संभावना नहीं है.
क्योंकि क्षेत्रीय पार्टियां अवसरवादी होती हैं. ये पार्टियां अपने फायदे के लिए कभी भाजपा के साथ हो जाती है तो कभी कांग्रेस के साथ. पश्चिम बंगाल में ममता की पार्टी तृणमूल कांग्रेस वामपंथ की विरोधी है. ऐसे में तीसरे मोरचे की अभी संभावना नहीं दिखती है. लेकिन अगर वामपंथी पार्टी मजबूत हुई तो कई पार्टियां भी साथ आ जायेंगी. देश में काग्रेस और भाजपा से इतर लोग एक विकल्प चाहते हैं.
बिहार में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. क्या वामपंथी पार्टियां राजद-जदयू गंठबंधन के साथ मिल कर चुनाव लड़ेंगी या अकेले?
सीपीआइ और सीपीएम मिल कर चुनाव लड़ेंगी. पिछले चुनाव में भी हम मिलकर लड़े थे. बिहार में सीपीआइ (एमएल) के साथ समस्या है. लेकिन उसे भी साथ लाने की कोशिश की जायेगी. चुनाव में साथ नहीं आये, तो भी आंदोलन में हम सब साथ रहेंगे. बिहार में एक समस्या है. भाजपा को हराने के लिए एक व्यापक गंठबंधन बनाने की बात की जा रही है.
विधान परिषद के चुनाव में हमारे बीच समझौता हुआ है और उम्मीद है कि विधानसभा चुनाव में भी साथ मिल कर लड़ने की कोशिश की जायेगी. भाजपा को हराने के लिए एक मोरचा होना चाहिए. लेकिन प्रस्ताव उनकी (राजद-जदयू की) तरफ से आना चाहिए और अगर कांग्रेस उस मोरचे में रहेगी तो वामपंथी दल उसका हिस्सा नहीं बनेगे. बिहार में वामपंथी पार्टियों का मजबूत आधार रहा है. हम सब मिल कर अपने आधार को वापस पाने की कोशिश करेगे.
वैश्विक परिदृश्य में वामपंथ की क्या भूमिका देखते हैं? लैटिन अमेरिका से लेकर यूरोपीय देशों तक में वापमंथी दलों के प्रति लोगों का रुझान बढ़ने की क्या वजह है?
यह सही है कि 1990 में समाजवाद के कमजोर होने के बाद एक बार फिर वामपंथ के प्रति लोगों का रुझान बढ़ रहा है. विचार को लेकर सभी वामपंथी देशों के प्रति एक झुकाव होता है.
अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वामपंथी दलों की बैठकों भी नहीं होती हैं. लैटिन अमेरिकी देशों चिली, वेनेजुएला, बोलिविया जैसे देशों में वामपंथी सरकार एक अलग आर्थिक व्यवस्था बनाने की कोशिश में लगी हुई है और जनकल्याण के काम कर लोगों की परेशानी दूर करने में सफल हो रही हैं. लोगों को बुनियादी सुविधाएं मुहैया करायी जा रही हैं. ग्रीस में हुए चुनाव में वामपंथी पार्टी की जीत हुई है. स्पेन के स्थानीय निकाय के चुनाव में भी वामपंथी रुझान वाले दल को जीत मिली है. फ्रांस में वामपंथी पार्टी काफी मजबूत है. विश्व के कई देशों में आर्थिक संकट बढ़ रहा है. सरकारों की नीतियों से लोगों में नाराजगी बढ़ रही है.
इस स्थिति का फायदा दक्षिणपंथी भी उठाने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन आज के माहौल में वैश्विक स्तर पर वामपंथ के प्रति लोगों का रुझान बढ़ रहा है. पूंजीवादी नीतियों के कारण लोगों की समस्या बढ़ती जा रही है. समाज में असमानता बढ़ रही है और वामपंथी नीतियों से ही इसे दूर किया जा सकता है.
साम्राज्यवाद और नव आर्थिक उदारवाद के खिलाफ सभी देशों के वामपंथी दलों के विचार लगभग समान है.कल पढ़िए जदयू के वरिष्ठ नेता और बिहार के सूचना एवं जन संपर्क मंत्री विजय कुमार चौधरी से खास बातचीत
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